श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1269 मनि तनि रवि रहिआ जगदीसुर पेखत सदा हजूरे ॥ नानक रवि रहिओ सभ अंतरि सरब रहिआ भरपूरे ॥२॥८॥१२॥ पद्अर्थ: मनि = मन में। तनि = तन में। जगदीसुर = (जगत+ईसरु) जगत का मालिक प्रभु। हजूरे = हाजर नाजर, अंग संग। रवि रहिओ = मौजूद है। सरब = सबमें।2। अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) जगत का मालिक प्रभु जिस मनुष्यों के मन में हृदय में सदा बसा रहता है, वह उसको सदा अपने अंग-संग बसता देखते हैं। (उनको ऐसा प्रतीत होता है कि) परमात्मा सब जीवों भीतर मौजूद है, सब जगह भरपूर बसता है।2।8।12। मलार महला ५ ॥ हरि कै भजनि कउन कउन न तारे ॥ खग तन मीन तन म्रिग तन बराह तन साधू संगि उधारे ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: कै भजनि = के भजन से। कउन कउन = किन किन को। न तारे = (गुरु ने) पार नहीं लंघाए। खग = पंछी। मीन = मछली। म्रिग = पशू, हिरन। बराह = सूअर। तन = शरीर। साधू संगि = गुरु की संगति में। उधारे = पार लंघाए।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! (जिस-जिस ने भी हरि का भजन किया) उन सभी को (गुरु ने) परमात्मा के भजन से (संसार-समुंदर से) पार लंघा दिया। पंछियों के शरीर वाले, मछलियों के से शरीर धारण करने वाले? पशुओं का सा शरीर धारण करने वाले, सूअरों का शरीर धारण करने वाले- यह सब गुरु की संगति में पार लंघा दिए गए हैं।1। रहाउ। देव कुल दैत कुल जख्य किंनर नर सागर उतरे पारे ॥ जो जो भजनु करै साधू संगि ता के दूख बिदारे ॥१॥ पद्अर्थ: कुल = खानदान। जख्ह = देवताओं की एक किस्म। किंनर = देवताओं की एक कुल जिनका आधा शरीर घोड़े काऔर आधा मनुष्य का माना जाता है। सागर = (संसार-) समुंदर। करै = करता है (एकवचन)। ता के = उनके। बिदारे = नाश कर दिए हैं।1। अर्थ: हे भाई! (साधु-संगत में नाम-जपने की इनायत से) देवताओं की कुलें, दैत्यों की कुलें, जख, किंन्नर, मनुष्य- ये सारे संसार समुंदर से पार निकल गए। गुरु की संगति में रहके जो-जो प्राणी परमात्मा का भजन करता है, उन सबके सारे दुख नाश हो जाते हैं।1। काम करोध महा बिखिआ रस इन ते भए निरारे ॥ दीन दइआल जपहि करुणा मै नानक सद बलिहारे ॥२॥९॥१३॥ पद्अर्थ: बिखिआ रस = माया के चस्के। इनते = इनसे। निरारे = निराले, अलग, निर्लिप। जपहि = (जो) जपते हैं। करुणामै = तरस स्वरूप प्रभु को (करुणा = तरस)। सद = सदा।2। अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) दीनों पर दया करने वाले तरस-स्वरूप परमात्मा का नाम जो-जो मनुष्य जपते हैं, मैं उन पर से सदा कुर्बान जाता हँ। वे मनषुय काम, क्रोध, माया के चस्के- इन सबसे निर्लिप रहते हैं।2।9।13। मलार महला ५ ॥ आजु मै बैसिओ हरि हाट ॥ नामु रासि साझी करि जन सिउ जांउ न जम कै घाट ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: आजु = अब। बैसिओ = बैठा हूँ। हाट = दुकान। हरि हाट = वह हाट जहाँ हरि नाम मिलता है, साधु-संगत। रासि = राशि, पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत। साझी = सांझ, भाईवाली। करि = कर के। जन सिउ = संत जनों के साथ। जांउ न = मैं नहीं जाता। घाट = पत्तन। जम कै घाट = जमदूतों के घाट पर।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! अब मैं उस हाट (साधु-संगत) में आ बैठा हूँ जहाँ हरि-नाम मिलता है। वहाँ मैंने संत-जनों के साथ सांझ डाल के हरि-नाम की संपत्ति (इकट्ठी की है, जिसकी इनायत से) मैं जमदूतों के घाटों पर नहीं जाता (भाव, मैं वह कर्म ही नहीं करता, जिनके कारण जमों के वश में पड़ना पड़े)।1। रहाउ। धारि अनुग्रहु पारब्रहमि राखे भ्रम के खुल्हे कपाट ॥ बेसुमार साहु प्रभु पाइआ लाहा चरन निधि खाट ॥१॥ पद्अर्थ: धारि = धार के, कर के। अनुग्रहु = कृपा। पारब्रहमि = पारब्रहम ने। राखे = रक्षा की। कपाट = किवाड़, दरवाजे। साहु = शाह, नाम धन का मालिक। लाहा = लाभ। निधि = खजाना, सारे सुखों का खजाना। खाट = कमाया।1। अर्थ: हे भाई! परमात्मा ने मेहर करके जिनकी रक्षा की (साधु-संगत की इनायत से उनके) भ्रम-भटकना के भिक्त खुल गए। उन्होंने बेअंत नाम-राशि के मालिक प्रभु को पा लिया। उन्होंने परमात्मा के चरणों (में टिके रहने) की कमाई कमा ली, जो सारे सुखों का खजाना है।1। सरनि गही अचुत अबिनासी किलबिख काढे है छांटि ॥ कलि कलेस मिटे दास नानक बहुरि न जोनी माट ॥२॥१०॥१४॥ पद्अर्थ: गही = पकड़ी। अचुत सरनि = अविनाशी की शरण। अचुत = (अ+चुत। चुत्य = गिरा हुआ, नाशवान) जिस का कभी नाश नहीं होता। किलबिख = पाप। छांटि = चुन के। कलि = झगड़े। बहुरि = दोबारा। माट = मिटते, पड़ते।2। अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! जिस सेवकों ने) अटल अविनाशी परमात्मा का आसरा ले लिया, उन्होंने (अपने अंदर से सारे) पाप चुन-चुन के निकाल दिए, उन दासों के अंदर से सारे झगड़े कष्ट समाप्त हो गए, वे फिर जूनियों में नहीं पड़ते।2।10।14। मलार महला ५ ॥ बहु बिधि माइआ मोह हिरानो ॥ कोटि मधे कोऊ बिरला सेवकु पूरन भगतु चिरानो ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: बहु बिधि = कई तरीकों से। हिराने = ठगे जाते हैं (जीव)। कोटि मधे = करोड़ों में से। चिरानो = चिरों की, आदि कदीमों का।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! (जीव) कई तरीकों से माया के मोह में ठगे जाते हैं। करोड़ों में से कोई विरला ही (ऐसा) सेवक होता है जो आदि-कदीम से ही पूरा भक्त होता है (और माया के हाथों ठगा नहीं जाता)।1। रहाउ। इत उत डोलि डोलि स्रमु पाइओ तनु धनु होत बिरानो ॥ लोग दुराइ करत ठगिआई होतौ संगि न जानो ॥१॥ पद्अर्थ: इत उत = इधर उधर। डोलि = डोल के, भटक के। स्रमु = थकावट। बिरानो = बेगाना। दुराइ = छुपा के। ठगिआई = ठगी। संगि = साथ। होतौ संगि = (जो हरि सदा) साथ रहने वाला है। जानो = जानता।1। अर्थ: हे भाई! (माया का ठगा मनुष्य) हर तरफ भटक-भटक के थकता फिरता है (जिस शरीर और धन की खातिर भटकता है, वह) शरीर और धन (आखिर) बेगाना हो जाता है। (माया के मोह में फसा हुआ मनुष्य) लोगों से छुपा-छुपा के ठगी करता रहता है (जो परमात्मा सदा) साथ रहता है उसके साथ सांझ नहीं डालता।1। म्रिग पंखी मीन दीन नीच इह संकट फिरि आनो ॥ कहु नानक पाहन प्रभ तारहु साधसंगति सुख मानो ॥२॥११॥१५॥ पद्अर्थ: म्रिग = मृग, हिरन, पशु। पंखी = पक्षी। मीन = मछली। इह संकट = इन कष्टों में। फिरि आनो = भटकता फिरता है। नानक = हे नानक! पाहन = पत्थर, पत्थर चिक्त जीवों को। मानो = मान सको।2। अर्थ: हे भाई! (माया के मोह में फसे रहने के कारण आखिर) पशु, पक्षी, मछली - इन निम्न जूनियों के चक्करों के दुख में ही भटकता फिरता है। हे नानक! कह: हे प्रभु! हम पत्थरों को (पत्थर-दिल जीवों को) पार लंघा ले, हम साधु-संगत में (तेरी भक्ति का) आनंद लेते रहते हैं।2।11।15। मलार महला ५ ॥ दुसट मुए बिखु खाई री माई ॥ जिस के जीअ तिन ही रखि लीने मेरे प्रभ कउ किरपा आई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: दुसट = (कामादिक) चंदरे वैरी। मुए = मर गए। बिखु = जहर। खाई = खा के। जीअ = जीव। किरपा = कृपा, दया, तरस।1। रहाउ। नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन। नोट: ‘जिस के’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘के’ के कारण हटा दी गई है। नोट: ‘तिन ही’ में से ‘तिनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है। अर्थ: हे माँ! (मेरे प्रभु को मेरे ऊपर तरस आया है, अब कामादिक) चंदरे वैरी (इस तरह) खत्म हो गए हें (जैसे) जहर खा के। हे माँ! मेरे प्रभु को (जब) तरस आता है, उसके अपने ही हैं सब जीव, वह स्वयं ही इनकी (कामादिक वैरियों से) रक्षा करता ह।1। रहाउ। अंतरजामी सभ महि वरतै तां भउ कैसा भाई ॥ संगि सहाई छोडि न जाई प्रभु दीसै सभनी ठाईं ॥१॥ पद्अर्थ: अंतरजामी = हरेक के दिल की जानने वाला। वरतै = मौजूद है। भाई = हे भाई! कैसा = किस तरह का? संगि = साथ। सहाई = साथी। दीसै = दिखता है।1। अर्थ: हे भाई! हरेक के दिल की जानने वाला प्रभु सब जीवों में मौजूद है (जब यह निश्चय हो जाए) तो कोई डर नहीं पोह सकता। हे भाई! वह प्रभु हरेक का साथी है, वह छोड़ के नहीं जाता, वह सब जगह बसता दिखाई देता है।1। अनाथा नाथु दीन दुख भंजन आपि लीए लड़ि लाई ॥ हरि की ओट जीवहि दास तेरे नानक प्रभ सरणाई ॥२॥१२॥१६॥ पद्अर्थ: नाथु = पति। दीन = गरीब, कमजोर, निमाणे। भंजन = नाश करने वाला। लड़ि = पल्ले से। जीवहि = जीते हैं।2। अर्थ: हे भाई! परमात्मा निखसमों का खसम है, गरीबों का दुख नाश करने वाला है, वह (जीवों को) खुद अपने लड़ लगाता है। हे नानक (कह:) हे हरि! हे प्रभु! तेरे दास तेरे आसरे जीते हैं, मैं भी तेरी ही शरण पड़ा हूँ।2।12।16। मलार महला ५ ॥ मन मेरे हरि के चरन रवीजै ॥ दरस पिआस मेरो मनु मोहिओ हरि पंख लगाइ मिलीजै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मन = हे मन! रवीजै = स्मरण किया कर। पिआस = तमन्ना। मोहिओ = मगन रहते हैं। पंख = पंख। पंख लगाइ = पंख लगा के, उड़ के, जल्दी। मिलीजै = मिल जाएं।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा के चरण स्मरण करने चाहिए (गरीबी स्वभाव में टिक के प्रभु का स्मरण करना चाहिए)। हे भाई! मेरा मन प्रभु के दीदार की तमन्ना में मगन रहता है। (जी ऐसे करता है कि उस को) उड़ के जा कर मिल लें।1। रहाउ। खोजत खोजत मारगु पाइओ साधू सेव करीजै ॥ धारि अनुग्रहु सुआमी मेरे नामु महा रसु पीजै ॥१॥ पद्अर्थ: खोजत = तलाश करते हुए। मारगु = रास्ता। साधू = गुरु। करीजै = करनी चाहिए। धारि = धारण कर के। अनुग्रहु = दया, मेहर। सुआमी = हे स्वामी! महा रसु = बहुत स्वादिष्ट। पीजै = पीया जा सके।1। अर्थ: हे भाई! तलाश करते-करते (गुरु से उस प्रभु के मिलाप का मैंने) रास्ता पा लिया है। हे भाई! गुरु की शरण पड़े रहना चाहिए। हे मेरे मालिक प्रभु! (मेरे ऊपर) मेहर कर, तेरा बहुत ही स्वादिष्ट नाम-जल पीया जा सके।1। त्राहि त्राहि करि सरनी आए जलतउ किरपा कीजै ॥ करु गहि लेहु दास अपुने कउ नानक अपुनो कीजै ॥२॥१३॥१७॥ पद्अर्थ: त्राहि = बचा ले, रक्षा कर ले। करि = कर के, कह के। जलतउ = जलते के ऊपर। करु = हाथ (एकवचन)। गहि लेहु = पकड़ ले। अपुनो कीजै = अपना सेवक बना ले।2। अर्थ: हे प्रभु! विकारों से ‘बचा ले’ ‘बचा ले’ - यह कह के (जीव) तेरी शरण आते हैं। हे प्रभु! (विकारों की आग में) जलते हुए पर (तू खुद) मेहर कर। हे नानक! (कह: हे प्रभु!) दास का हाथ पकड़ ले, मुझे अपना दास बना ले।2।13।17। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |