श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सारंग महला ५ चउपदे घरु ५    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

हरि भजि आन करम बिकार ॥ मान मोहु न बुझत त्रिसना काल ग्रस संसार ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: भजि = भजन किया कर। आन करम = अन्य कर्मं बिकार = बेकार, व्यर्थ। काल = आत्मिक मौत। काल ग्रसत = आत्मिक मौत का ग्रसा हुआ।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम का भजन किया कर, (भजन के बिना) अन्य काम (जिंद के लिए) व्यर्थ हैं। (अन्य कर्मों से) अहंकार और मोह (पैदा होता है), तृष्णा नहीं मिटती, दुनिया आत्मिक मौत में फसी रहती है।1। रहाउ।

खात पीवत हसत सोवत अउध बिती असार ॥ नरक उदरि भ्रमंत जलतो जमहि कीनी सार ॥१॥

पद्अर्थ: सोवत = सोते हुए। अउध = उम्र। बिती = बीत जाती है। असार = बेसमझी में। उदरि = पेट में। जलतो = जलता, दुखी होता। जमहि = जमों ने। सार = संभाल।1।

अर्थ: हे भाई! खाते पीते हसते हुए सोए हुए (इस तरह मनुष्य की) उम्र बेसमझी में बीतती जाती है। नर्क समान हरेक जून में (जीव) भटकता है दुखी होता है, जमों के वश पड़ा रहता है।1।

पर द्रोह करत बिकार निंदा पाप रत कर झार ॥ बिना सतिगुर बूझ नाही तम मोह महां अंधार ॥२॥

पद्अर्थ: पर द्रोह = दूसरों से ठगी। पाप रत = पापों में मस्त। कर झार = हाथ झाड़ के, हाथ धो के। बूझ = आत्मिक जीवन की समझ। तम मोह = मोह का अंधेरा। अंधार = अंधेरा।2।

अर्थ: हे भाई! (भजन से टूट के) मनुष्य दूसरों से ठगी करता है, निंदा आदि कुकर्म करता है, बेपरवाह हो के पापों में मस्त रहता है। गुरु की शरण के बिना (मनुष्य को) आत्मिक जीवन की समझ नहीं पड़ती, मोह के घोर अंधकार में पड़ा रहता है।2।

बिखु ठगउरी खाइ मूठो चिति न सिरजनहार ॥ गोबिंद गुपत होइ रहिओ निआरो मातंग मति अहंकार ॥३॥

पद्अर्थ: बिखु = आत्मिक मौत लाने वाला जहर। ठगउरी = ठग बूटी माया। मूठो = लूटा जाता है। चिति = चिक्त में। गुपत = छुपा हुआ। निआरो = अलग। मातंग = हाथी।3।

अर्थ: हे भाई! आत्मक मौत लाने वाली माया-ठग-बूटी खा के मनुष्य (की आत्मिक संपत्ति) लूटा जाता है, इसके मन में परमात्मा की याद नहीं होती, अहंकार की मति के कारण हाथी की तरह (फूला रहता है, इसके अंदर ही) परमात्मा छुपा बैठा है, पर उससे अलग ही रहता है।3।

करि क्रिपा प्रभ संत राखे चरन कमल अधार ॥ कर जोरि नानकु सरनि आइओ गुोपाल पुरख अपार ॥४॥१॥१२९॥

पद्अर्थ: करि = कर के। अधार = आसरा। कर = हाथ (बहुवचन)। जोरि = जोड़ के। गुोपाल (असल शब्द है ‘गोपाल’, यहां ‘गुपाल’ पढ़ना है)। अपार = हे बेअंत!।4।

अर्थ: हे भाई! प्रभु जी ने मेहर करके अपने संतों को अपने सुंदर चरणों के आसरे (इस ‘बिखु ठगउरी’ से) बचाए रखा है।

हे गोपाल! हे अकाल पुरख! हे बेअंत! छोनों हाथ जोड़ कर नानक (तेरी) शरण आया है (इसकी भी रक्षा कर)।4।1।129।

सारग महला ५ घरु ६ पड़ताल    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

सुभ बचन बोलि गुन अमोल ॥ किंकरी बिकार ॥ देखु री बीचार ॥ गुर सबदु धिआइ महलु पाइ ॥ हरि संगि रंग करती महा केल ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: बोलि = उचारा कर। किंकरी = दासी (किंकर = दास)। किंकरी बिकार = हे विकारों की दासी! री = हे जीव-स्त्री! महलु = प्रभु चरणों में जगह। संगि = साथ। रंग करती = आनंद भोगती। केल = आनंद।1। रहाउ।

अर्थ: हे विकारों की दासी (हो चुकी जीव-स्त्री)! होश कर (बिचार के देख)। परमात्मा के अमूल्य गुण (सभी वचनों से) शुभ वचन हैं: इनका उच्चारण किया कर। (हे जीव-स्त्री!) गुरु का शब्द अपने मन में टिकाए रख (और, शब्द की इनायत से) प्रभु-चरणों में ठिकाना प्राप्त कर। (जो जीव-स्त्री प्रभु-चरणों में टिकती है, वह) परमात्मा में जुड़ के बड़े आत्मिक आनंद भोगती है।1। रहाउ।

सुपन री संसारु ॥ मिथनी बिसथारु ॥ सखी काइ मोहि मोहिली प्रिअ प्रीति रिदै मेल ॥१॥

पद्अर्थ: मिथनी = नाशवान। सखी = हे सखी! काइ = क्यों? मोहि = मोह में। मोहिली = मोह में फसी है। प्रिअ प्रीति = प्यारे की प्रीति। रिदै = हृदय में।1।

अर्थ: हे सखी! यह जगत सपने जैसा है, (इसका सारा) पसारा नाशवान है। तू इस के मोह में क्यों फसी हुई है? प्रीतम प्रभु की प्रीति अपने हृदय में बसाए रख।1।

सरब री प्रीति पिआरु ॥ प्रभु सदा री दइआरु ॥ कांएं आन आन रुचीऐ ॥ हरि संगि संगि खचीऐ ॥ जउ साधसंग पाए ॥ कहु नानक हरि धिआए ॥ अब रहे जमहि मेल ॥२॥१॥१३०॥

पद्अर्थ: दइआरु = दयालु। कांऐं = क्यों? आन आन = और-और (पदार्थों में)। रुचीऐ = प्रीत बनाई हुई है। संगि = साथ। खचीऐ = मस्त रहना चाहिए। जउ = जब। रहे = समाप्त हो जाता है। जमहि मेल = जमों से वाह।2।

अर्थ: हे सखी! प्रभु सदा ही दया का घर है, वह सब जीवों से प्रीत करता है प्यार करता है। हे सखी! (उसको भुला के) और-और पदार्थों में प्यार नहीं डालना चाहिए। सदा परमात्मा के प्यार में ही मस्त रहना चाहिए। हे नानक! कह: जब (कोई भाग्यशाली मनुष्य) साधु-संगत का मिलाप करता है और परमात्मा का ध्यान धरता है, तब जमों से उसका सामना नहीं पड़ता।2।1।130।

सारग महला ५ ॥ कंचना बहु दत करा ॥ भूमि दानु अरपि धरा ॥ मन अनिक सोच पवित्र करत ॥ नाही रे नाम तुलि मन चरन कमल लागे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: कंचना = सोना। दत करा = दान किया। भूमि = जमीन। अरपि = अर्पित करके। धरा = धर दी, दे दी। सोच = स्वच्छता। करत = करता। रे मन = हे मन! तुलि = समान, बराबर। लागे = लागि, लगा रह।1। रहाउ।

अर्थ: हे मन! अगर कोई मनुष्य बहुत सोना दान करता है, जमीन अरप के दान करता है, कई तरह के स्वच्छता भरी क्रियाओं से (शरीर को) पवित्र करता है, (यह उद्यम) परमात्मा के नाम के बराबर नहीं हैं। हे मन! परमात्मा के सुंदर चरणों में जुडा रह।1। रहाउ।

चारि बेद जिहव भने ॥ दस असट खसट स्रवन सुने ॥ नही तुलि गोबिद नाम धुने ॥ मन चरन कमल लागे ॥१॥

पद्अर्थ: जिहव भने = जीभ से उचारता है। दस असट = अठसरह पुराण। खसट = छह शास्त्र। स्रवन = कानों से। नाम धुने = नाम की धुनि। मन = हे मन!।1।

अर्थ: हे मन! अगर कोई मनुष्य चारों वेद अपनी जीभ से उचारता रहता है, अठारह पुराण और छह शास्त्र कानों से सुनता रहता है (यह काम) परमात्मा की लगन के बराबर नहीं हैं। हे मन! प्रभु के सुंदर चरणों में प्रीत बनाए रख।1।

बरत संधि सोच चार ॥ क्रिआ कुंटि निराहार ॥ अपरस करत पाकसार ॥ निवली करम बहु बिसथार ॥ धूप दीप करते हरि नाम तुलि न लागे ॥ राम दइआर सुनि दीन बेनती ॥ देहु दरसु नैन पेखउ जन नानक नाम मिसट लागे ॥२॥२॥१३१॥

पद्अर्थ: संधि = संधिआ। सोच चार = स्वच्छाचार, पवित्रतता (शरीरिक)। क्रिआ कुंटि = चार कुंटों में भ्रमण। निराहार = भूखे रह के। पाकसार = पाकशाल, रसोई। अपरस = अ+परस, किसी से नहीं छूना। निवली करम = (कब्ज से बचने के लिए) पेट की आँतों को चक्कर देना। न लागे = नहीं पहुँचते। राम दइआर = हे दयाल हरि! दीन बेनती = गरीब की विनती। पेखउ = मैं देखूँ। मिसट = मीठा।2।

अर्थ: हे मन! व्रत, संध्या, शारीरिक पवित्रता, (तीर्थ-यात्रा आदि के लिए) चार कुंटों में भूखे रहके भटकते फिरना, बिना किसी से छूए अपनी रसोई तैयार करनी, (आँतों को घुमाने का अभ्यास), निवली कर्म करना, और ऐसे पसारे पसारने, (देव-पूजा के लिए) धूपें-धुखानीं दीए जगाने- ये सारे ही उद्यम परमात्मा के नाम की बराबरी नहीं करते।

हे दास नानक! (कह:) हे दया के श्रोत प्रभु! मेरी गरीब की विनती सुन। अपने दर्शन दे, मैं तुझे अपनी आँखों से (सदा) देखता रहूँ, तेरा नाम मुझे मीठा लगता रहे।2।2।131।

सारग महला ५ ॥ राम राम राम जापि रमत राम सहाई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जापि = जपा कर। रमत = जपते हुए। सहाई = मददगार।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! सदा सदा परमात्मा (के नाम का जाप) जपा कर, (नाम) जपते हुए (वह) परमात्मा (हर जगह) सहायता करने वाला है।1। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh