श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1221 सोधत सोधत ततु बीचारिओ भगति सरेसट पूरी ॥ कहु नानक इक राम नाम बिनु अवर सगल बिधि ऊरी ॥२॥६२॥८५॥ पद्अर्थ: सोधत सोधत = विचार करते करते। ततु = अस्लियत। सरेसट पूरी = श्रेष्ठ पूर्ण, पूरी तरह से अच्छी। ऊरी = ऊणी, कमी बेशी।2। अर्थ: हे नानक! कह: हे भाई! विचार करते-करते ये अस्लियत मिली है कि परमात्मा की भक्ति ही पूरी तरह से उत्तम (क्रिया) है। परमात्मा के नाम के बिना और हरेक (जीवन-) ढंग अधूरा है।2।62।85। सारग महला ५ ॥ साचे सतिगुरू दातारा ॥ दरसनु देखि सगल दुख नासहि चरन कमल बलिहारा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: साचे = हे सदा कायम रहने वाले! दातारा = हे सब दातें देने वाले! देखि = देख के। सगल = सारे। नासहि = नाश हो जाते हैं। बलिहार = सदके।1। रहाउ। अर्थ: हे सदा कायम रहने वाले! हे सतिगुरु! हे सब दातें देने वाले प्रभु! तेरे दर्शन करके (जीव के) सारे दुख नाश हो जाते हैं। मैं तेरे सुंदर चरणों से सदके जाता हूँ।1। रहाउ। सति परमेसरु सति साध जन निहचलु हरि का नाउ ॥ भगति भावनी पारब्रहम की अबिनासी गुण गाउ ॥१॥ पद्अर्थ: सति = सदा स्थिर। सति = अटल आत्मिक जीवन वाले। साध जन = संत जन। निहचलु = कभी ना डोलने वाला। भावनी = श्रद्धा (से)। अबिनासी गुण = कभी ना नाश होने वाले प्रभु के गुण। गाउ = गाया करो।1। अर्थ: हे भाई! परमेश्वर सदा कायम रहने वाला है, (उसके) संत जन अटल जीवन वाले होते हैं। हे भाई! परमात्मा का नाम अटल रहने वाला है। हे भाई! (पूरी) श्रद्धा से उस परमात्मा की भक्ति करनी चाहिए, उस कभी ना नाश होने वाले प्रभु के गुण गाया करो।1। अगमु अगोचरु मिति नही पाईऐ सगल घटा आधारु ॥ नानक वाहु वाहु कहु ता कउ जा का अंतु न पारु ॥२॥६३॥८६॥ पद्अर्थ: अगमु = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = (अ+गो+चरु) गो = इंद्रिय; चरु = पहुँच) जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं हो सकती। मिति = माप, बड़प्पन का अंदाजा। घट = शरीर। आधारु = आसरा। वाहु वाहु कहु = महिमा करो। ता कउ = उस प्रभु को। जा का = जिस प्रभु का। पारु = परला छोर। वाहु वाह = धन्य धन्य।2। अर्थ: हे नानक! परमात्मा अगम्य (पहुँच से परे) है, उस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं हो सकती। वह कितना बड़ा है; यह अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। वह परमात्मा सारे शरीरों का आसरा है। हे भाई! उस प्रभु की महिमा किया करो, जिसके गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, जिसके गुणों का परला छोर नहीं ढूँढा जा सकता।2।63।86। सारग महला ५ ॥ गुर के चरन बसे मन मेरै ॥ पूरि रहिओ ठाकुरु सभ थाई निकटि बसै सभ नेरै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मन मेरै = मेरे मन में। पूरि रहिओ = व्यापक है। ठाकुरु = मालिक प्रभु। निकटि = नजदीक। सभ नेरे = सबके नजदीक।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! (जब से) गुरु के चरण मेरे मन में बस गए हैं, (मुझे निष्चय हो गया है कि) मालिक-प्रभु हर जगह मौजूद है, (मेरे) नजदीक बस रहा है, सबक पास बस रहा है।1। रहाउ। बंधन तोरि राम लिव लाई संतसंगि बनि आई ॥ जनमु पदारथु भइओ पुनीता इछा सगल पुजाई ॥१॥ पद्अर्थ: बंधन = माया के मोह के फंदे। तोरि = तोड़ के। संत संगि = गुरु के साथ। बनि आई = प्रीत बनी है। जनमु पदारथु = कीमती मनुष्य जनम। पुनीता = पवित्र। इछा सगल = सारी मनोकामनाएं। पुजाई = (गुरु ने) पूरी कर दीं।1। अर्थ: हे भाई! (जब से) गुरु के साथ मुझे प्यार हुआ है (उसने मेरे माया के मोह के) बंधन तोड़ के मेरी तवज्जो परमात्मा के साथ जोड़ दी है, मेरा कीमती मनुष्य जनम पवित्र हो गया है। (गुरु ने) मेरी सारी मनोकामनाएं पूरी कर दी हैं।1। जा कउ क्रिपा करहु प्रभ मेरे सो हरि का जसु गावै ॥ आठ पहर गोबिंद गुन गावै जनु नानकु सद बलि जावै ॥२॥६४॥८७॥ पद्अर्थ: जा कउ = जिस (मनुष्य) पर। प्रभ = हे प्रभु! जसु = महिमा। सद = सदा। बलि जावै = सदके होता है।2। अर्थ: हे मेरे प्रभु! तू जिस मनुष्य पर मेहर करता है, वह, हे हरि! तेरी महिमा के गीत गाता है। हे भाई! जो मनुष्य आठों पहर (हर वक्त) परमात्मा के गुण गाता है, दास नानक उससे सदा कुर्बान जाता है।2।64।87। सारग महला ५ ॥ जीवनु तउ गनीऐ हरि पेखा ॥ करहु क्रिपा प्रीतम मनमोहन फोरि भरम की रेखा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जीवनु = (असल) जिंदगी। तउ = तब (ही)। गनीऐ = समझढी जानी चाहिए। पेखा = (अगर) मैं देख लूँ। प्रीतम = हे प्रीतम! फोरि = तोड़ के। भरम = भटकना। रेखा = (मन पर) लकीर, पिछले संस्कार।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! अगर मैं (इसी मनुष्य जन्म में) परमात्मा के दर्शन कर सकूँ, तब ही (मेरा यह असल मनुष्य) जीवन समझा जा सकता है। हे प्रीतम प्रभु! हे मन को मोह लेने वाले प्रभु! (मेरे मन में से पिछले जन्मों के) भटकना के संस्कार दूर कर।1। रहाउ। कहत सुनत किछु सांति न उपजत बिनु बिसास किआ सेखां ॥ प्रभू तिआगि आन जो चाहत ता कै मुखि लागै कालेखा ॥१॥ पद्अर्थ: कहत सुनत = कहते सुनते। बिसास = श्रद्धा, विश्वास। सेखां = विशेषता, लाभ, गुण। तिआगि = छोड़ के। आन = अन्य (पदार्थ)। ता कै मुखि = उस के मुँह पर। कालेखा = कालिख।1। अर्थ: हे भाई! सिर्फ कहने-सुनने से (मनुष्य के मन में) कोई शांति पैदा नहीं होती। श्रद्धा के बिना (ज़ुबानी कहने-सुनने का) कोई लाभ नहीं होता। जो मनुष्य (ज़बानी तो ज्ञान की बहुत सारी बातें करता है, पर) प्रभु को भुला के और-और (पदार्थों की) तड़प रखता है, उसके माथे पर (माया के मोह की) कालिख लगी रहती है।1। जा कै रासि सरब सुख सुआमी आन न मानत भेखा ॥ नानक दरस मगन मनु मोहिओ पूरन अरथ बिसेखा ॥२॥६५॥८८॥ पद्अर्थ: जा कै = जिसके पल्ले, जिसके हृदय में। रासि = राशि, पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत। सरब सूख = सारे सुख देने वाला। आन भेखा = और (दिखावे के) धार्मिक पहरावे, अन्य भेस। न मानत = नहीं मानता। मगन = मस्त। अरथ = अर्थ, जरूरतें। बिसेखा = विशेष तौर पर, खास।2। अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) जिस मनुष्य के हृदय में सारे सुख देने वाले प्रभु के नाम की संपत्ति है, वह अन्य (दिखावे के) धार्मिक भेखों को नहीं मानता फिरता। वह तो (प्रभु के) दर्शग्न में मस्त रहता है, उसका मन (प्रभु के दर्शनों से) मोहिआ जाता है। (प्रभु की कृपा से) उसकी सारी आवश्यक्ताएं विशेष तौर पर पूरी होती रहती हैं।2।65।88। सारग महला ५ ॥ सिमरन राम को इकु नाम ॥ कलमल दगध होहि खिन अंतरि कोटि दान इसनान ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: इकु = सिर्फ। को = का। कलमल = पाप। दगध होहि = जल जाते हैं (बहुवचन)। कोटि = करोड़ों।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! अगर सिर्फ परमात्मा के नाम का ही स्मरण किया जाए, तो एक छिन में (जीव के सारे) पाप जल जाते हैं (उसको, जैसे) करोड़ों दान और तीर्थ-स्नान (करने का फल मिल गया)।1। रहाउ। आन जंजार ब्रिथा स्रमु घालत बिनु हरि फोकट गिआन ॥ जनम मरन संकट ते छूटै जगदीस भजन सुख धिआन ॥१॥ पद्अर्थ: आन जंजार = अन्य (मायावी) जंजालों के लिए। ब्रिथा = व्यर्थ। स्रमु = श्रम, मेहनत। फोकट = फोके। संकट ते = कष्ट से। जगदीस = जगत का मालिक (जगत+ईश)। धिआन = तवज्जो, ध्यान।1। अर्थ: हे भाई! (अगर मनुष्य माया के ही) और-और जंजालों के लिए व्यर्थ की दौड़-भाग करता रहता है (औक्र हरि-नाम नहीं स्मरण करता, तो) परमात्मा के नाम के बिना (निरी) ज्ञान की बातें सभ फोकी ही हैं। जब मनुष्य परमात्मा के भजन के आनंद में तवज्जो जोड़ता है, तब ही वह जनम-मरण के चक्करों के कष्ट से बचता है।1। तेरी सरनि पूरन सुख सागर करि किरपा देवहु दान ॥ सिमरि सिमरि नानक प्रभ जीवै बिनसि जाइ अभिमान ॥२॥६६॥८९॥ पद्अर्थ: सुख सागर = हे सुखों के समुंदर! करि = कर के। सिमरि = स्मरण करके। प्रभ = हे प्रभु! जीवै = आत्मिक जीवन हासिल करो।2। अर्थ: हे नानक! (कह:) हे सुखों के समुंदर प्रभु! हे पूरन प्रभु! मैं तेरी शरण आया हूँ, मेहर कर के मुझे अपने नाम की दाति दे। तेरा नाम स्मरण कर-कर के आत्मिक जीवन मिलता है, और (मन में से) अहंकार नाश हो जाता है।2।66।89। सारग महला ५ ॥ धूरतु सोई जि धुर कउ लागै ॥ सोई धुरंधरु सोई बसुंधरु हरि एक प्रेम रस पागै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: धूरतु = धूर्त, चतुर। सोई = वही मनुष्य। जि = जो। धुर कउ = सबके मूल के चरणों में। धुरंधरु = भार उठाने वाला, मुखी। बसुंधरु = (वसु = धन) धन धरण करने वाला, धनी। पागै = मस्त रहता है।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! वही मनुष्य (असल) चतुर है जो जगत के मूल-प्रभु के चरणों में जुड़ा रहता है। वही मनुष्य मुखी है वही मनुष्य धनी है, जो सिर्फ परमात्मा के प्यार-रस में मस्त रहता है।1। रहाउ। बलबंच करै न जानै लाभै सो धूरतु नही मूड़्हा ॥ सुआरथु तिआगि असारथि रचिओ नह सिमरै प्रभु रूड़ा ॥१॥ पद्अर्थ: बलबंच = ठगीयां। धूरतु = चतुर। मूढ़ा = मूर्ख। सुआरथु = अपनी (असल) गरज़, मतलब। असारथ = घाटे वाले काम में। रूढ़ा = सुंदर।1। अर्थ: पर, हे भाई! जो मनुष्य (औरों के साथ) ठगीयां मारता है (वह अपना असल) लाभ नहीं समझता, वह चतुर नहीं वह मूर्ख है। वह अपने असल स्वार्थ को छोड़ के घाटे वाले काम में व्यस्त रहता है, (क्योंकि) वह सुंदर प्रभु का नाम नहीं स्मरण करता।1। सोई चतुरु सिआणा पंडितु सो सूरा सो दानां ॥ साधसंगि जिनि हरि हरि जपिओ नानक सो परवाना ॥२॥६७॥९०॥ पद्अर्थ: सूरा = सूरमा। दानां = समझदार (wise)। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। परवाना = स्वीकार।2। अर्थ: हे भाई! वही मनुष्य चतुर और समझदार है, वही मनुष्य पण्डित, शूरवीर और दाना है, जिसने साधु-संगत में टिक के हरि-नाम जपा है। हे नानक! वही मनुष्य (परमात्मा की हजूरी में) स्वीकार होता है।2।67।90। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |