श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सारग महला ५ ॥ त्रिसना चलत बहु परकारि ॥ पूरन होत न कतहु बातहि अंति परती हारि ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: त्रिसना = माया की लालच। चलत = चलती है, दौड़ भाग करती है। बहु परकारि = कई तरीकों से। कतहु बातहि = किसी भी बात से। अंति = आखिर। परती हारि = हार जाती है, सफल नहीं होती।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! (मनुष्य के अंदर) तृष्णा कई तरीकों से दौड़-भाग करती रहती है। किसी भी बात से (यह तृष्णा) तृप्त नहीं होती, (जिंदगी के आखिर तक) यह सफल नहीं होती (और-और बढ़ती ही रहती है)।1। रहाउ।

सांति सूख न सहजु उपजै इहै इसु बिउहारि ॥ आप पर का कछु न जानै काम क्रोधहि जारि ॥१॥

पद्अर्थ: सहजु = आत्मिक अडोलता। इहै = यह ही। इसु बिउहार = इस तृष्णा का व्यवहार है। जानै = जानती। क्रोधहि = क्रोध से। जारि = जारे, जला देती है। आप = अपना। पर का = पराया।1।

अर्थ: हे भाई! (तृष्धा के कारण मनुष्य के मन में कभी) शांति पैदा नहीं होती, आनंद नहीं बनता, आत्मिक अडोलता नहीं उपजती। बस! इस तृष्णा का (सदा) यही व्यवहार है। काम और क्रोध से (यह तृष्णा मनुष्य का अंदरला) जला देती है, किसी का लिहज़ नहीं करती।1।

संसार सागरु दुखि बिआपिओ दास लेवहु तारि ॥ चरन कमल सरणाइ नानक सद सदा बलिहारि ॥२॥८४॥१०७॥

पद्अर्थ: सागरु = समुंदर। दुखि = दुख में। बिआपिओ = फसा रहता है। लेवहु तारि = तू तार लेता है। सद = सदा। बलिहारि = मैं सदके जाता हूँ।2।

अर्थ: हे भाई! तृष्णा के कारण जीव पर संसार-समुंदर अपना जोर डाले रखता है, (जीव) दुख में फसा रहता है। (पर, हे प्रभु!) तू अपने सेवकों को (इस संसार-समुंदर से) पार लंघा लेता है। हे नानक! कह: (हे प्रभु!) मैं (भी) तेरे सुंदर चरणों की शरण आया हूँ, मैं तुझसे सदा-सदा सदके जाता हूँ।2।84।107।

सारग महला ५ ॥ रे पापी तै कवन की मति लीन ॥ निमख घरी न सिमरि सुआमी जीउ पिंडु जिनि दीन ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: रे पापी = हे पापी! (पुलिंग)। तै = तू। कवन की = किस (बुरे) की? निमख = निमेष, ऑम्ंख झपकने जितना समय। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। जिनि = जिस (प्रभु) ने।1। रहाउ।

अर्थ: हे पापी! तूने किस की (बुरी) मति ले ली है? जिस मालिक-प्रभु ने तुझे यह जिंद दी, यह शरीर दिया, उसको तू बघड़ी भर के लिए भी आँख झपकने जितने समय के लिए भी याद नहीं करता।1। रहाउ।

खात पीवत सवंत सुखीआ नामु सिमरत खीन ॥ गरभ उदर बिललाट करता तहां होवत दीन ॥१॥

पद्अर्थ: सवंत = सोता। खीन = क्षीण, कमजोर, आलसी। गरभ = माँ का पेट। उदर = पेट। दीन = निमाणा।1।

अर्थ: हे पापी! खाता, पीता, सोता तो तू खुश रहता है पर प्रभु का नाम स्मरण करते हुए तू आलसी हो जाता है। जब तू माँ के पेट में था, तब बिलकता था, तब तू गरीबड़ा सा बना रहता था।1।

महा माद बिकार बाधा अनिक जोनि भ्रमीन ॥ गोबिंद बिसरे कवन दुख गनीअहि सुखु नानक हरि पद चीन्ह ॥२॥८५॥१०८॥

पद्अर्थ: माद = मस्ती। बापा = बंधा हुआ। कवन दुख = कौन कौन से दुख? गनीअहि = गिने जाएं। चीन्ह = चीन्ह, पहचान करने से, सांझ डालने से।2।

अर्थ: हे पापी! बड़े-बड़े विकारों की मस्ती में बंधा हुआ तू अनेक जूनियों में भटकता आ रहा है। हे नानक! (कह: हे भाई!) परमात्मा का नाम भूलने से इतने दुख आते हैं कि गिने नहीं जा सकते। परमात्मा के चरणों से सांझ डालने से ही सुख मिलता है।2।85।108।

सारग महला ५ ॥ माई री चरनह ओट गही ॥ दरसनु पेखि मेरा मनु मोहिओ दुरमति जात बही ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: माई री = हे माँ! ओट = आसरा। गही = पकड़ी। जात बही = बह गई है।1। रहाउ।

नोट: ‘री’ स्त्रीलिंग है (‘कहत कबीर सुनहु री लोई’)।

अर्थ: हे माँ! (जब का) परमात्मा के चरणों का आसरा लिया है, (उसके) दर्शन करके मेरा मन मोहा गया है, (मेरे अंदर से) बुरी मति बह गई है।1। रहाउ।

अगह अगाधि ऊच अबिनासी कीमति जात न कही ॥ जलि थलि पेखि पेखि मनु बिगसिओ पूरि रहिओ स्रब मही ॥१॥

पद्अर्थ: अगह = अथाह। अगाधि = बेअंत गहरा। जलि = जल में। थलि = थल पर। पेखि = देख के। बिगसिओ = प्रसन्न हो रहा है। पूरि रहिओ = व्यापक है। स्रब मही = सारी धरती में।1।

अर्थ: हे माँ! वह परमात्मा अथाह है बेअंत गहरा है, बहुत ऊँचा है, कभी नहीं मरता, उसका मूल्य नहीं पाया जा सकता। जल में धरती में (हर जगह उसको) देख के मेरा मन खिला रहता है। हे माँ! वह सारी सृष्टि में व्यापक है।1।

दीन दइआल प्रीतम मनमोहन मिलि साधह कीनो सही ॥ सिमरि सिमरि जीवत हरि नानक जम की भीर न फही ॥२॥८६॥१०९॥

पद्अर्थ: मिलि साधह = साधु जनों को मिल के। कीनो सही = सही किया है, देखा है। भीर = भीड़ (में)। न फही = नहीं फसते।2।

अर्थ: हे माँ! साधु-संगत में मिल के गरीबों पर दया करने वाले और मन को मोह लेने वाले प्रीतम का मैंने दर्शन किया है। हे नानक! (कह: हे माँ!) परमात्मा का नाम स्मरण कर-कर के आत्मिक जीवन मिलता है, और जमों के चुंगल में नहीं फंसता।2।86।109।

सारग महला ५ ॥ माई री मनु मेरो मतवारो ॥ पेखि दइआल अनद सुख पूरन हरि रसि रपिओ खुमारो ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मतवारो = मतवाला, मस्त। पेखि = देख के। रसि = रस से। रपिओ = रंगा गया है। खुमारो = मस्ती।1। रहाउ।

अर्थ: हे माँ! मेरा मन (प्रभु के दीदार में) मस्त हो रहा है। उस दया के सोमे प्रभु का दर्शन करके मेरे अंदर पूरी तरह से आत्मिक आनंद सुख बना हुआ है, मेरा मन प्रेम-रस से रंगा गया है और मस्त है।1। रहाउ।

निरमल भए ऊजल जसु गावत बहुरि न होवत कारो ॥ चरन कमल सिउ डोरी राची भेटिओ पुरखु अपारो ॥१॥

पद्अर्थ: जसु = महिमा का गीत। बहुरि = दोबारा। कारो = काला। सिउ = साथ। डोरी राची = तवज्जो जुड़ी रहती है। भेटिओ = मिल जाता है।1।

अर्थ: हे माँ! परमात्मा का यश गाते हुए जिस मनुष्य का मन निर्मल-उज्जवल हो जाता है, वह दोबारा (विकारों से) काला नहीं होता। (महिमा की इनायत से) जिस मनुष्य के मन की डोर प्रभु के सुंदर चरणों के साथ जुड़ती है, उसको बेअंत प्रभु मिल जाता है।1।

करु गहि लीने सरबसु दीने दीपक भइओ उजारो ॥ नानक नामि रसिक बैरागी कुलह समूहां तारो ॥२॥८७॥११०॥

पद्अर्थ: करु = हाथ (एकवचन)। गहि = पकड़ के। सरबसु = सर्वस्व, सारा धन पदार्थ, सब कुछ। दीपक = दीया। नामि = नाम से। रसिक = रसिया, प्रेमी। बैरागी = वैरागवान।2।

अर्थ: हे माँ! जिस मनुष्य का हाथ पकड़ के प्रभु उसको अपना बना लेता है, उसको सब कुछ बख्शता है, उसके अंदर (नाम के) दीए का प्रकाश हो जाता है। हे नानक! परमात्मा के नाम में प्रीत प्रेम जोड़ने वाला मनुष्य अपनी सारी कुलों को (संसार-समुंदर से) पार लंघा लेता है।2।87।110।

सारग महला ५ ॥ माई री आन सिमरि मरि जांहि ॥ तिआगि गोबिदु जीअन को दाता माइआ संगि लपटाहि ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: आन = (अन्य) (प्रभु के बिना) कई और। सिमरि = स्मरण करके। मरि जांहि = मर जाते हैं, आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं। तिआगि = त्याग के, भुला के। जीअन को = सारे जीवों का। संगि = साथ। लपटाहि = लिपटे रहते हैं।1। रहाउ।

अर्थ: हे माँ! सारे जीवों को दातें देने वाले परमात्मा को छोड़ के जो मनुष्य (सदा) माया के साथ चिपके रहते हैं, वह (प्रभु के बिना) और को मन में बसाए रख के आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं।1। रहाउ।

नामु बिसारि चलहि अन मारगि नरक घोर महि पाहि ॥ अनिक सजांई गणत न आवै गरभै गरभि भ्रमाहि ॥१॥

पद्अर्थ: बिसारि = विसार के। चलहि = चलते हैं (बहुवचन)। अन मारगि = और रास्ते पर। पाहि = पड़ते हैं। गणत = गिनती। गरभै गरभि = हरेक जून में। भ्रमाहि = भटकते हैं।1।

अर्थ: हे माँ! जो मनुष्य परमात्मा का नाम भुला के और (जीवन-) राह पर चलते हैं, वे भयानक नर्क में पड़े रहते हैं। उनको इतनी सजाएं मिलती रहती हैं कि उनकी गिनती नहीं हो सकती। वे हरेक जून में भटकते फिरते हैं।1।

से धनवंते से पतिवंते हरि की सरणि समाहि ॥ गुर प्रसादि नानक जगु जीतिओ बहुरि न आवहि जांहि ॥२॥८८॥१११॥

पद्अर्थ: से = वे (बहुवचन)। पतिवंते = इज्जत वाले। समाहि = लीन रहते हैं। गुर प्रसादि = गुरु की कृपा से। बहुरि = दोबारा, फिर। आवहि = पैदा होते हैं। जांहि = मरते हैं।2।

अर्थ: हे माँ! जो मनुष्य परमात्मा की शरण में टिके रहते हैं, वे धन वाले हैं, वे इज्जत वाले हैं। हे नानक! (कह: हे माँ!) गुरु की मेहर से उन्होंने जगत (के मोह) को जीत लिया है, वे बार-बार ना पैदा होते हैं ना मरते हैं।2।88।111।

सारग महला ५ ॥ हरि काटी कुटिलता कुठारि ॥ भ्रम बन दहन भए खिन भीतरि राम नाम परहारि ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: कुटिल = टेढ़ी चालें चलने वाला, खोटा। कुटिलता = मन का टेढ़, खोट। कुठारि = कुहाड़े से। भ्रम = भटकता। भ्रम बन = भटकना के जंगल। दहन भए = जल गए। परहारि = प्रहार, चोट से।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा ने (जिस मनुष्य के) मन का खोट (मानो) कुहाड़े से काट दिया, उसके अंदर से प्रभु के नाम की चोट से एक छिन में ही भटकना के जंगलों के जंगल ही जल (के राख हो) गए।1। रहाउ।

काम क्रोध निंदा परहरीआ काढे साधू कै संगि मारि ॥ जनमु पदारथु गुरमुखि जीतिआ बहुरि न जूऐ हारि ॥१॥

पद्अर्थ: परहरीआ = दूर कर दी। साधू कै संगि = गुरु की संगति में। मारि = मार के। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। बहुरि = दोबारा। जूऐ = जूए में। हारि = हार के।1।

अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य गुरु की संगति में रह के काम क्रोध निंदा आदि विकारों को (अपने अंदर से) दूर कर देता है मार-मार के निकाल देता है गुरमुख इस कीमती मनुष्य जनम को (विकारों के मुकाबले में) कामयाब बना लेता है, फिर कभी इसको जूए में हार के नहीं जाता।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh