श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1235 से दरि साचै साचु कमावहि जिन गुरमुखि साचु अधारा ॥ मनमुख दूजै भरमि भुलाए ना बूझहि वीचारा ॥७॥ पद्अर्थ: से = वह लोग। दरि साचै = सदा स्थिर प्रभु के दर पर। साचु कमावहि = सदा स्थिर हरि नाम जपने की कमाई करते हें। अधारा = आसरा। साचु = सदा स्थिर हरि नाम। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। भुलाए = गलत राह पर पड़े हुए।7। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों को गुरु के द्वारा सदा-स्थिर हरि-नाम का आसरा मिल जाता है, वे मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु के दर पे (चरणों में) टिक के सदा-स्थिर हरि-नाम जपने की कमाई करते हें। पर अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य माया की भटकना के कारण गलत राह पर पड़े रहते हैं, उनको (आत्मिक जीवन वाली सही) विचार नहीं सूझती।7। आपे गुरमुखि आपे देवै आपे करि करि वेखै ॥ नानक से जन थाइ पए है जिन की पति पावै लेखै ॥८॥३॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख। करि = कर के। आपे = आप ही। थाइ पए = स्वीकार हो गए। पति = इज्जत। पावै लेखै = लेखे में डालता है, स्वीकार करता है।8। अर्थ: हे भाई! प्रभु स्वयं ही (जीव को) गुरु की शरण में डाल के स्वयं ही (अपने नाम की दाति) देता है, स्वयं ही (ये सारा तमाशा) कर-कर के देखता है। हे नानक! वही व्यक्ति स्वीकार होते हैं, जिनकी इजजत प्रभु स्वयं ही रखता है।8।3। सारग महला ५ असटपदीआ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ गुसाईं परतापु तुहारो डीठा ॥ करन करावन उपाइ समावन सगल छत्रपति बीठा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: गुसाई = हे गो+साई! हे धरती के मालिक! परतापु = समरथा। करन करावन = तू सब कुछ करने योग्य और जीवों से करवाने की समर्थता वाला है। उपाइ = पैदा कर के। समावन = समा लेने वाला। सगल = सब जीवों का। छत्रपति = राजा। बीठा = बैठा हुआ है, व्यापक है।1। रहाउ। अर्थ: हे जगत के पति! (मैंने) तेरी (अजब) ताकत सामर्थ्य देखी है। तू सब कुछ कर सकने योग्य है, (जीवों से) करवा सकने में समर्थ है, तू (जगत) पैदा करके फिर इसको अपने आप में लीन कर लेने वाला है। तू सब जीवों पर बादशाह (बन के) बैठा हुआ है।1। रहाउ। राणा राउ राज भए रंका उनि झूठे कहणु कहाइओ ॥ हमरा राजनु सदा सलामति ता को सगल घटा जसु गाइओ ॥१॥ पद्अर्थ: राउ = राजा। रंका = कंगाल। उनि = उन्होंने। सलामति = कायम रहने वाला। ता को जसु = उसका यश। सगल घटा = सारे शरीरों ने।1। अर्थ: हे भाई! (प्रभु की रजा अनुसार) राजे बादशाह कंगाल हो जाते हैं। उन राजाओं ने तो अपने आप को झूठा ही राजा कहलिवाया। हे भाई! हमारा प्रभु-पातशाह सदा कायम रहने वाला है। सारे ही जीवों ने उसका (सदा) यश गाया है।1। उपमा सुनहु राजन की संतहु कहत जेत पाहूचा ॥ बेसुमार वड साह दातारा ऊचे ही ते ऊचा ॥२॥ पद्अर्थ: उपमा = महिमा, बड़ाई। संतहु = हे संत जनो! जेत कहत = जो उपमा करते हैं। पाहूचा = (उसके चरणों में) पहुँच जाते हैं।2। अर्थ: हे संत जनो! उस प्रभु-पातशाह की महिमा सुनो। जितने भी जीव उसकी बड़ाई कहते हैं वे उसके चरणों में पहुँचते हैं। उसकी ताकत का अंदाजा नहीं लग सकता, सब जीवों को दातें देने वाला वह बड़ा शाहु है, वह ऊँचों से ऊँचा है।2। पवनि परोइओ सगल अकारा पावक कासट संगे ॥ नीरु धरणि करि राखे एकत कोइ न किस ही संगे ॥३॥ पद्अर्थ: पवनि = पवन से, प्राणों से, श्वासों से। अकारा = जगत, शरीर। पावक = आग। कासट = काठ, लकड़ी। संगे = साथ। नीरु = पानी। धरणि = धरती। एकत = एक जगह, इकट्ठे। संगे = साथ।3। नोट: ‘किस ही’ में से ‘किसि’ की ‘सि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है। अर्थ: हे भाई! सारे शरीरों को श्वासों की हवा के साथ परो के रखा हुआ है, उसने आग को लकड़ी के साथ बाँध रखा है। उसने पानी और धरती एक साथ रखे हुए हैं। (इनमें से) कोई किसी के साथ (वैर नहीं कर सकता। पानी धरती को डूबाता नहीं, आग काठ को जलाती नहीं)।3। घटि घटि कथा राजन की चालै घरि घरि तुझहि उमाहा ॥ जीअ जंत सभि पाछै करिआ प्रथमे रिजकु समाहा ॥४॥ पद्अर्थ: घटि घटि = हरेक शरीर में राजन की = प्रभु पातशाह की। तुझहि = तेरे ही (दर्शन की)। उमाहा = चाव, उत्साह। सभि = सारे। पाछै = पीछे से, बाद में। प्रथमे = पहले। समाहा = पहुँचा।4। अर्थ: हे भाई! उस प्रभु-पातशाह की महिमा की कहानी हरेक के शरीर में चल रही है। हे प्रभु! हरेक हृदय में तेरे मिलाप के लिए उत्साह है। तू सारे जीवों को बाद में पैदा करता है, पहले उनके लिए रिज़क पहुँचाता है।4। जो किछु करणा सु आपे करणा मसलति काहू दीन्ही ॥ अनिक जतन करि करह दिखाए साची साखी चीन्ही ॥५॥ पद्अर्थ: आपे = (प्रभु ने) आप ही। मसलति = सलाह, मश्वरा। काहू = किस ने? दीनी = दीन्ही, दी। करि = कर के। करह = हम करते हैं। दिखाए = दिखाए। साखी = शिक्षा, सबक। चीनी = चीन्ही, पहचानी, समझी।5। नोट: ‘करह’ है वर्तमान काल, उत्तम पुरख, बहुवचन। अर्थ: हे भाई! मैंने यह अटल सबक सीख लिया है (कि परमात्मा का प्रताप बेअंत है) जो कुछ वह करता है वह स्वयं ही करता है, किसी ने कभी उसको कोई सलाह नहीं दी। हम जीव चाहे (अपनी बुद्धि के प्रगटावे के लिए) दिखावे के अनेक यत्न करते हैं।5। हरि भगता करि राखे अपने दीनी नामु वडाई ॥ जिनि जिनि करी अवगिआ जन की ते तैं दीए रुड़्हाई ॥६॥ पद्अर्थ: करि राखे अपने = अपने बना के रक्षा की। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। अवगिआ = निरादरी। ते = वे (बहुवचन)। तै = तू। दीए रुढ़ाई = रोढ़ दिए, मोह के समुंदर में डुबो दिए।6। अर्थ: हे भाई! (ये परमात्मा का प्रताप है कि) परमातमा अपने भक्तों की अपना बना के रक्षा करता है, भक्तों को अपना नाम बख्शता है, बड़ाई देता है। हे प्रभु! जिस-जिस ने कभी तेरे भगतों की निरादरी की, तूने उनको (विकारों के समुंदर में) बहा दिया।6। मुकति भए साधसंगति करि तिन के अवगन सभि परहरिआ ॥ तिन कउ देखि भए किरपाला तिन भव सागरु तरिआ ॥७॥ पद्अर्थ: मुकति भए = विकारों से बच निकले। करि = कर के। सभि = सारे। परहरिआ = दूर कर दिए। कउ = को। देखि = देख के। किरपाला = दयावान। भव सागरु = संसार समुंदर।7। अर्थ: हे भाई! साधु-संगत कर के (विकारी भी) विकारों से बच निकले, प्रभु ने उनके सारे अवगुण नाश कर दिए। गुरु की संगति में आने वालों को देख के प्रभु जी सदा मेहरवान होते हैं, और, वे लोग संसार-समुंदर से पार लांघ जाते हैं।7। हम नान्हे नीच तुम्हे बड साहिब कुदरति कउण बीचारा ॥ मनु तनु सीतलु गुर दरस देखे नानक नामु अधारा ॥८॥१॥ पद्अर्थ: नाने = नान्हे, बहुत छोटे। साहिब = मालिक। कुदरति = ताकत, सामर्थ्य। कुदरति कउण = क्या ताकत है? बीचारा = मैं विचार सकूँ (तेरा प्रताप)। गुर दरस = गुरु का दर्शन। आधारा = आसरा।8। अर्थ: हे मालिक-प्रभु! तू बहुत बड़ा है, हम जीव (तेरे सामने) बहुत ही छोटे और तुच्छ से (कीट समान) हैं। मेरी क्या ताकत है कि तेरे प्रताप का अंदाजा लगा सकूँ? हे नानक! कह: गुरु के दर्शन करके मनुष्य का मन-तन ठंडा-ठार हो जाता है, और, मनुष्य को प्रभु का नाम-आसरा मिल जाता है।8।1। सारग महला ५ असटपदी घरु ६ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ अगम अगाधि सुनहु जन कथा ॥ पारब्रहम की अचरज सभा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: अगम कथा = अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु की महिमा। अगाधि = अथाह। जन = हे जनो! अचरज = आश्चर्यजनक, हैरान कर देने वाली। सभा = कचहरी, दरबार।1। रहाउ। अर्थ: हे संत जनो! अगम्य (पहुँच से परे) और अथाह परमात्मा की महिमा सुना करो। उस परमात्मा का दरबार हैरान करने वाला है।1। रहाउ। सदा सदा सतिगुर नमसकार ॥ गुर किरपा ते गुन गाइ अपार ॥ मन भीतरि होवै परगासु ॥ गिआन अंजनु अगिआन बिनासु ॥१॥ पद्अर्थ: सतिगुर नमसकार = गुरु को सिर झुकाओ। ते = से, के द्वारा। गुन अपार गाइ = बेअंत प्रभु के गुण गा के। परगासु = रोशनी। गिआन अंजनु = आत्मिक जीवन की सूझ का सुरमा। अगिआन = आत्मिक जीवन प्रति बेसमझी।1। अर्थ: हे संत जनो! सदा ही गुरु के दर पर सिर झुकाया करो। गुरु की मेहर से बेअंत प्रभु के गुण गा के मन में आत्मिक जीवन का प्रकाश पैदा हो जाता है, (गुरु से मिला हुआ) आत्मिक जीवन की सूझ का सुर्मा आत्मिक जीवन के प्रति अज्ञानता का नाश कर देता है।1। मिति नाही जा का बिसथारु ॥ सोभा ता की अपर अपार ॥ अनिक रंग जा के गने न जाहि ॥ सोग हरख दुहहू महि नाहि ॥२॥ पद्अर्थ: मिति = हद बंदी, अंदाजा, माप। जा का = जिस (परमात्मा) का। बिसथारु = जगत पसारा। अपर = परे से परे (अ+पर)। रंग = करिश्मे। सोग = गम। हरख = खुशी।2। अर्थ: हे संत जनो! जिस परमात्मा का (यह सारा) जगत-पसारा (बनाया हुआ) है उस (की सामर्थ्य) की सीमा को नहीं आँका जा सकता उस प्रभु की बड़ाई बेअंत है बेअंत है। हे संत जनो! जिस परमात्मा के अनेक ही करिश्मे-तमाशे हैं, जो गिने नहीं जा सकते, वह परमात्मा खुशी और ग़मी दोनों से परे रहता है।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |