श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1264 सतिगुरु हरि हरि नामु द्रिड़ावै ॥ हरि बोलहु गुर के सिख मेरे भाई हरि भउजलु जगतु तरावै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: द्रिढ़ावै = मन पक्का करता है। गुर के सिख = हे गुरु के सिखो! भाई! और भाईयो! भउजलु जगतु = संसार समुंदर। तरावै = पार लंघाता है।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! गुरु (मनुष्य के) हृदय में परमात्मा का नाम पक्की तरह टिका देता है। (इसलिए) हे गुरु के सिखो! हे मेरे भाईयो! (गुरु की शरण पड़ कर) परमात्मा का नाम जपा करो। परमात्मा संसार-समुंदर से पार लंघा लेता है।1। रहाउ। जो गुर कउ जनु पूजे सेवे सो जनु मेरे हरि प्रभ भावै ॥ हरि की सेवा सतिगुरु पूजहु करि किरपा आपि तरावै ॥२॥ पद्अर्थ: सो जनु = जो मनुष्य। पूजे सेवे = पूजता है सेवा करता है। प्रभ भावै = प्रभु को प्यारा लगता है। सेवा = भक्ति। पूजहु = पूजा करो। करि = कर के।2। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु का आदर-सत्कार करता है गुरु की शरण पड़ता है, वह मनुष्य परमात्मा को प्यारा लगता है। हे भाई! परमात्मा की सेवा-भक्ति किया करो, गुरु की शरण पड़े रहो (जो मनुष्य यह उद्यम करता है उसको प्रभु) मेहर करके आप पार लंघा लेता है।2। भरमि भूले अगिआनी अंधुले भ्रमि भ्रमि फूल तोरावै ॥ निरजीउ पूजहि मड़ा सरेवहि सभ बिरथी घाल गवावै ॥३॥ पद्अर्थ: भरमि = भटकना में पड़ के। भूले = गलत राह पर पड़े रहते हैं। अगिआनी = आत्मिक जीवन की ओर से बेसमझ लोग। अंधुले = (माया के मोह में सही जीवन-राह से) अंधे। भ्रमि भ्रमि = भटक भटक के। तोरावै = तोड़ता है। निरजीउ = निर्जीव (पत्थर की मूर्ति)। मढ़ा = समाधि। बिरथी = व्यर्थ। घाल = मेहनत।3। अर्थ: हे भाई! (गुरु-परमेश्वर को भुला के) मनुष्य भटक-भटक के (मूर्ति आदि की पूजा के लिए) फूल तोड़ता फिरता है। (ऐसे मनुष्य) भटकने के कारण गलत राह पर पड़े रहते हैं, आत्मिक जीवन की ओर से बेसमझ बने रहते हैं, उन्हें सही जीवन-मार्ग नहीं दिखाई देता। (वह अंधे मनुष्य) बेजान (मूर्तियों) को पूजते हैं, समाधियों को माथे टेकते रहते हैं। (ऐसा मनुष्य अपनी) सारी मेहनत व्यर्थ गवाता है।3। ब्रहमु बिंदे सो सतिगुरु कहीऐ हरि हरि कथा सुणावै ॥ तिसु गुर कउ छादन भोजन पाट पट्मबर बहु बिधि सति करि मुखि संचहु तिसु पुंन की फिरि तोटि न आवै ॥४॥ पद्अर्थ: ब्रहम = परमात्मा। बिंदे = जानता है, सांझ डालता है। छादन = कपड़े। पाट पटंबर = रेशम, रेशमी कपड़े (पट+अंबर। अंबर = कपड़े)। सति करि = श्रद्धा से। मुखि = मुँह में। संचहु = इकट्ठे करो। मुखि संचहु = खिलाओ। तोटि = कमी। पुंन = पुण्य, भला कर्म।4। अर्थ: हे भाई! गुरु परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाले रखता है, जगत उसको गुरु कहता है, गुरु जगत को परमात्मा की महिमा का उपदेश सुनाता है। हे भाई! ऐसे गुरु के आगे कई किस्मों के कपड़े, खाणे, रेश्मी कपड़े श्रद्धा से भेट किया करो। इस भले काम की तोट नहीं आती।4। सतिगुरु देउ परतखि हरि मूरति जो अम्रित बचन सुणावै ॥ नानक भाग भले तिसु जन के जो हरि चरणी चितु लावै ॥५॥४॥ पद्अर्थ: परतखि = प्रत्यक्ष, आँखों से दिखाई देता। मूरति = स्वरूप। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाले।5। अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) जो गुरु आत्मिक जीवन देने वाले (महिमा के) वचन सुनाता रहता है, वह तो साफ तौर पर परमात्मा का रूप ही दिखता है। उस मनुष्य के अच्छे भाग्य होते हैं जो (गुरु की शरण पड़ कर) परमात्मा के चरणों में चिक्त जोड़े रखता है।5।4। मलार महला ४ ॥ जिन्ह कै हीअरै बसिओ मेरा सतिगुरु ते संत भले भल भांति ॥ तिन्ह देखे मेरा मनु बिगसै हउ तिन कै सद बलि जांत ॥१॥ पद्अर्थ: कै हीअरै = के हृदय में। ते = वे (बहुवचन)। भल भांति = अच्छी तरह, पूरी तौर पर। बिगसै = खिल उठता है। हउ = मैं। सद = सदा। तिन कै बलि = उनसे सदके।1। अर्थ: हे भाई! जिनके हृदय में प्यारा गुरु बसा रहता है, वह मनुष्य पूरन तौर पर भले मनुष्य बन जाते हैं। हे भाई! उनके दर्शन करके मेरा मन खिल उठता है, मैं तो उनसे सदा सदके जाता हूँ।1। गिआनी हरि बोलहु दिनु राति ॥ तिन्ह की त्रिसना भूख सभ उतरी जो गुरमति राम रसु खांति ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: गिआनी = हे ज्ञानी! सभ = सारी। खांति = (खादन्ति) खाते हैं।1। रहाउ। अर्थ: हे ज्ञानवान मनुष्य! दिन-रात (हर वक्त) परमात्मा का नाम जपा कर। जो मनुष्य गुरु की मति ले के परमात्मा का नाम-रस खाते हैं, उनकी (मायावी) सारी तृष्णा सारी भूख (सारी भूख-प्यास) दूर हो जाती है।1। रहाउ। हरि के दास साध सखा जन जिन मिलिआ लहि जाइ भरांति ॥ जिउ जल दुध भिंन भिंन काढै चुणि हंसुला तिउ देही ते चुणि काढै साधू हउमै ताति ॥२॥ पद्अर्थ: सखा = मित्र। भरांति = भटकना। भिंन = अलग। चुणि = चुन के। हंसुला = हंस। देही ते = शरीर से, शरीर में से। ताति = ईष्या।2। अर्थ: हे भाई! परमात्मा के भक्त-जन (ऐसे) साधु-मित्र (हैं), जिनको मिलने से (मन की) भटकना दूर हो जाती है। हे भाई! जैसे हंस पानी और दूध को (अपनी चोंच से) चुन के अलग-अलग कर देता है, वैसे ही साधु-मनुष्य शरीर में से अहंकार और ईष्या को चुन के बाहर निकाल देता है।2। जिन कै प्रीति नाही हरि हिरदै ते कपटी नर नित कपटु कमांति ॥ तिन कउ किआ कोई देइ खवालै ओइ आपि बीजि आपे ही खांति ॥३॥ पद्अर्थ: जिन कै हिरदै = जिस के हृदय में। कपटी = पाखंडी। देइ = दे। ओइ = वह लोग। बीजि = बीज के।3। नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों के हृदय में परमात्मा का प्यार नहीं (बसता), वे मनुष्य पाखण्डी बन जाते हैं, वे (माया आदि की खातिर) सदा (दूसरों के साथ) ठगी करते हैं। उनको और कोई मनुष्य (आत्मिक जीवन की खुराक) ना दे सकता है ना खिला सकता है, वे लोग (ठगी का बीज) खुद बीज के खुद ही (उसका फल सदा) खाते हैं।3। हरि का चिहनु सोई हरि जन का हरि आपे जन महि आपु रखांति ॥ धनु धंनु गुरू नानकु समदरसी जिनि निंदा उसतति तरी तरांति ॥४॥५॥ पद्अर्थ: चिहनु = लक्षण। आपे = आप ही। आपु = अपना आप। धनु धंनु = सलाहने योग्यं। सम दरसी = सब जीवों में एक ही ज्योति देखने वाला। सम = बराबर, एक समान। जिनि = जिस (गुरु) ने। तरांति = तैरा देता है, पार लंघाता है।4। अर्थ: हे भाई! (ऊँचे आत्मिक जीवन का जो) लक्षण परमात्मा का होता है (नाम-जपने की इनायत से) वही लक्षण परमात्मा के भक्त का हो जाता है। प्रभु आप ही अपने आप को अपने सेवक में टिकाए रखता है। हे भाई! सब जीवों में एक हरि की ज्योति देखने वाला गुरु नानक (हर वक्त) सलाहने-योग्य है, जिस ने खुद निंदा और खुशामद (की नदी) पार कर ली है और-और लोगों को इसमें से पार लंघा देता है।4।5। मलार महला ४ ॥ अगमु अगोचरु नामु हरि ऊतमु हरि किरपा ते जपि लइआ ॥ सतसंगति साध पाई वडभागी संगि साधू पारि पइआ ॥१॥ पद्अर्थ: अगमु = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान-इंद्रिय। चरु = पहुँच) जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं हो सकती। ऊतमु = ऊँचा (जीवन बनाने वाला)। ते = से, के द्वारा। साध = गुरु। पाई = हासिल की। वडभागी = बड़े भाग्यों से। संगि साध = गुरु की संगति में।1। अर्थ: हे भाई! परमात्मा अगम्य (पहुँच से परे) है, परमात्मा ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच से परे है, उसका नाम (मनुष्य के जीवन को) ऊँचा (करने वाला) है। (जिस मनुष्य ने) गुरु की कृपा से (यह नाम) जपा है, (जिस मनुष्य ने) बड़े भाग्यों से गुरु की संगति प्राप्त की है, वह गुरु की संगति में रह के संसार-समुंदर से पार लांघ गया है।1। मेरै मनि अनदिनु अनदु भइआ ॥ गुर परसादि नामु हरि जपिआ मेरे मन का भ्रमु भउ गइआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मेरै मनि = मेरे मन में। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। परसादि = कृपा से।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! (जब से) गुरु की कृपा से मैं परमात्मा का नाम जप रहा हूँ, मेरे मन का हरेक भ्रम और डर दूर हो गया है। (अब) मेरे मन में हर वक्त आनंद बना रहता है।1। रहाउ। जिन हरि गाइआ जिन हरि जपिआ तिन संगति हरि मेलहु करि मइआ ॥ तिन का दरसु देखि सुखु पाइआ दुखु हउमै रोगु गइआ ॥२॥ पद्अर्थ: हरि = हे हरि! करि = कर के। मइआ = दया। देखि = देख के।2। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने परमात्मा की महिमा की है, जिस मनुष्यों ने परमात्मा का नाम जपा है, उनके दर्शन करके आत्मिक आनंद मिलता है, हरेक दुख दूर हो जाता है, अहंकार का रोग मिट जाता है। हे हरि! मेहर करके (मुझे भी) उनकी संगति मिला।2। जो अनदिनु हिरदै नामु धिआवहि सभु जनमु तिना का सफलु भइआ ॥ ओइ आपि तरे स्रिसटि सभ तारी सभु कुलु भी पारि पइआ ॥३॥ पद्अर्थ: धिआवहि = ध्याते हैं (बहुवचन)। सफलु = कामयाब। ओइ = वे लोग।3। नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य हर वक्त (अपने) हृदय में परमात्मा का नाम जपते हैं, उनकी सारी जिंदगी कामयाब हो जाती है। वह मनुष्य खुद (संसार-समुंदर से) पार लांघ जाते हैं, वे सारी सृष्टि को भी पार लंघा लेते हैं, (उनकी संगति में रह के उनका) सारा खानदान भी पार लांघ जाता है।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |