श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1261 चंदन गंध सुगंध है बहु बासना बहकारि ॥ हरि जन करणी ऊतम है हरि कीरति जगि बिसथारि ॥३॥ पद्अर्थ: सुगंध = अच्छी वासना। बहकारि = महकार, महक। कीरति = शोभा, कीर्ति। जगि = जगत में। बिसथारि = बिखेरी हुई है।3। अर्थ: हे भाई! जैसे चंदन की सुगंधि है जैसे चँदन में से महक निकलती है, वैसे ही परमात्मा के भक्तों की करणी श्रेष्ठ होती है, (भक्तों ने) परमात्मा की महिमा (की सुगंधि) जगत में बिखेरी हुई है।3। क्रिपा क्रिपा करि ठाकुर मेरे हरि हरि हरि उर धारि ॥ नानक सतिगुरु पूरा पाइआ मनि जपिआ नामु मुरारि ॥४॥९॥ पद्अर्थ: ठाकुर = हे ठाकुर! उर = हृदय। मनि = मन में। मुरारि = परमात्मा (मुर-अरि; मुर दैत्य का वैरी)।4। अर्थ: हे मेरे मालिक प्रभु! हे हरि! (मेरे पर) मेहर कर (मेरे) हृदय में अपना नाम बसाए रख। हे नानक! जिस मनुष्य ने पूरा गुरु पा लिया, उसने (सदा) अपने मन में परमात्मा का नाम जपा।4।9। मलार महला ३ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ इहु मनु गिरही कि इहु मनु उदासी ॥ कि इहु मनु अवरनु सदा अविनासी ॥ कि इहु मनु चंचलु कि इहु मनु बैरागी ॥ इसु मन कउ ममता किथहु लागी ॥१॥ पद्अर्थ: गिरही = गृहस्थी, घर के जंजालों में फसा हुआ। उदासी = उपराम, निर्लिप। अवरनु = अ+वरनु। चार वर्णों वाले भेद भाव से रहत। अविनासी = नाश रहित, आत्मिक मौत से बचा हुआ। चंचलु = माया की दौड़ भाग में काबू आया हुआ, जिसका मन और तन माया के प्रभाव में आकर दौड़ भाग में फसा हुआ है। ममता = अपनत्व।1। अर्थ: हे पण्डित! (वेद-शास्त्रों की मर्यादा आदि की चर्चा की जगह ये विचार किया कर कि तेरा) यह मन घर के जंजालों में फंसा रहता है अथवा निर्लिप रहता है? हे पण्डित! (ये सोचा कर कि तेरा) यह मन (ब्राहमण खत्री आदि) वर्ण-भेद से ऊपर है और सदा आत्मिक मौत से बचा रहता है? क्या (तेरा) यह मन माया की दौड़-भाग के शिकंजे में फसा हुआ है अथवा इससे आजाद है (इससे उपराम है)? हे पण्डित! (ये विचार भी किया कर कि) इस मन को ममता कहाँ से आ चिपकती है।1। पंडित इसु मन का करहु बीचारु ॥ अवरु कि बहुता पड़हि उठावहि भारु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: पंडित = हे पण्डित! कि पढ़हि = क्या पढ़ता है? उठावहि = उठाता है।1। रहाउं अर्थ: हे पण्डित! (वेद-शास्त्र आदि की मर्यादा पर जोर देने की जगह) अपने इस मन के बारे में विचार किया कर। (अपने मन की पड़ताल छोड़ के) और बहुत सारा जो कुछ तू पढ़ता है, वह (अपने सिर पर अहंकार का) भार ही उठाता है।1। रहाउ। माइआ ममता करतै लाई ॥ एहु हुकमु करि स्रिसटि उपाई ॥ गुर परसादी बूझहु भाई ॥ सदा रहहु हरि की सरणाई ॥२॥ पद्अर्थ: करतै = कर्तार ने। करि = कर के, चला के। परसादी = कृपा से। भाई = हे भाई!।2। अर्थ: हे पण्डित! (देख,) कर्तार ने (खुद इस मन को) माया की ममता चिपकाई हुई है। (कर्तार ने माया की ममता का) ये हुक्म दे के ही जगत पैदा किया हुआ है। हे भाई! गुरु की कृपा से (इस बात को) समझ, और सदा परमात्मा की शरण पड़ा रह (ताकि माया की ममता तेरे ऊपर अपना प्रभाव ना डाल सके)।2। सो पंडितु जो तिहां गुणा की पंड उतारै ॥ अनदिनु एको नामु वखाणै ॥ सतिगुर की ओहु दीखिआ लेइ ॥ सतिगुर आगै सीसु धरेइ ॥ सदा अलगु रहै निरबाणु ॥ सो पंडितु दरगह परवाणु ॥३॥ पद्अर्थ: सो = वे मनुष्य। पंड = भार। उतारै = (अपने सिर पर से) उतार देता है। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। वखाणै = उचारता है, जपता है। ओहु = वह (पण्डित)। दीखिआ = शिक्षा। लेइ = लेता है (एकवचन)। सीसु = सिर। धरेइ = धरता है। अलगु = अलग। निरबानु = निर्वाण, वासना रहत।3। अर्थ: हे पण्डित! वह (मनुष्य असल) पण्डित है जो (अपने ऊपर से) माया के तीनों गुणों का भार उतार देता है, और हर वक्त हरि-नाम ही जपता रहता है। ऐसा पंडित गुरु की शिक्षा ग्रहण करता है, गुरु के आगे अपना सिर रखे रखता है (सदा गुरु के हुक्म में चलता है)। वह सदा निर्लिप रहता है, माया के मोह से बचा रहता है। ऐसा पण्डित प्रभु की हजूरी में आदर प्राप्त करता है।3। सभनां महि एको एकु वखाणै ॥ जां एको वेखै तां एको जाणै ॥ जा कउ बखसे मेले सोइ ॥ ऐथै ओथै सदा सुखु होइ ॥४॥ पद्अर्थ: वखाणै = कहता है, उपदेश देता है। जां = जब। जा कउ = जिस मनुष्य को। ऐथै = इस लोक में। ओथै = परलोक में।4। अर्थ: हे पण्डित! (जो पण्डित वेद-शास्त्र आदि की चर्चा की जगह अपने मन को पड़तालता है स्वै अवलोकन करता है स्वै-विश्लेषण करता है, वह) यही उपदेश करता है कि सब जीवों में एक ही परमात्मा बसता है (किसी भी तरह के भेद-भाव को नहीं गिनता)। जब वह पण्डित (सब जीवों में) एक प्रभु को ही देखता है, तबवह उस एक प्रभु के साथ गहरी सांझ डाल लेता है। पर, हे पण्डित! जिस मनुष्य पर कर्तार बख्शिश करता है, उसी को वह (अपने चरणों में) जोड़ता है, उस मनुष्य को इस लोक और परलोक में आत्मिक आनंद सदा मिला रहता है।4। कहत नानकु कवन बिधि करे किआ कोइ ॥ सोई मुकति जा कउ किरपा होइ ॥ अनदिनु हरि गुण गावै सोइ ॥ सासत्र बेद की फिरि कूक न होइ ॥५॥१॥१०॥ पद्अर्थ: कवन बिधि = कौन सी जुगती? कोइ = कोई मनुष्य। कूक = शोर, (मर्यादा चलाने का) शोर, हू हल्ला।5। अर्थ: हे पण्डित! नानक कहता है: (माया के बंधनो से निजात हासिल करने के लिए आजादी पाने के लिए अपनी बुद्धि के आसरे) कोई भी मनुष्य कोई जुगति नहीं बरत सकता। जिस मनुष्य पर प्रभु मेहर करता है वही बंधनो से मुक्ति पाता है। वह मनुष्य हर वक्त परमात्मा के गुण गाता रहता है, वह फिर (अपने ऊँचे वर्ण आदि को साबित करने के लिए) वेद-शास्त्रों आदि की मर्यादा का शोर नहीं मचाता फिरता।5।1।10। मलार महला ३ ॥ भ्रमि भ्रमि जोनि मनमुख भरमाई ॥ जमकालु मारे नित पति गवाई ॥ सतिगुर सेवा जम की काणि चुकाई ॥ हरि प्रभु मिलिआ महलु घरु पाई ॥१॥ पद्अर्थ: भ्रमि = भटक के। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। भ्रमि भ्रमि भरमाई = सदा ही भटकता फिरता है। नित = सदा। पति = इज्जत। काणि = अधीनता। पाई = ढूँढ लिया।1। अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य सदा भटकता ही रहता है, उसको (आत्मिक) मौत मार लेती है, वह सदा अपनी इज्जत गवाता रहता है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह जमों की अधीनता खत्म कर लेता है (वह जनम-मरण के चक्करों में नहीं पड़ता), उसको हरि-प्रभु मिल जाता है, वह मनुष्य परमात्मा का महल परमात्मा का घर पा लेता है।1। प्राणी गुरमुखि नामु धिआइ ॥ जनमु पदारथु दुबिधा खोइआ कउडी बदलै जाइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: प्राणी = हे प्राणी! गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। जनमु पदारथु = कीमती मनुष्य जनम। दुबिधा = दो चिक्तापन, मेर तेर। बदलै = बदले में।1। रहाउ। अर्थ: हे प्राणी! गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम स्मरण किया कर। (जिस मनुष्य ने अपना) कीमती (मनुष्य-) जनम माया की भटकना में गवा लिया, उसका यह जनम कौड़ियों के भाव ही चला जाता है।1। रहाउ। करि किरपा गुरमुखि लगै पिआरु ॥ अंतरि भगति हरि हरि उरि धारु ॥ भवजलु सबदि लंघावणहारु ॥ दरि साचै दिसै सचिआरु ॥२॥ पद्अर्थ: करि = कर के। करि किरपा = मेहर करके, (प्रभु की) मेहर से। उरि = हृदय में। भवजलु = संसार समुंदर। सबदि = शब्द से। दरि साचै = सदा स्थिर प्रभु के दर पर। सचिआरु = सच्चे, सही रास्ते पर चलने वाले।2। अर्थ: हे भाई! प्रभु की मेहर से गुरु के द्वारा (जिस मनुष्य के हृदय में) प्रभु के प्रति प्यार पनप उठता है, उसके अंदर प्रभु की भक्ति पैदा होती है, वह मनुष्य प्रभु को अपने हृदय में बसा लेता है। प्रभु उसको गुरु-शब्द के माध्यम से संसार-समुंदर से पार लंघाता है। वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु के दर पर सही स्वीकार दिखता है।2। बहु करम करे सतिगुरु नही पाइआ ॥ बिनु गुर भरमि भूले बहु माइआ ॥ हउमै ममता बहु मोहु वधाइआ ॥ दूजै भाइ मनमुखि दुखु पाइआ ॥३॥ पद्अर्थ: करम = (तीर्थ यात्रा आदि निहित हुए धार्मिक) कर्म। भूले = गलत रास्ते पर पड़े रहे। दूजै भाइ = माया के मोह, (प्रभु के बिना किसी) और के प्यार में।3। अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य तीर्थ-यात्रा आदि निहित हुए धर्म के नाम पर किए जाने वाले) कर्म करता फिरता है, पर गुरु की शरण नहीं पड़ता, वह मनुष्य गुरु के बिना माया की भटकना में पड़ कर गलत रासते पर पड़ा रहता है। वह मनुष्य अपने अंदर अहंकार ममता और मोह को बढ़ाता जाता है। हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य माया के प्यार में (फंस के सदा) दुख ही सहता है।3। आपे करता अगम अथाहा ॥ गुर सबदी जपीऐ सचु लाहा ॥ हाजरु हजूरि हरि वेपरवाहा ॥ नानक गुरमुखि नामि समाहा ॥४॥२॥११॥ पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। सबदि = शब्द से। सचु लाहा = सदा टिके रहने वाला लाभ। नामि = नाम में।4। अर्थ: पर, हे भाई! अगम्य (पहुँच से परे) और अथाह कर्तार स्वयं ही (ये सारी खेल खेल रहा है)। गुरु के शब्द द्वारा (उसका नाम) जपना चाहिए - यही है सदा कायम रहने वाला लाभ। हे भाई! वह कर्तार हर जगह हाजर-नाजर है और उसको किसी की अधीनता नहीं है। हे नानक! गुरु के माध्यम से ही उसके नाम में लीन हुआ जा सकता है।4।2।11। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |