श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 1226

आठ पहर प्रभ के गुण गावह पूरन सबदि बीचारि ॥ नानक दासनि दासु जनु तेरा पुनह पुनह नमसकारि ॥२॥८९॥११२॥

पद्अर्थ: गावह = गाओ भाई! हम गाएं। सबदि = शब्द से। बीचारि = विचार के, मन में बसा के। दासनि दासु = दासों का दास। पुनह पुनह = बार बार।2।

नोट: ‘गावह’ है वर्तमानकाल, उत्तम पुरख, बहुवचन।

अर्थ: हे भाई! आओ, मिल के सर्व-व्यापक प्रभु के गुणों को गुरु-शब्द के द्वारा मन में बसा के आठों पहर उसके गुण गाते रहें। हे नानक! (कह:) हे प्रभु! मैं तेरे दासों का दास हूँ, (तेरे दर पर ही) बार-बार नमस्कार करता हूँ।2।89।112।

सारग महला ५ ॥ पोथी परमेसर का थानु ॥ साधसंगि गावहि गुण गोबिंद पूरन ब्रहम गिआनु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: पोथी = वह पुस्तक जिसमें परमात्मा की महिमा लिखी हुई है, गुरवाणी। थानु = मिलने की जगह। साध संगि = गुरु की संगति में। गावहि = (जो) गाते हैं। पूरन = सर्व व्यापक। गिआनु = गहरी सांझ।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! गुरबाणी (ही) परमात्मा के मिलाप का स्थान है। जो मनुष्य गुरु की संगति में र हके परमात्मा के गुण गाते रहते हैं, वे मनुष्य सर्व-व्यापक परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल लेते हैं।1। रहाउ।

साधिक सिध सगल मुनि लोचहि बिरले लागै धिआनु ॥ जिसहि क्रिपालु होइ मेरा सुआमी पूरन ता को कामु ॥१॥

पद्अर्थ: साधिक = जोग साधना करने वाले। सिध = सिद्ध, जोग साधना में सिद्ध जोगी। लोचहि = तमन्ना करते आए हैं। लागै धिआनु = तवज्जो जुड़ती है। जिसहि = जिस (मनुष्य) पर। ता को = उसका। कामु = (हरेक) काम।1।

नोट: ‘जिसहि’ में से क्रिया विशेषण ‘ही’ के कारण ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा हट गई है।

अर्थ: हे भाई! जोग-साधना करने वाले मनुष्य, जोग-साधना में सिद्ध-हस्त जोगी, सारे ऋषि-मुनि (परमात्मा के साथ मिलाप की) तमन्ना करते आ रहे हैं, पर किसी विरले की तवज्जो (उसमें) जुड़ती है। जिस मनुष्य पर मेरा मालिक-प्रभु स्वयं दयावान होता है, उसका (यह) काम सफल हो जाता है।1।

जा कै रिदै वसै भै भंजनु तिसु जानै सगल जहानु ॥ खिनु पलु बिसरु नही मेरे करते इहु नानकु मांगै दानु ॥२॥९०॥११३॥

पद्अर्थ: जा कै रिदै = जिस (मनुष्य) के हृदय में। भै भंजनु = सारे डर दूर करने वाला। बिसरु नही = ना भूंल करते = हे कर्तार! नानकु मांगै = नानक मांगता है।2।

अर्थ: हे भाई! सारे डरों का नाश करने वाला परमात्मा जिस मनुष्य के हृदय में आ बसता है उसको सारा जगत जान लेता है (सारे जगत में उसकी शोभा पसर जाती है)। (उस परमात्मा के दर पर) नानक यह दान माँगता है (कि) हे मेरे कर्तार! (मेरे मन से कभी) एक छिन वास्ते एक पल के लिए भी ना बिसर।2।90।113।

सारग महला ५ ॥ वूठा सरब थाई मेहु ॥ अनद मंगल गाउ हरि जसु पूरन प्रगटिओ नेहु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: वूठा = बस गया, बसता है। थाई = जगहों में। मेहु = बरखा, आत्मिक आनंद की वर्षा। मंगल = खुखियां। गाउ = गाया करो। पूरन नेहु = सर्व व्यापक प्रभु का प्यार। प्रगटिओ = पैदा हो जाता है।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का यश गाया करो, (जैसे,) बरसात (टोए-टिब्बे) सब जगह होती है (वैसे ही यश गायन करने वालों के हृदयों में) आनंद और खुशियों की बरखा होती है, सर्व-व्यापक परमात्मा का प्यार (हृदय में) पैदा हो जाता है।1। रहाउ।

चारि कुंट दह दिसि जल निधि ऊन थाउ न केहु ॥ क्रिपा निधि गोबिंद पूरन जीअ दानु सभ देहु ॥१॥

पद्अर्थ: कुंट = कूट, पासा। दह दिसि = दसों दिशाऐं। जल निधि = (जीवन) जल का खजाना प्रभु। ऊन = खाली। केहु = कोई भी। क्रिपा निधि = हे दया के खजाने प्रभु! पूरन = हे सर्व व्रापक! जीअ दानु = जीवन दाति। देहु = तू देता है।1।

अर्थ: हे भाई! (जीवन-) जल का खजाना प्रभु चारों कुंटों में दसों दिशाओं में (हर जगह मौजूद है) कोई भी जगह (उसके अस्तित्व से) खाली नहीं है। (उसका इस तरह यश गाया करो-) हे दया के खजाने! हे गोबिंद! हे सर्व-व्यापक! तू सब जीवों को ही जीवन-दाति देता है।1।

सति सति हरि सति सुआमी सति साधसंगेहु ॥ सति ते जन जिन परतीति उपजी नानक नह भरमेहु ॥२॥९१॥११४॥

पद्अर्थ: सति = सदा कायम रहने वाला। साध संगेहु = सयाध संगति। ते जन = वे मनुष्य (बहुवचन)। परतीति = श्रद्धा। भरमेहु = भटकना।2।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) परमात्मा सदा ही अटल रहने वाला है (जहाँ वह मिलता है, वह) साधु-संगत भी धुर से चली आ रही है। जिस मनुष्यों के हृदय में परमात्मा के प्रति श्रद्धा पैदा हो जाती है, वे भी अटल धार्मिक जीवन वाले हो जाते हैं, उनको कोई भटकना नहीं रह जाती।2।91।114।

सारग महला ५ ॥ गोबिद जीउ तू मेरे प्रान अधार ॥ साजन मीत सहाई तुम ही तू मेरो परवार ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: गोबिंद जीउ = हे गोबिंदजी! अधार = आसरा।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्रभु जी! तू मेरे प्राणों का आसरा है। तू ही मेरा सज्जन है, तू ही मेरा मित्र है, तू ही मेरी मदद करने वाला है, तू ही मेरा परिवार है।1। रहाउ।

करु मसतकि धारिओ मेरै माथै साधसंगि गुण गाए ॥ तुमरी क्रिपा ते सभ फल पाए रसकि राम नाम धिआए ॥१॥

पद्अर्थ: करु = हाथ। मसतकि = माथे पर। मेरै माथै = मेरे माथे पर। साध संगि = साधु-संगत में। ते = से। रसकि = प्यार से।1।

अर्थ: हे प्रभु! जब तूने मेरे माथे पर मेरे मस्तक पर (अपनी मेहर का) हाथ रखा, तब मैंने साधु-संगत में (टिक के तेरी) महिमा के गीत गाए हैं। हे प्रभु! तेरी मेहर से मैंने सारे फल हासिल किए हैं, और प्यार से तेरा नाम स्मरण किया है।1।

अबिचल नीव धराई सतिगुरि कबहू डोलत नाही ॥ गुर नानक जब भए दइआरा सरब सुखा निधि पांही ॥२॥९२॥११५॥

पद्अर्थ: अबिचल = ना हिलने वाली, अटल। नीव = (स्मरण करने की) नींव। सतिगुरि = सतिगुरु ने। कबहू = कभी भी। दइआरा = दयावान। निधि = खजाना। सरब सुखा निधि = सारे सुखों का खजाना प्रभु। पांही = पाहि, प्राप्त कर लेते हैं (बहुवचन)।2।

अर्थ: हे भाई! सतिगुरु ने (जिस मनुष्यों के हृदय में हरि-नाम स्मरण की) अटल नींव रख दी, वे कभी (माया में) डोलते नहीं हैं। हे नानक! (कह:) जब सतिगुरु जी दयावान होते हैं, वह सारे सुखों के खजाने परमात्मा का मिलाप हासिल कर लेते हैं।2।92।115।

सारग महला ५ ॥ निबही नाम की सचु खेप ॥ लाभु हरि गुण गाइ निधि धनु बिखै माहि अलेप ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: निबही = सदा के लिए साथ बना रहता है। सचु = सदा कायम रहने वाला। खेप = व्यापार के लिए लदा हुआ माल। लाभु = कमाई। निधि = (सारे सुखों का) खजाना। बिखै माहि = पदार्थों में। अलेप = निर्लिप।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम का सदा कायम रहने वाला व्यापार का लादा हुआ माल जिस जीव-बनजारे के साथ सदा का साथ बना लेता है, वह जीव-बंजारा (सदा) परमात्मा के गुण गाता रहता है, यही असल कमाई है, यही असल खजाना है यही असल धन है, (इसकी इनायत से) वह जीव-वणजारा (मायावी) पदार्थों में निर्लिप रहता है।1। रहाउ।

जीअ जंत सगल संतोखे आपना प्रभु धिआइ ॥ रतन जनमु अपार जीतिओ बहुड़ि जोनि न पाइ ॥१॥

पद्अर्थ: सगल = सारे। संतोखे = संतोख वाला जीवन प्राप्त कर लेते हैं। धिआइ = स्मरण करके। अपार रतन = बेअंत कीमती। जीतिओ = जीत लिया, विकारों के मुकाबले से बचा लिया। बहुड़ि = मुड़ के, दोबारा, फिर। न पाइ = नहीं पड़ता।1।

अर्थ: हे भाई! अपने प्रभु का ध्यान धर के सारे जीव संतोख वाला जीवन हासिल कर लेते हैं। जिस भी मनुष्य ने यह बेयंत कीमती मनुष्य-जनम विकारों के हमलों से बचा लिया, वह बार-बार जूनियों में नहीं पड़ता।1।

भए क्रिपाल दइआल गोबिद भइआ साधू संगु ॥ हरि चरन रासि नानक पाई लगा प्रभ सिउ रंगु ॥२॥९३॥११६॥

पद्अर्थ: साधू संगि = गुरु का साथ, गुरु का मिलाप। रासि = राशि, पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत। सिउ = साथ। रंगु = प्यार।2।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) जिस मनुष्य पर प्रभु जी दयावान होते हैं, उसको गुरु का मिलाप हासिल होता है। वह मनुष्य प्रभु के चरणों की प्रीति की संपत्ति हासिल कर लेता है, उसका प्रभु के साथ प्यार बन जाता है।2।93।116।

सारग महला ५ ॥ माई री पेखि रही बिसमाद ॥ अनहद धुनी मेरा मनु मोहिओ अचरज ता के स्वाद ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: री माई = हे माँ! पेखि = देख के। बिसमाद = हैरान। अनहद धुनी = जिसकी जीवन लहर एक रस व्याप रही है।1। रहाउ।

अर्थ: हे (मेरी) माँ! (प्रभु के करिश्मे) देख के मैं हैरान हो रही हूँ। जिस प्रभु की जीवन-लहर एक-रस (सारे जगत में) रुमक रही है उसने मेरा मन मोह लिया है, उसके (मिलाप के) आनंद भी हैरान करने वाले हैं।1। रहाउ।

मात पिता बंधप है सोई मनि हरि को अहिलाद ॥ साधसंगि गाए गुन गोबिंद बिनसिओ सभु परमाद ॥१॥

पद्अर्थ: बंधप = सबंधी। मनि = मन में। को = का। अहिलाद = खुशी, हुलारा। साध संगि = साधु-संगत में। सभु = सारा। परमाद = प्रमाद, भुलेखा, गलती।1।

अर्थ: हे माँ! (सब जीवों का) माता-पिता संबंधी वह प्रभु ही है। (मेरे) मन में उस प्रभु (के मिलाप) का हुलारा आ रहा है। हे माँ! जिस मनुष्य ने साधु-संगत में (टिक के) उसकी महिमा के गीत गाए हैं, उसका सारा भ्रम-भुलेखा दूर हो गया।1।

डोरी लपटि रही चरनह संगि भ्रम भै सगले खाद ॥ एकु अधारु नानक जन कीआ बहुरि न जोनि भ्रमाद ॥२॥९४॥११७॥

पद्अर्थ: भै = डर (बहुवचन)। खाद = खाए जाते हैं, समाप्त हो जाते हैं। अधारु = आसरा। भ्रमाद = भटकते।2।

अर्थ: हे दास नानक! जिस मनुष्य के चिक्त की डोर प्रभु के चरणों के साथ जुड़ी रहती है, उसके सारे भ्रम सारे डर समाप्त हो जाते हैं। जिसने सिर्फ हरि-नाम को अपनी जिंदगी का आसरा बना लिया, वह बार-बार जूनियों में नहीं भटकता।2।94।117।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh