श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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वार मलार की महला १ राणे कैलास तथा मालदे की धुनि ॥

पउड़ी वार भाव

क.

परमात्मा ने अपना आप प्रकट करने के लिए ये दुनिया रची है; यह, मानो, उसका दरबार आया है, जिसमें वह स्वयं तख्त पर बैठा हुआ है।

सारी कुदरति में मौजूद है, पर है गुप्त; कोई उसका ‘स्वरूप’ नहीं बयान कर सका।

जगत को उसने धंधों में लगा रखा है और खुद छुपा बैठा है; जो बड़े-बड़े भी आए वे भी धंधों में ही रहे।

यह जगत, मानो, पहलवानों का अखाड़ा है; भलाई और बुराई का यहाँ दंगल हो रहा है; ये खेल प्रभु खुद ही करवा रहा है।

भलाई और बुराई- ये दोनों धड़े उसने स्वयं बनाए हैं; झगड़ा पैदा करने वाला भी स्वयं ही है और ‘धर्म’ राज बन के झगड़े मिटाने वाला वकील भी स्वयं ही है।

सो, जिस कर्तार ने यह बहुरंगी दुनिया बनाई है उसको स्मरण करो ता कि बुराई जोर ना डाल सके; और कोई साथी नहीं बन सकता।

जगत के दिखाई देते अघिकार और अत्याचार में केवल वही लोग सुखी हैं जो जगत के रचनहार के चरणों में जुड़े हुए हैं।

ख.

जगत-अखाड़े की इस खेल की दुनिया को समझ नहीं आई; अपनी समझ के पीछे लगने वाले जीव बुराई के वश हो के इस दंगल में हार रहे हैं।

जो बड़े-बड़े भी कहलवा गए, उन्होंने भी ना समझा कि ये तृष्णा की आग और वाद-विवाद प्रभु ने खुद पैदा किए हैं। जो मनुष्य गुरु-दर पर आ के उपदेश कमाते हैं वे अस्लियत को समझ के इस तृष्णा के असर से बचे रहते हैं।

सब कुछ प्रभु खुद करता कराता है, जीवों के कर्मों का लेखा भी स्वयं ही माँगता है; तृष्णा की आग से बचाता भी स्वयं ही है। गुरु-दर पर आने से उस प्रभु में जुड़ा जाता है।

मनमुख अहंकार के कारण दुखी होता है; अगर गुरु-शरण आ के प्रभु को ध्याए तो तृष्णा की आग बुझती है और शांति की प्राप्ति होती है।

राज, हकूमत, धन आदि का मान करने वाले आखिर में दुखी होते हैं, क्योंकि झूठ सामने आ जाता है।

जो मनुष्य माया के अधीन हो के अवगुण कमाते हैं, वे, मानो, जूए में मानव-जनम हार जाते हैं, जगत में उनका आना बेअर्थ हो जाता है।

नाम बिसार के मनमुख बे-वजह जीवन बिताते हैं; अंदर से काले, देखने में मनुष्य, दरअसल वे पशू-समान हैं।

ग.

पर जंगल में जा के समाधि लगाना, नंगे शरीर पर पाला शीत लहर को सहना, तन पर राख मलनी, बालों की जटा बढ़ा लेनी, धूणियाँ तपानीं, ये भी जीवन का सही रास्ता नहीं।

सरेवड़े सिर के बाल उखड़वाते हैं, दिन-रात गंदे रहते हैं, झूठा खाते हैं; ये भी मनुष्य का सही चलन नहीं है।

कोई राग गाते हैं, कोई रास डालते हें, कई अन्न खाना छोड़ देते हैं; पर ऐसे हठ कर्म चाहे जितने बढ़ाए चलो, प्रभु हठ-कर्मों से प्रसन्न नहीं होता।

परमात्मा गुरु के द्वारा ही मिलता है; जिसने गुरु के शब्द के द्वारा अंदर बसते प्रभु-तीर्थ पर मन को स्नान करवाया है वह सच्चा व्यापारी है, उसका जनम मुबारक है।

प्रभु भक्ति पर रीझता है, भक्ति प्रेम के आसरे हो सकती है। इस प्रेम-मार्ग पर सतिगुरु ही चलाता है।

गुरु के बिना जगत कमला हुआ फिरता है; गुरु से मनुष्य प्रभु की रज़ा में चलने की विधि सीखता है और अपनी मर्जी पर चलना छोड़ देता है।

जो मनुष्य गुरु के सन्मुख हो के रब की बँदिश (रज़ा) में चलता है वह संसार-समुंदर से लांघ के दरगाह में आदर पाता है।

जब तक दुनिया का सहम है मन भटकता है; भटकना के कारण अडोल अवस्था नहीं बनती और प्रभु-चरणों में जुड़ा नहीं जा सकता। एक प्रभु का डर दुनिया के डर खत्म कर देता है और यह प्रभु-डर गुरु से ही प्राप्त होता है।

घ.

जीवन-राह में विद्वता भी सहायता नहीं करती, नाम के बिना ये भी झूठ का व्यापार ही है, विकारों से बचाव नहीं हो सकता। प्रभु-दर पर माना हुआ केवल ‘नाम’ ही है और यह ‘नाम’ गुरु से ही मिलता है।

और बुद्धिमक्ता सब झूठी हैं; बल्कि, अहंकार पैदा करती हैं, जलते पर (दुबिधा का) तेल डालती हैं, प्रभु का ‘नाम’ ही सच्चा व्यापार है।

भगवा वेश कर के देश-देशांतरों में भटकते रहना जीवन-रास्ता नहीं है; ईश्वर तो अंदर बसता है और यह दीदार होता है गुरु-शब्द से।

तृष्णा की धाधकती आग में जगत जल रहा है, इसमें जीव-पंछी चोग चुग रहा है; जिसको प्रभु के हुक्म में गुरु-जहाज़ मिल जाता है वह बच जाता है।

महला ५। गुरु के शब्द की इनायत से सारे विकार उतर जाते हैं; गुरमुखों की संगति में मनुष्य विकारों से बच जाता है; पर यह सब कुछ उसकी मेहर के सदका है।

प्रभु हर जगह मौजूद है, पर मनुष्य के अंदर अज्ञान और भटकना है, दीदार नहीं होता। जिस पर मेहर करे वह ‘नाम’ स्मरण करके प्रभु में जुड़ता है।

सारे भाव का संक्षेप:

अ. (1 से 7) परमात्मा ने जगत एक अखाड़ा रचा है जहाँ भलाई और बुराई के दंगल का खेल हो रहा है। तृष्णा की आग और वाद-विवाद उसने स्वयं ही रचे हैं, इसके असर तले राज और हकूमत का मान करने वाले आखिर दुखी होते हैं और जन्म व्यर्थ गवा जाते हैं।

आ. (8 से 14) पर, जंगल में जोगियों वाला बसेरा, जीव-हिंसा के बारे में सरेवड़ों वाला वहम, अन्न का त्याग, अथवा, रासें डालनी - इन कामों से यह तृष्णा नहीं खत्म हो सकती।

इ. (15 से 22) प्रभु भक्ति से रीझता है, भक्ति प्रेम के आसरे होती है; सो, गुरु की शरण पड़ कर प्रेम-मार्ग पर चलना है, मन को अंतरात्मा के तीर्थ पर स्नान करवाना है, प्रभु की रज़ा में बँदिश में चलने की विधि सीखनी है और प्रभु के डर में रह के दुनिया के सहम गवाने हैं।

ई. (23 से 28) तृष्णा के शोलों से बचने में विद्वता भी सहायता नहीं करती, बौधित्व के और प्रयास बल्कि जलती पर तेल ही डालते हैं; भगवा वेश, देश-रटन भी दुखी ही करते हैं, एक गुरु-शब्द की इनायत से ही सारे विकार मिटते हैं, अज्ञान और भटकना दूर होती है। पर, प्रभु, गुरु मिलाता है उसको, जिस पर वह खुद मेहर करे।

प्रश्न: ‘मलार की वार’ गुरु नानक देव जी ने लिखी कब?

उक्तर: इस प्रश्न पर विचार करते समय पहले ये प्रश्न उठता है कि ‘वार’ ही लिखने का विचार कब और क्यों गुरु नानक देव जी को आया।

हमारे देश में योद्धाओं की शूरवीरता के प्रसंग गा के सुनाने का रिवाज था, इस सारे प्रसंग का नाम ‘वार’ होता था। सो, ‘वार’ आम-तौर पर जंगों-युद्धों के बारे में हुआ करती थी। जब संन् 1521 में बाबर ने हिन्दोस्तान पर हमला करके ऐमनाबाद को आग लगाई और शहर में बड़े पैमाने पर अत्याचार के साथ-साथ कत्लेआम भी किया, तब गुरु नानक देव जी ने ‘वार’ का नक्शा लोगों पर हकीकत में बीतता आँखों से देखा। और ढाढी तो ऐसे समय अपने किसी साथी किसी सूरमे मनुष्य के किसी महत्वपूर्ण जंगी-कारनामे को कविता में लिखते थे, जैसे एक कवि ने ‘नादर की वार’ लिखी है, पर गुरु नानक साहिब को एक ऐसा महान योद्धा नज़र आ रहा था जिसके इशारे पर जगत के सारे जीव कामादिक वैरियों के साथ एक महान जंग में लगे हुए हैं। ऐमनाबाद की जंग को देख के, गुरु नानक देव जी ने एक जंगी कारनामे पर ही ‘वार’ लिखी, पर उनका ‘मुख्य पात्र’ (Hero) अकाल-पुरख स्वयं था।

गुरु नानक साहिब ने तीन वारें लिखीं- मलार की वार, माझ की वार और आसा दी वार; भाव, एक वार ‘मलार’ राग में है, दूसरी ‘माझ’ राग में और तीसरी ‘आसा’ राग में है। इनमें से ‘मलार की वार’ ऐसी है जिसमें रण-भूमि का और उसमें लड़ने वाले सूरमों का वर्णन है: जैसे;

‘आपे छिंझ पवाइ मलाखाड़ा रचिआ॥

लथे भड़थु पाइ.......॥

.........मारे पछाड़ि.....॥

आपि भिड़ै मारै..........॥4॥

इस विचार से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि गुरु नानक देव जी की सबसे पहली ‘वार’ मलार की वार है; ऐमनाबाद का युद्ध देख के उन्होंने महाबली योद्धे अकाल-पुरख के उस जंग का हाल लिखा जो सारे जगत-रूप रणभूमि में हो रहा है। ऐमनाबाद के कत्लेआम की घटना 1521 में तब हुई जब गुरु नानक देव जी आखिरी तीसरी ‘उदासी’ से वापस ऐमनाबाद आए। इस तरह, यह ‘वार’ 1521 में करतारपुर में लिखी गई।

इस ‘वार’ की 28 पौड़ियाँ हैं, पर पौड़ी नंबर 27 गुरु अरजन साहिब की है, गुरु नानक साहिब की लिखी हुई 27 पउड़ियां हैं, और हरेक पौड़ी में आठ-आठ तुके हैं। अब इस ‘वार’ को मिलाईए ‘माझ की वार’ के साथ; उसमें भी 27 पउड़ियां हैं और हरेक पौड़ी में आठ-आठ तुके हैं। विषय-वस्तु भी दोनों वारों की एक जैसी ही है: ‘तृष्णा की आग’। ‘मलार की वार’ में लिखा है, ‘अगनि भखै भड़हाड़ु अनदिनु भखसी’- 26; और ‘अगनि उपाई वादु भुख तिहाइआ’-9। ‘माझ की वार’ में भी ‘तृष्णा की आग’ का ही वर्णन है: ‘त्रिसना अंदरि अगनि है नाह तिपतै भुखा तिहाइआ’-2। ‘मलार की वार’ में लिखा है कि इस तृष्णा की आग से जंगल बसेरा, सरेवड़ों वाली कुचिलता, अन्न का त्याग, विद्वता और भगवा वेश आदि बचा नहीं सकते, देखें पउड़ी नं: 15,16,17,23 और 25। माझ की वार में भी यही जिकर है, देखें पउड़ी नं: 5 और 6।

इन दोनों वारों के इस अध्ययन से ये अंदाजा लगता है कि ‘मलार की वार’ लिखने के थोड़े ही समय बाद सतिगुरु जी ने यह दूसरी ‘माझ की वार’ लिखी संन् 1521 में करतार पुर में। तीनों उदासियाँ समाप्त करके अभी करतारपुर आ के टिके ही थे; उदासियों के समय जोगियों सन्यासियों सरेवड़ों व विद्वान पण्डितों आदि को मिले, वे ख्याल अभी दिल में ताजा थे जो इन दोनों ‘वारों’ में प्रकट किए हैं जैसे कि ऊपर बताया गया है।

पर, ‘आसा दी वार’ इन ‘वारों’ से अलग किस्म की है। इस वार में 24 पउड़ियां हैं, हरेक पउड़ी में तुकें भी साढ़े चार-चार हैं। विषय वस्तु भी अलग तरह का है। सारी ‘वार’ में कहीं भी जोगियों सन्यासियों सरेवड़ों व विद्वान पण्डितों की तरफ इशारा नहीं जिनको उदासियों के समय मिले थे। एक ऐसे ‘जीवन’ की तस्वीर यहाँ दी गई है जिसकी हरेक को आवश्यक्ता है, जिसको याद रखना हरेक इन्सान को हर रोज करना जरूरी प्रतीत होता है; शायद, इसी वास्ते इस ‘वार’ का कीर्तन नित्य करना सिख मर्यादा में बताया गया है। ‘आसा की वार’ क्या है? एक ऊँचे दर्जे का जीवन फलसफा। ऐमनाबाद का कत्लेआम, सरेवड़ों की कुचिलता, पंडितों की विद्या-अहंकार- इससे दूर पीछे रह गए हें। सो, यह रचना गुरु नानक साहिब के जीवन-सफर के आखिरी हिस्से की प्रतीत होती है, रावी दरिया के तट पर किसी केवल रूहानी-एकांत में बैठे हुए।

‘वार’ की संरचना:

पउड़ियां:

इस ‘वार’ में 28 पउड़ियां हैं। हरेक पउड़ी में आठ-आठ तुके हैं। पउड़ी नंबर 27 गुरु अरजन यसाहिब की है। यह ‘वार’ गुरु नानक साहिब की लिखी हुई है, ये वार पहले 27 पौड़ियों की थी।

सलोक

इस ‘वार’ की 28 पउड़ियों के साथ कुल 58 शलोक हैं। पउडत्री नं: 21 के साथ 4 सलोक, बाकी 27 पउड़ियों में हरेक के साथ दो-दो शलोक हैं। गुर-व्यक्तियों अनुसार इन शलोकों का

वेरवा इस प्रकार है;
महला १--------24
महला २--------05
महला ३--------27
महला ५--------02
जोड़------------58

सलोक महला १–

निम्न-लिखित 8 पौड़ियों के साथ गुरु नानक देव जी के दो-दो शलोक है:

2, 19, 20, 23, 24, 25, 27, 28 ---------------------------16
पौड़ी नंबर 21 के साथ ------------------------------------------04
निम्न-लिखित 4 पौड़ियों के साथ एक-एक–1,3,23,26--------04
जोड़.----------------------------------------------------------------24
सलोक महला २–
पौड़ी नंबर 4 के साथ दोनों--------------------------------------02
पौड़ी नं: 3, 22, 26 के साथ एक-एक-------------------------03
जोड़----------------------------------------------------------------05
सलोक महला ३–
पउड़ी नं: 5 से 13 (9 पौड़ियों) के साथ दो-दो --------------18
पउड़ी नं: 15 से 18 (4 पौड़ियों) के साथ दो-दो--------------08
पउड़ी नं: 1 साथ एक--------------------------------------------01
जोड़--------------------------------------------------------------- 27
सलोक महला ५–
पौड़ी नंबर 14 के साथ दो -------------------------------------02
कुल जोड़.---------------------------------------------------------58

सारे सलोक गुरु अरजन साहिब ने दर्ज किए:

यह ‘वार’ गुरु नानक देव जी की है। जब लिखी गई थी तब इसकी 27 पउड़ियाँ थीं। पउड़ियों के साथ दर्ज शलोक सबसे ज्यादा गुरु अमरदास जी के ही हैं (27)। गुरु नानक देव जी के 24 हैं और गुरु अंगद साहिब जी के 5 हैं।

हरेक पउड़ी की आठ-आठ तुकें हैं। काव्य के दृष्टिकोण से सारी ‘वार’ में एकसारता है। यह नहीं हो सकता कि गुरु नानक देव जी बीच-बीच में सिर्फ 9 पौड़ियों के साथ पूरे शलोक दर्ज करते, 4 पौड़ियों के साथ एक-एक शलोक दर्ज करते, और बाकी की 14 पौड़ियाँ बिलकुल खाली रहने देते।

यह मिथ भी बिल्कुल मन-घड़ंत होगी कि इन सारी 27 पउड़ियों के साथ गुरु अमरदास जी ने अपने, गुरु अंगद देव जी और गुरु नानक देव जी के शलोक दर्ज किए। उन्होंने पौड़ी नंबर 14 खाली क्यों छोड़नी थी? इस पौड़ी के साथ के दोनों श्लोक गुरु अरजन साहिब जी के हैं।

सो पक्के तौर पर इस नतीजे पर पहुँचना पड़ेगा कि इस ‘वार’ की सारी ही पौड़ियों के साथ शलोक गुरु अरजन साहिब ने दर्ज किए थे।

पद्चिन्ह गुरु नानक जी ने डाले:

यह निर्णय पक्का हो गया कि गुरु नानक देव जी ने यह ‘वार’ सिर्फ पउड़ियों का संग्रह बनाया था। ‘वारों’ में से यह ‘वार’ उनकी पहली रचना थी। सो, ये पद्चिन्ह गुरु नानक देव जी ने ही डाले कि पहले ‘वारें’ सिर्फ पौड़ियों का संग्रह ही हुआ करती थीं। सभी ‘वारों’ के साथ शलोक गुरु अरजन देव जी ने दर्ज किए। कहाँ से लिए? हरेक गुरु-व्यक्ति के संग्रह में से लिए। जो शलोक इस चयन से ज्यादा हो गए, वे गुरु अरजन साहिब जी ने गुरु ग्रंथ साहिब के आखिर के शीर्षक ‘सलोक वारां ते वधीक’ तहत दर्ज कर दिए।

वार मलार की महला १ राणे कैलास तथा मालदे की धुनि॥

कैलाश देव और माल देव दो सगे भाई थे, जम्मू कश्मीर के राजा व जहाँगीर का हाला भरते थे। इनको कमजोर करने के लिए जहाँगीर ने किसी भेदिए को बीच में डाल के इनको आपस में लड़वा दिया; खासा युद्ध मचा, माल देव जीत गया, कैलाश देव पकड़ा गया। पर फिर दोनों भाई सुलह करके प्यार से मिल बैठे, आधा-आधा राज बाँट लिया। ढाढियों ने इस युद्ध की ‘वार’ लिखी। इस ‘वार’ में से बतौर नमूना ये पौड़ी;

धरत घोड़ा, परबत पलाण, सिर टटर अंबर॥
नौ सौ नदी नड़िंनवै राणा जल कंबर॥
ढुका राइ अमीर देव करि मेघ अडंबर॥
आणित खंडा राणिआं कैलाशै अंदर॥
बिजली जिउं चमकाणिआं तेगां विच अंबर॥
मालदेउ कैलाश नूँ बधा करि संबर॥
फिर अधा धन मालदेउ छडिआ गढ़ अंदर॥
मालदेउ जसु खटिआ वांग शाह सिकंदर॥

जिस सुर में लोग मालदेव की ये वार गाते थे, उसी सुर में गुरु नानक देव जी की ये वार गाने की हिदायत है।

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

सलोक महला ३ ॥ गुरि मिलिऐ मनु रहसीऐ जिउ वुठै धरणि सीगारु ॥ सभ दिसै हरीआवली सर भरे सुभर ताल ॥ अंदरु रचै सच रंगि जिउ मंजीठै लालु ॥ कमलु विगसै सचु मनि गुर कै सबदि निहालु ॥ मनमुख दूजी तरफ है वेखहु नदरि निहालि ॥ फाही फाथे मिरग जिउ सिरि दीसै जमकालु ॥ खुधिआ त्रिसना निंदा बुरी कामु क्रोधु विकरालु ॥ एनी अखी नदरि न आवई जिचरु सबदि न करे बीचारु ॥ तुधु भावै संतोखीआं चूकै आल जंजालु ॥ मूलु रहै गुरु सेविऐ गुर पउड़ी बोहिथु ॥ नानक लगी ततु लै तूं सचा मनि सचु ॥१॥

पद्अर्थ: गुरि मिलिऐ = अगर गुरु मिल जाए। रहसीऐ = खिल उठता है। वुठै = (पानी) बरसा। धरति = धरती। सर = सरोवर। सुभर = स+भर, नाको नाक भरा हुआ। ताल = तालाब। अंदरु = अंदरूनी मन। विगसै = खिल उठता है। निहालु = प्रसन्न। तरफ = की ओर, के पक्ष में। नदरि निहालि = ध्यान से देख के। खुधिआ = भूख। बुरी = खराब, चंदरी। विकरालु = डरावना। आल जंजालु = घर का जंजाल। मूलु रहे = राशि (मूल) बची रहती है। बोहिथु = जहाज़। सचा = सदा कायम रहने वाला। मनि = मन में।

अर्थ: अगर गुरु मिल जाए तो मन खिल उठता है जैसे बरसात होने पर धरती सज जाती है, सारी (धरती) हरि ही हरि दिखाई देती है सरोवर और तालाब नाको नाक पानी से भर जाते हैं (इसी तरह जिसको गुरु मिलता है उसका) मन सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु के प्यार में रच जाता है और मजीठ की तरह लाल (पक्के प्यार-रंग वाला) हो जाता है, उसका हृदय-कमल खिल उठता है, सच्चा प्रभु (उसके) मन में (आ बसता है) गुरु के शब्द की इनायत से वह सदा प्रसन्न रहता है।

पर, ध्यान से देखो, मन के पीछे चलने वाले मनुष्य का दूसरा पक्ष ही होता है (भाव, उसकी हालत इसके उलट होती है) जाल में फसे हिरन की तरह जमकाल (भाव, मौत का डर) सदा उसके सिर पर (खड़ा) दिखाई देता है; (आत्मिक मौत उस पर अपना जोर डाले रखती है)। (माया की) चंदरी भूख-प्यास और निंदा, काम और डरावना क्रोध (उसको सदा सताते हैं, पर ये हालत उसको) इन आँखों से (तब तक) नहीं दिखती जब तक वह गुरु-शब्द में विचार नहीं करता। (हे प्रभु!) जब तुझे अच्छा लगे तब (ये आँखें) संतोष में आती है (भाव, भूख-तृष्णा खत्म होती है) और घर के जंजाल समाप्त होते हैं।

गुरु की सेवा करने से (भाव, गुरु के हुक्म में चलने से) जीव की नाम-रूपी राशि बनी रहती है, गुरु की पौड़ी (भाव, स्मरण) के द्वारा (नाम-रूपी) जहाज़ प्राप्त हो जाता है। हे नानक! जो जीव-स्त्री (इस स्मरण-रूप गुरु पउड़ी को) संभालती है वो अस्लियत पा लेती है। हे प्रभु! तू सदा कायम रहने वाला उसके मन में सदा के लिए आ बसता है।1।

महला १ ॥ हेको पाधरु हेकु दरु गुर पउड़ी निज थानु ॥ रूड़उ ठाकुरु नानका सभि सुख साचउ नामु ॥२॥

पद्अर्थ: पाधरु = पधरा राह, सपाट रास्ता। हेको = एक ही। गुर पउड़ी = गुरु के द्वारा बताई हुई सीढ़ी (भाव, स्मरण)। निज = केवल अपना। रूढ़उ = सुंदर। सभि = सारे। ठाकुरु = पालनहार।

अर्थ: हे नानक! (एक प्रभु ही) सुंदर पालनहार पति है (उस प्रभु का ही) एक दर (जीव का) केवल अपनी जगह है (जहाँ कभी किसी ने दुत्कारना नहीं, इस ‘दर’ तक पहुंचने के लिए) गुरु की सीढ़ी (पौड़ी) (भाव, स्मरण ही) एक सीधा रास्ता है, (प्रभु का) सच्चा नाम (स्मरणा) ही सारे सुखों (का मूल) है।2।

पउड़ी ॥ आपीन्है आपु साजि आपु पछाणिआ ॥ अ्मबरु धरति विछोड़ि चंदोआ ताणिआ ॥ विणु थम्हा गगनु रहाइ सबदु नीसाणिआ ॥ सूरजु चंदु उपाइ जोति समाणिआ ॥ कीए राति दिनंतु चोज विडाणिआ ॥ तीरथ धरम वीचार नावण पुरबाणिआ ॥ तुधु सरि अवरु न कोइ कि आखि वखाणिआ ॥ सचै तखति निवासु होर आवण जाणिआ ॥१॥

पद्अर्थ: आपीन्है = (आपि ही नै) भाव, (प्रभु) ने स्वयं ही। शब्द ‘ही’ का ‘ह’ यहां से हट के ‘नै’ के साथ मिल के ‘आपि ई नै’ से इकट्ठा ‘आपीनै’ बन गया है; देखें, ‘आसा दी वार’ पउड़ी १। आपु = अपने आप को। अंबारु = आकाश। रहाइ = टिका के। निसाणिआ = ‘निसाण’ बनाया है, नगारा बनाया है। सबदु = हुक्म। चोज = तमाशे। विडाणिया = आश्चर्य। पुरब = धार्मिक मेले। सरि = बराबर। कि = क्या? होर = और सृष्टि।

अर्थ: (प्रभु ने) स्वयं ही अपने आप को प्रकट करके अपनी अस्लियत समझाई है, आकाश और धरती को अलग-अलग करके (ये आकाश उसने मानो, अपने तख़्त पर) चंदोआ ताना हुआ है; (सारे जगत रूपी दरबार पर) आकाश को स्तम्भों के बगैर टिका के अपने हूकम को नगारा बनाया है, अपनी ज्योति टिकाई है; (जीवों के कार्य-व्यवहार के लिए) रात और दिन (-रूप) आश्चर्य भरे तमाशे बना दिए हैं। पर्वों के समय तीर्थों पर नहाने आदि के धार्मिक ख्याल (भी प्रभु ने स्वयं ही जीवों के अंदर पैदा किए हैं)।

(हे प्रभु!) (तेरी इस आश्चर्यजनक खेल का) क्या बयान करें? तेरे जैसा और कोई नहीं है; तू तो सदा कायम रहने वाले तख़्त पर बैठा है और (सृष्टि) पैदा होती है (और नाश होती है)।1।

सलोक मः १ ॥ नानक सावणि जे वसै चहु ओमाहा होइ ॥ नागां मिरगां मछीआं रसीआं घरि धनु होइ ॥१॥

पद्अर्थ: सावणि = सावन (के महीने) में। ओमाहा = चाव। रसीआ = रस का आशिक। घरि = घर में।

अर्थ: हे नानक! अगर सावन के महीने बरसात हो तो चार धड़ों में उल्लास होता है: साँपों को, हिरनों को, मछलियों को और रसों के आशिकों को जिनके घर में (रस भोगने के लिए) धन हो।1।

मः १ ॥ नानक सावणि जे वसै चहु वेछोड़ा होइ ॥ गाई पुता निरधना पंथी चाकरु होइ ॥२॥

पद्अर्थ: गाईपुत = बैल। पंथी = राही, मुसाफिर। चाकरु = नौकर।

अर्थ: हे नानक! सावन में अगर वर्षा हो तो चार पक्षों को (उल्लास से) विछोड़ा (भी, भाव, दुख) होता है, बैलों को (क्योंकि बरसात पड़ने से ये हल में जोते जाते हैं), गरीबों को (जिनकी मेहनत मजदूरी में रुकावट आती है), राहियों को और नौकर व्यक्तियों को।2।

नोट: गुरु के दर से ‘नाम’ की बरखा होने पर गुरमुख और मनमुख पर अलग-अलग असर होता है।

पउड़ी ॥ तू सचा सचिआरु जिनि सचु वरताइआ ॥ बैठा ताड़ी लाइ कवलु छपाइआ ॥ ब्रहमै वडा कहाइ अंतु न पाइआ ॥ ना तिसु बापु न माइ किनि तू जाइआ ॥ ना तिसु रूपु न रेख वरन सबाइआ ॥ ना तिसु भुख पिआस रजा धाइआ ॥ गुर महि आपु समोइ सबदु वरताइआ ॥ सचे ही पतीआइ सचि समाइआ ॥२॥

पद्अर्थ: कवलु = पुरातन विचार है कि ब्रहमा ने जगत पैदा किया और ब्रहमा खुद ‘कमल’ से पैदा हुआ। सो, ‘कमल ही उत्पक्ति का मूल’। कवलु छपाइआ = सृष्टि की उत्पक्ति को छुपा के, (भाव,) अभी जगत की उत्पक्ति नहीं हुई थी। किनि = किस ने? तू = तुझे। सबाइआ = सारे। रजा धाइआ = भरे पुरे। पतीआइ = पतीज के। सचि = सच्चे प्रभु में, सदा कायम रहने वाले परमात्मा में।

अर्थ: (हे प्रभु!) तू सदा कायम रहने वाला है, तू ऐसी हस्ती का मालिक (सचिआर) है कि जिस ने (अपनी यह) हस्ती (हर जगह) पसारी हुई है; अभी सृष्टि की उत्पक्ति नहीं हुई थी जब तू (अपने आप में) समाधि लगाए बैठा था, ब्रहमा ने (भी जो जगत को रचने वाला माना जाता है यह भेद ना समझा और अपने आप को ही सबसे) बड़ा कहलवाया, उसको तेरी सार ना आई। (हे प्रभु!) तुझे किसने पैदा किया है? (भाव, तुझे जनम देने वाला कोई नहीं है)।

(हे भाई!) उस (प्रभु) का ना कोई पिता है ना माँ; ना उसका कोई (खास) स्वरूप है ना निशान; सारे रूप-रंग उसके हैं; उसको कोई भूख-प्यास नहीं है, संतुष्ट-तृप्त है।

(हे भाई!) प्रभु अपने आप को गुरु में लीन करके (अपना) शब्द (भाव, संदेश) (सारे जगत में) बाँट रहा है, और गुरु इस सदा कायम रहने वाले प्रभु में पतीज के सदा-स्थिर प्रभु में ही जुड़ा रहता है।2।

सलोक मः १ ॥ वैदु बुलाइआ वैदगी पकड़ि ढंढोले बांह ॥ भोला वैदु न जाणई करक कलेजे माहि ॥१॥

पद्अर्थ: करक = पीड़ा, (प्रभु से बिछोड़े का) दुख। वैदगी = दवाई देने के लिए।

अर्थ: हकीम (मरीज़ को) दवाई देने के लिए बुलाया जाता है, वह (मरीज की) बाँह पकड़ के (नाड़ी) टटोलता है (और मर्ज़ तलाशने का प्रयत्न करता है, पर) अंजान हकीम यह नहीं जानता कि (प्रभु से विछोड़े की) पीड़ा (बिरही बंदों के) दिल में हुआ करती है।1।

मः २ ॥ वैदा वैदु सुवैदु तू पहिलां रोगु पछाणु ॥ ऐसा दारू लोड़ि लहु जितु वंञै रोगा घाणि ॥ जितु दारू रोग उठिअहि तनि सुखु वसै आइ ॥ रोगु गवाइहि आपणा त नानक वैदु सदाइ ॥२॥

पद्अर्थ: वंञै = (वंजै) दूर हो जाए, चला जाए। रोगा घाणि = रोगों की घाणी, रोगों का ढेर। जितु दारू = जिस दवाई से। उठिअहि = उड़ाए जा सकें। तनि = शरीर में। आइ = आ के। गवाइहि = अगर तू दूर कर ले।

अर्थ: (हे भाई!) पहले (अपना ही आत्मिक) रोग ढूँढ (और उसकी) ऐसी दवाई तलाश ले जिससे सारे (आत्मिक) रोग दूर हो जाएं जिस दवाई से (सारे) रोग उठाए जा सकें और शरीर में सुख आ बसे। (हे भाई! तब ही) तू हकीमों का हकीम है (सबसे बढ़िया हकीम है) (तब ही) तू समझदार वैद्य (कहलवा सकता) है।

हे नानक! (कह: हे भाई!) अगर तू (पहले) अपना रोग दूर कर ले तो (अपने आप को) हकीम कहलवा (कहलवाने का हकदार है)।

पउड़ी ॥ ब्रहमा बिसनु महेसु देव उपाइआ ॥ ब्रहमे दिते बेद पूजा लाइआ ॥ दस अवतारी रामु राजा आइआ ॥ दैता मारे धाइ हुकमि सबाइआ ॥ ईस महेसुरु सेव तिन्ही अंतु न पाइआ ॥ सची कीमति पाइ तखतु रचाइआ ॥ दुनीआ धंधै लाइ आपु छपाइआ ॥ धरमु कराए करम धुरहु फुरमाइआ ॥३॥

पद्अर्थ: दस अवतारी = (अवतारीं) दस अवतारों में (दस अवतार = वराह, नरसिंह, वामन, परशराम, मछ, कछ, राम, कृष्ण, बौध और कलकी= 10)। हुकमि = हुक्म में। ईस महेसुर = शिव के 11 (रुद्र) अवतार। तिनी = उन 11 शिव अवतारों ने।

अर्थ: (परमात्मा ने स्वयं ही) ब्रहमा, विष्णु और शिव- (ये तीन) देवता पैदा किए। ब्रहमा को उसने वेद दे दिए (भाव, वेदों का कर्ता बनाया और लोगों को इनके द्वारा बताई गई) पूजा कराने में उलझा दिया। (विष्णू) दस अवतारों में राजा राम (आदि) रूप धारण करता रहा और हमले कर के दैत्यों को मारता रहा (पर, ये) सारे (अवतार प्रभु के ही) हुक्म में हुए। शिव (के 11 रुद्र) अवतारों ने सेवा की (भाव, तप साधना की, पर उन्होंने भी प्रभु का) अंत नहीं पाया।

(प्रभु ने) सदा अटल रहने वाले मूल वाली (अपनी सत्ता) पा के (यह जगत, मानो, अपना) तख़्त बनाया है, इसमें दुनिया (के जीवों) को धंधे में उलझा के (प्रभु ने) अपने आप को छुपा रखा है। (यह भी) धुर से (प्रभु का ही) फुरमान है कि धर्मराज (जीवों से अच्छे-बुरे) काम करवा रहा है।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh