श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1236 अनिक ब्रहमे जा के बेद धुनि करहि ॥ अनिक महेस बैसि धिआनु धरहि ॥ अनिक पुरख अंसा अवतार ॥ अनिक इंद्र ऊभे दरबार ॥३॥ पद्अर्थ: ब्रहमे = कई ब्रहमा (बहुवचन)। जा के = जिस (प्रभु) के पैदा किए हुए। करहि = करते हैं। धुनि करहि = उचारते हें (ध्वनि = आवाज)। महेस = महेश, शिव। बैसि = बैठ के। अंसा = अंश, कुछ हिस्सा। अंसा अवतार = वह अवतार जिनमें परमात्मा की थोड़ी सी आत्मिक ताकत अवतरित हुई हो। अवतार = उतरे हुए, अवतरित हुए। ऊभे = खड़े हुए।3। अर्थ: हे संत जनो! (उस प्रभु का दरबार हैरान कर देने वाला है) जिसके पैदा किए हुए अनेक ही ब्रहमा गण, (उसके दर पर) वेदों का उच्चारण कर रहे हैं, अनेक ही शिव बैठ के उसका ध्यान धर रहे हैं, और अनेक ही छोटे-छोटे उसके अवतार है, अनेक ही इन्द्र और देवतागण उसके दर पर खड़े रहते हैं।3। अनिक पवन पावक अरु नीर ॥ अनिक रतन सागर दधि खीर ॥ अनिक सूर ससीअर नखिआति ॥ अनिक देवी देवा बहु भांति ॥४॥ पद्अर्थ: पवन = हवा। पावक = आग। अरु = और (अरि = वैरी)। नीर = पानी। सागर = समुंदर। दधि = दही। खीर = दूध। सूर = सूरज। ससीअर = शशधर, चंद्रमा। नखिआति = तारे, नक्षत्र। बहु भांति = कई किस्मों के।4। अर्थ: (हे संत जनो! परमात्मा का दरबार हैरान कर देने वाला है, उसके पैदा किए हुए) अनेक ही हवा पानी और आग (आदि) हैं, (उसके पैदा किए हुए) अनेक ही रत्नों के, दही के, दूध के समुंदर हैं। (उसके बनाए हुए) अनेक ही सूर्य चँद्रमा और तारे हैं, और कई किस्मों के अनेक ही देवियाँ और देवतागण हैं।4। अनिक बसुधा अनिक कामधेन ॥ अनिक पारजात अनिक मुखि बेन ॥ अनिक अकास अनिक पाताल ॥ अनिक मुखी जपीऐ गोपाल ॥५॥ पद्अर्थ: बसुधा = धरती। कामधेन = (धेनु = गाय) मनों कामना पूरी करने वाली गउएं। पारजात = स्वर्ग का एक वृक्ष जो मन माँगी मुरादें पूरी करने वाला माना जाता है। मुखि = मुँह में। बेन = बाँसुरी। मुखि बेन = मुँह में बाँसुरी रखने वाला, कृष्ण। मुखी = मुँह से। जपीऐ = जपा जा रहा है।5। अर्थ: (हे संत जनो! परमात्मा का दरबार आश्चर्यजनक है, उसके पैदा की हुई) अनेक धरतियाँ और अनेक ही मनोकामना पूरी करने वाली स्वर्ग की गउएं हैं, अनेक ही पारजात वृक्ष और अनेक ही कृष्ण हैं, अनेक ही आकाश और अनेक ही पाताल हैं। हे संत जनो! उस गोपाल को अनेक ही मुँहों द्वारा जपा जा रहा है। (अनेक जीव उसका नाम जपते हैं)।5। अनिक सासत्र सिम्रिति पुरान ॥ अनिक जुगति होवत बखिआन ॥ अनिक सरोते सुनहि निधान ॥ सरब जीअ पूरन भगवान ॥६॥ पद्अर्थ: जुगति = तरीका, ढंग। बखिआन = व्याख्यान, उपदेश। सरोते = श्रोते, सुनने वाले। सुनहि = सुनते हैं (बहुवचन)। निधान = खजाना हरि। सरब जीअ = सब जीवों में। पूरन = व्यापक।6। अर्थ: (हे संत जनो! परमात्मा का दरबार हैरान कर देने वाला है,) अनेक शास्त्रों-स्मृतियों और पुराणों के द्वारा अनेक (ढंग) -तरीकों से (उसके गुणों का) उपदेश हो रहा है। हे संत जनो! अनेक ही सुनने वाले उस गुणों के खजाने प्रभु की तारीफ सुना रहे हैं। हे संत जनो! वह भगवान सारे ही जीवों में व्यापक है।6। अनिक धरम अनिक कुमेर ॥ अनिक बरन अनिक कनिक सुमेर ॥ अनिक सेख नवतन नामु लेहि ॥ पारब्रहम का अंतु न तेहि ॥७॥ पद्अर्थ: धरम = धर्मराज। कुमेर = कुबेर, धन का देवता। बरन = वरुण, समुंदर का देवता। कनिक = सोना। सेख = शेशनाग। नवतन = नया। लेहि = लेते हैं। तेहि = उन्होंने।7। अर्थ: (हे संत जनो! उस परमात्मा के पैदा किए हुए) अनेक धर्मराज हैं अनेक ही धन के देवता कुबेर हैं, अनेक समुंदर के देवता वरुण हैं और अनेक ही सोने के सुमेर पर्वत है, अनेक ही उसके बनाए हुए शेशनाग हैं जो (हर रोज उसका) नया ही नाम लेते हैं। हे संत जनो! उनमें से किसी ने भी उसके (के गुणों) का अंत नहीं पाया।7। अनिक पुरीआ अनिक तह खंड ॥ अनिक रूप रंग ब्रहमंड ॥ अनिक बना अनिक फल मूल ॥ आपहि सूखम आपहि असथूल ॥८॥ पद्अर्थ: तह = वहाँ। खंड = धरतियों के टोटे। बना = जंगल। आपहि = आप ही। सूखम = सूक्ष्म, अदृश्य। असथूल = स्थूल, दृश्यमान।8। अर्थ: (हे संत जनो! परमात्मा का दरबार हैरान कर देने वाला है, उसके पैदा किए हुए) अनेक रूपों-रंगों के ब्रहमंड हैं अनेक पुरीयाँ हैं। उसके पैदा किए हुए अनेक जंगल और उनमें उगने वाले अनेक किस्मों के फल और कंद-मूल हें। वह परमात्मा ही स्वयं ही अदृश्य है, वह स्वयं ही इस दिखाई देते जगत-तमाशे के रूप में दृश्यमान है।8। अनिक जुगादि दिनस अरु राति ॥ अनिक परलउ अनिक उतपाति ॥ अनिक जीअ जा के ग्रिह माहि ॥ रमत राम पूरन स्रब ठांइ ॥९॥ पद्अर्थ: जुगादि = जुग आदि। परलउ = जगत का नाश। उतपाति = उत्पक्ति, पैदायश। जीअ = जीव। रमत = व्यापक। स्रब ठांइ = सब जगहों में।9। नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन। अर्थ: हे संत जनो! उस परमात्मा के बनाए हुए अनेक ही युग आदिक हैं, अनेक ही दिन हैं और अनेक ही रातें हैं। वह अनेक बार जगत का नाश करता है और अनेक बार जगत-उत्पक्ति करता है। हे संतजनो! (वह परमात्मा ऐसा गृहस्थी है) कि उसके घर में अनेक ही जीव हैं, वह सब जगहों में व्यापक है सब जगहों में मौजूद है।9। अनिक माइआ जा की लखी न जाइ ॥ अनिक कला खेलै हरि राइ ॥ अनिक धुनित ललित संगीत ॥ अनिक गुपत प्रगटे तह चीत ॥१०॥ पद्अर्थ: जा की = जिस (परमात्मा) की (रची हुई)। लखी न जाइ = समझी नहीं जा सकती। कला = ताकत। हरि राइ = प्रभु पातशाह। ललित = सुंदर। धुनित = धुनियां हो रही हैं। गुपत चीत = चित्र गुप्त। तह = वहां।, उसके दरबार में।10। अर्थ: (हे संत जनो! परमात्मा का दरबार हैरान कर देने वाला है) जिस की (रची हुई) अनेक रंगों की माया समझी नहीं जा सकती, वह प्रभु-पातशाह अनेक करिश्मे रच रहा है। (उसके दर पर) अनेक सुरीले रागों की धुनियां चल रही हैं। वहँ अनेक ही चित्र-गुप्त प्रत्यक्ष दिखाई दे रहे हैं।10। सभ ते ऊच भगत जा कै संगि ॥ आठ पहर गुन गावहि रंगि ॥ अनिक अनाहद आनंद झुनकार ॥ उआ रस का कछु अंतु न पार ॥११॥ पद्अर्थ: जा के संगि = जिस के साथ, जिसके दर पर। गावहि = गाते हैं। रंगि = प्रेम से। अनाहद = बिना बजाए बज रहे। झुनकार = मीठी आवाज। उआ का = उसका।11। अर्थ: हे संत जनो! वह परमात्मा सबसे ऊँचा है जिसके दर पर अनेक भक्त प्रेम से आठों पहर उसकी महिमा के गीत गाते रहते हैं। उसके दर पर बिना बजाए बाजे बज रहे साजों की मीठी सुर का आनंद बना रहता है, उस आनंद का अंत अथवा परला छोर नहीं पाया जा सकता (वह आनंद अमुक है)।11। सति पुरखु सति असथानु ॥ ऊच ते ऊच निरमल निरबानु ॥ अपुना कीआ जानहि आपि ॥ आपे घटि घटि रहिओ बिआपि ॥ क्रिपा निधान नानक दइआल ॥ जिनि जपिआ नानक ते भए निहाल ॥१२॥१॥२॥२॥३॥७॥ पद्अर्थ: सति = सदा कायम। निरबानु = वासना रहित। जानहि = तू जानता है। आपे = आप ही। घटि घटि = हरेक घट में। क्रिपा निधान = हे कृपा के खजाने! दइआल = हे दया के घर! जिनि = जिस जिस ने। ते = वे सारे। निहाल = प्रसन्न चिक्त।12। अर्थ: हे संत जनो! वह परमात्मा सदा कायम रहने वाला है, उसका स्थान भी अटल है। वह ऊँचों से ऊँचा है, पवित्र-स्वरूप है, वासना-रहित है। हे नानक! (कह:) हे प्रभु! अपने रचे (जगत) को तू स्वयं ही जानता है, तू स्वयं ही हरेक शरीर में मौजूद है। हे दया के खजाने! हे दया के श्रोत! जिस जिस ने (तेरा नाम) जपा है, वह सब प्रसन्न-चिक्त रहते हैं।12।1।2।2।3।7। वेरवा: नोट: गुरु अरजन साहिब जी की 1 अष्टपदी ‘घरु १’ की, दूसरी ‘घरु ६’ की है।
सारग छंत महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सभ देखीऐ अनभै का दाता ॥ घटि घटि पूरन है अलिपाता ॥ घटि घटि पूरनु करि बिसथीरनु जल तरंग जिउ रचनु कीआ ॥ हभि रस माणे भोग घटाणे आन न बीआ को थीआ ॥ हरि रंगी इक रंगी ठाकुरु संतसंगि प्रभु जाता ॥ नानक दरसि लीना जिउ जल मीना सभ देखीऐ अनभै का दाता ॥१॥ पद्अर्थ: सभ = सारी सृष्टि में। देखीऐ = दिखता है। अनभै = अनभय पद, वह अवस्था जिसमें कोई डर नहीं रह जाता। घटि घटि = हरेक शरीर में। अलिपाता = निर्लिप। पूरनु = व्यापक। करि = कर के। बिसथीरनु = जगत पसारा। तरंग = लहरें। रचनु कीआ = रचना रची है। हभि = सारे। घटाणे = हरेक घट में। आन = और। बीआ = दूसरा। को = कोई भी। रंगी = सब रंगों का रचने वाला। इक रंगी = एक रस व्यापक। संगि = संगति में। जाता = जाना जाता है। दरसि = दर्शन में। मीना = मछली।1। अर्थ: हे भाई! निर्भयता की अवस्था देने वाला प्रभु सारी सृष्टि में बसता दिख रहा है। वह प्रभु हरेक शरीर में व्यापक है, फिर भी निर्लिप रहता है। जैसे पानी की लहरों (में पानी मौजूद है) परमात्मा जगत-रचना का खिलारा रच के स्वयं हरेक शरीर में व्यापक है। हरेक शरीर में व्यापक हो के वह सारे रस भोगता है, (उसके बिना कहीं भी) कोई दूसरा नहीं है। हे भाई! सब रंगों का रचने वाला वह मालिक-हरि एक-रस सबमें व्यापक है। संत-जनों की संगति में टिक के उस प्रभु के साथ सांझ डाली जा सकती है। हे नानक! मैं उसके दर्शन में इस तरह लीन रहता हूँ जैसे मछली पानी में। निर्भयता का दान देने वाला वह प्रभु सारी सृष्टि में दिखाई दे रहा है।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |