श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1270 मलार मः ५ ॥ प्रभ को भगति बछलु बिरदाइओ ॥ निंदक मारि चरन तल दीने अपुनो जसु वरताइओ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: को = का। भगति बछलु = (वछलु = वत्सल) भक्ति को प्यार करने वाला। बिरदाइओ = बिरद, आदि कदीमी स्वभाव। मारि = मार के, आत्मिक मौत दे के, आत्मिक तौर पर नीचा कर के। जसु = शोभा, बड़ाई। वरताइओ = बिखेरा है।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! (परमात्मा) भकित से प्यार करने वाला (है– यह) परमात्मा का आदि-कदीमी स्वभाव है। (भक्ति करने वालों की) निंदा करने वालों को आत्मिक तोर पर नीचा रख के (उनके) पैरों के तले रखता है (इस तरह परमात्मा जगत में) अपनी शोभा बिखेरता है।1। रहाउ। जै जै कारु कीनो सभ जग महि दइआ जीअन महि पाइओ ॥ कंठि लाइ अपुनो दासु राखिओ ताती वाउ न लाइओ ॥१॥ पद्अर्थ: जै जैकार = शोभा। जीअन महि = जीवों के अंदर। दइआ = प्यार। कंठि = गले से। ताती = गरम। वाउ = हवा।1। अर्थ: हे भाई! सारे जगत में (परमात्मा अपने दासों की) शोभा बनाता है, (सब) जीवों के दिल में (अपने सेवकों के लिए) आदर-सत्कार पैदा करता है। प्रभु अपने सेवक को अपने गले से लगा के रखता है, उसको गर्म-हवा नहीं लगने देता (थोड़ी सी भी मुश्किल नहीं आने देता)।1। अंगीकारु कीओ मेरे सुआमी भ्रमु भउ मेटि सुखाइओ ॥ महा अनंद करहु दास हरि के नानक बिस्वासु मनि आइओ ॥२॥१४॥१८॥ पद्अर्थ: अंगीकारु= पक्ष, सहायता। मेटि = मिटा के। सुखाइओ = सुख दिया है। दास = हे सेवक जनो! बिस्वासु = विश्वास, श्रद्धा। मनि = मन में।2। अर्थ: हे भाई! मेरे मालिक प्रभु ने (अपने सेवक की सदा) सहायता की है, (सेवकों के अंदर से) भटकना और डर मिटा के (उसको) आत्मिक आनंद बख्शता है। हे नानक! (कह:) हे प्रभु के सेवक! तेरे मन में (प्रभु के लिए) श्रद्धा बन चुकी है। तू बेशक आत्मिक आनंद माणता रह (भाव, जिसके अंदर परमात्मा के लिए श्रद्धा-प्यार है, वह अवश्य आनंद पाता है)।2।14।18। रागु मलार महला ५ चउपदे घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ गुरमुखि दीसै ब्रहम पसारु ॥ गुरमुखि त्रै गुणीआं बिसथारु ॥ गुरमुखि नाद बेद बीचारु ॥ बिनु गुर पूरे घोर अंधारु ॥१॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने से। दीसै = दिखता है। पसारु = खिलारा, पसारा। त्रै गुणीआं बिसथारु = तीन गुणों का विस्तार। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहना (ही)। नाद बेद बीचारु = नाद का और वेद का विचार है। घोर अंधारु = (आत्मिक जीवन के पक्ष से) घोर अंधकार।1। अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़ने से (यह सारा जगत) परमात्मा का पसारा दिखता है, गुरु की शरण पड़ने से (यह भी दिखाई दे जाता है कि यह) माया के तीन गुणों का खिलारा है। हे भाई! गुरु की शरण पड़ना ही (जोगियों के) नाद का (और पंडितों के) वेद का विचार है। पूरे गुरु की शरण के बिना (आत्मिक जीवन के पक्ष से) घोर अंधेरा (बना रहता) है।1। मेरे मन गुरु गुरु करत सदा सुखु पाईऐ ॥ गुर उपदेसि हरि हिरदै वसिओ सासि गिरासि अपणा खसमु धिआईऐ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मन = हे मन! करत = करते हुए, याद करते। पाईऐ = प्राप्त किया है। गुर उपदेसि = गुरु के उपदेश से। हिरदै = हृदय में। सासि = (हरेक) सांस के साथ। गिरासि = (हरेक) ग्रास के साथ। धिआईऐ = ध्याना चाहिए।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! गुरु को हर वक्त याद करते हुए सदा आत्मिक आनंद पाया जा सकता है। गुरु के उपदेश से परमात्मा हृदय में आ बसता है। हे मन! (गुरु की शरण पड़ कर) हरेक सांस के साथ हरेक ग्रास के साथ अपने मालिक-प्रभु का नाम-स्मरण करना चाहिए।1। रहाउ। गुर के चरण विटहु बलि जाउ ॥ गुर के गुण अनदिनु नित गाउ ॥ गुर की धूड़ि करउ इसनानु ॥ साची दरगह पाईऐ मानु ॥२॥ पद्अर्थ: विटहु = से। बलि जाउ = मैं सदके जाता हूं। अनदिनु = (अनुदिनं) हर रोज, हर वक्त। गाउ = मैं गाता हूँ, गाऊँ। करउ = करूँ, मैं करता हूँ। साची = सदा कायम रहने वाली। मानु = आदर।2। अर्थ: हे भाई! मैं गुरु के चरणों पर से कुर्बान जाता हूँ, मैं हर वक्त गुरु के गुण गाता हूँ, मैं गुरु के चरणों की धूल में स्नान करता हूँ। हे भाई! (गुरु की मेहर से ही) सदा कायम रहने वाली दरगाह में आदर हासिल किया जा सकता है।2। गुरु बोहिथु भवजल तारणहारु ॥ गुरि भेटिऐ न होइ जोनि अउतारु ॥ गुर की सेवा सो जनु पाए ॥ जा कउ करमि लिखिआ धुरि आए ॥३॥ पद्अर्थ: बोहिथु = जहाज। भवजल = संसार समुंदर। तारणहारु = पार लंघा सकने वाला। गुरि भेटिऐ = अगर गुरु मिल जाए। अउतारु = अवतार, जनम। करमि = बख्शिश से। धुरि = धुर दरगाह से।3। अर्थ: हे भाई! गुरु संसार-समुंदर से पार लंघा सकने वाला जहाज है। अगर गुरु मिल जाए तो फिर जूनियों में जन्म नहीं होता। पर वह मनुष्य (ही) गुरु की सेवा (का अवसर) प्राप्त करता है, जिसके माथे पर धुर दरगाह से (प्रभु की) मेहर से (ये लेख) लिखा होता है।3। गुरु मेरी जीवनि गुरु आधारु ॥ गुरु मेरी वरतणि गुरु परवारु ॥ गुरु मेरा खसमु सतिगुर सरणाई ॥ नानक गुरु पारब्रहमु जा की कीम न पाई ॥४॥१॥१९॥ पद्अर्थ: जीवनि = जिंदगी। आधारु = आसरा। वरतणि = हाथ ठोका, हर वक्त का सहारा। खसमु = मालिक। जा की = जिस की। कीम = कीमत।4। अर्थ: हे भाई! गुरु (ही) मेरी जिंदगी है, गुरु मेरा आसरा है, गुरु ही मेरा हर वक्त सहारा है, गुरु ही (मेरे मन को ढाढस देने वाला) मेरा परिवार है, गुरु मेरा राखवाला है, मैं सदा गुरु की शरण पड़ा रहता हूँ। हे नानक! (कह: हे भाई!) गुरु परमात्मा (का रूप) है, जिसका मूल्य नहीं पड़ सकता।4।1।19। मलार महला ५ ॥ गुर के चरन हिरदै वसाए ॥ करि किरपा प्रभि आपि मिलाए ॥ अपने सेवक कउ लए प्रभु लाइ ॥ ता की कीमति कही न जाइ ॥१॥ पद्अर्थ: हिरदै = हृदय में। वसाए = बसाता है। करि = कर के। प्रभि = प्रभु ने। कउ = को। लाइ लए = (चरणों में) लगा लिए, जोड़े रखता है। ता की = उस (प्रभु) की।1। अर्थ: हे भाई! (प्रभु का सेवक) गुरु के चरणों को अपने हृदय में बसाए रखता है (यह भी प्रभु की अपनी ही मेहर होती है) प्रभु ने स्वयं (ही) मेहर कर के (उसको गुरु के चरणों में) जोड़ा होता है। हे भाई! प्रभु अपने सेवक को (चरणों में) जोड़े रखता है, उस (मालिक का) बड़प्पन बयान नहीं किया जा सकता।1। करि किरपा पूरन सुखदाते ॥ तुम्हरी क्रिपा ते तूं चिति आवहि आठ पहर तेरै रंगि राते ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: करि किरपा = मेहर कर। पूरन = हे सर्व व्यापक! सुखदाते = हे सुख देने वाले! ते = से। चिति = चिक्त में। तेरै रंगि = तेरे (प्रेम) रंग में। राते = रंगे रहते रहते हैं।1। रहाउ। अर्थ: हे सर्व-व्यापक! हे सुख देने वाले प्रभु! मेहर कर (मेरे चिक्त में आ बस), तू अपनी मेहर से ही (जीवों के) चिक्त में आता है, (जिनकी याद में तू आ बसता है, वे) आठों पहर तेरे प्रेम-रंग में रंगे रहते हैं।1। रहाउ। गावणु सुनणु सभु तेरा भाणा ॥ हुकमु बूझै सो साचि समाणा ॥ जपि जपि जीवहि तेरा नांउ ॥ तुझ बिनु दूजा नाही थाउ ॥२॥ पद्अर्थ: भाणा = रज़ा, हुक्म। साचि = सदा स्थिर हरि नाम में। जपि = जप के। जीवहि = आत्मिक जीवन हासिल करते हैं। थाउ = जगह, आसरा।2। अर्थ: हे प्रभु! जब तेरी रज़ा होती है तब ही तेरी महिमा गाई जा सकती है तेरा नाम सुना जा सकता है। (जो मनुष्य तेरे) हुक्म को समझता है, वह (तेरे) सदा-स्थिर नाम में लीन रहता है। हे प्रभु! (तेरे सेवक) तेरा नाम जप-जप के आत्मिक जीवन हासिल करते हैं, उनको तेरे बिना और कोई सहारा नहीं होता।2। दुख सुख करते हुकमु रजाइ ॥ भाणै बखस भाणै देइ सजाइ ॥ दुहां सिरिआं का करता आपि ॥ कुरबाणु जांई तेरे परताप ॥३॥ पद्अर्थ: करते हुकमु = कर्तार का हुक्म। करते रजाइ = (रजाय) कर्तार की रज़ा। भाणै = रज़ा में। बखस = बख्शिश, करम, मेहर। देइ = देय, देता है। दूहां सिरिआं का = (बख्शिश और सज़ा = इन) दोनों तरफ का। जांई = मैं जाता हूँ।3। अर्थ: हे भाई! यह कर्तार का हुक्म है कर्तार की रज़ा है (कभी) दुख (कभी) सुख (देता है)। अपनी रज़ा में (किसी पर) बख्शिश (करता है, किसी को) सज़ा देता है। (बख्शिश और सज़ा- इन) दोनों पक्षों का कर्तार स्वयं ही मालिक है। हे प्रभु! तेरे (इतने बड़े) प्रताप से मैं सदके जाता हूँ।3। तेरी कीमति तूहै जाणहि ॥ तू आपे बूझहि सुणि आपि वखाणहि ॥ सेई भगत जो तुधु भाणे ॥ नानक तिन कै सद कुरबाणे ॥४॥२॥२०॥ पद्अर्थ: तूहै = तू ही। बूझहि = समझता है। सुणि = सुन के। सेई = वह (मनुष्य) ही (बहुवचन)। तुधु = तुझे। भाणे = अच्छे लगते हैं। तिन कै = उन से। सद = सदा।4। अर्थ: हे प्रभु! (तू इतना बड़ा है; अपनी यह) कीमत तू खुद ही जानता है। तू खुद ही (अपनी रज़ा को) समझता है, (अपने हुक्म को) सुन के तू स्वयं ही (उसकी) व्याख्या करता है। हे प्रभु! वही मनुष्य तेरे (असल) भक्त हैं जो तुझे अच्छे लगते हैं। हे नानक! (कह: हे प्रभु!) मैं उनसे सदा सदके जाता हूँ।4।2।20। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |