श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1266 हरि हमारो मीतु सखाई हम हरि सिउ प्रीति लागी ॥ हरि हम गावहि हरि हम बोलहि अउरु दुतीआ प्रीति हम तिआगी ॥१॥ पद्अर्थ: सखाई = साथी, मददगार। सिउ = साथ। हम गावहि = हम गाते हैं (मैं गाता हूँ)। हम बोलहि = हम उचारते हैं (मैं जपता हूँ)। हम = हम, मैं। दुतीआ = दूसरी।1। अर्थ: हे भाई! परमात्मा ही मेरा मित्र है मेरा मददगार है, परमात्मा के साथ (ही) मेरा प्यार बना हुआ है। मैं परमात्मा के महिमा के ही गीत गाता हूँ, मैं परमात्मा का नाम ही जपता हूँ। प्रभु के बिना किसी और के प्रति प्यार मैंने छोड़ दिया है।1। मनमोहन मोरो प्रीतम रामु हरि परमानंदु बैरागी ॥ हरि देखे जीवत है नानकु इक निमख पलो मुखि लागी ॥२॥२॥९॥९॥१३॥९॥३१॥ पद्अर्थ: परमानंदु = परम आनंद का मालिक। बैरागी = माया के प्रभाव से परे रहने वाला। जीवत है = जीता है, आत्मिक जीवन प्राप्त करता है। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। मुखि लागी = मुँह लगता है, दिखता है, दर्शन देता है।2। अर्थ: हे भाई! सबके मन को मोह लेने वाला परमात्मा ही मेरा प्रीतम है। वह परमात्मा सबसे ऊँचे आनंद का मालिक है, माया के प्रभाव से ऊँचा रहने वाला है। हे भाई! अगर उस परमात्मा के दर्शन आँख झपकने जितने समय के लिए भी हो जाए, एक पल भर के लिए हो जाए, तो नानक उसके दर्शन करके आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है।2।2।9।9।13।9।31। शबदों का वेरवा:
रागु मलार महला ५ चउपदे घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ किआ तू सोचहि किआ तू चितवहि किआ तूं करहि उपाए ॥ ता कउ कहहु परवाह काहू की जिह गोपाल सहाए ॥१॥ पद्अर्थ: उपाए = अनेक उपाय (बहुवचन)। कउ = को। ता कउ = उस (मनुष्य) को। सहाए = सहाई।1। अर्थ: हे भाई! (परमात्मा की शरण छोड़ के) तू और क्या सोचें सोचता है? तू और कौन से उपाय चितवता है? तू और कौन से तरीके अपनाता है? (देख,) जिस (मनुष्य) का सहाई परमात्मा खुद बनता है उसको, बता, किसकी परवाह रह जाती है?।1। बरसै मेघु सखी घरि पाहुन आए ॥ मोहि दीन क्रिपा निधि ठाकुर नव निधि नामि समाए ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मेघु = बादल। सखी = हे सखी! हे सहेली! घरि = (मेरे हृदय) घर में। पाहुन = (आदर वास्ते बहुवचन) मेहमान, नींगर, दूल्हा, प्रभु पति। मोहि दीन = मुझ गरीब को। क्रिपा निधि = हे कृपा के खजाने! ठाकुर = हे मालिक! नवनिधि नामि = नाम में जो (मानो) नौ ही खजाने हैं। समाए = लीन कर।1। रहाउ। अर्थ: हे सहेली! (मेरे हृदय-) घर में प्रभु-पति जी टिके हैं (मेरे अंदर से तपष मिट गई है, ऐसा प्रतीत होता है जैसे मेरे अंदर उसकी मेहर के) बादल बरस रहे हैं। हे कृपा के खजाने प्रभु! हे मालिक प्रभु! मुझ कंगाल को अपने नाम में लीन करे रख (यह नाम ही मेरे वास्ते) नौ खजाने है।1। रहाउ। अनिक प्रकार भोजन बहु कीए बहु बिंजन मिसटाए ॥ करी पाकसाल सोच पवित्रा हुणि लावहु भोगु हरि राए ॥२॥ पद्अर्थ: अनिक प्रकार = कई किस्मों के। कीए = तैयार किए। मिसट = मीठे। बिंजन मिसटाए = मीठे स्वादिष्ट भोजन। कीए = (स्त्री ने) तैयार किए। करी = तैयार की। पाकसाल = रसोई, (हृदय-) रसोई। सोच = सुच (से)। लावहु भोग = खाओ, पहले आप खाओ, स्वीकार करो। हरि राइ = हे प्रभु पातशाह!।2। अर्थ: जैसे कोई स्त्री अपने पति के लिए अनेक किसमों के स्वादिष्ट खाने तैयार करती है, बड़ी स्वच्छता से रसोई साफ-सुथरी बनाती है, हे प्रभु पातशाह! (तेरे प्यार में मैंने अपने हृदय की रसोई को तैयार किया है, मेहर कर, और इसको) अब स्वीकार कर।2। दुसट बिदारे साजन रहसे इहि मंदिर घर अपनाए ॥ जउ ग्रिहि लालु रंगीओ आइआ तउ मै सभि सुख पाए ॥३॥ पद्अर्थ: बिदारे = नाश कर दिए। रहसे = खुश हुए। अपनाए = अपने बना लिए, अपनत्व दिखाया। ग्रिहि = (हृदय-) घर में। रंगीओ = रंगीला, सुंदर। सभि = सारे। इहि = यह।3। नोट: ‘इहि’ है ‘इह/यह’ का बहुवचन। अर्थ: हे सखी! इन (शरीर रूपी) घर-मंदिरों को (जब प्रभु-पति) अपनाता है (इनमें अपना प्रकाश करता है, तब इनमें से कामादिक) दुष्ट नाश हो जाते हैं (और देवी गुण) सज्जन प्रफुल्लित हो जाते हैं। हे सखी! जब से मेरे हृदय-घर में सुंदर-लाल (प्रभु) आ बसा है, तब से मैंने सारे सुख हासिल कर लिए हैं।3। संत सभा ओट गुर पूरे धुरि मसतकि लेखु लिखाए ॥ जन नानक कंतु रंगीला पाइआ फिरि दूखु न लागै आए ॥४॥१॥ अर्थ: हे दास नानक! धुर-दरगाह से जिस जीव के माथे पर साधु-संगत में पूरे गुरु की ओट का लेख लिखा होता है, उसको सोहाना प्रभु-पति मिल जाता है, उसको फिर कोई दुख पोह नहीं सकता।4।1। मलार महला ५ ॥ खीर अधारि बारिकु जब होता बिनु खीरै रहनु न जाई ॥ सारि सम्हालि माता मुखि नीरै तब ओहु त्रिपति अघाई ॥१॥ पद्अर्थ: खीर = दूध। खीर अधारि = दूध के आसरे से। होता = रहता है। बिनु खीरै = दूध के बिना। सारि = सार ले के। समालि = संभाल के। मुखि = (बच्चे के) मुँह में। नीरै = परोसती है, थन देती है। त्रिपति अघाई = अच्छी तरह तृप्त हो जाता है।1। अर्थ: हे भाई! जब (कोई) बच्चा दूध के आसरे होता है (तब वह) दूध के बिना नहीं रह सकता। (जब उसकी) माँ (उसकी) सार ले के (उसकी) संभाल कर के (उसके) मुँह में अपना थन डालती है, तब वह (दूध से) अच्छी तरह तृप्त हो जाता है।1। हम बारिक पिता प्रभु दाता ॥ भूलहि बारिक अनिक लख बरीआ अन ठउर नाही जह जाता ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: भूलहि = भूलते हैं (बहुवचन)। बारिकु = (एकवचन)। बारिक = (बहुवचन)। बरीआ = बारी। अन = अन्य, और। ठउर = जगह। जह = जहाँ।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! दातार प्रभु (हमारा) पिता है, हम (जीव उस के) बच्चे हैं। बच्चे अनेक बार लाखों बार भूलें करते हैं (पिता-प्रभु के बिना उनकी कोई) और जगह नहीं, जहाँ वे जा सकें।1। रहाउ। चंचल मति बारिक बपुरे की सरप अगनि कर मेलै ॥ माता पिता कंठि लाइ राखै अनद सहजि तब खेलै ॥२॥ पद्अर्थ: चंचल = चुलबुली, एक जगह ना टिक के रहने वाली। बपुरो की = बिचारे की। सरप = साँप। कर = हाथ। कंठि = गले से। लाइ = लगा के। सहजि = अडोलता से, बेफिक्री से।2। नोट: ‘जिस का’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे भाई! बेचारे बच्चे की अकल होछी होती है, वह (जब माता-पिता से परे होता है तब) साँप को हाथ से पकड़ना चाहता है, आग में हाथ डालता है (और, दुखी होता है)। (पर, जब उसको) माँ गले से लगा के रखती है पिता गले से लगा के रखता है (भाव, जब उसके माता-पिता उसका ध्यान रखते हैं) तब वह आनंद से निश्चंत हो के खेलता है।2। जिस का पिता तू है मेरे सुआमी तिसु बारिक भूख कैसी ॥ नव निधि नामु निधानु ग्रिहि तेरै मनि बांछै सो लैसी ॥३॥ पद्अर्थ: सुआमी = हे स्वामी! ग्रिहि तेरै = तेरे घर में। मनि = मन में। बांछै = मांगता है, चाहता है। लैसी = ले जाएगा।3। अर्थ: हे मेरे मालिक प्रभु! जिस (बच्चे) का तू पिता (की तरह रखवाला) है, उस बच्चे को कोई (मायावी) भूख नहीं रह जाती। तेरे घर में तेरा नाम-खजाना है (यही है) नौ खजाने! वह जो कुछ अपने मन में (तुझसे) माँगता है, वह कुछ हासिल कर लेता है।3। पिता क्रिपालि आगिआ इह दीनी बारिकु मुखि मांगै सो देना ॥ नानक बारिकु दरसु प्रभ चाहै मोहि ह्रिदै बसहि नित चरना ॥४॥२॥ पद्अर्थ: क्रिपालि = कृपालु ने। आगिआ = आज्ञा, हुक्म। मुखि = मुँह से। दरसु प्रभ = प्रभु का दर्शन। मोहि हृदै = मेरे हृदय में। बसहि = बसते रहें।4। अर्थ: हे भाई! कृपालु पिता-प्रभु ने यह हुक्म रखा है, कि बालक जो कुछ माँगता है वह उसको दे देता है। हे प्रभु! तेरा बच्चा नानक तेरे दर्शन चाहता है (और, कहता है: हे प्रभु!) तेरे चरण मेरे हृदय में बसे रहें।4। मलार महला ५ ॥ सगल बिधी जुरि आहरु करिआ तजिओ सगल अंदेसा ॥ कारजु सगल अर्मभिओ घर का ठाकुर का भारोसा ॥१॥ पद्अर्थ: सगल बिधी = सारे तरीकों से। जुरि = जुड़ के। आहरु = उद्यम। अंदेसा = चिन्ता फिक्र। कारजु घर का = हृदय घर का काम, आत्मिक जीवन को अच्छा बनाने का काम। भारोसा = सहारा।1। अर्थ: हे सखी! अब मैंने आत्मिक जीवन को सुंदर बनाने का सारा काम शुरू कर दिया है, मुझे अब मालिक प्रभु का (हर वक्त) सहारा है। मैंने अब सारे चिन्ता-फिक्र खत्म कर दिए हैं, (अब मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि सफलता के) सारे ढंगों ने मिल के (मेरी हरेक सफलता के लिए) उद्यम किया हुआ है।1। सुनीऐ बाजै बाज सुहावी ॥ भोरु भइआ मै प्रिअ मुख पेखे ग्रिहि मंगल सुहलावी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सुनीऐ = सुनी जा रही है। बाजै बाज = बाजे की आवाज़। सुहावी = (कानों को) सुंदर लगने वाली। भोरु = दिन, रौशनी। ग्रिह = हृदय घर। मंगल = आनंद, खुशियां। सुहलावी = सुखी।1। रहाउ। अर्थ: हे सखी! जब मैंने प्यारे प्रभु जी का मुँह देख लिया (दर्शन कर लिए), मेरे हृदय-घर में आनंद ही आनंद बन गया, मेरे अंदर शांति पैदा हो गई, मेरे अंदर (आत्मिक जीवन की सूझ का) दिन चढ़ गया, (मेरे अंदर इस तरह का आनंद बन गया, जैसे कि अंदर) कानों को सुंदर लगने वाली (किसी) बाजे कीआवाज़ सुनी जा रही है।1। रहाउ। मनूआ लाइ सवारे थानां पूछउ संता जाए ॥ खोजत खोजत मै पाहुन मिलिओ भगति करउ निवि पाए ॥२॥ पद्अर्थ: मनूआ लाइ = मन लगा के, पूरे ध्यान से। सवारे = सवार लिए हैं, अच्छे बना लिए हैं। थानां = सारी जगहें, सारी इंद्रिय। पूछउ = मैं पूछती हूं। जाइ = जा के। मै = मुझे। पाहुन = प्राहुना, दूल्हा, नींगर, प्रभु पति। करउ = करूँ, मैं करती हूँ। निवि = झुक के। पाए = चरणों में।2। अर्थ: हे सखी! पूरे ध्यान से मैंने अपनी सारी इन्द्रियों को खबसूरत बना लिया है। मैं संतों के पास जा के (प्रभु-पति के मिलाप की बातें) पूछती रहती हूँ। तलाश करते-करते मुझे प्रभु-पति मिल गया है। अब मैं उसके चरणों पर गिर कर उसकी भक्ति करती रहती हूँ।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |