श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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जिनि ऐसा नामु विसारिआ मेरा हरि हरि तिस कै कुलि लागी गारी ॥ हरि तिस कै कुलि परसूति न करीअहु तिसु बिधवा करि महतारी ॥२॥

पद्अर्थ: जिनि = जिस (मनुष्य) ने। कै कुलि = की कुल में। गारी = गाली। हरि = हे हरि! परसूति = प्रसूति, जनम। महतारी = माँ।2।

नोट: ‘तिस कै’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘कै’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने ऐसा हरि-नाम बिसार दिया, जिस ने हरि-प्रभु की याद भुला दी, उसकी (सारी) कुल में ही गाली लगती है (उसकी सारी कुल ही कलंकित हो जाती है)। हे हरि! उस (नाम-हीन व्यक्ति) की कुल में (किसी को) जनम ही ना देना, (उस नाम-हीन मनुष्य) की माँ को ही विधवा कर देना (तो बेहतर है ता कि नाम-हीन घर में किसी का जनम ही ना हो)।2।

हरि हरि आनि मिलावहु गुरु साधू जिसु अहिनिसि हरि उरि धारी ॥ गुरि डीठै गुर का सिखु बिगसै जिउ बारिकु देखि महतारी ॥३॥

पद्अर्थ: आनि = ला के। हरि = हे हरि! अहि = दिन। निजि = रात। उरि = हृदय में। गुरि डीठै = गुरु को देखने से, अगर गुरु दिखाई दे जाए। बिगसै = खिल उठता है। बारिकु = बालक, बच्चा। देखि महतारी = माँ को देख के।3।

अर्थ: हे हरि! (मेहर कर, मुझे वह) साधु गुरु ला के मिला दे, जिसके हृदय में, हे हरि! दिन-रात तेरा नाम बसा रहता है। हे भाई! अगर गुरु के दर्शन हो जाएं, तो गुरु का सिख यूँ खुश होता है जैसे बच्चा (अपनी) माँ को देख के।3।

धन पिर का इक ही संगि वासा विचि हउमै भीति करारी ॥ गुरि पूरै हउमै भीति तोरी जन नानक मिले बनवारी ॥४॥१॥

पद्अर्थ: धन = स्त्री, जीव-स्त्री। पिर = प्रभु पति। संगि = साथ। इक ही संगि = एक ही जगह में। भीति = दीवार। करारी = करड़ी, सख्त। गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। तोरी = तोड़ दी। बनवारी = परमात्मा।4।

अर्थ: हे भाई! जिस जीव-स्त्री और प्रभु-पति का एक ही (हृदय-) जगह में बसेरा है, पर (दोनों के) दरमियान (जीव-स्त्री की) अहंकार की दीवार (बनी हुई) है। हे नानक! पूरे गुरु ने जिस सेवकों (के अंदर से यह) अहंकार की दीवार को तोड़ दिया, वे परमात्मा को मिल गए।4।1।

मलार महला ४ ॥ गंगा जमुना गोदावरी सरसुती ते करहि उदमु धूरि साधू की ताई ॥ किलविख मैलु भरे परे हमरै विचि हमरी मैलु साधू की धूरि गवाई ॥१॥

पद्अर्थ: ते = यह सारे (बहुवचन)। करहि = करते हैं, करती हैं (बहुवचन)। की ताई = की खातिर, प्राप्त करने के लिए। किलविख = पाप। किलविख मैलु भरे = पापों की मैल से लिबड़े हुए (जीव)।1।

अर्थ: हे भाई! गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती (आदि पवित्र नदियां) ये सारी संत-जनों के चरणों की धूल हासिल करने का प्रयत्न करती रहती हैं। (ये नदियां कहती हैं कि) (अनेक) विकारों की मैल से लिवड़े हुए (जीव) हमारे में (आ के) डुबकियाँ लगाते हैं (वे अपनी मैल हमें दे जाते हैं) हमारी वह मैल संत-जनों के चरणों की धूल दूर करती है।1।

तीरथि अठसठि मजनु नाई ॥ सतसंगति की धूरि परी उडि नेत्री सभ दुरमति मैलु गवाई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: तीरथि = तीर्थ पर, तीर्थ में। नाई = बड़ाई, महिमा। मजनु = स्नान। तीर्थ नाई = महिमा के तीर्थ में। तीरथि मजनु नाई = महिमा के तीर्थ में (आत्मिक) स्नान। अठसठि मजनु = अढ़सठ (तीर्थों का) स्नान। परी = पड़ी, पड़ती है। उडि = उड़ के। नेत्री = आँखों में।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! (परमात्मा की) महिमा के तीर्थ में (किया हुआ आत्मिक) स्नान (ही) अढ़सठ तीर्थों का स्नान है। जिस मनुष्य की आँखों में साधु-संगत के चरणों की धूल उड़ कर पड़ती है (वह धूल उसके अंदर से) विकारों की सारी मैल दूर कर देती है।1। रहाउ।

जाहरनवी तपै भागीरथि आणी केदारु थापिओ महसाई ॥ कांसी क्रिसनु चरावत गाऊ मिलि हरि जन सोभा पाई ॥२॥

पद्अर्थ: जाहरनवी = गंगा। तपै = तपे ने। तपै भागीरथि = भगीरथ तपस्वी ने। आणी = ले आई। महसाई = महेश ने, शिव ने। मिलि = मिल के।2।

अर्थ: हे भाई! गंगा को भगीरथ तपस्वी (स्वर्गों से) ले के आए, शिव जी ने केदार तीर्थ स्थापित किया, काशी (शिव की नगरी), (वृंदावन जहाँ) कृष्ण गाएं चराता रहा - इन सबने हरि के भक्तों को मिल के ही महानता (बड़ाई) हासिल की हुई है।2।

जितने तीरथ देवी थापे सभि तितने लोचहि धूरि साधू की ताई ॥ हरि का संतु मिलै गुर साधू लै तिस की धूरि मुखि लाई ॥३॥

पद्अर्थ: देवी = देवी, देवताओं ने। सभि = सारे (बहुवचन)। लोचहि = लोचते हैं (बहुवचन)। मुखि = मुँह पर।3।

नोट: ‘तिस की’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे भाई! देवताओं ने जितने भी तीर्थ-स्थान हासिल किए हुए है, वे सारे (तीर्थ) संत-जनों के चरणों की धूल की तमन्ना करते रहते हैं। जब उन्हें परमात्मा का संत गुरु साधु मिलता है, वे उसके चरणों की धूल माथे पर लगाते हैं।3।

जितनी स्रिसटि तुमरी मेरे सुआमी सभ तितनी लोचै धूरि साधू की ताई ॥ नानक लिलाटि होवै जिसु लिखिआ तिसु साधू धूरि दे हरि पारि लंघाई ॥४॥२॥

पद्अर्थ: सुआमी = हे स्वामी! लोचै = लोचती है (एकवचन)। जिसु लिलाटि = जिस (मनुष्य) के माथे पर। दे = दे के।4।

अर्थ: हे मेरे मालिक प्रभु! तेरी पैदा की हुई जितनी भी सृष्टि है, वह सारी गुरु के चरणों की धूल प्राप्त करने की चाहत रखती है। हे नानक! (कह: हे भाई!) जिस मनुष्य के माथे पर लेख लिखे हों, परमात्मा उसको गुरु-साधु के चरणों की धूल दे के उसको संसार-समुंदर से पार लंघा देता।4।2।

मलार महला ४ ॥ तिसु जन कउ हरि मीठ लगाना जिसु हरि हरि क्रिपा करै ॥ तिस की भूख दूख सभि उतरै जो हरि गुण हरि उचरै ॥१॥

पद्अर्थ: कउ = को। मीठ = मीठा, प्यारा। सभि = सारे। उचरै = उचारता है।1।

नोट: ‘तिस की’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर करता है, उस मनुष्य को परमात्मा (का नाम) प्यारा लगता है। जो मनुष्य प्रभु के गुण उचारता रहता है, उसकी (माया की) भूख दूर हो जाती है, उसके सारे दुख (दूर हो जाते हैं)।1।

जपि मन हरि हरि हरि निसतरै ॥ गुर के बचन करन सुनि धिआवै भव सागरु पारि परै ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मन = हे मन! निसतरै = पार लांघ जाता है। करन = कानों से। सुनि = सुन के। भव सागरु = संसार समुंदर।1। रहाउ।

अर्थ: हे (मेरे) मन! सदा हरि का नाम जपा कर, (जो मनुष्य जपता है, वह संसार-समुंदर से) पार लांघ जाता है। (जो मनुष्य) गुरु के वचन कानों से सुन के (परमात्मा का नाम) स्मरण करता है, वह मनुष्य संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है।1। रहाउ।

तिसु जन के हम हाटि बिहाझे जिसु हरि हरि क्रिपा करै ॥ हरि जन कउ मिलिआं सुखु पाईऐ सभ दुरमति मैलु हरै ॥२॥

पद्अर्थ: हाटि = दुकान पर। विहाझे = खरीदे हुए, बिके हुए। हाटि विहाझे = गुलाम, मोल खरीदे। पाईऐ = पा लिया जाता है। सभ मैलु = सारी मैल। हरै = दूर कर देता है।2।

अर्थ: हे भाई! जिस सेवक पर परमात्मा मेहर करता है, मैं उसका मूल्य खरीदा हुआ गुलाम हूँ। परमात्मा के सेवक को मिलने से आत्मिक आनंद प्राप्त होता है (वह आत्मिक आनंद मनुष्य के अंदर से) खोटी मति की सारी मति दूर कर देता है।2।

हरि जन कउ हरि भूख लगानी जनु त्रिपतै जा हरि गुन बिचरै ॥ हरि का जनु हरि जल का मीना हरि बिसरत फूटि मरै ॥३॥

पद्अर्थ: जनु = सेवक। त्रिपतै = अघा जाता है, तृप्त हो जाता है। जा = जब। बिचरै = विचारता है, मन में बसाता है। मीना = मछली। फूटि मरै = दुखी हो के मर जाता है।3।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के सेवक को परमात्मा (के नाम) की भूख लगी रहती है, जब वह परमात्मा के गुण मन में बसाता है, वह तृप्त हो जाता है। हे भाई! परमात्मा का भक्त इस तरह है जैसे पानी की मछली है (पानी से विछुड़ के तड़फ के मर जाती है, वैसे ही परमात्मा का भक्त) हरि-नाम को बिसारने से बहुत दुखी होता है।3।

जिनि एह प्रीति लाई सो जानै कै जानै जिसु मनि धरै ॥ जनु नानकु हरि देखि सुखु पावै सभ तन की भूख टरै ॥४॥३॥

पद्अर्थ: जिनि = जिस (परमात्मा) ने। कै = अथवा, या। जिसु मनि = जिस (मनुष्य) के मन में। देखि = देख के। टरै = टल जाती है, खत्म हो जाती है।4।

अर्थ: हे भाई! जिस (परमात्मा) ने (अपने सेवक के हृदय में अपना) प्यार पैदा किया होता है (उस प्यार की कद्र) वह (स्वयं) जानता है, अथवा (वह सेवक) जानता है जिसके मन में (परमात्मा अपना प्यार) बसाता है। दास नानक उस प्रभु के दर्शन कर के आत्मिक आनंद हासिल करता है (इस आनंद की इनायत से नानक के) शरीर की सारी (मायावी) भूख दूर हो जाती है।4।3।

मलार महला ४ ॥ जितने जीअ जंत प्रभि कीने तितने सिरि कार लिखावै ॥ हरि जन कउ हरि दीन्ह वडाई हरि जनु हरि कारै लावै ॥१॥

पद्अर्थ: जीअ = जीव। प्रभि = प्रभु ने। तितने = वे सारे। सिरि = (हरेक के) सिर पर। लिखावै = लिखाता है। कउ = को। दीन्ह = दी है। वडाई = इज्जत। कारै = कार में, काम में। लावै = लगाता है, जोड़ता है।1।

नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।

अर्थ: हे भाई! जितने भी जीव-जंतु प्रभु ने पैदा किए हैं, सारे ही (ऐसे हैं कि) हरेक के सिर पर (करने के लिए) कार लिख रखी है। (अपने) भक्त को प्रभु ने यह वडिआइै बख्शी होती है कि प्रभु अपने भक्त को नाम-जपने की कार में लगाए रखता है।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh