श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 1223

साजन मीत सखा हरि मेरै गुन गुोपाल हरि राइआ ॥ बिसरि न जाई निमख हिरदै ते पूरै गुरू मिलाइआ ॥१॥

पद्अर्थ: मेरै = मेरे लिए, मेरे मन में। राइआ = राजा, बादशाह। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। ते = से। पूरै गुरू = पूरे गुरु ने।1।

नोट: ‘गुोपाल’ में से अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘गोपाल’, यहां ‘गुपाल’ पढ़ना है

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को पूरे गुरु ने परमात्मा से मिला दिया, उसके हृदय से परमात्मा की याद पलक झपकने जितने समय के लिए भरूी नहीं भूलती (उसे यह विश्वास रहता है कि) प्रभु ही मेरे लिए सज्जन-मित्र है, गोपाल-प्रभु-पातिशाह के गुण ही मेरे (असल) साथी हैं।1।

करि किरपा राखे दास अपने जीअ जंत वसि जा कै ॥ एका लिव पूरन परमेसुर भउ नही नानक ता कै ॥२॥७३॥९६॥

पद्अर्थ: करि = कर के। राख = रक्षा करता है। वसि जा कै = जिसके वश में। लिव = लगन। पूरन = सर्व व्यापक। ता कै = उसके मन में।2।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) जिस परमात्मा के वश में सारे जीव-जंतु हैं, वह मेहर करके अपने दासों की रक्षा खुद करता आया है। जिस मनुष्य के अंदर सर्व-व्यापक परमात्मा की ही हर वक्त प्रीति है, उसके मन में (किसी प्रकार का कोई) डर नहीं रहता।2।73।96।

सारग महला ५ ॥ जा कै राम को बलु होइ ॥ सगल मनोरथ पूरन ताहू के दूखु न बिआपै कोइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जा कै = जिस मनुष्य के हृदय में। को = का। ताहू = उस (मनुष्य) के। न बिआपै = अपना जोर नहीं डाल सकता।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा की मेहर का सहारा होता है, उस मनुष्य के सारे उद्देश्य पूरे हो जाते हैं, उस पर कोई दुख अपना जोर नहीं डाल सकता।1। रहाउ।

जो जनु भगतु दासु निजु प्रभ का सुणि जीवां तिसु सोइ ॥ उदमु करउ दरसनु पेखन कौ करमि परापति होइ ॥१॥

पद्अर्थ: निजु = खास अपना। सुणि = सुन के। जीवां = मैं आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ। सोइ = शोभा। करउ = करूँ, मैं करता हूँ। कौ = वास्ते। करमि = बख्शिश से, (परमात्मा की) मेहर से।1।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा का खास अपना दास भक्त बन जाता है, मैं उसकी शोभा सुन के आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ। मैं उसके दर्शन करने के लिए जतन करता हूँ। पर (संत-जन का दर्शन भी परमात्मा की) मेहर से ही होता है।1।

गुर परसादी द्रिसटि निहारउ दूसर नाही कोइ ॥ दानु देहि नानक अपने कउ चरन जीवां संत धोइ ॥२॥७४॥९७॥

पद्अर्थ: परसादी = कृपा से। निहारउ = मैं देखता हूँ। कउ = को। धोइ = धो के।2।

अर्थ: हे भाई! गुरु की मेहर के सदका मैं अपनी आँखों से देख रहा हूँ कि (परमात्मा के बराबर का) और कोई दूसरा नहीं है। हे नानक! (कह: हे प्रभु!) मुझे अपने दास को ये ख़ैर डाल कि मैं संत-जनों चरण धो-धो के आत्मिक जीवन प्राप्त करता रहूँ।2।74।97।

सारग महला ५ ॥ जीवतु राम के गुण गाइ ॥ करहु क्रिपा गोपाल बीठुले बिसरि न कब ही जाइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जीवतु = आत्मिक जीवन प्राप्त करता है। गाइ = गा के। गोपाल = हे गोपाल! बीठुले = हे बीठल! (वि+स्थल = माया के प्रभाव से परे टिका हुआ) हे निर्लिप प्रभु! कब ही = कभी भी।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के गुण गा-गा के (मनुष्य) आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है। हे सृष्टि के मालिक! हे निर्लिप प्रभु! (मेरे पर) मेहर कर, (मुझे तेरा नाम) कभी ना भूले।1। रहाउ।

मनु तनु धनु सभु तुमरा सुआमी आन न दूजी जाइ ॥ जिउ तू राखहि तिव ही रहणा तुम्हरा पैन्है खाइ ॥१॥

पद्अर्थ: सुआमी = हे स्वामी! आन = अन्य। जाइ = जगह, आसरा। पैनै = (जीव) पहनता है। खाइ = खाता है।1।

अर्थ: हे (मेरे) मालिक! मेरा मन मेरा शरीर मेरा धन- यह सब कुछ तेरा ही दिया हुआ है। (तेरे बिना) मेरा कोई और आसरा नहीं है। जैसे तू रखता है, वैसे ही (जीव) रह सकते हैं। (हरेक जीव) तेरा ही दिया पहनता है तेरा ही दिया खाता है।1।

साधसंगति कै बलि बलि जाई बहुड़ि न जनमा धाइ ॥ नानक दास तेरी सरणाई जिउ भावै तिवै चलाइ ॥२॥७५॥९८॥

पद्अर्थ: कै = से। बलि जाई = मैं सदके जाता हूँ। जनमा = जनमों में। धाइ = दौड़ऋता, भटकता। जिउ भावै = जैसे तुझे अच्छा लगे। चलाइ = जीवन-राह पर चला।2।

अर्थ: हे नानक! (कह:) मैं साधु-संगत से सदा सदके जाता हूँ, (साधु-संगत की इनायत से जीव) दोबारा जन्मों में नहीं भटकता। हे प्रभु! तेरा दास (नानक) तेरी शरण आया है, जैसे तुझे अच्छा लगे, उसी तरह (मुझे) जीवन-राह पर चला।2।75।98।

सारग महला ५ ॥ मन रे नाम को सुख सार ॥ आन काम बिकार माइआ सगल दीसहि छार ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मन रे = हे मन! को = का। सार = श्रेष्ठ। आन = अन्य। बिकार = बेकार, व्यर्थ। दीसहि = दिखाई देते हैं (बहुवचन)। छार = राख, निकम्मे।1। रहाउ।

अर्थ: हे (मेरे) मन! परमात्मा के नाम स्मरण का सुख (और सभी सुखों से) उत्तम है। हे मन! (निरी) माया की खातिर ही और-और काम (आत्मिक जीवन के लिए) व्यर्थ हैं, वे सारे राख (समान ही) दिखते हैं।1। रहाउ।

ग्रिहि अंध कूप पतित प्राणी नरक घोर गुबार ॥ अनिक जोनी भ्रमत हारिओ भ्रमत बारं बार ॥१॥

पद्अर्थ: ग्रिहि = घर मे। अंध कूप = अंधा कूआँ। पतित = गिरे हुए। घोर गुबार = घोर अंधेरा। हारिओ = थक जाता है। भ्रमत = भटकते हुए। बारे बार = बार-बार।1।

अर्थ: हे भाई! (सिर्फ माया की खातिर दौड़-भाग करने वाला) प्राणी घोर अंधेरे नर्क समान गृहस्थ के अंधे कूएँ में गिरा रहता है। वह अनेक जूनियों में भटकता बार-बार भटकता थक जाता है (जीवन-सत्ता गवा बैठता है)।1।

पतित पावन भगति बछल दीन किरपा धार ॥ कर जोड़ि नानकु दानु मांगै साधसंगि उधार ॥२॥७६॥९९॥

पद्अर्थ: पतित पावन = हे विकारियों को पवित्र करने वाले! भगति वछल = हे भक्ति से प्यार करने वाले! दीन = गरीब। कर = हाथ (बहुवचन)। जोड़ि = जोड़ के। मांगै = माँगता है। साध संगि = साधु-संगत में (रख के)। उधार = संसार समुंदर से पार लंघा ले।2।

अर्थ: हे विकारियों को पवित्र करने वाले! हे भक्ति से प्यार करने वाले! हे गरीबों पर मेहर करने वाले! (तेरा दास) नानक दोनों हाथ जोड़ के यह दान माँगता है कि साधु-संगत में रख के (मुझे माया-ग्रसित अंधे कूएँ में से) बचा ले।2।76।99।

सारग महला ५ ॥ बिराजित राम को परताप ॥ आधि बिआधि उपाधि सभ नासी बिनसे तीनै ताप ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: बिराजित = बिराजा हुआ, टिका हुआ। को = का। परताप = बल। आधि = मानसिक रोग। बिआधि = शरीरिक रोग। उपाधि = झगड़े बखेड़े। तीनै = यह तीनों ही।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य के हृदय में) परमात्मा के नाम का बल आ टिकता है, उसके अंदर से आधि-बिआधि और उपाधि- ये तीनों ही ताप बिल्कुल ही समाप्त हो जाते हैं।1। रहाउ।

त्रिसना बुझी पूरन सभ आसा चूके सोग संताप ॥ गुण गावत अचुत अबिनासी मन तन आतम ध्राप ॥१॥

पद्अर्थ: सोग = ग़म। संताप = कष्ट। अचुत = (अ+च्युत = ना नाश होने वाला) अविनाशी। आतम = जिंद। ध्राप = तृप्त हो जाते हैं।1।

अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य के अंदर हरि-नाम का बल है, उसकी) तृष्णा मिट जाती है, उसकी हरेक आशा पूरी हो जाती है, उसके अंदर से ग़म-कष्ट खत्म हो जाते हैं। अविनाशी और नाश-रहित प्रभु के गुण गाते-गाते उसका मन उसका तन उसकी जिंद (की तृष्णा) तृप्त हो जाते हैं।1।

काम क्रोध लोभ मद मतसर साधू कै संगि खाप ॥ भगति वछल भै काटनहारे नानक के माई बाप ॥२॥७७॥१००॥

पद्अर्थ: मद = नशा, मस्ती। मतसर = ईष्या। कै संगि = की संगति में (रख के)। खाप = नाश कर। भै = डर, भय।2।

नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।

अर्थ: हे भक्ति से प्यार करने वाले! हे सारे डर दूर करने वाले! हे नानक के माता-पिता (ष्की तरह पालना करने वाले!) मुझे साधु-संगत में रख के (मेरे अंदर से) काम-क्रोध-लोभ-अहंकार और ईष्या (आदिक विकार) नाश कर।2।77।100।

सारग महला ५ ॥ आतुरु नाम बिनु संसार ॥ त्रिपति न होवत कूकरी आसा इतु लागो बिखिआ छार ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: आतुर = दुखी, व्याकुल। त्रिपति = तृप्ति, तसल्ली, शांति। कूकरी = कुक्ती (के स्वभाव वाली)। ईतु = इस में। लागो = (जगत) लगा रहता है। बिखिआ = माया। छार = राख, निकम्मी।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! (परमात्मा के) नाम को भुला के जगत व्याकुल हुआ रहता है, इस राख समान माया में ही लगा रहता है (चिपका रहता है) कुक्ती के स्वभाव वाली (जगत की) लालसा कभी नहीं अघाती।1। रहाउ।

पाइ ठगउरी आपि भुलाइओ जनमत बारो बार ॥ हरि का सिमरनु निमख न सिमरिओ जमकंकर करत खुआर ॥१॥

पद्अर्थ: पाइ = पा के। ठगउरी = ठग-बूटी। भुलाइओ = गगलत रास्ते डाल रखा है। बारो बार = बार-बार। निमख्र = निमेष, आँख झपकने जितना समय। कंकर = किंकर, नौकर। जम कंकर = जमदूत।1।

अर्थ: (पर, हे भाई! जीव के भी क्या वश? परमात्मा ने माया की) ठग-बूटी डाल के स्वयं ही (जगत को) गलत राह पर डाल रखा है, (कुमार्ग पर पड़ कर जीव) बार-बार जूनियों में रहता है, आँख झपकने जितने समय के लिए भी (जीव) परमातमा (के नाम) का स्मरण नहीं करता, जमदूत इसको ख्वार करते रहते हैं।1।

होहु क्रिपाल दीन दुख भंजन तेरिआ संतह की रावार ॥ नानक दासु दरसु प्रभ जाचै मन तन को आधार ॥२॥७८॥१०१॥

पद्अर्थ: दीन दुख भंजन = हे गरीबों का दुख नाश करने वाले! रावार = चरण धूल। जाचै = माँगता है (एकवचन)। का = को। आधार = आसरा।2।

अर्थ: हे प्रभु! हे गरीबों का दुख नाश करने वाले! (दास नानक पर) दयावान हो, (तेरा दास) तेरे संत-जनों के चरणों की धूल बना रहे। (तेरा) दास नानक तेरे दर्शन माँगता है, यही (इसके) मन का तन का आसरा है।2।78।101।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh