श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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करि किरपा लीने करि अपुने उपजी दरस पिआस ॥ संतसंगि मिलि हरि गुण गाए बिनसी दुतीआ आस ॥१॥

पद्अर्थ: करि = कर के। लीने करि = बना लिए। पिआस = चाहत। संगि = साथ। दुतीआ = दूसरी।1।

अर्थ: हे माँ! मेहर कर के (जिनको परमात्मा ने) अपने बना लिया, उनके अंदर प्रभु के दर्शन की तमन्ना पैदा हो जाती है, वे मनुष्य साधु-संगत में मिल के परमात्मा की परमात्मा की महिमा के गीत गाते हैं, (उनके अंदर से परमात्मा के बिना) कोई और दूसरी टेक खत्म हो जाती है।1।

महा उदिआन अटवी ते काढे मारगु संत कहिओ ॥ देखत दरसु पाप सभि नासे हरि नानक रतनु लहिओ ॥२॥१००॥१२३॥

पद्अर्थ: उदिआन = जंगल। अटवी = जंगल। ते = से। मारगु = रास्ता। संत = संतों ने। सभि = सारे। लहिओ = पा लिया।2।

अर्थ: हे नानक! जिनको संत जनों ने (सही जीवन-) राह बता दिया, उनको उनके बड़े संघने जंगल (जैसे संसार-वन) से बाहर निकाल लिया। (परमात्मा का) दर्शन करके उन मनुष्यों के सारे पाप नाश हो गए, उन्होंने प्रभु का नाम-रत्न पा लिया।2।100।123।

सारग महला ५ ॥ माई री अरिओ प्रेम की खोरि ॥ दरसन रुचित पिआस मनि सुंदर सकत न कोई तोरि ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: अरिओ = अड़ गया है, मस्त हो गया है। खोरि = खुमारी में, मस्ती में। रुचित = लगन लगी हुई है। पिआस = तमन्ना। मनि = मन में। तोरि = तोड़ के। तोरि न सकत = तोड़ नहीं सकता।1। रहाउ।

अर्थ: हे माँ! (मेरा मन प्रीतम प्रभु के) प्यार के नशे में मस्त रहता है। मेरे मन में उसके दर्शन की लगन लगी रहती ह, उस सुंदर (के दर्शन) की चाहत बनी रहती है (यह लगन यह चाहत ऐसी है कि इसको) कोई तोड़ नहीं सकता।1। रहाउ।

प्रान मान पति पित सुत बंधप हरि सरबसु धन मोर ॥ ध्रिगु सरीरु असत बिसटा क्रिम बिनु हरि जानत होर ॥१॥

पद्अर्थ: प्रान = प्राण, जिंद जान। मान = सहारा। पति = इज्जत। सुत = पुत्र। पित = पिता। बंधप = सन्बंधी। सरबसु = सर्वस्व, स्व धन, सारा धन, सब कुछ। मोर = मेरा। प्रिगु = धिक्कार योग्य। असत = अस्थि, हड्डियां। क्रिम = कृमि, गंदगी वाले कीड़े।1।

अर्थ: हे माँ! अब मेरे वास्ते प्रभु प्रीतम ही जिंद है, आसरा है, इज्जत है, पिता है, पुत्र है, सन्बंधी है, धन है, मेरा सब कुछ वही वही है। जो मनुष्य परमात्मा के बिना और-और सांझ बनाए रखता है, उसका शरीर धिक्कार-योग्य हो जाता है (क्योकि फिर यह मानव-शरीर सिर्फ) हड्डियां, गंदगी और कृमि ही है।1।

भइओ क्रिपाल दीन दुख भंजनु परा पूरबला जोर ॥ नानक सरणि क्रिपा निधि सागर बिनसिओ आन निहोर ॥२॥१०१॥१२४॥

पद्अर्थ: दीन दुख भंजनु = गरीबों के दुख दूर करने वाला। परा पूरबला = आदि कदीमों का, जोर = सहारा। क्रिपा निधि = कृपा का खजाना। क्रिपा सागर = कृपा का समुंदर। आन = और। निहोर = अधीनता।2।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे माँ!) जिससे कोई आदि कदीमी का (परा-पूर्बला) जोड़ होता है, गरीबों के दुख दूर करने वाला प्रभु उस पर दयावान होता है, वह मनुष्य दया के खजाने मेहर के समुंदर प्रभु की शरण पड़ता है, उसकी अन्य (सारी) अधीनता समाप्त हो जाती है।2।101।124।

सारग महला ५ ॥ नीकी राम की धुनि सोइ ॥ चरन कमल अनूप सुआमी जपत साधू होइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: नीकी = अच्छी (कार), सोहणी (कार)। धुनि = (हृदय में) लगन। सोइ = (परमात्मा की) शोभा, महिमा। अनूप = (अन+ऊप = उपमा-रहित) बहुत सुंदर। जपत = जपते हुए। साधू = गुरमुख, भला। होइ = हो जाता है।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा की लगन (हृदय में बना), परमात्मा की महिमा करनी- यह एक सुंदर (काम) है। हे भाई! सुंदर मालिक प्रभु के सुंदर चरण जपते हुए मनुष्य भला नेक बन जाता है।1। रहाउ।

चितवता गोपाल दरसन कलमला कढु धोइ ॥ जनम मरन बिकार अंकुर हरि काटि छाडे खोइ ॥१॥

पद्अर्थ: चितवता = चितवता हुआ, मन में बसाता हुआ। कलमला = पाप। धोइ = धो के। कढु = (अपने अंदर से) दूर कर दे। बिकार अंकुर = विकारों के अंकुर। छाडे खोइ = नाश कर देता है।1।

अर्थ: हे भाई! जगत के पालनहार प्रभु के दर्शनों की तमन्ना मन में बसाता हुआ (भाव, बसा के) (अपने अंदर से सारे) पाप धो के दूर कर ले। (अगर तू हरि-दर्शन की चाहत अपने अंदर पैदा करेगा तो) परमात्मा (तेरे अंदर से) जनम मरण के (सारी उम्र के) विकारों के फूट रहे बीज काट के नाश कर देगा।1।

परा पूरबि जिसहि लिखिआ बिरला पाए कोइ ॥ रवण गुण गोपाल करते नानका सचु जोइ ॥२॥१०२॥१२५॥

पद्अर्थ: परा पूरबि = पूर्बले भाग्यों मुताबिक। पूरबि = पूर्बले समय में। जिसहि = जिस के माथे पर। रवणु = याद करना, स्मरणा। करते = कर्तार के। सचु = सदा कायम रहने वाला। जोइ = जो प्रभु।2।

नोट: ‘जिसहि’ में से ‘जिसि’ की ‘सि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

अर्थ: हे नानक! जो परमात्मा सदा कायम रहने वाला है उस कर्तार गोपाल के गुन गाने- यह दाति कोई वह विरला मनुष्य हासिल करता है जिसके माथे पर पूर्बले समय से (ये लेख) लिखे होते हैं।2।102।125।

सारग महला ५ ॥ हरि के नाम की मति सार ॥ हरि बिसारि जु आन राचहि मिथन सभ बिसथार ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: नाम की मति = नाम स्मरण करने वाली बुद्धि। सार = श्रेष्ट। बिसारि = भुला के। जु = जो मनुष्य। आन = और-और (कामों) में। राचहि = मस्त रहते हैं। मिथन = मिथ्या, नाशवान, व्यर्थं बिसथार = विस्तार, खिलारे, खलजगन।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम स्मरण (की ओर प्रेरित करने) वाली बुद्धि (अन्य कार्यों की तरफ प्रेरित करने वाली बुद्धियों से) श्रेष्ठ है। जो मनुष्य परमात्मा को भुला के और-और आहरों में सदा व्यस्त रहते हैं उनके सारे पसारे (आखिर) व्यर्थ जाते हैं।1।

साधसंगमि भजु सुआमी पाप होवत खार ॥ चरनारबिंद बसाइ हिरदै बहुरि जनम न मार ॥१॥

पद्अर्थ: साध संगमि = साधु-संगत में। भजु = भजन किया कर। खार = ख्वार, नाश। चरनारबिंद = (चरन+अरविंद; अरविंद = कमल फूल) कमल के फूल जैसे सुंदर चरण। बसाइ = बसाए रख। हिरदै = हृदय में। बहुरि = दोबारा। जनम न मार = ना जनम ना मरन।1।

अर्थ: हे भाई! साधु-संगत में (टिक के) मालिक-प्रभु का भजन किया कर (नाम-जपने की इनायत से) सारे पाप नाश हो जाते हैं। हे भाई! परमात्मा के सुंदर चरण अपने हृदय में बसाए रख, दोबारा जनम-मरण का चक्कर नहीं होगा।1।

करि अनुग्रह राखि लीने एक नाम अधार ॥ दिन रैनि सिमरत सदा नानक मुख ऊजल दरबारि ॥२॥१०३॥१२६॥

पद्अर्थ: करि = कर के। अनुग्रह = कृपा। अधार = आसरा। रैनि = रात। सिमरत = स्मरण करते हुए। दरबारि = प्रभु की हजूरी में।2।

अर्थ: हे नानक! मेहर करके जिस मनुष्यों की प्रभु रक्षा करता है, उनको अपने नाम का सहारा देता है। दिन-रात सदा स्मरण करते हुए उनके मुँह प्रभु के दरबार में उज्जवल हो जाते हैं।2।103।126।

सारग महला ५ ॥ मानी तूं राम कै दरि मानी ॥ साधसंगि मिलि हरि गुन गाए बिनसी सभ अभिमानी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मान = आदर, सत्कार। मानी = सत्कार वाली, आदर वाली। कै दरि = के दर पर। साध संगि = सयाध संगति में। मिलि = मिल के। गाए = (जिस ने) गाए। अभिमानी = अहंकार वाली मति।1। रहाउ।

अर्थ: (हे जिंदे! जिस जीव-स्त्री ने) साधु-संगत में मिल के परमात्मा के गुण गाने आरम्भ कर दिए, उसके अंदर से अहंकार वाली मति सारी समाप्त हो गई। (हे जिंदे! अगर तू भी यह उद्यम करे, तो) तू परमात्मा के दर पर अवश्य सत्कार हासिल करेगी।1। रहाउ।

धारि अनुग्रहु अपुनी करि लीनी गुरमुखि पूर गिआनी ॥ सरब सूख आनंद घनेरे ठाकुर दरस धिआनी ॥१॥

पद्अर्थ: धारि = धार के, कर के। अनुग्रहु = कृपा। करि लीनी = बना ली। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रह के। गिआनी = ज्ञान वाली। घनेरे = बहुत। धिआनी = तवज्जो जोड़ने वाली।1।

अर्थ: हे जिंदे! प्रभु ने मेहर करके (जिस जीव-स्त्री को) अपनी बना लिया, वह गुरु के सन्मुख र हके आत्मिक जीवन की पूरी सूझ वाली हो गई। उसके हृदय में सारे सुख अनेक आनंद पैदा हो गए, उसकी तवज्जो मालिक-प्रभु के दर्शनों में जुड़ने लग गई।1।

निकटि वरतनि सा सदा सुहागनि दह दिस साई जानी ॥ प्रिअ रंग रंगि रती नाराइन नानक तिसु कुरबानी ॥२॥१०४॥१२७॥

पद्अर्थ: निकटि = नजदीक। निकटि वरतनि = नजदीक टिकी रहने वाली। सा = वह जीव-स्त्री। सुहागनि = सोहाग भाग्य वाली। दह दिस = दसों दिशाओं में, चारों तरफ। जानी = प्रकट हो जाती है। साई = वही। रंग रंगि = करिश्मों के रंग में प्रिअ रंग रंगि = प्यारे के करिश्मों के रंग में। रती = रंगी हुई।2।

अर्थ: हे जिंदे! जो जीव-स्त्री सदा प्रभु-चरणों में टिकने लग गई, वह सदा के लिए सोहाग-भाग वाली हो गई, वही सारे जगत में प्रकट हो गई। हे नानक! (कह:) मैं उस जीव-स्त्री से सदके हूँ जो प्यारे प्रभु के करिश्मों के रंग में रंगी रहती है।2।104।127।

सारग महला ५ ॥ तुअ चरन आसरो ईस ॥ तुमहि पछानू साकु तुमहि संगि राखनहार तुमै जगदीस ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: तूअ चरन आसरो = तेरे चरणों का आसरा। ईस = ईश, हे ईश्वर! तुमहि = तू ही। पछानू = जान पहिचान। सवाकु = रिश्ता, सन्बंध। जगदीस = हे जगत के ईश्वर! तुमै = तू ही।1। रहाउ।

अर्थ: हे ईश्वर! (हम जीवों को) तेरे चरणों का (ही) आसरा है। तू ही (हमारा) जान-पहचान वाला है, तेरे साथ ही हमारा मेल-मिलाप है। हे जगत के ईश्वर! तू ही (हमारी) रक्षा कर सकने वाला है।1। रहाउ।

तू हमरो हम तुमरे कहीऐ इत उत तुम ही राखे ॥ तू बेअंतु अपर्मपरु सुआमी गुर किरपा कोई लाखै ॥१॥

पद्अर्थ: कहीऐ = (यह) कहा जाता है, हर कोई यही कहता है। इत उत = लोक परलोक में। अपरंपरु = परे से परे। सुआमी = हे मालिक प्रभु! कोई = कोई विरला। लाखै = लखता है, समझता है।1।

अर्थ: हे प्रभु! हरेक जीव यही कहता है कि तू हमारा है हम तेरे हैं, तू ही इस लोक और परलोक में रखवाला है। हे मालिक-प्रभु! तू ही बेअंत है, परे से परे है। किसी विरले मनुष्य ने गुरु की मेहर से ये बात समझी है।1।

बिनु बकने बिनु कहन कहावन अंतरजामी जानै ॥ जा कउ मेलि लए प्रभु नानकु से जन दरगह माने ॥२॥१०५॥१२८॥

पद्अर्थ: बिनु बकने = बोले बिना। अंतरजामी = हरेक दिल की जानने वाला। जानै = जानता है। जा कउ = जो (मनुष्यों) को। नानकु = नाक (कहता) है। से = वे (बहुवचन)। माने = आदर पाते हैं।

अर्थ: नानक (कहता है: हे भाई!) प्रभु हरेक के दिल की जानने वाला है, हमारे बोले बिना, हमारे कहे-कहाए बिना (हमारी जरूरतें) जान लेता है। वह प्रभु! जिस को (अपने चरणों में) जोड़ लेता है, वह मनुष्य उसकी हजूरी में आदर-सम्मान प्राप्त करते हैं।2।105।128।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh