श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1222 सारग महला ५ ॥ हरि हरि संत जना की जीवनि ॥ बिखै रस भोग अम्रित सुख सागर राम नाम रसु पीवनि ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जीवनि = जीवनी, जीवन रहित। बिखै भोग = विषयों के भोग। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाले। पीवनि = पीते हैं।1। नोट: ‘पीवनि’ है वर्तमान काल, अन्नपुरख, बहुवचन। अर्थ: हे भाई! परमात्मा के भक्त आत्मिक जीवन देने वाले सुखों के समुंदर हरि-नाम का रस (सदा) पीते रहते हैं, यही उनके लिए दुनिया वाले विषौ भोगों का स्वाद है; यह ही जिंदगी संत जनों की।1। रहाउ। संचनि राम नाम धनु रतना मन तन भीतरि सीवनि ॥ हरि रंग रांग भए मन लाला राम नाम रस खीवनि ॥१॥ पद्अर्थ: संचनि = इकट्ठा करते हैं। सीवनि = परोते हैं। रांग भए = रंगे जाते हैं। खीवनि = मस्त रहते हैं।1। अर्थ: हे भाई! संत जन परमात्मा का नाम-धन एकत्र करते हैं, नाम-रत्न इकट्ठा करते हैं, और अपने मन में हृदय में (उनको) परो (सिल के) रखते हैं। परमात्मा के नाम-रंग के साथ रंग के उनका मन गाढ़े रंग वाला हुआ रहता है, वे हरि-नाम के रस से मस्त रहते हैं।1। जिउ मीना जल सिउ उरझानो राम नाम संगि लीवनि ॥ नानक संत चात्रिक की निआई हरि बूंद पान सुख थीवनि ॥२॥६८॥९१॥ पद्अर्थ: मीना = मछली। सिउ = से। उरझानो = लिपटी रहती है। संगि = साथ। लीवनि = लिव जोड़े रखते हैं। चात्रिक = पपीहा। निआई = की तरह। पान = पी के। थीवनि = होते हैं।2। अर्थ: हे भाई! जैसे मछली पानी से लिपटी रहती है (पानी के बिना जी नहीं सकती) वैसे ही संत जन हरि-नाम में लीन रहते हैं। हे नानक! संत जन पपीहे की तरह हैं (जैसे पपीहा स्वाति नक्षत्र की बरखा की बूँद पी के तृप्त होता है, वैसे संत जन) परमात्मा के नाम की बूँद पी के सुखी होते हैं।2।68।91। सारग महला ५ ॥ हरि के नामहीन बेताल ॥ जेता करन करावन तेता सभि बंधन जंजाल ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: हीन = बगैर। बेताल = भूतने, भूत प्रेत। जेता = जितना कुछ। सभि = सारे।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम से जो मनुष्य वंचित रहते हैं (आत्मिक-जीवन की कसवटी के अनुसार) वे भूत-प्रेत ही हैं। (ऐसे मनुष्य) जितना कुछ करते हैं और करवाते हैं, उनके सारे काम माया के फंदे माया के जंजाल (बढ़ाते हैं)।1। रहाउ। बिनु प्रभ सेव करत अन सेवा बिरथा काटै काल ॥ जब जमु आइ संघारै प्रानी तब तुमरो कउनु हवाल ॥१॥ पद्अर्थ: अन = अन्य, और (की)। काटै = गुजारता है। काल = (जिंदगी का) समय। संघारै = (जान से) मारता है। प्रानी = हे प्राणी! कउन हवाल = क्या हाल?।1। अर्थ: हे भाई! परमात्मा की भक्ति के बिना और-और की सेवा करते हुए (मनुष्य अपनी जिंदगी का) समय व्यर्थ बिताता है। हे प्राणी! (अगर तू हरि-नाम के बिना ही रहा, तो) जब जमराज आ के मारता है, तब (सोच) तेरा क्या हाल होगा?।1। राखि लेहु दास अपुने कउ सदा सदा किरपाल ॥ सुख निधान नानक प्रभु मेरा साधसंगि धन माल ॥२॥६९॥९२॥ पद्अर्थ: किरपाल = हे कृपालु! सुख निधान = सुखों का खजाना। साधर संगि = साधु-संगत में।2। अर्थ: हे सदा ही दया के श्रोत! अपने दास (नानक) की स्वयं रक्षा कर (और, अपना नाम बख्श)। हे नानक! (कह: हे भाई!) मेरा प्रभु सारे सुखों का खजाना है, उसका नाम-धन साधु-संगत में ही मिलता है।2।69।92। सारग महला ५ ॥ मनि तनि राम को बिउहारु ॥ प्रेम भगति गुन गावन गीधे पोहत नह संसारु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मनि = मन में। तनि = तन में। को = का। बिउहार = आहर। गीधो = गिझे हुए। संसारु = जगत (का मोह)।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों के मन में हृदय में (सदा) परमात्मा का (नाम स्मरण का ही) आहर है, जो मनुष्य प्रभु-प्रेम और हरि-भक्ति (के मतवाले हैं) जो प्रभु के गुण गाने में गिझे (प्रेम से मस्त) हुए हैं, उनको जगत (का मोह) पोह नहीं सकता।1। रहाउ। स्रवणी कीरतनु सिमरनु सुआमी इहु साध को आचारु ॥ चरन कमल असथिति रिद अंतरि पूजा प्रान को आधारु ॥१॥ पद्अर्थ: स्रवणी = कानों से। आचारु = नित्य की कार। असथिति = स्थित, टिकाव। रिद = हृदय। आधारु = आसरा।1। अर्थ: हे भाई! कानों से मालिक-प्रभु की महिमा सुननी, (जीभ से मालिक का नाम) स्मरणा- संत-जनों की यह नित्य की करणी हुआ करती है। उनके हृदय में परमात्मा के सुंदर चरणों का टिकाव हमेशा बना रहता है, प्रभु की पूजा-भक्ति उनके प्राणों का आसरा होता है।1। प्रभ दीन दइआल सुनहु बेनंती किरपा अपनी धारु ॥ नामु निधानु उचरउ नित रसना नानक सद बलिहारु ॥२॥७०॥९३॥ पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! निधानु = खजाना। उचरउ = मैं उचरता रहूँ। नित = सदा। रसना = जीभ से। सद = सदा।2। अर्थ: हे नानक! (कह:) हे दीनों पर दया करने वाले प्रभु! (मेरी) बिनती सुन, (मेरे पर) अपनील मेहर कर। तेरा नाम ही (मेरे वास्ते सब पदार्थों का) खजाना है (मेहर कर, मैं यह नाम) जीभ से सदा उचारता रहूँ, और तुझसे सदा सदके होता रहूँ।2।70।93। सारग महला ५ ॥ हरि के नामहीन मति थोरी ॥ सिमरत नाहि सिरीधर ठाकुर मिलत अंध दुख घोरी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: हीन = विहीन। थोरी = थोड़ी, होछी। सिरीधर = लक्ष्मी का आसरा प्रभु। अंध = (माया के मोह में) अंधे हो चुके मनुष्यों को। घोरी = घोर, भयानक।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के नाम से वंचित रहते हैं, उनकी मति होछी सी ही बन जाती है। वे लक्ष्मी-पति मालिक-प्रभु का नाम नहीं स्मरण करते। माया के मोह में अंधे हो चुके उन मनुष्यों को भयानक (आत्मिक) दुख-कष्ट होते रहते हैं।1। रहाउ। हरि के नाम सिउ प्रीति न लागी अनिक भेख बहु जोरी ॥ तूटत बार न लागै ता कउ जिउ गागरि जल फोरी ॥१॥ पद्अर्थ: सिउ = साथ। भेख = (दिखावे मात्र) धार्मिक पहरावे। जोरी = जोड़ी (प्रीत)। बार = समय। ता कउ तूटत = उस (प्रीत) के टूटते हुए। फोरी = टूटी हुई।1। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के नाम से प्यार नहीं डालते, पर अनेक धार्मिक भेषों से प्रीत जोड़ी रखते हैं, उनकी इस प्रीत के टूटते देर नहीं लगती, जैसे टूटी हुई गागर में पानी नहीं ठहर सकता।1। करि किरपा भगति रसु दीजै मनु खचित प्रेम रस खोरी ॥ नानक दास तेरी सरणाई प्रभ बिनु आन न होरी ॥२॥७१॥९४॥ पद्अर्थ: दीजै = दे। खचित = मस्त रहे। खोरी = खुमारी में। आन = अन्य, और दूसरा।2। अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु!) मेहर कर, मुझे अपनी भक्ति का स्वाद बख्श, मेरा मन तेरे प्रेम-रस की ख़ुमारी में मस्त रहे। हे प्रभु! (तेरा) दास नानक तेरी शरण आया है। हे प्रभु! तेरे बिना मेरा और कोई दूसरा सहारा नहीं है।2।71।94। सारग महला ५ ॥ चितवउ वा अउसर मन माहि ॥ होइ इकत्र मिलहु संत साजन गुण गोबिंद नित गाहि ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: चितवउ = मैं चितवता रहता हूँ। वा अउसर = वह अवसर, वह समय। मिलउ = मैं मिलूँ। नित = सदा। गाहि = गाते हैं।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! मैं तो अपने मन उस मौके का इन्तजार करता रहता हूँ, जब में संतों-सज्जनों को मिलूँ जो नित्य इकट्ठे हो के परमात्मा के गुण गाते रहते हैं।1। रहाउ। बिनु हरि भजन जेते काम करीअहि तेते बिरथे जांहि ॥ पूरन परमानंद मनि मीठो तिसु बिनु दूसर नाहि ॥१॥ पद्अर्थ: जेते = जितने ही। करीअहि = किए जाते हैं। तेते = वह सारे। बिरथे = व्यर्थ, निष्फल। जाहि = जाते हैं। मनि = मन में। मीठो = मीठा।1। अर्थ: हे भाई! परमात्मा के भजन के बिना और जितने भी काम किए जाते हैं, वे सारे (जिंद के हिसाब से) व्यर्थ चले जाते हैं। सर्व-व्यापक और सब से ऊँचे आनंद के मालिक का नाम मन में मीठा लगना- यही है असल लाभदायक काम, (क्योंकि) उस परमात्मा के बिना और कोई (साथी) नहीं है।1। जप तप संजम करम सुख साधन तुलि न कछूऐ लाहि ॥ चरन कमल नानक मनु बेधिओ चरनह संगि समाहि ॥२॥७२॥९५॥ पद्अर्थ: संजमु = इन्द्रियों को विकारों से रोकने का साधन। सुख साधन7 = सुख प्राप्त करने के साधन। कछूऐ = कुछ भी। तुलि = (गुण गाने के) बराबर। लाहि = लहहि, समझते। बेधिओ = भेद गया। संगि = साथ। समाहि = लीन रहते हैं।2। अर्थ: हे नानक! (कह:) जप-तप-संजम आदि हठ-कर्म और सुख की तलाश के और साधन - परमात्मा के नाम की बराबरी नहीं कर सकते और संत-जन इनको कुछ भी नहीं समझते (तुच्छ समझते हैं)। संत जनों का मन परमात्मा के सुंदर चरणों में भेदा रहता है, संत जन परमात्मा के चरणों में ही लीन रहते हैं।2।72।95। सारग महला ५ ॥ मेरा प्रभु संगे अंतरजामी ॥ आगै कुसल पाछै खेम सूखा सिमरत नामु सुआमी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: संगे = साथ ही। अंतरजामी = (हरेक के) दिल की जानने वाला। आगै = आगे आने वाले समय में, परलोक में। पाछै = गुजर चुके समय में, इस लोक में। कुसल, खेम = सुख शांति।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! सबके दिल की जानने वाला मेरा प्रभु (हर वक्त मेरे) साथ है; (जिस मनुष्य को यही निश्चय बन जाता है, उसको) मालिक-प्रभु का नाम स्मरण करते हुए परलोक और इस लोक में सदा सुख-आनंद बना रहता है।1। रहाउ। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |