श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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छोडहु कपटु होइ निरवैरा सो प्रभु संगि निहारे ॥ सचु धनु वणजहु सचु धनु संचहु कबहू न आवहु हारे ॥१॥

पद्अर्थ: कपटु = ठगी, फरेब। होइ = हो के। सो प्रभु = वह प्रभु! संगि = (सब जीवों के) साथ। निहारे = देखता है। सचु = सदा कायम रहने वाला। वणजहु = वणज करो। संचहु = इकट्ठा करो। हारे = हार के।1।

अर्थ: हे भाई! (अपने अंदर से) निर्वैर हो के (दूसरों के साथ) ठगी करनी छोड़ो, वह परमात्मा (तुम्हारे) साथ (बसता हुआ, तुम्हारे हरेक काम को) देख रहा है। सदा कायम रहने वाले धन का व्यापार करो, सदा कायम रहने वाला धन एकत्र करो। कभी भी जीवन बाजी हार के नहीं आओगे।1।

खात खरचत किछु निखुटत नाही अगनत भरे भंडारे ॥ कहु नानक सोभा संगि जावहु पारब्रहम कै दुआरे ॥२॥५७॥८०॥

पद्अर्थ: खात = खाते हुए। खरचत = खर्चते हुए, और लोगों को बाँटते हुए। निखुटत नाही = खत्म नहीं होता। संगि = साथ। कै दुआरे = के दर पर।2।

अर्थ: हे भाई! (प्रभु के दर पर नाम-धन के) अनगिनत खजाने भरे हुए हैं, इसको स्वयं इस्तेमाल करने से व और लोगों को इस्तेमाल करवाने से कोई कमी नहीं आती। हे नानक! कह: (हे भाई!) (नाम-धन कमा के) परमात्मा के दर पर इज्जत के साथ जाओगे।5।57।80।

सारग महला ५ ॥ प्रभ जी मोहि कवनु अनाथु बिचारा ॥ कवन मूल ते मानुखु करिआ इहु परतापु तुहारा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! मोहि = मैं। मोहि कवनु = मैं कौन हँ? मेरी कोई बिसात नहीं। अनाथु = यतीमं ते = से। मूल = आदि। करिआ = बनाया। तुहारा = तुम्हारा।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्रभु जी! (तेरी मेहर के बिना) मेरी कोई बिसात नहीं, मैं तो बेचारा अनाथ ही हूँ। किस मूल से (एक बूँद से) तूने मुझे मनुष्य बना दिया, यह तेरा ही प्रताप है।1। रहाउ।

जीअ प्राण सरब के दाते गुण कहे न जाहि अपारा ॥ सभ के प्रीतम स्रब प्रतिपालक सरब घटां आधारा ॥१॥

पद्अर्थ: जीअ = जिंद। दाते = हे देने वाले! अपारा = अ+पार, बेअंत। प्रीतम = हे प्रीतम! स्रब प्रतिपालक = हे सबकी पालना करने वाले! घटां = शरीरों का। आधारा = आसरा।1।

अर्थ: हे जिंद देने वाले! हे प्राण दाते! हे सब पदार्थ देने वाले! तेरे गुण बेअंत हैं, बयान नहीं किए जा सकते। हे सब जीवों के प्व्यारे! हे सबके पालनहार! तू सब शरीरों को आसरा देता है।1।

कोइ न जाणै तुमरी गति मिति आपहि एक पसारा ॥ साध नाव बैठावहु नानक भव सागरु पारि उतारा ॥२॥५८॥८१॥

पद्अर्थ: गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। मिति = माप। तुमरी गति मिति = तू कैसा है और कितना बड़ा है, ये बात। आपहि = तू स्वयं ही। पसारा = जगत खिलारा। नाव = बेड़ी। भव सागरु = संसार समुंदर।2।

अर्थ: हे प्रभु! तू कैसा है और कितना बड़ा है; कोई जीव यह नहीं जान सकता। तू स्वयं इस जगत-पसारे को पसारने वाला है। हे नानक! (कह: हे प्रभु!) मुझे साधु-संगत की बेड़ी में बैठा और संसार-समुंदर से पार लंघा दे।2।58।81।

सारग महला ५ ॥ आवै राम सरणि वडभागी ॥ एकस बिनु किछु होरु न जाणै अवरि उपाव तिआगी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: वडभागी = बड़े भाग्यों वाला मनुष्य (ही)। किछु होरु = कोई और (उपाय)। अवरि = और (बहुवचन)। उपाव = उपाय, प्रयत्न। अवरि उपाव = और उपाय। तिआगी = छोड़ देता है।1। रहाउ।

नोट: ‘उपाव’ है ‘उपाउ’ का बहुवचन।

अर्थ: हे भाई! कोई बड़े भाग्यों वाला मनुष्य ही परमात्मा की शरण आता है। एक परमात्मा की शरण के बिना वह मनुष्य कोई और उपाय नहीं जानता। वह और सारे तरीके त्याग देता है।1। रहाउ।

मन बच क्रम आराधै हरि हरि साधसंगि सुखु पाइआ ॥ अनद बिनोद अकथ कथा रसु साचै सहजि समाइआ ॥१॥

पद्अर्थ: बच = वचन। क्रम = कर्म। साध संगि = गुरु की संगति में। अनद बिनोद = आत्मिक आनंद और खुशियां। अकथ = जिसका स्वरूप बयान ना किया जा सके। अकथ कथ रसु = अकथ प्रभु के महिमा का स्वाद। साचै = सदा स्थिर प्रभु में। सहजि = आत्मिक अडोलता में।1।

अर्थ: हे भाई! (प्रभु की शरण आने वाला मनुष्य) अपने से वचन से काम से परमात्मा की ही आराधना करता है। वह गुरु की संगति में टिक के आत्मिक आनंद पाता है। (उसके हृदय में) आत्मिक आनंद व खुशियां बनी रहती हैं। वह अकथ प्रभु की महिमा का स्वाद (लेता रहता है)। वह मनुष्य सदा कायम रहने वाले प्रभु में और आत्मिक अडोलता में लीन रहता है।1।

करि किरपा जो अपुना कीनो ता की ऊतम बाणी ॥ साधसंगि नानक निसतरीऐ जो राते प्रभ निरबाणी ॥२॥५९॥८२॥

पद्अर्थ: करि = कर के। जो = जिस मनुष्य को। ता की = उस मनुष्य की। ऊतम बाणी = ऊँची शोभा। निसतरीऐ = पार लांघा जाता है। जो = जो (संतजन)। निरबाणी = वासना रहित, निर्लिप। राते = रंगे हुए।2।

अर्थ: हे भाई! (प्रभु) मेहर करके जिस मनुष्य को अपना (सेवक) बना लेता है, उसकी ऊँची शोभा होती है। हे नानक! जो साधु-जन निर्लिप प्रभु (के प्रेम-रंग) में रंगे रहते हैं उनकी संगति में (रहने से संसार-समुंदर से) पार लांघा जाता है।2।59।82।

सारग महला ५ ॥ जा ते साधू सरणि गही ॥ सांति सहजु मनि भइओ प्रगासा बिरथा कछु न रही ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जा ते = जब से। साधू = गुरु। गही = (मैंने) पकड़ी है। सहजु = आत्मिक अडोलता। मनि = मन में। प्रगासा = (आत्मिक जीवन की) रोशनी। बिरथा = व्यथा, पीड़ा, दुख दर्द।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! जब से (मैंने) गुरु का पल्ला पकड़ा है, (मेरे) मन में शांति और आत्मिक अडोलता पैदा हो गई है, (मेरे) मन में आत्मिक जीवन का प्रकाश हो गया है, (मेरे मन में) कोई दुख-दरद नहीं रह गया।1। रहाउ।

होहु क्रिपाल नामु देहु अपुना बिनती एह कही ॥ आन बिउहार बिसरे प्रभ सिमरत पाइओ लाभु सही ॥१॥

पद्अर्थ: क्रिपाल = दयावान। कही = कही है। आन = अन्य। बिसरे = भूल गए हैं। सिमरत = स्मरण करते हुए। सही = ठीक, असल।1।

अर्थ: हे भाई! जब से मैं गुरु के दर पर आया हूँ तब से (प्रभु दर पर) यही अरदास करता रहता हूँ- ‘हे प्रभु! दयावान हो, मुझे अपना नाम बख्श’। हे भाई! प्रभु का स्मरण करने से और-और व्यवहारों में मेरा मन खचित नहीं होता (और-और व्यवहार मुझे भूल गए हैं)। मैंने असल कमाई कर ली है।1।

जह ते उपजिओ तही समानो साई बसतु अही ॥ कहु नानक भरमु गुरि खोइओ जोती जोति समही ॥२॥६०॥८३॥

पद्अर्थ: जह ते = जहाँ से, जिस प्रभु से। तही = वहीं। समानो = लीन हो गया। साई = वही (स्त्रीलिंग)। बसत्र = चीज़, नाम पदार्थ। अही = चाही है, तमन्ना रखी है। गुरि = गुरु ने। भरमु = भटकना। खोइओ = दूर कर दी है। जोति = (मेरी) जिंद। जोती = प्रभु की ज्योति में। समही = लीन रहती है।2।

अर्थ: हे नानक! कह: हे भाई! गुरु ने (मेरे मन की) भटकना दूर कर दी है, मेरी जिंद प्रभु की ज्योति में लीन रहती है। जिस प्रभु से ये जिंदड़ी पैदा हुई थी उएसी में टिकी रहती है, मुझे अब यह (नाम-) वस्तु ही अच्छी लगती है।2।60।83।

सारग महला ५ ॥ रसना राम को जसु गाउ ॥ आन सुआद बिसारि सगले भलो नाम सुआउ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: रसना = जीभ से। को = का। जसु = महिमा। गाउ = गाया करो। आन = अन्य। बिसारि = भुला के। नाम सुआउ = नाम का स्वाद।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! (अपनी) जीभ से परमात्मा की महिमा गाया कर। (नाम के बिना) और सारे स्वाद भुला दे, (परमात्मा के) नाम का स्वाद (सब स्वादों से) अच्छा है।1। रहाउ।

चरन कमल बसाइ हिरदै एक सिउ लिव लाउ ॥ साधसंगति होहि निरमलु बहुड़ि जोनि न आउ ॥१॥

पद्अर्थ: बसाइ = टिकाए रख। हिरदै = हृदय में। सिउ = साथ। लिव = लगन। होहि = तू हो जाएगा। निरमलु = पवित्र जीवन वाला। बहुड़ि = बार बार।1।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के सुंदर चरण (अपने) हृदय में टिकाए रख, सिर्फ परमात्मा से तवज्जो जोड़े रख। साधु-संगत में रहके पवित्र जीवन वाला हो जाएगा, बार-बार जूनियों में नहीं आएगा।1।

जीउ प्रान अधारु तेरा तू निथावे थाउ ॥ सासि सासि सम्हालि हरि हरि नानक सद बलि जाउ ॥२॥६१॥८४॥

पद्अर्थ: जीउ = जिंद। अधारु = आसरा। थाउ = जगह, सहारा। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। समालि = संभाल के, याद कर के। सद = सदा। बलि जाउ = मैं सदके जाता हूँ।2।

अर्थ: हे नानक! (कह:) हे हरि! मेरी जिंद और प्राणों को तेरा ही आसरा है, जिसका और कोई सहारा ना हो, तू उसका सहारा है। हे हरि! मैं तो अपनी हरेक सांस के साथ तुझे याद करता हूँ, और तुझ पर से बलिहार जाता हूँ।2।61।84।

सारग महला ५ ॥ बैकुंठ गोबिंद चरन नित धिआउ ॥ मुकति पदारथु साधू संगति अम्रितु हरि का नाउ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: नित = सदा। धिआउ = ध्याऊँ, मैं ध्यान धरता हूँ। साधू संगति = गुरु की संगति। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला जल।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! मैं तो सदा परमात्मा के चरणों का ध्यान धरता हूँ- (यह मेरे लिए) बैकुंठ है। गुरु की संगति में टिके रहना - (मेरे लिए चारों पदार्थों में से श्रेष्ठ) मुक्ति पदार्थ है। परमात्मा का नाम ही (मेरे लिए) आत्मिक जीवन देने वाला जल है।1। रहाउ।

ऊतम कथा सुणीजै स्रवणी मइआ करहु भगवान ॥ आवत जात दोऊ पख पूरन पाईऐ सुख बिस्राम ॥१॥

पद्अर्थ: सुणीजै = सुन सकें। स्रवणी = कानों से। मइआ = दया, मेहर। भगवान = हे भगवान! आवत जात दोऊ पख = पैदा होना और मरना ये दोनों पक्ष। पूरन = पूरे हो जाते हैं, समाप्त हो जाते हैं। सुख बिस्राम = सुखों का ठिकाना।1।

अर्थ: हे भगवान! (मेरे पर) मेहर कर, (ताकि) तेरी उत्तम महिमा कानों से सुनी जा सके। हे भाई! (महिमा की इनायत से) पैदा होना और मरना- ये दोनों पक्ष खत्म हो जाते हैं। सुखों के मूल परमात्मा के साथ मिलाप हो जाता है।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh