श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1273 मलार महला ५ ॥ हे गोबिंद हे गोपाल हे दइआल लाल ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: दइआल = हे दया के श्रोत! लाल = हे सुंदर प्रभु!।1। रहाउ। अर्थ: हे गोबिंद! हे गोपाल! हे दया के श्रोत! हे सुंदर प्रभु!।1। रहाउ। प्रान नाथ अनाथ सखे दीन दरद निवार ॥१॥ अर्थ: हे जिंद के मालिक! हे निखसमों के सहायता करने वाले! हे गरीबों के दर्द दूर करने वाले!।1। हे सम्रथ अगम पूरन मोहि मइआ धारि ॥२॥ पद्अर्थ: प्रान नाथ = हे प्राणों के मालिक! अगम = हे अगम्य (पहुँच से परे)! पूरन = हे सर्व व्यापक! मोहि = मेरे पर। मइआ धारि = दया कर।2। अर्थ: हे सब ताकतों के मालिक! हे अगम्य (पहुँच से परे)! हे सर्व व्यापक! मेरे पर मेहर कर!।2। अंध कूप महा भइआन नानक पारि उतार ॥३॥८॥३०॥ पद्अर्थ: अंध कूप = अंधा कूआँ, वह कूआँ जिसमें घोर अंधेरा है। भइआन = डरावना। नानक = हे नानक!।3। अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु! यह संसार) बड़ा डरावना कूँआ हैं जिसमें (माया के मोह का) घोर अंधेरा है (मुझे इसमें से) पार लंघा ले।3।8।30। मलार महला १ असटपदीआ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ चकवी नैन नींद नहि चाहै बिनु पिर नींद न पाई ॥ सूरु चर्है प्रिउ देखै नैनी निवि निवि लागै पांई ॥१॥ पद्अर्थ: सूरु = सूरज। चरै = (चढ़ै) चढ़ता है। नैनी = आँखों से। पांई = पैरों पर।1। अर्थ: चकवी (रात को) अपने प्यारे (चकवे) के बिना नहीं सो सकती, वह अपनी आँखों में नींद का आना पसंद नहीं करती। जब सूरज चढ़ता है, चकवी अपने प्यारे (चकवे) को आँखों से देखती है, झुक-झुक के उसके पैरों पर लगती है।1। पिर भावै प्रेमु सखाई ॥ तिसु बिनु घड़ी नही जगि जीवा ऐसी पिआस तिसाई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: पिर प्रेम = प्यारे का प्रेम। सखाई = मित्र, साथी। जगि = जगत में। जीवा = मैं जी सकती। तिसाई = त्रिखा, त्रेह, प्यास, तमन्ना।1। रहाउ। अर्थ: मुझे सदा सहायता करने वाले प्रीतम प्रभु का प्रेम प्यारा लगता है। मेरे अंदर उसके मिलाप की इतनी तीव्र तमन्ना है कि मैं जगत में उसके बिना एक घड़ी के लिए भी जी नहीं सकती।1। रहाउ। सरवरि कमलु किरणि आकासी बिगसै सहजि सुभाई ॥ प्रीतम प्रीति बनी अभ ऐसी जोती जोति मिलाई ॥२॥ पद्अर्थ: सरवरि = सरोवर में। आकासी = आकाशों में। बिगसै = खिल उठता है। सहजि सुभाई = सहज ही, बिना किसी विशेष प्रयास के। अभि = हृदय में।2। अर्थ: कमल (फूल) सरोवर में होता है, (सूरज की) किरन आकाशों में होती है, (फिर भी उस किरण को देख के कमल फूल) सहज ही खिल उठता है। (प्रेमी के) हृदय में अपने प्रीतम की ऐसी प्रीति बनती है कि उसकी आत्मा प्रीतम की आत्मा में मिल जाती है।2। चात्रिकु जल बिनु प्रिउ प्रिउ टेरै बिलप करै बिललाई ॥ घनहर घोर दसौ दिसि बरसै बिनु जल पिआस न जाई ॥३॥ पद्अर्थ: टेरै = बोलता है। चात्रिकु = पपीहा। बिललाई = बिलकता है, तरले लेता है। घनहर = बादल। घोर = गरज। दसौ दिसि = दसों दिशाओं में।3। अर्थ: (स्वाति नक्षत्र की वर्षा के) जल के बिना पपीहा ‘प्रिउ प्रिउ’ करता है, मानो, विरलाप करता है, तरले लेता है। बादल गरज के दसों दिशाओं में (हर तरफ) बरसता है, पर पपीहे की प्यास स्वाति बूँद के बिना दूर नहीं होती।3। मीन निवास उपजै जल ही ते सुख दुख पुरबि कमाई ॥ खिनु तिलु रहि न सकै पलु जल बिनु मरनु जीवनु तिसु तांई ॥४॥ पद्अर्थ: मीन = मछली। ते = से। पुरबि कमाई = पूर्बली कमाई के अनुसार। तिसु तांई = उस पानी से ही।4। अर्थ: मछली पानी में पैदा होती है, पानी में बसती है, पूर्बली कमाई के अनुसार वह पानी में ही सुख-दुख सहती है, पानी के बिना वह एक छिन-पल भर तिल भर पल भर भी जी नहीं सकती। उसका मरना-जीना (उसकी सारी उम्र का बसेवा) उस पानी के साथ ही (संभव) है।4। धन वांढी पिरु देस निवासी सचे गुर पहि सबदु पठाईं ॥ गुण संग्रहि प्रभु रिदै निवासी भगति रती हरखाई ॥५॥ पद्अर्थ: धन = जीव-स्त्री। वांढी = परदेसन, विछुड़ी हुई। पहि = पास, से। सबदु = संदेश। पठांई = भेजती है। संग्रहि = इकट्ठे करके। हरखाई = खुश होती है।5। अर्थ: पति-प्रभु (जीव-स्त्री के हृदय-) घर में ही बसता है, उससे विछुड़ी हुई जीव-स्त्री जब सच्चे-सतिगुरु के द्वारा (गुरु की वाणी के द्वारा) संदेशा भेजती है, और आत्मिक गुण इकट्ठे करती है, तब हृदय में ही बसता प्रभु-पति उसके अंदर प्रकट हो जाता है, जीव-स्त्री उसकी भक्ति के रंग में रंगीज के प्रसन्न होती है।5। प्रिउ प्रिउ करै सभै है जेती गुर भावै प्रिउ पाईं ॥ प्रिउ नाले सद ही सचि संगे नदरी मेलि मिलाई ॥६॥ पद्अर्थ: है जेती = जितनी ही (दुनिया) है। गुर भावे = गुरु को अच्छा लगे। सचि = सदा स्थिर प्रभु में (जोड़ के)। मेलि = (अपने शब्द में) मेल के।6। अर्थ: जो भी लोकाई है सारी ही प्रभु-पति का नाम लेती है, पर जो जीव-स्त्री गुरु को अच्छी लगती है वह पति-प्रभु को मिल जाती है। पति-प्रभु तो सदा ही हरेक जीव-स्त्री के साथ है अंग-संग है, जो उस सदा-स्थिर में जुड़ती है गुरु मेहर की नजर करके उसको अपने शब्द में जोड़ के प्रभु के साथ मिला देता है।6। सभ महि जीउ जीउ है सोई घटि घटि रहिआ समाई ॥ गुर परसादि घर ही परगासिआ सहजे सहजि समाई ॥७॥ पद्अर्थ: घर ही = घरि ही, घर में ही, हृदय में ही। सहजे = अडोल आत्मिक अवस्था में।7। अर्थ: हरेक जीव में प्रभु की दिए हुए प्राण (की लौअ) रुमक रही है, वह प्रभु स्वयं ही हरेक की जिंद का (आसरा) है। प्रभु हरेक शरीर में व्यापक है। गुरु की कृपा से जिस जीव के हृदय में ही प्रकट होती है वह जीव सदा आत्मिक अडोलता में टिका रहता है।7। अपना काजु सवारहु आपे सुखदाते गोसांईं ॥ गुर परसादि घर ही पिरु पाइआ तउ नानक तपति बुझाई ॥८॥१॥ पद्अर्थ: गोसाई = हे धरती के पति! तपति = जलन।8। अर्थ: हे धरती के पति! हे जीवों को सुख देने वाले प्रभु! (अपने पैदा किए हुए जीवों को अपने चरणों में जोड़ना तेरा अपना ही काम है, इस) अपने काम को तू खुद ही सिरे चढ़ाता है। हे नानक! (कह:) गुरु की कृपा से जिसके हृदय-घर में ही प्रभु-पति प्रकट हो जाता है उसकी माया की तृष्णा की जलन बुझ जाती है।8।1। मलार महला १ ॥ जागतु जागि रहै गुर सेवा बिनु हरि मै को नाही ॥ अनिक जतन करि रहणु न पावै आचु काचु ढरि पांही ॥१॥ पद्अर्थ: जागतु रहै = जागता रहता है, सचेत रहता है। जागि = जाग के, सचेत हो के। मै को नाही = मेरी कोई बिसात नहीं। आचु = आँच, सेक। काचु = काँच। ढहि पांही = ढल जाते हैं, नाश हो जाते हैं।1। अर्थ: परमात्मा की ज्योति के बिना हमारे इस शरीर की कोई पायं नहीं है; (जब ज्योति निकल जाए तब) अनेक प्रयत्न करने से भी यह शरीर टिका नहीं रह सकता। जैसे आग का सेक काँच को ढाल देता है, वैसे ही शरीर (ज्योति के बिना) ढह-ढेरी हो जाते हैं। उसी मनुष्य का जीवन सफल है जो गुरु द्वारा बताई सेवा में तत्पर रह के (माया के हमलों से) सचेत रहता है।1। इसु तन धन का कहहु गरबु कैसा ॥ बिनसत बार न लागै बवरे हउमै गरबि खपै जगु ऐसा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: करहु = बताओ। गरबु = अहंकार। बार = चिर। बवरे = हे कमले मनुष्य! गरबि = अहंकार में। खपै = खपता है, दुखी होता है, ख्वार होता है।1। रहाउ। अर्थ: हे झल्ले मनुष्य! बता, इस शरीर का इस धन-दौलत का क्या गुमान करना हुआ? इनके विनाश होने में समय नहीं लगता। जगत व्यर्थ ही (शरीर के) अहंकार में (धन के) गुमान में दुखी होता है।1। रहाउ। जै जगदीस प्रभू रखवारे राखै परखै सोई ॥ जेती है तेती तुझ ही ते तुम्ह सरि अवरु न कोई ॥२॥ पद्अर्थ: जगदीस = हे जगत के मालिक! (जगत+ईश)। सोई = वह (प्रभु) ही। ते = से। सरि = बराबर।2। अर्थ: हे जगत के मालिक! हे प्रभु! हे जीवों के रखवाले! तेरी (सदा) जै हो! (हे झल्ले जीव! सदा उस राखनहार प्रभु का आसरा ले)। वह (जगदीश) ही विकारों से बचाता है और जीवों के जीवन को पड़तालता रहता है। हे प्रभु! जितनी भी लोकाई है, यह सारी ही तेरे पास से ही (दातें) माँगती है। तेरे जैसा और कोई नहीं है।2। जीअ उपाइ जुगति वसि कीनी आपे गुरमुखि अंजनु ॥ अमरु अनाथ सरब सिरि मोरा काल बिकाल भरम भै खंजनु ॥३॥ पद्अर्थ: उपाइ = पैदा करके। जुगति = (जीवन का) ढंग। वसि = वश में। अंजनु = सुरमा। सिरि मोरा = (मौलि = ताज) शिरोमणी। बिकाल = जनम। खंजनु = नाश करने वाला।3। अर्थ: परमात्मा सदा अटल है, उसके ऊपर और कोई मालिक नहीं, वह सबका शिरोमणी है, जीवों के जनम-मरण के चक्कर, भटकना और डर-सहम नाश करने वाला है। सारे जीव पैदा कर के जीवों की जीवन-जुगति उसने अपने वश में रखी हुई है, (सही आत्मिक जीवन की सूझ के लिए) वह स्वयं ही गुरु के द्वारा (ज्ञान का) सुर्मा देता है।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |