श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1224 सारग महला ५ ॥ मैला हरि के नाम बिनु जीउ ॥ तिनि प्रभि साचै आपि भुलाइआ बिखै ठगउरी पीउ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मैला = विकारों से भरा हुआ। जीउ = जीव। तिनि प्रभि = उस प्रभु ने। साचै = सदा कायम रहने वाले ने। भुलाइआ = गलत रास्ते पर डाल दिया। बिखै ठगउरी = विषियों की ठग-बूटी। पीउ = पीता रह।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना जीव विकारों में भरा रहता है। (पर, जीव के भी क्या वश?) उस सदा-स्थिर प्रभु ने आप ही इसको गलत राह पर डाला हुआ है कि विषियों की ठग-बूटी (घोट-घोट के) पीता रह।1। रहाउ। कोटि जनम भ्रमतौ बहु भांती थिति नही कतहू पाई ॥ पूरा सतिगुरु सहजि न भेटिआ साकतु आवै जाई ॥१॥ पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। भ्रमतो = भटकता। बहु भांती = कई तरीकों से। थिति = स्थित टिकाव। कत हू = कहीं भी। सहजि = आत्मिक अडोलता में। भेटिआ = मिला। साकतु = प्रभु से टूटा हुआ मनुष्य। आवै जाई = पैदा होता मरता है।1। अर्थ: हे भाई! परमात्मा से टूटा हुआ मनुष्य कई तरीकों से करोड़ों जन्मों में भटकता रहता है, कहीं भी (इस चक्कर में से इसको) मुक्ति नहीं मिलती। आत्मिक अडोलता में (पहुँचाने वाला) पूरा गुरु इसको नहीं मिलता (इस वास्ते सदा) पैदा होता मरता रहता है।1। राखि लेहु प्रभ सम्रिथ दाते तुम प्रभ अगम अपार ॥ नानक दास तेरी सरणाई भवजलु उतरिओ पार ॥२॥७९॥१०२॥ पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! संम्रिथ = हे समर्थ! हे सारी ताकतों के मालिक! दाते = हे दातार! अगम = अपहुंच। अपार = बेअंत। भवजलु = संसार समुंदर।2। अर्थ: हे सब ताकतों के मालिक प्रभु! हे सब दातें देने वाले! हम जीवों के लिए तू अगम्य (पहुँच से परे) है बेअंत है, तू स्वयं ही रक्षा कर। हे नानक! (कह: हे प्रभु! जो तेरा) दास तेरी शरण आता है, वह संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है।2।79।102। सारग महला ५ ॥ रमण कउ राम के गुण बाद ॥ साधसंगि धिआईऐ परमेसरु अम्रित जा के सुआद ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: रमण कउ = स्मरण करने के लिए। गुण बाद = गुणानुवाद, गुणों का उच्चारण। संगि = संगति में। धिआईऐ = स्मरण किया जा सकता है। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाले। जा के = जिस (परमात्मा) के।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! परमात्मा के गुणों का उच्चारण- यह ही स्मरण के लिए (श्रेष्ठ दाति है)। हे भाई! जिस परमेश्वर के (नाम जपने के) रस आत्मिक-जीवन देने वाले हैं, उसका ध्यान साधु-संगत में टिक के धरना चाहिए।1। रहाउ। सिमरत एकु अचुत अबिनासी बिनसे माइआ माद ॥ सहज अनद अनहद धुनि बाणी बहुरि न भए बिखाद ॥१॥ पद्अर्थ: अचुत = (अच्युत) नाश रहित। माद = मस्तियाँ। सहज आनद = आत्मिक अडोलता के आनंद। अनहद धुनि = एक रस टिकी रहने वाली लगन। बहुरि = दोबारा। बिखाद = दुख-कष्ट।1। अर्थ: हे भाई! अविनाशी नाश-रहित प्रभु का नाम स्मरण करते हुए माया के सारे नशे नाश हो जाते हैं। (नाम-जपने वाले के अंदर) आत्मिक अडोलता के आनंद बने रहते हैं, महिमा की वाणी की एक-रस लहर निरंतर चलने लगती है, उसके मन में दुख-कष्ट नहीं रह जाते।1। सनकादिक ब्रहमादिक गावत गावत सुक प्रहिलाद ॥ पीवत अमिउ मनोहर हरि रसु जपि नानक हरि बिसमाद ॥२॥८०॥१०३॥ पद्अर्थ: सनकादिक = (ब्रहमा के चार पुत्र) सनक, सनातन, सनंदन, सनतकुमार। गावत = गाते। सुक = शुकदेव ऋषि। पीवत = पीते हुए। अमिउ = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नामजल। जपि = जप के। बिसमाद = विस्माद अवस्था, आत्मिक मस्ती।2। अर्थ: हे भाई! सनक आदि ब्रहमा के चारों पुत्र, ब्रहमा आदि देवतागण (उस प्रभु की महिमा के गीत) गाते रहते हैं। शुकदेव ऋषि प्रहलाद भक्त आदि उसके गुण गाते हैं। हे नानक! मन को मोहने वाले हरि का आत्मिक-जीवन देने वाला नाम-रस पीते हुए, हरि का नाम जप-जप के मनुष्य के अंद रवह अवस्था पैदा हो जाती है कि जहाँ यह सदा वाह-वाह की मस्ती में टिका रहता है।2।80।103। सारग महला ५ ॥ कीन्हे पाप के बहु कोट ॥ दिनसु रैनी थकत नाही कतहि नाही छोट ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: बहु = अनेक। कोट = किले। रैनी = रात। दिनसु = दिन। कतहि = कहीं भी। छोट = खलासी, मुक्ति।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! (हरि-नाम से विछुड़ के) मनुष्य पापों की अनेक किले (चार दिवारियां) (अपनी जिंद के चारों तरफ) खड़ी करता जाता है। दिन-रात (पाप करते हुए) थकता नहीं (साधु-संगत के बिना और) कहीं भी (पापों से) इसकी मुक्ति नहीं मिल सकती।1। रहाउ। महा बजर बिख बिआधी सिरि उठाई पोट ॥ उघरि गईआं खिनहि भीतरि जमहि ग्रासे झोट ॥१॥ पद्अर्थ: बजर = वज्र, करड़े। बिख = आत्मिक मौत लाने वाला जहर। बिआधी = रोग। सिरि = सिर पर। पोट = पोटली। जमहि = जमों ने। ग्रासे = पकड़ लिए। झोट = केस, झाटा, लटें।1। अर्थ: हे भाई! (हरि-नाम से विछुड़ के) मनुष्य बड़े कठोर और आत्मिक मौत लाने वाले रोगों की पोटली (अपने) सिर पर उठाए रखता है। जब जमों ने (आ के) केसों से पकड़ लिया, तब एक-छिन में ही (इसकी) आँखें खुल जाती हैं (पर, तब क्या फायदा?)।1। पसु परेत उसट गरधभ अनिक जोनी लेट ॥ भजु साधसंगि गोबिंद नानक कछु न लागै फेट ॥२॥८१॥१०४॥ पद्अर्थ: परेत = प्रेत जून। उसट = उष्ट, ऊँठ। गरधब = गधा। लेट = लेटता। भजु = भजन कर। साध संगि = साधु-संगत मे। फेट = चोट।2। अर्थ: हे भाई! (पापों की पोटली के कारण) जीव पशू, प्रेत, ऊँठ, गधा आदि अनेक जूनियों में भटकता फिरता है। हे नानक! (कह: हे भाई!) साधु-संगत में टिक के परमात्मा का भजन किया कर, फिर (जमों की) रक्ती भर भी चोट नहीं लगेगी।2।81।104। सारग महला ५ ॥ अंधे खावहि बिसू के गटाक ॥ नैन स्रवन सरीरु सभु हुटिओ सासु गइओ तत घाट ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: अंधे = (माया के मोह में) अंधे हो चुके मनुष्य। खावहि = खाते रहते हैं। बिसू = विष, आत्मिक मौत लाने वाला जहर। गटाक = गटक के। नैन = आँखें। स्रवन = कान। हुटिओ = थक जाता है, काम करने से रह जाता है। सासु = सांस। गइओ = चला जाता है, रुक जाता है। तत घाट = तत घटिका, उस घड़ी।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! (माया के मोह में) अंधे हो चुके मनुष्य आत्मिक मौत लाने वाले पदार्थ ही खुश हो-हो के खाते रहते हैं (आखिर मौत सिर पर आ जाती है), आँखें, कान, शरीर- हरेक अंग काम करने से रह जाता है, और, सांसें भी खत्म हो जाती हैं।1। रहाउ। अनाथ रञाणि उदरु ले पोखहि माइआ गईआ हाटि ॥ किलबिख करत करत पछुतावहि कबहु न साकहि छांटि ॥१॥ पद्अर्थ: अनाथ = गरीब, कमजोर। रञाणि = दुखी कर के। उदरु = पेट। पोखहि = पालते हैं। गईआ हाटि = हट जाती है, छोड़ जाती है। किलबिख = पाप। करत = करते हुए। न साकहि छांटि = छोड़ नहीं सकते।1। अर्थ: हे भाई! (माया के मोह में अंधे हो चुके मनुष्य) कमजोरों को दुख दे-दे के अपना पेट पालते रहते हैं (पर मौत आने पर) वह माया भी साथ छोड़ देती है। ऐसे मनुष्य पाप करते-करते पछताते भी हैं, (पर, इन पापों को) छोड़ नहीं सकते।1। निंदकु जमदूती आइ संघारिओ देवहि मूंड उपरि मटाक ॥ नानक आपन कटारी आपस कउ लाई मनु अपना कीनो फाट ॥२॥८२॥१०५॥ पद्अर्थ: जमदूती = जमदूतों ने। देवहि = देते हैं। मूंड = सिर। मटाक = चोट। आपस कउ = अपने आप को। फाट = जख्मी।2। अर्थ: हे भाई! (यही हाल होता है निंदक मनुष्य का। निंदक सारी उम्र संत-जनों पर दूषणबाजी करता रहता है, आखिर में जब) जमदूत निंदक को आ पकड़ते हैं, उसके सिर के ऊपर (मौत की) चोट आ चलाते हैं। हे नानक! (सारी उम्र) निंदक अपनी छुरी अपने ऊपर ही चलाता रहता है, अपने ही मन को निंदा के जख़्म लगाता रहता है।2।82।105। सारग महला ५ ॥ टूटी निंदक की अध बीच ॥ जन का राखा आपि सुआमी बेमुख कउ आइ पहूची मीच ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: अध बीच = अधबीच ही। टूटी अध बीच = आधे में ही टूट जाती है, जिंदगी असफल हो जाती है। बेमुख = (प्रभु के सेवक की तरफ से) जिसने अपना मुँह मोड़ा है। मीच = मींच, मौत, आत्मिक मौत।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! संतजनों की निंदा करने वाले मनुष्य की जिंदगी निष्फल जाती है। मालिक-प्रभु स्वयं अपने सेवक की रक्षा करने वाला है, पर जो मनुष्य संत-जनों से मुँह मोड़े रखता है, वह आत्मिक मौत सहेड़ लेता है।1। रहाउ। उस का कहिआ कोइ न सुणई कही न बैसणु पावै ॥ ईहां दुखु आगै नरकु भुंचै बहु जोनी भरमावै ॥१॥ पद्अर्थ: उसका = उस (निंदक) का। न सुणई = न सने, नहीं सुनता। कही = कहीं भी। बैसणु = जगह, आदर की जगह। ईहा = इस लोक में। आगै = परलोक में। भुंचै = भोगता है। भरमावै = भटकता है।1। नोट: ‘उसका’ में से ‘उसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे भाई! संतजनों की निंदा करने वाले मनुष्य की बात पर कोई ऐतबार नहीं करता, उसको कहीं भी इज्जत वाली जगह नहीं मिलती। निंदक इस लोक में दुख पाता है, (क्योंकि कोई उसकी इज्जत नहीं करता), परलोक में वह नर्क भोगता है, अनेक जूनियों में भटकता है।1। प्रगटु भइआ खंडी ब्रहमंडी कीता अपणा पाइआ ॥ नानक सरणि निरभउ करते की अनद मंगल गुण गाइआ ॥२॥८३॥१०६॥ पद्अर्थ: प्रगटु भइआ = प्रकट हुआ, बदनामी कमाता है। खंडी ब्रहमण्डी = जगत में। करते की = कर्तार की। मंगल = खुशियां।2। अर्थ: हे भाई! संतजनों की निंदा करने वाले मनुष्य अपने (इस) किए का (यह) फल पाता है कि सारे जगत में बदनाम हो जाता है। हे नानक! (प्रभु का सेवक) निर्भय कर्तार की शरण पड़ा रहता है, प्रभु के गुण गाता है, उसके अंदर आहित्मक आनंद बना रहता है, आत्मिक खुशियां बनी रहती हैं।2।83।106। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |