श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मलार महला ३ ॥ जीवत मुकत गुरमती लागे ॥ हरि की भगति अनदिनु सद जागे ॥ सतिगुरु सेवहि आपु गवाइ ॥ हउ तिन जन के सद लागउ पाइ ॥१॥

पद्अर्थ: मुकत = विकारों से बचे हुए। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। सद = सदा। जागे = माया के हमलों से सचेत रहते हैं। सेवहि = सेवा करते हैं (बहुवचन)। आपु = स्वै भाव। गवाइ = गवा के। हउ = मैं। लागउ = मैं लगता हूँ। पाइ = पाय, पैरों पर।1।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की मति अनुसार चलते हैं, वे दुनिया की मेहनत-कमाई करते हुए ही विकारों से बचे रहते हैं। वे हर वक्त परमात्मा की भक्ति करके माया के हमलों से सदा सचेत रहते हैं। हे भाई! जो मनुष्य स्वै-भाव दूर करके गुरु की शरण पड़ते हैं, मैं उन मनुष्यों के सदा पैर पड़ता हूँ।1।

हउ जीवां सदा हरि के गुण गाई ॥ गुर का सबदु महा रसु मीठा हरि कै नामि मुकति गति पाई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जीवां = मैं आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ। गाई = मैं गाता हूँ। कै नामि = के नाम से। मुकति = विकारों से मुक्ति। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। पाई = मैं प्राप्त करता हूँ।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! मैं सदा परमात्मा के गुण गाता रहता हूँ और आत्मिक जीवन प्राप्त करता रहता हूँ। गुरु का शब्द बहुत स्वादिष्ट है मीठा है (इस शब्द की इनायत से) मैं परमात्मा के नाम में जुड़ के विकारों से मुक्ति हासिल करता हूँ, उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त करता हूँ।1। रहाउ।

माइआ मोहु अगिआनु गुबारु ॥ मनमुख मोहे मुगध गवार ॥ अनदिनु धंधा करत विहाइ ॥ मरि मरि जमहि मिलै सजाइ ॥२॥

पद्अर्थ: अगिआनु = आत्मिक जीवन से बेसमझी। गुबारु = अंधेरा। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। मुगध = मूर्ख। करत = करते हुए। विहाइ = (उम्र) बीतती है। मरि = मर के।2।

अर्थ: हे भाई! माया का मोह (जीवन-यात्रा में) आत्मिक-जीवन की तरफ से बेसमझी है, घोर अंधेरा है। अपने मन के पीछे चलने वाले मूर्ख मनुष्य इस मोह में फसे रहते हैं। हर वक्त दुनियावी धंधे करते हुए ही उनकी उम्र गुजरती है, वे जनम-मरन के चक्करों में पड़े रहते हैं; ये सजा उनको मिलती है।2।

गुरमुखि राम नामि लिव लाई ॥ कूड़ै लालचि ना लपटाई ॥ जो किछु होवै सहजि सुभाइ ॥ हरि रसु पीवै रसन रसाइ ॥३॥

पद्अर्थ: नामि = नाम में। लालचि = लालच में। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में। पीवै = पीता है (एकवचन)। रसन = जीभ। रसाइ = रसा के, स्वाद ले के।3।

अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य परमात्मा के नाम में तवज्जो जोड़े रखता है, वह नाशवान माया की लालच में नहीं फंसता। (रज़ा के अनुसार) जो कुछ घटित होता है उसको आत्मिक अडोलता से (सहज भाव से) प्यार में (बने रह के सहता है)। वह मनुष्य परमात्मा का नाम-रस जीभ से स्वाद ले-ले के पीता रहता है।3।

कोटि मधे किसहि बुझाई ॥ आपे बखसे दे वडिआई ॥ जो धुरि मिलिआ सु विछुड़ि न जाई ॥ नानक हरि हरि नामि समाई ॥४॥३॥१२॥

पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। मधे = बीच। किसहि = किसी विरले को। आपे = आप ही। दे = देता है। धुरि = धुर दरगाह से। सु = वह मनुष्य। समाई = लीन रहता है।4।

नोट: ‘किसहि’ में से ‘किसि’ की ‘सि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

अर्थ: पर, हे भाई! करोड़ों में से विरले मनुष्य को (परमात्मा) यह सूझ बख्शता है, उसको प्रभु स्वयं ही (यह दाति) देता है और आदर-सम्मान देता है। हे नानक! जो मनुष्य धुर दरगाह से (प्रभु के चरणों में) जुड़ा हुआ है, वह उससे कभी विछुड़ता नहीं। वह सदा ही परमात्मा के नाम में लीन रहता है।4।3।12।

मलार महला ३ ॥ रसना नामु सभु कोई कहै ॥ सतिगुरु सेवे ता नामु लहै ॥ बंधन तोड़े मुकति घरि रहै ॥ गुर सबदी असथिरु घरि बहै ॥१॥

पद्अर्थ: रसना = जीभ (से)। सभु कोई = हरेक प्राणी। कहै = कहता है (एकवचन)। सेवे = सेवा करे, शरण पड़े। लहै = प्राप्त कर लेता है। मुकति घरि = मुक्ति के घर में, उस घर में जहाँ विकारों से बचा रहा जा सकता है। सबदी = शब्द से। असथिरु = अडोल चिक्त (हो के)। घरि = हृदय घर में।1।

अर्थ: हे भाई! (वैसे तो) हर कोई जीभ से हरि-नाम उचारता है, पर मनुष्य तब ही हरि-नाम (-धन) प्राप्त करता है जब गुरु की शरण पड़ता है। (गुरु की शरण पड़ कर मनुष्य माया के मोह के) बंधन तोड़ता है और उस अवस्था में टिकता है जहाँ विकारों से खलासी हुई रहती है। गुरु के शब्द द्वारा मनुष्य अडोल-चिक्त हो के हृदय-घर में टिका रहता है।1।

मेरे मन काहे रोसु करीजै ॥ लाहा कलजुगि राम नामु है गुरमति अनदिनु हिरदै रवीजै ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मन = हे मन! कलजुगि = कलियुग में, विकारों भरे जगत में। लाहा = लाभ। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। रवीजै = स्मरणा चाहिए।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन! (परमात्मा के नाम से) रूठना नहीं चाहिए। जगत में परमात्मा का नाम (ही असल) कमाई है। हे भाई! गुरु की मति ले के हर वकत हृदय में हरि-नाम स्मरणा चाहिए।1। रहाउ।

बाबीहा खिनु खिनु बिललाइ ॥ बिनु पिर देखे नींद न पाइ ॥ इहु वेछोड़ा सहिआ न जाइ ॥ सतिगुरु मिलै तां मिलै सुभाइ ॥२॥

पद्अर्थ: बाबीहा = पपीहा। बिललाइ = बिलकता है, तरले लेता है। पिर = प्रभु पति। नींद = आत्मिक शांति। सुभाइ = प्रेम से।2।

अर्थ: हे भाई! (जैसे वर्षा की बूँद के लिए) पपीहा हर पल तरले लेता है (बिलखता है), (वैसे ही जीव-स्त्री) प्रभु-पति के दर्शन किए बिना आत्मिक शांति हासिल नहीं कर सकती। (उस तरफ से) यह विछोड़ा (यह विरह) सहा नहीं जा सकता। जब कोई जीव गुरु को मिल जाता है तब वह प्रभु-प्रेम में (लीन हो के) प्रभु को मिल लेता हे।2।

नामहीणु बिनसै दुखु पाइ ॥ त्रिसना जलिआ भूख न जाइ ॥ विणु भागा नामु न पाइआ जाइ ॥ बहु बिधि थाका करम कमाइ ॥३॥

पद्अर्थ: बिनसै = नाश होता है, आत्मिक तौर पर तबाह हो जाता है। करम = (निहित हुए, धर्म के नाम पर किए जाने वाले) कर्म।3।

अर्थ: हे भाई! नाम से वंचित हुआ मनुष्य आत्मिक मौत सहेड़ लेता है दुख सहता रहता है, (माया की) तृष्णा-अग्नि में जलता है, उसकी (माया की यह) भूख दूर नहीं होती। हे भाई! ऊँची किस्मत के बिना परमात्मा का नाम मिलता भी नहीं। (तीर्थ-यात्रा आदि निहित हुए धार्मिक) कर्म कई तरीकों से कर-कर के थक जाते हैं।3।

त्रै गुण बाणी बेद बीचारु ॥ बिखिआ मैलु बिखिआ वापारु ॥ मरि जनमहि फिरि होहि खुआरु ॥ गुरमुखि तुरीआ गुणु उरि धारु ॥४॥

पद्अर्थ: बाणी बेद बीचारु = वेदों की वाणी की विचार। बिखिआ = माया। वापारु = वणज, कार्य व्यवहार। मरि = मर के। जनमहि = जन्मते हैं (बहुवचन)। होहि = होते हैं (बहुवचन)। तुरीआ गुणु = वे गुण जो माया के तीनों से परे हैं। उरि = हृदय में।4।

अर्थ: हे भाई! (जो पंडित आदि लोग माया के) तीन गुणों में रखने वाली ही वेद-आदि धर्म-पुस्तकों पर विचार करते रहते हैं (उनके मन को) माया (के मोह) की मैल (सदा चिपकी रहती है)। (उन्होंने इस विचार को) माया कमाने काही व्यापार बनाया हुआ होता है। (ऐसे मनुष्य) जनम-मरण के चक्करों में पड़े रहते हैं, और दुखी होते रहते हैं। गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य के हृदय में हरि-नाम का सहारा होता है, वह उस गुण उस अवस्था को हासिल कर लेता है जो माया के तीन गुणों से ऊपर है।4।

गुरु मानै मानै सभु कोइ ॥ गुर बचनी मनु सीतलु होइ ॥ चहु जुगि सोभा निरमल जनु सोइ ॥ नानक गुरमुखि विरला कोइ ॥५॥४॥१३॥९॥१३॥२२॥

पद्अर्थ: मानै = आदर सत्कार करता है। सभु कोई = हरेक प्राणी। गुर बचनी = गुरु के वचनों पर चल के। चहु जुगि सोभा = चारों युगों में कायम रहने वाली शोभा। सोभा निरमल = निर्मल शोभा पवित्र शोभा, बेदाग़ शोभा। जनु = (असल) सेवक। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला।5।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु इज्जत बख्शता है उसका आदर हर कोई करता है। गुरु के वचनों की इनायत से उसका मन शांत रहता है, उसको चारों युगों में टिकी रहने वाली बेदाग़ शोभा प्राप्त होती है, वही है असल भक्त। पर, हे नानक! गुरु के सन्मुख रहने वाला ऐसा कोई विरला (ही) मनुष्य होता है।5।4।13।9।22।

शबदों का वेरवा:
महला १-------------09
महला ३-------------13
जोड़------------------22

रागु मलार महला ४ घरु १ चउपदे    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

अनदिनु हरि हरि धिआइओ हिरदै मति गुरमति दूख विसारी ॥ सभ आसा मनसा बंधन तूटे हरि हरि प्रभि किरपा धारी ॥१॥

पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। हिरदै = हृदय में। मनसा = (मनीषा) मन के फुरने। प्रभि = प्रभु ने।1।

अर्थ: हे भाई! जो गुरु की मति अनुसार (अपनी) मति को बना के हर वक्त परमात्मा का नाम अपने हृदय में स्मरण करता है, वह अपने सारे दुख दूर कर लेता है। हे भाई! जिस मनुष्य पर हरि-प्रभु ने मेहर की, उसकी सारी आशाओं और मन के फुरनों के बंधन टूट गए।1।

नैनी हरि हरि लागी तारी ॥ सतिगुरु देखि मेरा मनु बिगसिओ जनु हरि भेटिओ बनवारी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: नैनी = आँखों में। तारी = ताड़ी, रुचि, एकाग्रता। देखि = देख के। बिगसिओ = खिल उठा है। जनु = सेवक। भेटिओ = मिला। बनवारी = परमात्मा।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! मेरी आँखों की तार प्रभु-चरणों में लगी रहती है। हे भाई! गुरु को देख के मेरा मन खिल उठा है, दास (नानक गुरु की कृपा से ही) बनवारी-प्रभु को मिला है।1। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh