श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मेरी बांधी भगतु छडावै बांधै भगतु न छूटै मोहि ॥ एक समै मो कउ गहि बांधै तउ फुनि मो पै जबाबु न होइ ॥१॥

पद्अर्थ: मोहि = मुझसे। गहि = पकड़ के। बांधै = बाँध ले। तउ = तब। फुनि = दोबारा, फिर। मो पै = मुझसे। जबाबु = उज़र, ना नुकर।1।

अर्थ: मेरे द्वारा बाँधी हुई (मोह की) गाँठ को मेरा भक्त खोल लेता है, पर जब मेरा भक्त (मेरे साथ प्रेम की गाँठ) बाँधता है वह मुझसे खुल नहीं सकती। अगर मेरा भक्त एक बार मुझे पकड़ के बाँध ले, तो मैं आगे से कोई आना-कानी नहीं कर सकता।1।

मै गुन बंध सगल की जीवनि मेरी जीवनि मेरे दास ॥ नामदेव जा के जीअ ऐसी तैसो ता कै प्रेम प्रगास ॥२॥३॥

पद्अर्थ: गुन बंध = (भक्त के) गुणों का बँधा हुआ। जीवनि = जिंदगी। जा के जीअ = जिसके चिक्त में (प्रीत के भेद की यह सोच)। ता कै = उसके हृदय में। प्रगास = रोशनी।2।

अर्थ: मैं (अपने भक्त के) गुणों का बँधा हुआ हूँ, मैं सारे जगत के जीवों की जिंदगी (का आसरा) हूँ, पर मेरे भक्त मेरी जिंदगी (का आसरा) हैं।

हे नामदेव! जिसके मन में ये ऊँची सोच आ गई है, उसके अंदर मेरे प्यार का प्रकाश भी उतना ही बड़ा (भाव, बहुत अधिक) हो जाता है।2।3।

शब्द का भाव: प्रीत का भाव: प्रीत की इनायत से, भक्त प्रभु का रूप हो जाता है, प्रभु अपने भक्त की प्रीति में बँध जाता है। ‘भगति वसि केसव’।

सारंग ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

तै नर किआ पुरानु सुनि कीना ॥ अनपावनी भगति नही उपजी भूखै दानु न दीना ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: नर = हे मनुष्य! तै किआ कीना = तूने क्या किया? तूने क्या कमाया? सुनि = सुन के। पावनी = (स: अपायिन् transient, perishable) नाशवान। अन पावनी = जो नाशवान ना हो, सदा कायम रहने वाली। उपजी = पैदा हुई।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! पुराण आदि धर्म-पुस्तकें सुन के तूने कमाया तो कुछ भी नहीं, तेरे अंदर ना तो प्रभु की अटल भक्ति पैदा हुई और ना ही किसी जरूरतमंद की सेवा की।1। रहाउ।

कामु न बिसरिओ क्रोधु न बिसरिओ लोभु न छूटिओ देवा ॥ पर निंदा मुख ते नही छूटी निफल भई सभ सेवा ॥१॥

पद्अर्थ: छूटिओ = खत्म हुआ। देव = हे देव! निफल = व्यर्थ, निष्फल।1।

अर्थ: हे भाई! (धर्म पुस्तकें सुन के भी) ना काम गया, ना क्रोध गया, ना लोभ खत्म हुआ, ना मुँह से पराई निंदा (करने की आदत) ही गई, (पुराण आदि पढ़ने की) सारी मेहनत ही ऐसे गई।1।

बाट पारि घरु मूसि बिरानो पेटु भरै अप्राधी ॥ जिहि परलोक जाइ अपकीरति सोई अबिदिआ साधी ॥२॥

पद्अर्थ: बाट = रास्ता। बाट पारि = राह मार के, डाके मार के। मूसि = ठग के। बिरानो = बेगाना। जिहि = जिस काम से। अपकीरति = (अप+कीरति) बदनामी। अबिदिआ = अ+विद्या, अज्ञानता, मूर्खता।2।

अर्थ: (पुराण आदि सुन के भी) पापी मनुष्य डाके मार-मार के पराए घर लूट-लूट के ही अपना पेट भरता रहा, और (सारी उम्र) वही मूर्खता करता रहा जिससे अगले जहान में भी बदनामी (का टीका) ही मिले।2।

हिंसा तउ मन ते नही छूटी जीअ दइआ नही पाली ॥ परमानंद साधसंगति मिलि कथा पुनीत न चाली ॥३॥१॥६॥

पद्अर्थ: हिंसा = निर्दयता। जीअ = जीवों के साथ। दइआ = दया, प्यार। पुनीत = पवित्र।3।

अर्थ: हे परमानंद! (धर्म पुस्तकें सुन के भी) तेरे मन में से निर्दयता ना गई, तूने लोगों से प्यार का सलूक ना किया, और सत्संग में बैठ के तूने कभी प्रभु की पवित्र (करने वाली) बातें ना चलाई (भाव, तुझे सत्संग करने का शौक ना हुआ)।3।1।6।

भक्त-वाणी के विरोधी सज्जन ने उपरोक्त शब्द के बारे में इस प्रकार लिखा है:

“भक्त परमानंद जी कनौजिए कुब्ज़ ब्राहमणों में से थे। आप स्वामी वल्लभाचार्य के चेले बने। इन्होंने वैश्णव मत को खासा आगे बढ़ाया। आप कवि भी बेहतरीन थे, आपका तख़्लस (कवि-छाप) सारंग था। इन्होंने कृष्ण-उपमा में काफी कविता रची है।

“एक शब्द सारंग राग में छपी हुई मौजूदा बीड़ में पढ़ने को मिलता है, जो वैश्णव मत के बिल्कुल अनुकूल है; पर गुरमति वैश्णव मति का जोरदार खण्डन करती है। भक्त जी फरमाते है;

हिंसा तउ मन ते नही छूटी, जीअ दइआ नही पाली।

परमानंद साध संगति मिलि, कथा, पुनीत न चाली॥

“यह मर्यादा वैश्णव और जैन मत वालों की है, गुरमति इस सिद्धांत का खण्डन करती है। सिख धर्म जीव हिंसा व अहिंसा का प्रचारक नहीं है, गुरु का मत राज-योग है, खड़गधारी होना सिख धर्म है। जीव अहिंसा वैश्णवों जैनियों बौद्धियों के धार्मिक नियम हैं।”

विरोधी सज्जन ने अपने तर्क को साबित करने के लिए शब्द में से उतना ही हिस्सा लिया है, जिससे किसी पाठक को भुलेखा पड़ सके। बल्कि विरोधी सज्जन भी गलती कर गए हैं: सिर्फ एक ही तुक लेनी थी, दूसरी तुक तो उनकी मदद नहीं करती। शब्द ‘हिंसा’ और ‘जीअ दइआ’ का अर्थ करने में जल्दबाजी से काम लिया गया है। सारे शब्द को जरा ध्यान से पढ़ें। भक्त जी कहते हैं: अगर परमात्मा और परमात्मा के पैदा किए हुए लोगों के साथ प्यार नहीं बना तो धर्म-पुस्तकें पढ़ने से कोई फायदा नहीं हुआ।

आगे भी सारे शब्द में इसी विचार की व्याख्या है। यहाँ शब्द ‘हिंसा’ का अर्थ है ‘निर-दयता’, और ‘जीअ दइआ’ का अर्थ है ‘लोगों से प्यार’। यही शब्द गुरु नानक देव जी और गुरु अरजन साहिब ने भी बरते हैं;

हंसु हेतु लोभु कोपु, चारे नदीआ अगि॥
पावहि दझहि नानका, तरीऐ करमी लगि॥२॥२०॥ (महला १, माझ की वार) हंसु– हिंसा, निर्दयता।

मनि संतोख सरब जीअ दइआ॥
इन बिधि बरतु संपूरन भइआ॥११॥ (महला २ थिती गउड़ी)

जीअ दइआ= ख़लकति से प्यार।

छाडि मन हरि बिमुखन को संगु ॥

पद्अर्थ: मन = हे मन! को = का। संगु = साथ। हरि बिमुखन को संगु = उनका साथ जो परमात्मा की तरफ से बेमुख हैं।

अर्थ: हे (मेरे) मन! उन लोगों का साथ छोड़ दे, जो परमात्मा की ओर से बेमुख हैं।

नोट: श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में जिस भी भक्त की वाणी दर्ज हुई है, आम तौर पर उसका नाम उसकी वाणी के शुरू होने से पहले लिख दिया गया है। पर ये किसी शब्द की एक ही तुक है, इसके आरम्भ में इसके उच्चारण करने वाले भक्त का नाम भी नहीं दिया गया, और ना ही सारा शब्द है जहाँ उसका नाम पता लग सके। अगर गुरु ग्रंथ साहिब जी के बाहर से और कोई प्रमाण ना लिया जाए तो ये किस की उचारी हुई तुक समझी जाए?

इसका उक्तर अगले शब्द के आरम्भ में लिखे शीर्षक से मिलता है; भाव, यह एक तुक सूरदास जी की है। पर, ये अगला शीर्षक भी जरा सा ध्यान से देखने वाला है, शीर्षक इस प्रकार है;

‘सारंग महला ५ सूरदास’

अगर अगला शब्द भक्त सूरदास जी का होता, तो शब्द ‘महला ५’ ये शीर्षक ना होता। शब्द ‘महला ५’ बताता है कि यह अगला शब्द गुरु अरजन साहिब जी का ही अपना उचारा हुआ है।

यहाँ किस संबंध में इस शब्द की आवश्यक्ता पड़ी?

ऊपर दी हुई एक तुक की व्याख्या करने के लिए, कि हरि से बेमुख हुए लोगों का संग कैसे छोड़ना है। सो, इस शीर्षक में सूरदास जी को संबोधन करके गुरु अरजन देव जी का अगला शब्द उचार के फरमाते हैं कि ज्यों-ज्यों ‘हरि के संग बसे हरि लोक’ त्यों-त्यों ‘आन बसत सिउ काजु न कछूअै’; इस तरह सहज ही हरि से बिछुड़े हुए लोगों से साथ छूट जाता है, किसी से नफरत करने की जरूरत नहीं पड़ती।

सारंग महला ५ सूरदास ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

हरि के संग बसे हरि लोक ॥ तनु मनु अरपि सरबसु सभु अरपिओ अनद सहज धुनि झोक ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: हरि लोक = परमात्मा की बंदगी करने वाले। अरपि = भेटा कर के, वार के। सरबसु = (संस्कृत: सर्वस्व। स्व+धन, सब कुछ, all in all) अपना सब कुछ। सहज = अडोलता। धुनि = सुर। झोक = हुलारा, झूला झूलना।1। रहाउ।

अर्थ: (हे सूरदास!) परमात्मा की बँदगी करने वाले बँदे (सदा) परमात्मा के साथ बसते हैं (इस तरह सहज-सुभाय बेमुखों से उनका साथ छूट जाता है); वह अपना तन-मन अपना सब कुछ (इस प्यार से) सदके कर देते हैं, उनको आनंद के हिलोरे आते हैं, सहज अवस्था की तार (उनके अंदर बँध जाती है)।1। रहाउ।

दरसनु पेखि भए निरबिखई पाए है सगले थोक ॥ आन बसतु सिउ काजु न कछूऐ सुंदर बदन अलोक ॥१॥

पद्अर्थ: निरबिखई = विषियों से रहित। थोक = पदार्थ। आन = और। काजु = गरज। बदन = मुंह। अलोक = देख के।1।

अर्थ: (हे सूरदास!) भक्ति करने वाले लोग प्रभु का दीदार करके विषौ-विकारों से बच जाते हैं, उनको सारे पदार्थ मिल जाते हैं (भाव, उनकी वासनाएं समाप्त हो जाती हैं); प्रभु के सुंदर मुख का दीदार कर के उनको दुनिया की किसी और चीज़ की कोई गरज़ नहीं रह जाती।1।

सिआम सुंदर तजि आन जु चाहत जिउ कुसटी तनि जोक ॥ सूरदास मनु प्रभि हथि लीनो दीनो इहु परलोक ॥२॥१॥८॥

पद्अर्थ: सिआम = साँवले रंग वाला। तजि = छोड़ के। कुसटी तनि = कोहड़ी के शरीर पर। प्रभि = प्रभु ने। हथि = (अपने) हाथ में। इहु = यह लोक, इस लोक में सुख।2।

अर्थ: (हे सूरदास!) जो मनुष्य सुंदर साँवले सज्जन (प्रभु) को बिसार के और-और पदार्थों की लालसा करते हैं, वे उस जोक की तरह हैं, जो किसी कोहड़ी के शरीर पर (लग के गंद ही चूसती है)। पर, हे सूरदास! जिस का मन प्रभु ने खुद अपने हाथ में ले लिया है उनको उसने यह लोक और परलोक दोनों बख्शे हैं (भाव, वे लोक-परलोक दोनों जगह आनंद में रहते हैं)।2।1।8।

नोट: शब्द ‘महला ५’ से जाहिर होता है कि यह शब्द गुरु अरजन साहिब जी का है। शब्द ‘सूरदास’ बताता है कि सतिगुरु जी ने सूरदास जी की उचारी हुई पिछली तुक के संबंध में यह शब्द उचारा है।

नोट: चाहे भक्त सूरदास जी की एक ही तुक दर्ज की है, पर गिनती में उसको सारे शब्द की तरह गिना गया है, तभी अब तक की गिनती आठ ‘8’ बनती है।

अगर सतिगुरु जी ने सूरदास जी का सारा शब्द दर्ज करवाया होता, तो इस शब्द के आरम्भ में ‘महला ५’ ना होता, इस के साथ शब्द ‘सूरदास’ की जरूरत नहीं थी। कई विद्वानों का विचार है कि दो सूरदास हुए हैं, पर जो भी है उसकी तुक सिर्फ एक ही तुक गुरु ग्रंथ साहिब जी में दर्ज है। यह शब्द सतिगुरु अरजन देव जी का अपना उचारा हुआ है। सूरदास का नहीं।

नोट: श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में दर्ज भक्त-वाणी के विरोधी सज्जन भक्त सूरदास जी के बारे में इस प्रकार लिखते हैं;

‘भक्त सूरदास जी जाति के ब्राहमण थे। आप का जन्म संवत् 1586 बिक्रमी का पता लगता है। इनका असल नाम मदन मोहन था, पहले आप संधीला के हाकिम रहे। आप जी के दो शब्द राग सारंग भक्त-वाणी संग्रह में आए हैं। एक शब्द तो पूरा है और दूसरे की मात्र एक पंक्ति लिखी है। परन्तु बन्नो वाली बीड़ में संपूर्ण है। करतारपुर वाली बीड़ में सारा शब्द लिख के ऊपर दोबारा हड़ताल फेरी है। पर उक्त तुक पर हाड़ताल फिरने से रह गई है, इसलिए एक ही पंक्ति उसकी नकल अनुसार लिखी हुई मिलती है। भक्त जी के सिद्धांत नीचे दिए जा रहे हैं;

सिआम सुंदर तजि आन जु चाहत, जिउ कुसटी तनि जोक॥
सूरदास मनु प्रभि हथि लीनो, दीनो इहु परलोक॥ ..... (सारंग सूरदास)

“उक्त शब्द से सिवाय कृष्ण-भक्ति के और कुछ भी साबित नहीं होता। दूसरे शब्द की एक ही पंक्ति है, वह इस प्रकार है: ‘छाडि मन हरि बिमुखन को संगु’ इस शब्द से यह सिद्ध; होता है कि कृष्ण जी की भक्ति से वंचितों को भक्त जी बे-मुख कर के पुकारते हैं, औरों के संग से हटाते हैं। सो, नतीजा यह निकला कि भक्त सूरदास जी गुरमति के किसी सिद्धांत की भी प्रौढ़ता नहीं करते, बल्कि खण्डन करते हैं।”

आईए अब इस उपरोक्त खोज को विचारें। विरोधी सज्जन के ख्याल अनुसार;

अकेली तुक और दूसरा शब्द दोनों ही भक्त सूरदास जी के उचारे हुए हैं।

पहली तुक में सूरदास जी कृष्ण जी की भक्ति से वंचितों को बेमुख कर के पुकारते हैं।

दूसरे शब्द से सिवाय कृष्ण-भक्ति के और कुछ साबित नहीं होता।

करतारपुर वाली बीड़ में पहली अकेली तुक नहीं है। सारा शब्द लिख के ऊपर से दोबारा हड़ताल फेरी है, पर उपरोक्त तुक पर हड़ताल फिरने से सहज ही रह गई, जिस के कारण उसकी नकल अनुसार गुरु ग्रंथ साहिब में एक ही पंक्ति लिखी हुई मिलती है।

पाठकों को यहाँ यह मजेदार बात बतानी आवश्यक है कि विरोधी सज्जन जी ने भक्त जी के शब्द देने के वक्त पहले दूसरा शब्द दिया है। यह एक गहरी भेद वाली बात है। बहस में बढ़िया हथियार वही जो वक्त सिर काम दे जाए। अगर पहली तुक पर पहले विचार करते, तो इसमें से कृष्ण जी की भक्ति साबित नहीं हो सकती थी। सो, उन्होंने दूसरे शब्द में से ‘सिआम सुंदर’ पेश कर के अन्जान पाठकों को बहकाने की कोशिश की है। यह तरीका इमानदारी भरा नहीं है। अगर श्रद्धा डोल गई है, तो भी सच्चाई ढूँढने के लिए हमने किसी टेढ़े-मेढ़े रास्ते का आसरा नहीं लेना। पहली तुक है, “छाडि मन हरि बिमुखन को संगु”। यहाँ अगर शब्द ‘हरि’ का अर्थ कृष्ण करना है, तो फिर श्री गुरु ग्रंथ साहिब के हरेक पन्ने पर लगभग बीस बार आ चुका है। किसी भी खींच-घसीट से शब्द ‘हरि’ का अर्थ ‘कृष्ण’ नहीं किया जा सकता। और, किसी भी दलील से यह साबित नहीं हिकया जा सकता कि यहाँ सूरदास जी कृष्ण-भक्ति से वंचितों को बे-मुख कह रहे हैं।

दूसरे शब्द का शब्द ‘सिआम सुंदर’ देख के विरोधी सज्जन जी को यहाँ भी कृष्ण-भक्ति के सिवाय और कुछ नहीं मिला। यहाँ उन्होंने एक गलती कर ली, अथवा जान-बूझ के मानने से इन्कार किया है। इस शब्द का शीर्षक है ‘सारंग महला ५ सूरदास’। यह शब्द ‘महला ५’ का है, गुरु अरजन साहिब जी का है।

इस सच्चाई को ना मान के भी सिर्फ शब्द ‘सिआम सुंदर’ से यह साबित नहीं हो जाता कि इस शब्द में कृष्ण-भक्ति है। बाकी की शब्दावली से आँखें नहीं मूँदी जा सकती– हरि, हरि लोक, प्रभि।

और गुरु अरजन साहिब ने तो और जगहों पर भी शब्द ‘सिआम सुंदर’ साफ तौर बरता है। देखो;

दरसन कउ लोचै सभु कोई॥ पूरै भागि परापति होई॥१॥ रहाउ॥
सिआम सुंदर तजि नीद किउ आई॥ महा मोहनी दूता लाई॥१॥
सुणि साजन संत जन भाई॥ चरन सरण नानक गति पाई॥५॥३४॥४०॥ (पन्ना 745, सूही महला ५)

भक्त सूरदास जी की तुक “छाडि मन हरि बिमुखन को संगु” के गुरु ग्रंथ साहिब जी में दर्ज होने के बारे तो विरोधी सज्जन ने एक अजीब ही बात लिख दी है। जब प्रिंसीपल जोध सिंह जी करतारपुर वाली बीड़ के दर्शन करने के लिए गए थे, तो खालसा कालेज में मास्टर केहर सिंह जी को और मुझे भी अपने साथ ले गए थे। इनके सबब से मैं भी दर्शन कर सका। शुरू से लेकर ततकरे (विषयवस्तु, विषय-तालिका) समेत आखिर तक हरेक पन्ने को अच्छी तरह देखने का मौका मिला। सूरदास जी की पंक्ति के बारे में विरोधी सज्जन लिखते हैं कि शब्द लिखा है और उस पर हड़ताल (लकीर) फिरी हुई है। ऐसा प्रतीत होता है कि इन्होंने कहीं से सुनी सुनाई बात लिख दी है। वरना, उस बीड़ में सिर्फ एक ही पंक्ति दर्ज है, और हड़ताल का कहीं नामो-निशान भी नहीं।

शब्द का शीर्षक स्पष्ट रूप से ‘सारंग महला ५ सूरदास’ लिखा हुआ है। इसे सूरदास जी का कहे जाना सामने दिखती सच्चाई से आँख्चों मूँदने वाली बात है। अकेले ‘सूरदास’ का नाम नहीं है, ‘महला ५’ भी मौजूद है। यहाँ विचारयोग ये है कि;

अ. क्या ये शब्द गुरु अरजन साहिब और भक्त सूरदास का मिश्रित है?

आ. क्या ये शब्द सूरदास जी का है? तो फिर, शब्द ‘महला ५’ के क्या भाव हुए?

इ. क्या ये शब्द ‘महला ५’ का है? तो फिर, शब्द ‘सूरदास’ क्यों?

श्री गुरु ग्रंथ साहिब में से ‘छाडि मन’ वाली तुक ध्यान से पढ़ें। उसके लिखने वाले का नाम नहीं दिया गया। हम इसे भक्त सूरदास जी का रचा हुआ इस वास्ते कहते हैं कि भक्त जी की रची हुई वाणी में एक पदा ऐसा भी है, जिसकी आरम्भ की यह तुक है। पर फर्ज करें, सूरदास जी की रचना कहीं से मिल ही ना सकती हो, तो हम केवल श्री गुरु ग्रंथ साहिब में से कैसे ढूँढे कि यह तुक किसने लिखी थी? इसका उक्तर यह है कि ऊपर वाली तुक के रचयता का नाम बाद वाले शब्द के शीर्षक से तलाशना है। नीचे का बाद वाला शब्द गुरु अरजन साहिब जी का है, और यह सूरदास जी की उचारी हुई ऊपर वाली तुक के सम्बंध में है।

यहाँ से एक और बात भी साबित हो रही है। गुरु अरजन देव जी ने सूरदास जी की सिर्फ एक ही तुक दर्ज की है। अगर सारा शब्द दर्ज करते, तो नीचे दिए शब्द के शीर्षक को सिर्फ ‘सारंग महला ५’ ही लिखते, क्योंकि उस सारे शब्द के आखिरी शब्द ‘सूरदास’ से पता चल जाता है कि ऊपर वाला शब्द ‘सूरदास’ जी का है।

दूसरे शब्द के आखिर में शब्द ‘सूरदास’ देख के यह भुलेखा अवश्य लग जाता है। सहज ही पाठक यह मिथ लेता है कि शब्द ‘सूरदास’ जी का है। पर असल बात ये नहीं है। फरीद जी के शलोकों में कई शलोक ऐसे हैं जो अमरदास जी और गुरु अरजन साहिब जी के उचारे हुए हैं, पर वहाँ शब्द ‘नानक’ की जगह ‘फरीद’ बरता गया है। सतिगुरु जी ने फरीद जी के दिए ख्याल की खूब व्याख्या करनी मुनासिब समझी, इस वास्ते अपने उचारे शलोक में ‘फरीद’ शब्द बरता, क्योंकि वे शलोक फरीद जी के संबंध में थे। हाँ, पाठकों को गलतफहमी से बचाने के लिए शीर्षक में ‘महला ३’ और ‘महला ५’ लिख दिया। इसी तरह चुँकि ये शब्द सूरदास जी की ऊपर दी गई पंक्ति “छाडि मन हरि बिमुखन को संगु” के सम्बंध में है, इसमें शब्द ‘नानक’ की जगह शब्द ‘सूरदास’ दिया है, पर, पाठकों को किसी तरह के भुलेखे से बचाने के लिए शीर्षक में ‘महला ५’ लिख दिया है। इसके साथ ही शब्द ‘सूरदास’ लिखने की जरूरत इसलिए पड़ी है कि ऊपर वाली तुक अकेली होने के कारण उसके करते सूरदास जी का नाम उस में नहीं था।

उपरोक्त सारी विचार से निम्न-लिखित नतीजे पर पहुँचते हैं;

“छाडि मन हरि बिमुखन को संगु” यह अकेली तुक ही गुरु अरजन साहिब ने गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज की है; यह तुक भक्त सूरदास जी की है, और, इसमें कृष्ण-भक्ति का कोई वर्णन नहीं है।

दूसरा शब्द गुरु अरजन साहिब का अपना रचा हुआ है। भक्त सूरदास जी की तुक ‘छाडि मन हरि बिमुखन को संगु’ के संबन्ध में उचारा है, इस वास्ते शब्द ‘नानक’ की जगह ‘सूरदास’ बरता है। और, शीर्षक में भी ‘सारंग महला ५’ के साथ ‘सूरदास’ लिखा है। इस शब्द में भी कृष्ण-भक्ति नहीं है।

पाठकों की दिलचस्पी और जानकारी के लिए हम एक और प्रमाण पेश करते हैं, जिससे ये बात स्पष्ट हो जाएगी कि पहली अकेली तुक समझने के लिए पाठक सज्जन १४३० पृष्ठ वाली बीड़ का १२५१ अंक खोल के सामने रख लें। जहाँ इस राग की ‘वार’ समाप्त होती है, वहाँ आगे लिखा है ‘रागु सारंग वाणी भगतां की, कबीर जी’। पहला शब्द ‘कहा नर गरबसि थोरी बात’ से आरम्भ होता है। इस शब्द के 4 ‘बंद’ हैं, और, जहाँ आखिरी तुक ‘कहत कबीरु राम भजु बउरे जनमु अकारथ जात’ खत्म होती है, वहाँ दो अंक लिखे हुए हैं, अंक 4 और अंक 1। इनका भाव यह है कि यहाँ शब्द का चौथा पदा समाप्त हुआ है और पहला शब्द भी खत्म हो गया है। आगे दूसरा शब्द शुरू होता है। इसके आखिर पर हैं अंक 4 और अंक 2। इनका भाव यह है कि कबीर जी का यह दूसरा शब्द चार बँद वाला है, और यह दूसरा शब्द है।

इससे आगे शीर्षक है ‘सारंग वाणी नामदेउ जी की’। इनके अंकों को भी ध्यान से देखें। तुक ‘निरभै होइ भजीअै भगवान’ पर नामदेव जी का 4 बंद वाला पहला शब्द समाप्त होता है, और अंक।4।1। लिखा गया है। दूसरा शब्द दो बंदों वाला है, उसके समाप्त होने पर अंक।2।2। लिखे गए हैं। तीसरा शब्द भी दो बंदों वाला ही है, उसके आखिर में।2।3। लिखा है।

इससे आगे नया शीर्षक है ‘सारंग’। यह सिर्फ एक शब्द है तीन बंदों वाला। आखिरी तुक है ‘परमानंद साध संगति मिलि, कथा पुनीत न चाली’।3।1।6। यहाँ अंक 3 का मतलब है कि इस शब्द के तीन बंद है। अंक 1 का भाव है कि यह परमानन्द जी का सिर्फ एक शब्द है। और अंक 6 का तात्पर्य है कि अब तक भगतों के कुल छह शब्द आए हैं – कबीर 2, नामदेव 3 और परमानन्द 1। कुल जोड़–6।

इससे आगे अकेली तुक है ‘छाडि मन हरि बिमुखन को संगु’। इसके आखिर में गिनती का कोई अंक नहीं दिया गया। आगे चलिए। अगला शीर्षक है ‘सारंग महला ५ सूरदास’। इसके आखिर में अंक।2।1।8। दिया गया है। यहाँ अंक 2 का भाव है यह शब्द दो बंदों वाला है। अंक 8 का मतलब है अब तक आठ शब्द आ चुके हैं। पाठक ध्यान रखें कि गिनती के वक्त अकेली तुक ‘छाडि मन हरि बिमुखन को संगु’ को पूरा शब्द माना गया है। अंक 1 और 8 के बीच का अंक है 1। इसका भाव यह हुआ कि यह शब्द अकेला है। जिस भी व्यक्ति का यह शब्द है, एक ही शब्द है।

हमने यहाँ देखा है कि अंक 8 जाहिर करता है जो अकेली तुक ‘छाडि मन हरि बिमुखन को संगु’ को गिनती में पूरे शब्द के तौर पर गिना गया है पर अंक 1 बताता है कि जो शब्द ‘सारंग महला ५ सूरदास’ शीर्षक वाला है, यह जिस भी व्यक्ति का है अकेला शब्द है। अगर ‘छाडि मन’ वाली तुक, और यह दूसरा शब्द दोनों ही सूरदास जी के होते, तो आखिर अंक इस प्रकार होता–।2।2।8। पहला अंक नं: 2 शब्द के बंदों की गिनती है। दूसरा अंक 2 इन दोनों शबदों की गिनती का होना था और तीसरा अंक नं: 8 सारे शबदों की गिनती का है। सो, यह बात साफ तौर पर सिद्ध हो गई है कि पहली तुक सूरदास जी की है, और दूसरा मुकम्मल शब्द गुरु अरजन साहिब का है;

अकेली तुक के बाद फिर मूल-मंत्र का दर्ज होना भी बताता है कि आगे शब्द का रचयता बदल गया है।

सबसे आखिरी शब्द को देखें। आखिर अंक।2।1।4। इनका भाव यूँ है: शब्द के दो बंद हैं गिनती में यह कबीर जी का अकेला शब्द है। और, सारे शबदों का जोड़ 9 है।

वेरवा इस प्रकार है;
कबीर जी----------------2
नामदेव जी--------------3
परमानंद जी-------------1
सूरदास जी--------------1 (एक ही तुक)
गुरु अरजन देव जी----1
कबीर जी---------------1
कुल जोड़ --------------9

सारंग कबीर जीउ ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

हरि बिनु कउनु सहाई मन का ॥ मात पिता भाई सुत बनिता हितु लागो सभ फन का ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सुत = पुत्र। बनिता = पत्नी। हितु = मोह। फन = छल।1। रहाउ।

अर्थ: परमात्मा के बिना कोई और इस मन की सहायता करने वाला नहीं हो सकता। माता, पिता, भाई, पुत्र, पत्नी - इन सबके साथ जो मोह डाला हुआ है, ये छल के साथ ही मोह डाला है (भाव, ये मोह ऐसे पदार्थों के साथ है जो छल ही हैं, सदा साथ निभने वाले नहीं है)।1। रहाउ।

आगे कउ किछु तुलहा बांधहु किआ भरवासा धन का ॥ कहा बिसासा इस भांडे का इतनकु लागै ठनका ॥१॥

पद्अर्थ: आगे कउ = अगले आने वाले जीवन के लिए। तुलहा = बेड़ा। बिसासा = ऐतबार। भांडा = शरीर। ठनका = ठोकर।1।

अर्थ: (हे भाई!) इस धन का (जो तूने कमाया है) कोई ऐतबार नहीं (कि कब नाश हो जाए, सो) आगे के लिए कोई और (भाव, नाम धन का) बेड़ा बाँधो। (धन तो कहाँ रहा) इस शरीर का कोई विश्वास नहीं, इसको थोड़ी सी ठोकर लगी (कि ढहि-ढेरी हो जाता है)।1।

सगल धरम पुंन फल पावहु धूरि बांछहु सभ जन का ॥ कहै कबीरु सुनहु रे संतहु इहु मनु उडन पंखेरू बन का ॥२॥१॥९॥

पद्अर्थ: जन = सेवक, भक्त। सभ जन = सत्संगी (Plural)। पंखेरू = पंछी।2।

अर्थ: हे संत जनो! (जब माँगो) गुरमुखों (के चरणों) की धूल माँगो, (इसी में से) सारे धर्मों और पुन्यों के फल मिलेंगे। कबीर कहता है: हे संतजनो! सुनो, यह मन इस तरह है जैसे जंगल का कोई उड़ने वाला पक्षी (जिसको टिकाने के लिए गुरमुखों की संगति में लाओ)।2।1।9।

नोट: यह बात विचारणीय है कि कबीर जी का यह शब्द आखिर में अलग से क्यों दर्ज किया गया है।

शब्द का भाव: दुनियावी साथ सदा नहीं निभता। शरीर भी यहीं रह जाता है। साधु-संगत में प्रभु का भजन करो, यही है सदा सहाई।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh