श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1260 मन की बिधि सतिगुर ते जाणै अनदिनु लागै सद हरि सिउ धिआनु ॥ गुर सबदि रते सदा बैरागी हरि दरगह साची पावहि मानु ॥२॥ पद्अर्थ: बिधि = तरीका। जाणै = समझता है। सद = सदा। सिउ = साथ। सबदि = शब्द में। बैरागी = माया मोह से स्वतंत्र।2। अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य) गुरु से मन (को जीतने) का ढंग सीख लेता है, उसकी तवज्जो हर वक्त सदा ही परमात्मा (के चरणों) के साथ लगी रहती है। जो मनुष्य गुरु के शब्द में रंगे रहते हैं, वे सदा (माया के मोह से) निर्लिप रहते हैं, वे सदा-स्थिर-प्रभु की हजूरी में आदर पाते हैं।2। इहु मनु खेलै हुकम का बाधा इक खिन महि दह दिस फिरि आवै ॥ जां आपे नदरि करे हरि प्रभु साचा तां इहु मनु गुरमुखि ततकाल वसि आवै ॥३॥ पद्अर्थ: खेलै = खेलता है। बाधा = बंधा हुआ। दह दिस = दसों दिशाओं में। दिस = दिशाओं में, तरफ। नदरि = मेहर की निगाह। साचा = सदा कायम रहने वाला। गुरमुखि = गुरु के द्वारा। ततकाल = उसी वक्त। वसि = वश में।3। अर्थ: हे भाई! (मनुष्य का) यह मन (परमात्मा के) हुक्म का बंधा हुआ ही (माया की खेल) खेलता रहता है, और एक छिन में ही दसों-दिशाओं में दौड़-भाग आता है। जब सदा-स्थिर प्रभु स्वयं ही (किसी मनुष्य पर) मेहर की निगाह करता है, तब उसका यह मन गुरु की शरण की इनायत से बड़ी जल्दी वश में आ जाता है।3। इसु मन की बिधि मन हू जाणै बूझै सबदि वीचारि ॥ नानक नामु धिआइ सदा तू भव सागरु जितु पावहि पारि ॥४॥६॥ पद्अर्थ: मन हू = मन से ही। सबदि = शब्द से। वीचारि = विचार के, मन में बसा के। भव सागरु = संसार समुंदर। जितु = जिस (नाम) से। पावहि = तू हासिल कर ले।4। अर्थ: हे भाई! जब मनुष्य गुरु के शब्द द्वारा (परमात्मा के गुणों को) अपने मन में बसा के (सही जीवन-राह को) समझता है, तो वह अपने अंदर से ही इस मन को वश में रखने की विधि सीख लेता है। हे नानक! (कह: हे भाई!) तू सदा परमात्मा का नाम स्मरण किया कर, जिस नाम के द्वारा तू संसार-समुंदर से पार लांघ जाएगा।4।6। मलार महला ३ ॥ जीउ पिंडु प्राण सभि तिस के घटि घटि रहिआ समाई ॥ एकसु बिनु मै अवरु न जाणा सतिगुरि दीआ बुझाई ॥१॥ पद्अर्थ: जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। सभि = सारे (बहुवचन)। तिस के = उस (परमात्मा) के। घटि घटि = हरेक शरीर में। ना जाणा = मैं नहीं जानता। सतिगुरि = गुरु ने। दीआ बुझाई = समझा दिया है।1। नोट: ‘तिस के’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘के’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे भाई! गुरु ने (मुझे) समझ बख्शी है कि जो परमात्मा हरेक शरीर में समा रहा है, उसके ही दिए हुए ये जिंद ये शरीर ये प्राण ये सारे अंग हैं। हे भाई! उस एक के बिना मैं किसी और के साथ गहरी सांझ नहीं डालता।1। मन मेरे नामि रहउ लिव लाई ॥ अदिसटु अगोचरु अपर्मपरु करता गुर कै सबदि हरि धिआई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मन = हे मन! नामि = नाम में। रहउ = मैं रहता हूं। लिव = तवज्जो, ध्यान। रहउ लाई = मैं लगाए रखता हूँ। अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान-इंद्रिय।) जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं हो सकती। अपरंपर = परे से परे। करता = कर्तार। कै सबदि = के शब्द से। धिआई = मैं ध्यान धरता हूँ।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! मैं (तो सदा) परमात्मा के नाम में ही लगन लगाए रखता हूँ। जो कर्तार (इन आँखों से) नहीं दिखता, जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच हो नहीं सकती, जो बेअंत ही बेअंत है, मैं उसको गुरु के शब्द द्वारा ध्याता हूँ।1। रहाउ। मनु तनु भीजै एक लिव लागै सहजे रहे समाई ॥ गुर परसादी भ्रमु भउ भागै एक नामि लिव लाई ॥२॥ पद्अर्थ: भीजै = भीग जाता है। सहजे = आत्मिक अडोलता में ही। परसादी = कृपा से। भ्रमु = भटकना। नामि = नाम में।2। अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्यों की) लगन एक परमात्मा के साथ लगी रहती है उनका मन उनका तन (नाम-रस से) भीगा रहता है, वे मनुष्य आत्मिक अडोलता में लीन रहते हैं। हे भाई! जो मनुष्य गुरु की कृपा से सिर्फ हरि-नाम में तवज्जो जोड़े रखता है, उसकी भटकना उसका हरेक डर दूर हो जाता है।2। गुर बचनी सचु कार कमावै गति मति तब ही पाई ॥ कोटि मधे किसहि बुझाए तिनि राम नामि लिव लाई ॥३॥ पद्अर्थ: गुर बचनी = गुरु के वचन पर चल के। सचु = सदा स्थिर हरि नाम (का स्मरण)। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। गति मति = ऊँची आत्मिक अवस्था प्राप्त करने वाली सूझ। तब ही = तब ही। कोटि = करोड़ों। किसहि = किसी विरले को। तिनि = उस (मनुष्य) ने। नामि = नाम में।3। नोट: ‘किसहि’ में से ‘किसि’ की ‘सि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है। अर्थ: हे भाई! (जब मनुष्य) गुरु के वचन पर चल के सदा-स्थिर हरि-नाम जपने की कार करता है, तब ही वह ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर सकने वाली समझ सीखता है। हे भाई! करोड़ों में से किसी विरले मनुष्य को (गुरु आत्मिक जीवन की) सूझ देता है, उस मनुष्य ने (सदा के लिए) परमात्मा के नाम में तवज्जो जोड़ ली।3। जह जह देखा तह एको सोई इह गुरमति बुधि पाई ॥ मनु तनु प्रान धरीं तिसु आगै नानक आपु गवाई ॥४॥७॥ पद्अर्थ: जह = जहाँ। देखा = मैं देखता हूँ। सोई = वह ही। बुधि = अकल। धरीं = मैं धरता हूँ। आपु = स्वै भाव।4। अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) मैं जिधर-जिधर देखता हूँ, उधर-उधर एक परमात्मा ही बसता (दिखाई देता) है - यह बुद्धि मुझे गुरु की मति से आई है। उस (गुरु) के आगे मैं स्वै-भाव गवा के अपना मन अपना शरीर अपने प्राण भेट धरता हूँ।4।7। मलार महला ३ ॥ मेरा प्रभु साचा दूख निवारणु सबदे पाइआ जाई ॥ भगती राते सद बैरागी दरि साचै पति पाई ॥१॥ पद्अर्थ: साचा = सदा कायम रहने वाला। दूख निवारणु = दुखों को दूर करने वाला। सबदे = शब्द से ही। पाइआ जाई = मिल सकता है। राते = रंगे हुए। सद = सदा। बैरागी = माया के मोह से निर्लिप। दरि साचै = सदा स्थिर प्रभु के दर पर। पति = इज्जत।1। अर्थ: हे भाई! मेरा प्रभु सदा कायम रहने वाला है। (जीवों के) दुखों को दूर करने वाला है (वह प्रभु गुरु के) शब्द द्वारा मिल सकता है। (जो मनुष्य गुरु के शब्द द्वारा परमात्मा की) भक्ति में रंगे रहते हैं, वे सदा निर्लिप रहते हैं, उनको सदा-स्थिर प्रभु के दर पर आदर मिलता है।1। मन रे मन सिउ रहउ समाई ॥ गुरमुखि राम नामि मनु भीजै हरि सेती लिव लाई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मन सिउ = मन से, तवज्जो/ध्यान जोड़ के। रहउ समाई = (प्रभु के चरणों में) लीन रहता हूँ। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के। नामि = नाम में। सेती = साथ। लिव = लगन।1 रहाउ। अर्थ: हे (मेरे) मन! मैं (तो गुरु के सन्मुख हो के प्रभु के चरणों में) टिका रह सकता हूँ। गुरु की शरण पड़ कर ही (मनुष्य का) मन परमात्मा के नाम में भीगता है, (गुरु के सन्मुख र हके ही मनुष्य) प्रभु के साथ तवज्जो जोड़े रखता है।1। रहाउ। मेरा प्रभु अति अगम अगोचरु गुरमति देइ बुझाई ॥ सचु संजमु करणी हरि कीरति हरि सेती लिव लाई ॥२॥ अर्थ: हे भाई! प्यारा प्रभु (तो) बहुत अगम्य (पहुँच से परे) है उस तक ज्ञान-इन्द्रियों की (भी) पहुँच नहीं हो सकती, (पर, जिस मनुष्य को वह प्रभु) गुरु की मति के द्वारा (आत्मिक जीवन की) समझ बख्शता है, वह मनुष्य परमात्मा में तवज्जो जोड़ के रखता है, सदा-स्थिर हरि-नाम का स्मरण उस मनुष्य का संजम बनता है, प्रभु की महिमा उसकी कार हो जाती है।2। आपे सबदु सचु साखी आपे जिन्ह जोती जोति मिलाई ॥ देही काची पउणु वजाए गुरमुखि अम्रितु पाई ॥३॥ पद्अर्थ: अति = सदा स्थिर प्रभु। साखी = शिक्षा। जोति = जिंद, तवज्जो, ध्यान। काची = नाशवान। पउणु = हवा, सांस। वजाए = बजा रहा है, चला रहा है। अंमितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल।3। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों की तवज्जो (गुरु के द्वारा) प्रभु की ज्योति में जुड़ती है (उनको यह निष्चय बन जाता है कि) सदा-स्थिर प्रभु स्वयं ही (गुरु का) शब्द है प्रभु स्वयं ही (गुरु की) शिक्षा है। हे भाई! (इस) नाशवान शरीर में (जिसको) हरेक श्वास चला रही है, गुरु के द्वारा (ही) आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पड़ता है।3। आपे साजे सभ कारै लाए सो सचु रहिआ समाई ॥ नानक नाम बिना कोई किछु नाही नामे देइ वडाई ॥४॥८॥ पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। साजे = पैदा करता है। सभ = सारी सृष्टि। कारै = कार में, काम काज में। नामे = नाम में ही। वडाई = इजजत।4। अर्थ: हे नानक! (गुरु के द्वारा ही यह समझ पड़ती है कि) जो प्रभु स्वयं ही सारी सृष्टि को पैदा करता है, और काम काज में लगाए रखता है वह सदा-स्थिर प्रभु सब जगह व्यापक है। प्रभु के नाम के बिना कोई भी जीव कोई अस्तित्व नहीं रखता, (कोई पायां नहीं रखता), (जीव को) आदर (प्रभु अपने) नाम से ही बख्शता है।4।8। मलार महला ३ ॥ हउमै बिखु मनु मोहिआ लदिआ अजगर भारी ॥ गरुड़ु सबदु मुखि पाइआ हउमै बिखु हरि मारी ॥१॥ पद्अर्थ: बिखु = (आत्मिक मौत लाने वाला) जहर। अजगर भारी = अजगर जितना भारी, बहुत भार से। गरुड़ु = गारुड़ी मंत्र, साँप का जहर दूर करने वाला मंत्र। मुखि = मुँह में।1। अर्थ: हे भाई! अहंकार (आत्मिक मौत लाने वाला) जहर है, (मनुष्य का) मन (इस जहर के) मोह में फसा रहता है, (इस अहंकार के) बहुत बड़े भार से लदा रहता है। गुरु का शब्द (इस जहर को मारने के लिए) गारुड़ी मंत्र है, (जिस मनुष्य ने यह शब्द मंत्र अपने) मुँह में रख लिया, परमात्मा ने उसके अंदर से यह अहंकार का जहर खत्म कर दिया।1। मन रे हउमै मोहु दुखु भारी ॥ इहु भवजलु जगतु न जाई तरणा गुरमुखि तरु हरि तारी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: भवजलु = संसार समुंदर। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। तारी = बेड़ी।1। रहाउ। अर्थ: हे (मेरे) मन! अहंकार एक बड़ा दुख है (माया का) मोह भारी दुख है (अहंकार और मोह के कारण) इस संसार-समुंदर से पार नहीं लांघा जा सकता। तू गुरु की शरण पड़ के हरि-नाम की बेड़ी में (इस संसार-समुंदर से) पार लांघ।1। रहाउ। त्रै गुण माइआ मोहु पसारा सभ वरतै आकारी ॥ तुरीआ गुणु सतसंगति पाईऐ नदरी पारि उतारी ॥२॥ पद्अर्थ: त्रै गुण = रजो गुण तमो गुण सतो गुण। पसारा = खिलारा। सभ आकारी = सारे आकारों (शरीरों) में। वरतै = प्रभाव डाल रहा है। तुरीआ गुणु = वह गुण जो माया के तीन गुणों से परे है। नदरी = मेहर की निगाह से।2। अर्थ: हे भाई! त्रै-गुणी माया का मोह (अपना) पसारा (पसार के) सार जीवों पर सारे जीवों पर अपना प्रभाव डाल रहा है। (इन तीन गुणों से ऊपर है) तुरीआ गुण (यह गुण) साधु-संगत में से हासिल होता है (जो मनुष्य इस अवस्था को प्राप्त कर लेता है, परमात्मा) मेहर की निगाह करके (उसको) संसार-समुंदर से पार लंघा लेता है।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |