श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आपे बखसे देइ पिआरु ॥ हउमै रोगु वडा संसारि ॥ गुर किरपा ते एहु रोगु जाइ ॥ नानक साचे साचि समाइ ॥८॥१॥३॥५॥८॥

पद्अर्थ: आपे = आप ही। बखसे = बख्शिश करता है। देइ = देता है। संसारि = संसार में। ते = के द्वारा, से। जाइ = दूर होता है। साचे साचि = साचि ही साचि, सदा स्थिर प्रभु में।8।

अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य पर प्रभु) स्वयं कृपा करता है, (उसको अपने) प्यार (की दाति) देता है। (वैसे तो) जगत में अहंकार का बहुत बड़ा रोग है। हे नानक! गुरु की कृपा से (जिस मनुष्य के अंदर से) ये रोग दूर होता है वे हर वक्त सदा कायम रहने वाले परमात्मा (की याद) में लीन रहता है।8।1।3।5।8।

वेरवा:
महला १-----------------5
महला ३ (घरु १) ------2
महला ३ (घरु २) ------1
कुल जोड़ ---------------8

रागु मलार छंत महला ५ ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

प्रीतम प्रेम भगति के दाते ॥ अपने जन संगि राते ॥ जन संगि राते दिनसु राते इक निमख मनहु न वीसरै ॥ गोपाल गुण निधि सदा संगे सरब गुण जगदीसरै ॥ मनु मोहि लीना चरन संगे नाम रसि जन माते ॥ नानक प्रीतम क्रिपाल सदहूं किनै कोटि मधे जाते ॥१॥

पद्अर्थ: प्रेम के दाते = प्यार की दाति देने वाले। भगति के दाते = भक्ति की दाति देने वाले। संगि = साथ। राते = रति हुए। दिनसु राते = दिन रात। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। मनहु = (सेवकों के) मन से। वीसरै = भूलता। गुणनिधि = (सारे) गुणों का खजाना। जगदीसरै = जगत के मालिक में (जगत+ईसरै)। मोहि लीना = मोह लिया है, मस्त कर लिया है। नाम रसि = नाम के स्वाद में। माते = मस्त। सद हूँ = सदा ही। किनै = किसी विरले ने। कोटि मधे = करोड़ों में से। जाते = जाना है, सांझ डाली है।1।

अर्थ: हे भाई! प्रीतम प्रभु जी (अपने भक्तों को) प्यार की दाति देने वाले हैं, भक्ति की दाति देने वाले हैं। प्रभु जी अपने सेवकों के साथ रति रहते हैं, दिन-रात अपनें सेवकों के साथ रति रहते हैं।

हे भाई! प्रभु (अपने सेवकों के) मन से आँख झपकने जितने समय के लिए भी नहीं भूलता। जगत का पालनहार प्रभु सारे गुणों का खजाना है, सदा (सब जीवों के) साथ है, जगत के मालिक प्रभु में सारे ही गुण हैं।

हे भाई! प्रभु अपने जनों का मन अपने चरणों में मस्त करे रखता है। (उसके) सेवक (उसके) नाम के स्वाद में मगन रहते हैं। हे नानक! प्रीतम प्रभु सदा ही दया का घर है। करोड़ों में से किसी विरले ने (उसके साथ) गहरी सांझ बनाई है।1।

प्रीतम तेरी गति अगम अपारे ॥ महा पतित तुम्ह तारे ॥ पतित पावन भगति वछल क्रिपा सिंधु सुआमीआ ॥ संतसंगे भजु निसंगे रंउ सदा अंतरजामीआ ॥ कोटि जनम भ्रमंत जोनी ते नाम सिमरत तारे ॥ नानक दरस पिआस हरि जीउ आपि लेहु सम्हारे ॥२॥

पद्अर्थ: प्रीतम = हे प्रीतम! (संबोधन)। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अपारे = अ+पार, बेअंत। पतित = विकारों में गिरे हुए जीव। तारे = पार लंघाए हैं। पतित पावन = हे पापियों को पवित्र करने वाले! सिंधु = समुंदर। सुआमीआ = हे स्वामी! संगे = संगति में। भजु = भजन किया कर। निसंगे = शर्म उतार के। रंउ = स्मरण करता रह। ते = वे लोग (बहुवचन)। नानक = हे नानक! हरि जीउ = हे प्रभु जी! लेहु समारे = संभाल लो, अपना बना लो।2।

अर्थ: हे प्रीतम प्रभु! तेरी ऊँची आत्मिक अवस्था अगम्य (पहुँच से परे) है बेअंत है। बड़े-बड़े पापियों को तू (संसार-समुंदर से) पार लंघाता आ रहा है। हे पापियों को पवित्र करने वाले! हे भक्ति के साथ प्यार करने वाले स्वामी! तू दया का समुंदर है।

(हे मन!) साधु-संगत में (टिक के) शर्म उतार के, उस अंतरजामी प्रभु का सदा भजन किया कर, स्मरण किया कर। हे भाई! जो जीव करोड़ों जनमों से जूनियों में भटकते फिरते थे, वे प्रभु का नाम स्मरण करके (जूनियों के चक्करों में से) पार लांघ गए।

हे नानक! (कह:) हे प्रभु जी! (मुझे) तेरे दर्शनों की तमन्ना है, मुझे अपना बना लो।2।

हरि चरन कमल मनु लीना ॥ प्रभ जल जन तेरे मीना ॥ जल मीन प्रभ जीउ एक तूहै भिंन आन न जानीऐ ॥ गहि भुजा लेवहु नामु देवहु तउ प्रसादी मानीऐ ॥ भजु साधसंगे एक रंगे क्रिपाल गोबिद दीना ॥ अनाथ नीच सरणाइ नानक करि मइआ अपुना कीना ॥३॥

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! मीना = मछलियां। एकु तू है = तू स्वयं ही है। भिंन = (तुझसे) अलग। आन = (कोई) और (अन्य)। जानीऐ = जाना जा सकता। गहि = पकड़ के। भुजा = बाँह। गहि लेवहु = पकड़ लो। तउ प्रसादी = तेरी मेहर से ही। मानीऐ = आदर मिलता है। संगे = संगति में। रंगे = रंगि, प्यार में। दीना क्रिपाल गोबिंद = दीनों पर दया करने वाला प्रभु। करि = कर के। मइआ = दया।3।

अर्थ: हे हरि! (मेहर कर, मेरा) मन तेरे सुंदर चरणों में लीन रहे। हे प्रभु! तू पानी है, तेरे सेवक (पानियों की) मछलियाँ है (तुझसे विछुड़ कर जी नहीं सकते)। हे प्रभु जी! पानी और मछलियाँ तू खुद ही है, (तुझसे) अलग कोई और नहीं जाना जा सकता। हे प्रभु! (मेरी) बाँह पकड़ ले (मुझे अपना) नाम दे। तेरी मेहर से ही (तेरे दर पर) आदर पाया जा सकता है। हे भाई! साधु-संगत में (टिक के) दीनों पर दया करने वाले प्रभु के प्रेम में जुड़ के (उसका) भजन किया कर। हे नानक! शरण आए निखसमों और नीचों को भी मेहर कर के प्रभु अपना बना लेता है।3।

आपस कउ आपु मिलाइआ ॥ भ्रम भंजन हरि राइआ ॥ आचरज सुआमी अंतरजामी मिले गुण निधि पिआरिआ ॥ महा मंगल सूख उपजे गोबिंद गुण नित सारिआ ॥ मिलि संगि सोहे देखि मोहे पुरबि लिखिआ पाइआ ॥ बिनवंति नानक सरनि तिन की जिन्ही हरि हरि धिआइआ ॥४॥१॥

पद्अर्थ: आपस कउ = अपने आप को। आपु = अपना आप। भ्रम भंजन = (जीवों की) भटकना दूर करने वाला। हरि राइआ = प्रभु पातशाह। गुण निधि = गुणों का खजाना। मंगल = खुशियां। सारिआ = संभाले, हृदय में बसाए। मिलि = मिल के। संगि = (प्रभु के) साथ। सोहे = शोभनीक हो गए, सुंदर जीवन वाले बन गए। देखि = देख के। मोहे = मस्त हो गए। पुरबि = पूर्बले जनम में। बिनवंति = विनती करता है।4।

अर्थ: हे भाई! प्रभु-पातशाह (जीवों की) भटकना दूर करने वाला है (और जीवों को अपने साथ मिलाने वाला है। पर जीवों में भी वह स्वयं ही स्वयं है। सो, जीवों को अपने साथ मिला के वह) अपने आप को अपना आप (ही) मिलाता है।

हे भाई! मालिक-प्रभु आश्चर्य-रूप है सबके दिल की जानने वाला है। वह गुणों का खजाना प्रभु जिस अपने प्यारों से मिल जाता है, वे सदा उस गोबिंद के गुण अपने हृदय में बसाते हैं, उनके अंदर महान खुशियां और महान सुख पैदा हो जाते हैं।

पर, हे भाई! पूर्बले जन्म में (प्राप्ति का लेख) लिखा हुआ (जिनके माथे के ऊपर) उघड़ आया, वे प्रभु के साथ मिल के सुंदर जीवन वाले बन गए, वे उसका दर्शन करके उसमें मगन हो गए।

नानक विनती करता है: जिन्होने सदा परमात्मा का ध्यान धरा है, मैं उनकी शरण पड़ता हूँ।4।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh