श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1237 कउन उपमा देउ कवन बडाई ॥ पूरन पूरि रहिओ स्रब ठाई ॥ पूरन मनमोहन घट घट सोहन जब खिंचै तब छाई ॥ किउ न अराधहु मिलि करि साधहु घरी मुहतक बेला आई ॥ अरथु दरबु सभु जो किछु दीसै संगि न कछहू जाई ॥ कहु नानक हरि हरि आराधहु कवन उपमा देउ कवन बडाई ॥२॥ पद्अर्थ: उपमा = (मा = मापना। उपमा = किसी के बराबर का कोई बताना) बराबर के बताने का उद्यम। देउ = दो, मैं दूँ। कउन उपमा देउ = मैं क्या बताऊँ कि उस जैसा और कौन है? मैं उसकी कोई बराबरी नहीं बता सकता। पूरन = व्यापक। स्रब ठाई = सब जगह। मन मोहन = मन को मोहने वाला। घट घट सोहण = हरेक शरीर को सुंदर बनाने वाला। खिंचे = खींच लेता है। छाई = राख, कुछ भी नहीं रह जाता। मिलि करि = मिल के। साधहु = हे संत जनो! घरी मुहतक = घड़ी आधी घड़ी तक। बेला = (यहाँ से चले जाने का) वक्त। दरबु = द्रव्य, धन। अरथु दरबु = धन पदार्थ। संगि = साथ। जाई = जाता।2। अर्थ: हे संत जनो! मैं उस परमात्मा के बराबर किसी को भी नहीं बता सकता। वह कितना बड़ा है; यह भी नहीं बता सकता। वह सर्व व्यापक है, सब जगह मौजूद है। वह प्रभु सर्व-व्यापक है, सबके मनों की आकर्षित करने वाला है, सब शरीरों को (अपनी ज्योति से) सुंदर बनाने वाला है। जब वह अपनी ज्योति खींच लेता है, तब कुछ भी नहीं रह जाता। हे संत जनो! घड़ी आधी घड़ी को (हरेक जीव का यहाँ से चले जाने का) वक्त आ ही जाता है, फिर क्यों ना मिल के उसके नाम की आराधना करो? हे संत जनो! धन-पदार्थ ये सब कुछ जो दिखाई दे रहा है, कोई भी चीज़ (किसी के) साथ नहीं जाती। हे नानक! कह: हे भाई! सदा परमात्मा का नाम स्मरण किया करो। मैं उसके बराबर का किसी को नहीं बता सकता। वह कितना बड़ा है; यह भी नहीं बता सकता।2। पूछउ संत मेरो ठाकुरु कैसा ॥ हींउ अरापउं देहु सदेसा ॥ देहु सदेसा प्रभ जीउ कैसा कह मोहन परवेसा ॥ अंग अंग सुखदाई पूरन ब्रहमाई थान थानंतर देसा ॥ बंधन ते मुकता घटि घटि जुगता कहि न सकउ हरि जैसा ॥ देखि चरित नानक मनु मोहिओ पूछै दीनु मेरो ठाकुरु कैसा ॥३॥ पद्अर्थ: पूछउ = मैं पूछता हूँ। संत = हे संत! हे गुरु! कैसा = किस तरह का? हींउ = हृदय, मन। अरापउ = अर्पित करूँ, मैं भेट करता हूँ। सदेसा = संदेशा, खबर। कह = कहाँ? मोहन परवेसा = मोहन प्रभु का ठिकाना। पूरन = सर्व व्यापक। ब्रहमाई = ब्रहम। पूरन ब्रहमाई = पूरन ब्रहम। थान थानंतर = थान थान अंतर, सब जगहों में। ते = से। मुकता = आजाद। घटि घटि = हरेक शरीर में। जुगता = मिला हुआ। कहि न सकउ = कह ना सकूँ, मैं बता नहीं सकता। जैसा = जिस तरह का। देखि = देख के। चरित = चोज तमाशे। पूछै = पूछता है। दीनु = गरीब सेवक।3। अर्थ: हे भाई! (गुरु से) मैं पूछता हूँ- हे गुरु! मेरा मालिक प्रभु किस प्रकार का है? मुझे (ठाकुर की) खबर बता, मैं अपना हृदय (तेरे चरणों में) भेटा करता हूँ। हे गुरु! मुझे बता कि प्रभु जी किस तरह के हैं और उस मोहन-प्रभु का ठिकाना कहाँ है। (आगे से उक्तर मिलता है:) वह पूर्ण प्रभु सब जगहों में सब देशों में सुख देने वाला है और (हरेक जीव के) अंग-संग बसता है। प्रभु हरेक शरीर में मिला हुआ है (फिर भी मोह के) बंधनो से आजाद है। पर जिस प्रकार का वह प्रभु है मैं बता नहीं सकता। हे नानक! (कह:) उसके चोज-तमाशे देख के मेरा मन (उसके प्यार में) मोहा गया है। हे भाई! गरीब दास पूछता है: हे गुरु! बता, मेरा मालिक-प्रभु किस प्रकार का है।3। करि किरपा अपुने पहि आइआ ॥ धंनि सु रिदा जिह चरन बसाइआ ॥ चरन बसाइआ संत संगाइआ अगिआन अंधेरु गवाइआ ॥ भइआ प्रगासु रिदै उलासु प्रभु लोड़ीदा पाइआ ॥ दुखु नाठा सुखु घर महि वूठा महा अनंद सहजाइआ ॥ कहु नानक मै पूरा पाइआ करि किरपा अपुने पहि आइआ ॥४॥१॥ पद्अर्थ: करि = कर के। अपुने पहि = अपने (सेवक) के पास। धंनि = भाग्यशाली। रिदा = हृदय। जिह = जिस (मनुष्य) ने। संत संगाइआ = साधु-संगत में (रह के)। अगिआन अंधेरु = आत्मिक जीवन से बेसमझी का अंधेरा। प्रगासु = रौशनी। रिदै = हृदय में। उलासु = उल्लास, खुशी। लोड़ीदा = जिसको चिरों से माँग रहे थे। नाठा = भाग गया। घर महि = हृदय घर में। वूठा = आ बसा। सहजाइआ = आत्मिक अडोलता का। नानक = हे नानक!।4। अर्थ: हे भाई! प्रभु मेहर करके अपने सेवक के पास (स्वयं) आ जाता है। जो मनुष्य प्रभु के चरणों को अपने हृदय में बसा लेता है, उसका हृदय भाग्यशाली होता है। हे भाई! जो मनुष्य साधु-संगत में (टिक के) प्रभु के चरण (अपने हृदय में) बसा लेता है, वह (अपने अंदर से) आत्मिक जीवन की तरफ से अज्ञानता का अंधेरा दूर कर लेता है। (उसके अंदर) आत्मिक जीवन का प्रकाश हो जाता है, उसके हृदय में सदा उत्साह बना रहता है (क्योंकि) जिस प्रभु को पाने की वह चिरकाल से अभिलाषा कर रहा था उसको मिल जाता है। उसके अंदर से दुख दूर हो जाता है, उसके हृदय-घर में सुख आ बसता है, उसके अंदर आत्मिक अडोलता का आनंद पैदा हो जाता है। हे नानक! कह: मैंने भी वह पूरन-प्रभु पा लिया है। वह तो मेहर करके अपने सेवक के पास स्वयं ही आ जाता है।4।1। सारंग की वार महला ४ राइ महमे हसने की धुनि क भाव: पउड़ी-वार: परमात्मा ने ये जगत-खेल अपने-आप से पैदा की है, त्रै-गुणी माया और उसका मोह भी उसने खुद ही बनाया है। जो मनुष्य गुरु-दर पे आ के उसकी रज़ा में चलते हैं वे माया के मोह से बच जाते हैं। ये खेल भी उसी की है कि किसी मनुष्य को उसने गुरमुख बना दिया है जो गुरु के शब्द की इनायत से प्रभु को मन में बसाता है और माया के अंधकार में ठोकरें नहीं खाता। यह भी उसी की रज़ा है कि कई मनुष्य मन के मुरीद हैं, वे सदा कपट की कमाई करते हैं और पुत्र-स्त्री के मोह में फस के भटकते दुखी होते हैं। गुरमुख तमन्ना से सदा नाम जपता हैऔर मन-पंछी को वश में रखता है, इसकी इनायत से वह सुख भोगता है क्योंकि ‘नाम’ सुखों का खजाना है। गुरमुख मनुष्य उठते-बैठते हर वक्त प्रभु के नाम में तवज्जो जोड़ के रखता है, ‘नाम’ उसकी जिंदगी का आसरा बन जाता है, ‘नाम’ में जुड़ के ही उसको सुख प्रतीत होता है। नाम में तवज्जो जोड़ना ही गुरमुख के लिए ऊँची कुल वाली इज्जत है। नाम में तवज्जो जोड़ने से ही उसके अंदर प्रफुल्लता और शांति उपजती है, माया के ओर से वह तृप्त रहता है और नाम जपने का चाव उसके मन में पैदा होता है। नाम में तवज्जो जोड़ने से गुरमुख को ना करामाती ताकतों की लालसा रहती है ना ही धन-पदार्थ की। माया, मानो, उसकी दासी बन जाती है; संतोख और अडोलता में वह महिमा की मौज लेता है। नाम में तवज्जो जोड़ने से गुरमुख का मन पवित्र हो जाता है, मनुष्य जीवन का असल भेद वह समझ लेता है, सदा खिले-माथे रहता है, ना पाप और ना ही मौत का डर कोई उसके नजदीक फटकता है। अगर नाम-स्मरण में मन लग जाए तो जीवन का सही रास्ता साफ-स्पष्ट दिखाई दे जाता है, कोई अड़चन नहीं आती, मन में सुख उपजता है और यह यकीन बन जाता है कि ‘स्मरण’ ही सही रास्ता है। स्मरण में लगे हुए मन वाले लोगों की कुलें और साथी भी माया के असर से बच जाते हैं। जिन्होंने नाम में मन जोड़ लिया उनकी दुख और माया वाली भूख मिट जाती है। नाम में लगन लगने से अच्छी मति चमक उठती है, अहंकार दूर हो जाता है, नाम स्मरण का चाव पैदा हो जाता है और मन में शांति आ बसती है। अगर स्मरण में मन जुड़ जाए तो नाम में लिव लगती है, प्रभु की महिमा वाली आदत बन जाती है, विकारों की तरफ से रुचि हट जाती है, यह यकीन बन जाता है कि नाम-जपना ही जीवन का सही रास्ता है। प्रभु हर जगह बस रहा है, हमारे अंदर भी मौजूद है, पर पूरा गुरु ही यह दीदार करवा सकता है, और गुरु मिलता है प्रभु की मेहर से। शरीर पर राख लगाई हुई हो, गोदड़ी, झोली आदि साधुओं वाला भेस बनाया हुआ हो, पर मन में माया का अंधकार हो, वह मनुष्य स्मरण से वंचित रह के, मानो, जूए में बाज़ी हार के जाता है। अंदर मैल कपट और झूठ हो, पर बाहर से शरीर को (तीर्थों आदि पर) स्नान करवाता रहे, इस तरह अंदरूनी कपट छुप नहीं सकता। हरेक जीव को अपने किए कर्मों का फल खाना ही पड़ता है। नीम का अंदरूनी कड़वापन बाहर से अमृत से धोने पर नहीं जाता, साँप की डंक मारने वाली आदत दूध पिलाने से दूर नहीं होती, पत्थर का अंदरूनी कोरा-पन बाहरी स्नान से नहीं मिटता, वैसे ही मनमुख का हाल समझो। मनमुख की एक ‘निंदा’ की आदत को ही ले लें- लोगों में बदनामी कमाता है, उसका मुँह भ्रष्ट हुआ रहता है, ज्यों-ज्यों किसी भले मनुष्य की निंदा करके उसकी शोभा कम करने का प्रयत्न करता है, उसके अपने अंदरूनी गुण नष्ट होते चले जाते हैं; निंदा की आदत वह छोड़ता नहीं और दिन-ब-दिन ज्यादा दुखी होता है। गुरु के सन्मुख हो के जिनके अंदर नाम-स्मरण का चाव पैदा हो जाता है उनको किसी जप, तप, तीथ्र, संयम की जरूरत नहीं रह जाती, उनका हृदय पवित्र हो जाता है, प्रभु के गुण गाते वह प्रभु के चरणों में जुड़े हुए सुंदर लगते हैं। प्रभु का मिलाप सत्संग में से होता है गुरु की कृपा से; जैसे पारस को छूने से लोहा सोना बन जाता है, वैसे ही गुरु की छोह से प्रभु का ‘नाम’ मिल जाता है। गुरु, मानो, अमृत का वृक्ष है, नाम-अमृत का रस गुरु से ही मिलता है; जो मनुष्य गुरु के बताए हुए राह पर चलता है, उसके अंदर ईश्वरीय ज्योति जाग उठती है, वह रब के साथ एक-रूप हो जाता है, मौत का डर उसे नहीं रह जाता। क्या अमीर और क्या गरीब, सब माया को इकट्ठा करने के आहर (काम) में लगे हुए हैं, यदि दाँव लगे तो पराया धन भी चुरा लेते हैं, माया से इतना प्यार कि पुत्र-स्त्री का भी विश्वास नहीं करते। पर यह माया अपने मोह में फसा के (आगे) चली जाती है और इसको इकट्ठा करने वाले सिसकियाँ भरते रह जाते हैं। पर, बँदगी करने वालों के मन में धन आदि का मोह घर नहीं कर सकता, वे रब-लेखे खर्च भी करते हैं; उन्हें तोट भी नहीं आती और रहते भी सुखी हैं। राज और बादशाही, किले और सुंदर इमारतें, सोने से सजे हुए बढ़िया घोड़े, कई किस्मों के स्वादिष्ट खाने - जो मनुष्य इनके देवनहार को बिसार के मन की मौजों में लगता है वह दुख ही पाता है। शरीर के श्रृंगार के लिए रंग-बिरंगे रेश्मी कपड़े, बढ़िया दुलीचियों पर महफ़िलें - इनसे भी मन में शांति नहीं आ सकती, क्योंकि शांति देने वाला और दुख से बचाने वाला हरि-नाम ही है। जो मनुष्य नाम स्मरण करते हैं, वे जगत में अटल आत्मिक जीवन वाले बन जाते हैं; जो असल फल जीवन में कमाना था वह फल वे कमा लेते हैं, सदा कायम रहने वाली उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त कर लेते हैं। नाम-जपने वाले सदा प्रभु के पास बसते हैं, हर वक्त प्रभु के साथ रचे-मिचे रहते हैं, उनके मन से नाम का रंग कभी नहीं उतरता। पर, मन का मुरीद मनुष्य नाम नहीं स्मरण करता, सदा आत्मिक मौत सहेड़ के रखता है, विकारों में लगे रहने के कारण अपने जीवन का रास्ता मुश्किल और डरावना बना लेता है। स्मरण करने वालों पर कोई विकार दबाव नहीं डाल सकता, यमराज भी उनका आदर करता है, उनके अंदर सदा उल्लास रहता है और वे जगत में भी आदर पाते हैं। जिनको प्रभु नाम की लगन लगाता है, वे प्रभु-दर से सदा दीदार की दाति माँगते हैं; गुरु की कृपा से उनको हर जगह प्रभु ही दिखाई देता है। लंबी उमर समझ के मनुष्य प्रभु को बिसार के दुनियां की आशाएं बनाता रहता है, महल-माढ़ियों को सजाने में मस्त रहता हैऔर अगर वश चले तो औरों का धन ठग लेता है। मूर्ख को ये चेता ही नहीं आता कि जिंदगी की घड़ियां घटती जा रही हैं। मनमुख तो आशा के चक्र में पड़ के दुखी होता है; पर गुरु के राह पर चलने वाला व्यक्ति आशाओं से ऊपर रहता है, सो निराशता और अफसोस उसके नजदीक नहीं फटकते, वह रज़ा में खुश रहता है। मोह में फसा हुआ मनमुख पत्नी व पुत्रों को देख के खुश होता है, ठग-ठग के धन लाता है। पर एक तरफ तो धन से वैर-विरोध पैदा होता है, दूसरा, धन की खातिर किए पापों की मन में फिटकार पड़ती है और इस तरह दुख पाता है। जिस मनुष्य को प्रभु की मेहर से ये समझ आ जाती है कि पत्नी-पुत्र-धन आदि का साथ नाशवान है, वह पूरे गुरु की शरण पड़ता है और प्रभु के नाम में लीन होता है। जिसको गुरु से नाम की ख़ैर मिलती है उसका हृदय खिल उठता है, कोई उसकी प्रतियोगता (रीस) नहीं कर सकता। उसका नाम से प्यार और हृदय का उल्लास हमेशा बढ़ते जाते हैं। ‘पउड़ी महला ५’॥ जिस मनुष्य को गुरु ने प्रभु से मिला दिया, नाम उसकी जिंदगी का आसरा बन जाता है, सत्संग की ओट ले के वह संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है। पूरे गुरु के शब्द से प्रभु की बड़ाई देखने वाले मनुष्य के अंदर उल्लास पैदा हो जाता है, शांति आ जाती है, उसको हर जगह प्रभु ही दिखाई देता है और वह रज़ा में प्रसन्न रहता है। लड़ीवार भाव: (1 से 5 तक) यह जगत-खेल प्रभु ने अपने आप से बनाई है, त्रैगुणी माया और उसका मोह भी प्रभु ने स्वयं ही रचा है। उसकी रजा में ही कोई मनुष्य गुरु के सन्मुख हो के नाम स्मरण करता है और माया के अंधेरे में ठोकरें नहीं खाता, कोई मन का मुरीद हो के पत्नी-पुत्रों के मोह में फस के दुखी होता है। गुरमुख नाम-स्मरण के मन-पंछी को वश में रखता है, नाम उसकी जिंदगी का आसरा बन जाता है। (6 से 13 तक) अगर नाम में तवज्जो जोड़ें तो मन में उल्लास और शांति पैदा होती है, नाम जपने का चाव पैदा होता है, संतोख वाला जीवन हो जाता है, मन पवित्र हो जाता है। अगर मन नाम-स्मरण में लग जाए तो यह यकीन बन जाता है कि नाम-जपना ही जिंदगी का सही रास्ता है, माया वाली भूख समाप्त हो जाती है, स्मरण का चाव पैदा हो जाता है, विकारों की तरफ से रुचि हट जाती है; ये सारी इनायत गुरु के द्वारा ही प्राप्त होती है। (14 से 20) धार्मिक भेस, तीर्थ स्नान आदि निहित हुए बाहरी धार्मिक कर्म मन की मैल को दूर नहीं कर सकते। अपने मन के पीछे चलने की जगह इस मन को गुरु के बताए हुए रास्ते पर चलाने से ही जिंदगी का सही रास्ता मिलता है। गुरु मनुष्य को परमात्मा के स्मरण में जोड़ता है। (21 से 36) दुनिया की ओर ध्यान मार के देखो, लंबी उम्र समझ के हरेक मनुष्य माया इकट्ठी करने में लगा हुआ है, बेगाना हक छीनने में भी संकोच नहीं करता। पर, माया में से आत्मिक सुख नहीं मिल सकता। गुरु की कृपा से जो मनुष्य परमात्मा की याद में जुड़ता है, वह सुखी है, आत्मिक मौत उसके नजदीक नहीं फटकती। यह दाति परमात्मा की अपनी मेहर से ही मिलती है। मुख्य भाव: परमात्मा की सेवा-भक्ति ही मनुष्य के जीवन का असल उद्देश्य है, आत्मिक आनंद हासिल करने का एक यही तरीका है। बेअंत धन-पदार्थ एकत्र करने से भी यह आनंद नहीं मिल सकता, क्योंकि माया का मोह तो मन को विकारों की मैल से मलीन किए जाता है। धार्मिक भेस, तीर्थ-स्नान आदि के उद्यम मन की इस मैल को दूर नहीं कर सकते। जिस पर परमात्मा मेहर करे वह गुरु की शरण पड़ कर गुरु के बताए हुए राह पर चल के परमात्मा की याद में जुड़ता है। ‘वार’ की संरचना: यह ‘वार’ गुरु रामदास जी की लिखी हुई है। इसमें उनकी 35 पौड़ियां हैं। सो, इस ‘वार’ की पहले 35 पौड़ियां ही थीं। पउड़ी नं: 34 के साथ पउड़ी नं. 35 गुरु अरजन साहिब ने लिख के अपनी तरफ़ से दर्ज कर दी। उस पउड़ी का शीर्षक है ‘पउड़ी महला ५’। हरेक पौड़ी की पाँच-पाँच तुकें हैं। सारी ही ‘वार’ में सारी पौड़ियों की काव्य-चाल तकरीबन एक-किस्म की है। इस ‘वार’ में एक अनोखी बात यह है कि हरेक पउड़ी में शब्द ‘नानक’ बरता गया है। जो पउड़ी नं: 34 गुरु अरजन साहिब ने लिख के अपनी ओर से दर्ज की है उसमें भी शब्द ‘नानक’ प्रयोग हुआ है। महला ५ की पउड़ी नंबर ३५ यह सारी ‘वार’ तो गुरु रामदास जी की लिखी हुई है। इसमें उनकी पौड़ी नं: 34 के साथ गुरु अरजन देव जी ने पउड़ी नं: 35 अपनी तरफ से दर्ज की है। यह पउड़ी श्री गुरु ग्रंथ साहिब में और कहीं नहीं है। सो, यह केवल पउड़ी नं: 34 के संबन्ध में ही लिखी गई है। पाठकों की सहूलत के लिए वह दोनों पौड़ियां नं: 34 और 35 एक साथ यहाँ दी जा रही है, ताकि पाठक स्वयं इनका गहरा संबन्ध समझ सकें; गुर पूरे की दाति, नित देवै, चढ़ै सवाईआ॥ तुसि देवै आपि दइआलु, न छपै छपाईआ॥ हिरदे कवलु प्रगासु, उनमनि लिव लाईआ॥ जे को करे उस दी रीस, सिर छाई पाईआ॥ नानक अपड़ि कोइ न सकई, पूरे सतिगुर की वडिआईआ॥३४॥ इसके साथ ही आगे पउड़ी नं: 35 (गुरु अरजन साहिब जी) पउड़ी महला ५॥ सचु खाणा, सचु पैनणा, सचु नामु अधारु॥ गुरि पूरै मेलाइआ प्रभू देवणहारु॥ भागु पूरा तिन् जागिआ जपिआ निरंकारु॥ साधू संगति लगिआ तरिआ संसारु॥ नानक सिफति सालाह करि प्रभ का जैकारु॥३५॥ नोट: ‘गुर पूरे की दाति’– वह कौन सी दाति है? इसका विस्तार से वेरवा गुरु अरजन देव जी वाली पौड़ी नं: 35 में है। इस ‘वार’ के साथ सलोक:
इस ‘वार’ में कुल 36 पौड़ियाँ हैं। पउड़ी नं: 1 और 34 को छोड़ के बाकी 34 पौड़ियों में हरेक के साथ दो-दो शलोक हैं।
‘वार’ की पहली शकल: यह ‘वार’ पहले सिर्फ ‘पउडियों’ का संग्रह था। काव्य-रचना के दृष्टिकोण से देखें, हरेक पौड़ी में पाँच-पाँच तुकें हैं, तुकों का आकार तकरीबन एक-सा है। जिस गुरु-व्यक्ति ने ‘वार’ के अंदरूनी स्वरूप को इतने ध्यान से तैयार किया, इस ‘वार’ की हरेक पौड़ी के साथ शलोक दर्ज करने के समय भी उनके द्वारा उसी एक-सुरता की उम्मीद रखी जा सकती थी। पर शलोकों का आकार एक जैसा नहीं है, शलोकों की तुकें एक जितनी नहीं हैं। पउड़ी नं: 26 के साथ दूसरा शलोक गुरु अरजन साहिब का है। आखिरी पउड़ी के साथ दोनों शलोक गुरु अरजन साहिब के हैं। अगर गुरु राम दास जी अपनी लिखी ‘वार’ की हरेक पौड़ी के साथ शलोक भी खुद ही दर्ज करते तो पौड़ी नं: 26 के साथ एक ही शलोक दर्ज ना करते, और आखिरी पउड़ी को खाली ना रहने देते। दरअसल, बात यह है कि पहले ‘वार’ सिर्फ पौड़ियों का संग्रह थी। हरेक पौड़ी के साथ सलोक गुरु अरजन साहिब ने दर्ज किए थे। हरेक गुरु-व्यक्ति के लिखे शलोकों के संग्रह में से ले के। उन संग्रहों में से जो सलोक बढ़ गए, वह श्री गुरु ग्रंथ साहिब के आखिर में इकट्ठे दर्ज कर दिए गए। उनका शीर्षक ही ये बात स्पष्ट कर देता है: ‘सलोक वारां ते वधीक’। सारंग की वार महला ४ राइ महमे हसने की धुनि महमा और हसना दो राजपूत सरदार थे; महमा कांगड़े का रहने वाला और हसना धौले का। हसने ने चालाकी से महमे को अकबर के पास कैद करवा दिया; पर महमे ने अपनी बहादुरी के कारनामे दिखा के बादशाह को प्रसन्न कर लिया और शाही फौज ले के हसने पर हमला कर दिया। काफी समय तक दोनों पक्षों में लड़ाई उपरांत महमे की जीत हुई। ढाढियों ने इस जंग की वार लिखी; इस वार की सुर पर गुरु राम दास जी की रची हुई सारंग राग की वार को गाने की हिदायत है। उस वार में से बतौर नमूना निम्न-लिखित पौड़ी है; महमा हसना राजपूत राइ भारे भटी॥ हसने बे–ईमानगी नाल महमे थटी॥ भेड़ दुहां दा मचिआ सर वगे सफटी॥ महम पाई फतह रण गल हसने घटी॥ बंन् हसने नूं छडिआ जस महमे खट्टी॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सलोक महला २ ॥ गुरु कुंजी पाहू निवलु मनु कोठा तनु छति ॥ नानक गुर बिनु मन का ताकु न उघड़ै अवर न कुंजी हथि ॥१॥ पद्अर्थ: पाहू = माया की पाह। निवलु = पशुओं के पैरों पर लगाने वाला ताला। ताकु = दरवाजा। उघड़ै = खुलता। अवर हथि = किसी और के हाथ में। अर्थ: (मनुष्य का) मन (मानो) कोठा है और शरीर (इस कोठे की) छत है, (माया की) पाह (इस मन कोठे को) ताला (लगा हुआ) है, (इस ताले को खोलने के लिए) गुरु कुँजी है (भाव, मन पर से माया का प्रभाव गुरु ही दूर कर सकता है)। हे नानक! सतिगुरु के बिना मन का दरवाजा खुल नहीं सकता, और किसी और के हाथ में (इसकी) कूँजी नहीं है।1। महला १ ॥ न भीजै रागी नादी बेदि ॥ न भीजै सुरती गिआनी जोगि ॥ न भीजै सोगी कीतै रोजि ॥ न भीजै रूपीं मालीं रंगि ॥ न भीजै तीरथि भविऐ नंगि ॥ न भीजै दातीं कीतै पुंनि ॥ न भीजै बाहरि बैठिआ सुंनि ॥ न भीजै भेड़ि मरहि भिड़ि सूर ॥ न भीजै केते होवहि धूड़ ॥ लेखा लिखीऐ मन कै भाइ ॥ नानक भीजै साचै नाइ ॥२॥ पद्अर्थ: न भीजै = भीगता नहीं, प्रसन्न नहीं होता। नादी = नाद से, नाद बजाने से। बेदि = वेदों से, वेद पढ़ने से। सुरती = समाधि (लगाने) से। गिआनी = ज्ञान की बातें करने से। जोगि = जोगे साधना से। रोजि = हर रोज, सदा। रंगि = रंग तमाशे से। तीरथि = तीर्थों पर (नहाने से)। भविऐ = नंगे भटकने से। पुंनि = पुण्य करने से। सुंनि = सुंन्न अवस्था में, चुप चाप रह के। भेड़ि = युद्ध में। भिड़ि = भिड़ के, लड़ के। सूर = सूरमे। केते = कई लोग। होवहि धूड़ि = मिट्टी में लिबड़ते हैं। लेखा = हिसाब, हमारे अच्छे बुरे होने की परख। लेखा लिखीऐ = लेखा लिखा जाता है, हमारे अच्छे बुरे होने की परख की जाती है। मन कै भाइ = मन की भावना अनुसार, मन की अवस्था के अनुसार। साचै नाइ = सच्चे नाम से, सदा कायम रहने वाले परमात्मा के नाम से। अर्थ: राग गाने से, नाद बजाने से अथवा वेद (आदि धर्म-पुस्तकें) पढ़ने से परमात्मा प्रसन्न नहीं होता; ना ही, समाधि लगाने से ज्ञान-चर्चा करने से या जोग का कोई साधन करने से। ना ही वह प्रसन्न होता है रोज शोक मनाने से (जैसे श्रावग सरेवड़े करते हैं); रूप, माल-धन और रंग-तमाशे में व्यस्त रहने से भी प्रभु (जीव पर) खुश नहीं होता; ना ही वह भीगता है तीर्थ पर नहाने से अथवा नंगे घूमने से। दान-पुण्य करने से ईश्वर रीझता नहीं, और बाहर (जंगलों में) सुंन-मुंन बैठने से भी नहीं पसीजता। योद्धे लड़ाई में लड़ कर मरते हैं (इस तरह भी) प्रभु प्रसन्न नहीं होता, कई लोग (राख आदि मल के) मिट्टी में लिबड़ते हैं (इस तरह भी वह) खुश नहीं होता। हे नानक! परमात्मा प्रसन्न होता है अगर उस सदा कायम रहने वाले के नाम में (जुड़ें), (क्योंकि, जीवों के अच्छे-बुरे होने की) परख मन की भावना के अनुसार की जाती है।2। महला १ ॥ नव छिअ खट का करे बीचारु ॥ निसि दिन उचरै भार अठार ॥ तिनि भी अंतु न पाइआ तोहि ॥ नाम बिहूण मुकति किउ होइ ॥ नाभि वसत ब्रहमै अंतु न जाणिआ ॥ गुरमुखि नानक नामु पछाणिआ ॥३॥ पद्अर्थ: नव = नौ व्याकरण। छिअ = छह शास्त्र। खट = छह वेदांग (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छंद, निरुक्त, ज्योतिष)। निसि = रात। भार अठार = अठारह परवों वाला महाभारत ग्रंथ। तिनि = उसने। तोहि = तेरा। बिहूण = बगैर। मुकति = विकारों से मुक्ति। नाभि = कमल की नाभि। वसत = बसते हुए। ब्रहमै = ब्रहमा ने। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के, गुरु के बताए राह पर चल के। अर्थ: जो मनुष्य (इतना विद्वान हो कि) नौ व्याकरणों, छह शास्त्रों और छह वेदांगों की विचार करे (भाव, इन पुस्तकों के अर्थ समझ ले), अठारह पर्वों वाले महाभारत ग्रंथ को दिन-रात पढ़ता रहे, उस ने भी (हे प्रभु!) तेरा अंत नहीं पाया, (तेरे) नाम के बिना मन विकारों से मुक्ति नहीं पा सकता। कमल की नाभि में बसता ब्रहमा परमात्मा के गुणों का अंदाजा ना लगा सका। हे नानक! गुरु के बताए हुए राह पर चल के ही (प्रभु का) नाम (स्मरण का महातम) समझा जा सकता है।3। पउड़ी ॥ आपे आपि निरंजना जिनि आपु उपाइआ ॥ आपे खेलु रचाइओनु सभु जगतु सबाइआ ॥ त्रै गुण आपि सिरजिअनु माइआ मोहु वधाइआ ॥ गुर परसादी उबरे जिन भाणा भाइआ ॥ नानक सचु वरतदा सभ सचि समाइआ ॥१॥ पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। जिनि = जिस (निरंजन) ने। आपु = अपने आप को। रचाइओनु = रचाया उसने। सिरजिअनु = सिरजे उसने। जिन = जिनको। सचि = सच में। निरंजन = (निर+अंजन) माया रहित। अर्थ: माया-रहित प्रभु स्वयं ही (जगत का मूल) है उसने अपने आप को (जगत के रूप में) प्रकट किया है; ये सारा ही जगत-तमाशा उसने स्वयं ही रचा है। माया के तीन गुण उसने स्वयं ही बनाए हैं (और जगत में) माया का मोह (भी उसने खुद ही) प्रबल किया है, (इस त्रै-गुणी माया के मोह में से सिर्फ) वह (जीव) बचते हैं जिस को सतिगुरु की कृपा से (प्रभु की) रज़ा मीठी लगती है। हे नानक! सदा कायम रहने वाला प्रभु (हर जगह) मौजूद है, और सारी सृष्टि उस सदा-स्थिर में टिकी हुई है (भाव, उसके हुक्म के अंदर रहती है)।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |