श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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कानड़ा महला ५ घरु १०    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

ऐसो दानु देहु जी संतहु जात जीउ बलिहारि ॥ मान मोही पंच दोही उरझि निकटि बसिओ ताकी सरनि साधूआ दूत संगु निवारि ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: दानु = (नाम की) दाति। संतहु = हे संत जनों! जात = जाती है। जीउ = जिंद। बलिहारि = सदके, कुर्बान। मान = अहंकार। पंच = (कामादिक) पाँच (चोर)। दोही = ठगी हुई। उरझि = (कामादिक में) फस के। निकटि = (इन कामादिकों के) नजदीक। ताकी = (अब) देखी है। साधूआ = संत जनों की। दूत संगु = (कामादिक) वैरियों का साथ। निवारि = दूर करो।1। रहाउ।

अर्थ: हे संत जनों! मुझे इस तरह का दान दो (जो पाँचों कामादिक वैरियों से बचा के रखे, मेरी) जिंद (नाम की दाति से) सदके जाती है। (ये जिंद) अहंकार में मस्त रहती है, (कामादिक) पाँच (चोरों के हाथों) ठगी जाती है, (उन कामादिकों में ही) फंस के (उनके ही) नजदीक टिकी रहती है। मैंने (इनसे बचने के लिए) संत जनों की शरण ताकी है। (हे संत जनो! मेरा इन कामादिक) वैरियों वाला साथ दूर करो।1। रहाउ।

कोटि जनम जोनि भ्रमिओ हारि परिओ दुआरि ॥१॥

पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। भ्रमिओ = भटकता फिरा। दुआरि = (तुम्हारे) दर पे।1।

अर्थ: हे संत जनों! (कामादिक पाँचों वैरियों के प्रभाव तले रह के मनुष्य की जिंद) करोड़ों जन्मों-जूनियों में भटकती रहती है। (हे संत जनो!) मैं और आसरे छोड़ के तुम्हारे द्वारे आया हूँ।1।

किरपा गोबिंद भई मिलिओ नामु अधारु ॥ दुलभ जनमु सफलु नानक भव उतारि पारि ॥२॥१॥४५॥

पद्अर्थ: अधारु = आसरा। दुलभ = मुश्किल से मिलने वाला। सफलु = कामयाब। भव = संसार समुंदर।2।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा की मेहर होती है, उसको (कामादिक वैरियों का मुकाबला करने के लिए परमात्मा का) नाम-आसरा मिल जाता है, उसका ये दुर्लभ (मानव) जनम सफल हो जाता है। हे नानक! (प्रभु चरणों में अरदास करके कह: हे प्रभु! मुझे अपने नाम का आसरा दे के) संसार-समुंदर से पार लंघा ले।2।1।45।

कानड़ा महला ५ घरु ११    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

सहज सुभाए आपन आए ॥ कछू न जानौ कछू दिखाए ॥ प्रभु मिलिओ सुख बाले भोले ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। सुभाए = प्यार से, प्यार के प्रेरे हुए। आपन = आपने आप। जानौ = मैं जानता। न कछू जानौ (न) कछू दिखाए = ना मैं कुछ जानता हूँ, ना मैंने कुछ दिखाया है (ना मेरी मति-बुद्धि ऊँची है, ना मेरी करणी ऊँची है)। बाले भोले = भोले बालक को।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! (किसी) आत्मिक अडोलता वाले प्यार की प्रेरणा से (प्रभु जी) अपने आप ही (मुझे) आ मिले हैं, मैं तो ना-कुछ जानता-बूझता हूँ, ना मैं कोई अच्छी करणी दिखा सका हूँ। मुझे भोले बालक को, सुखों का मालिक प्रभु (स्वयं ही) आ मिला है।1। रहाउ।

संजोगि मिलाए साध संगाए ॥ कतहू न जाए घरहि बसाए ॥ गुन निधानु प्रगटिओ इह चोलै ॥१॥

पद्अर्थ: संजोगि = संजोग ने। साध संगाए = साधु-संगत में। कतहू = किसी भी और तरफ। घरहि = घर में ही। गुन निधानु = गुणों का खजाना प्रभु। इह चोलै = इस शरीर में।1।

अर्थ: हे भाई! (किसी बीते हुए वक्त के) संजोग ने (मुझे) साधु-संगत में मिला दिया, (अब मेरा मन) किसी भी और तरफ नहीं जाता, (हृदय-) घर में ही टिका रहता है। (मेरे इस शरीर में गुणों का खजाना प्रभु प्रकट हो गया है)।1।

चरन लुभाए आन तजाए ॥ थान थनाए सरब समाए ॥ रसकि रसकि नानकु गुन बोलै ॥२॥१॥४६॥

पद्अर्थ: लुभाए = लुभा लिए, आकर्षित कर लिया। आन = अन्य, और (प्यारे, आसरे)। तजाए = छोड़ दिए हें। थान थनाए = स्थान स्थान में, हरेक जगह में। सरब = सबमें। रसकि = स्वाद से, आनंद से।2।

अर्थ: हे भाई! (प्रभु के) चरणों ने (मुझे अपनी ओर) आकर्षित कर लिया है, मुझसे अन्य सारे मोह-प्यार छुड़वा लिए हैं, (अब मुझे ऐसा दिखाई देता है कि वह प्रभु) हरेक जगह में सब में बस रहा है। (अब उसका दास) नानक बड़े आनंद से उसके गुण उचारता रहता है।2।1।46।

कानड़ा महला ५ ॥ गोबिंद ठाकुर मिलन दुराईं ॥ परमिति रूपु अगम अगोचर रहिओ सरब समाई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: दुराईं = कठिन, मुश्किल। परमिति = मिति से परे, अंदाजे से परे, जिसकी हस्ती का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। अगंम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचर = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान-इंद्रिय) जिस तक ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच ना हो सके।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! गोबिंद को ठाकुर को मिलना बहुत मुश्किल है। वह परमात्मा (वैसे तो) सबमें समाया हुआ है (पर) उसका स्वरूप अंदाजे से परे है, वह अगम्य (पहुँच से परे) है, उस तक ज्ञान-इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती।1। रहाउ।

कहनि भवनि नाही पाइओ पाइओ अनिक उकति चतुराई ॥१॥

पद्अर्थ: कहनि = कहने से, (सिर्फ) जुबानी बातें करने से। भवणि = भ्रमण से, तीर्थ यात्रा आदि करने से। उकति = दलील, युक्ति।1।

अर्थ: हे भाई! (निरी ज्ञान की) बातें करने से, (तीर्थ आदि पर) भ्रमण से परमात्मा नहीं मिलता, अनेक युक्तियों और चतुराईयों से भी नहीं मिलता।1।

जतन जतन अनिक उपाव रे तउ मिलिओ जउ किरपाई ॥ प्रभू दइआर क्रिपार क्रिपा निधि जन नानक संत रेनाई ॥२॥२॥४७॥

पद्अर्थ: उपाव = उपाय। रे = हे भाई! तउ = तब। जउ = जब। दइआर = दयाल। क्रिपार = कृपाल। क्रिपानिधि = कृपा का खजाना। रेनाई = चरण धूल।2।

नोट: ‘उपाव’ है ‘उपाउ’ का बहुवचन।

अर्थ: हे भाई! अनेक प्रयत्न और अनेक तरीकों से भी परमात्मा नहीं मिलता। वह तब ही मिलता है जब उसकी अपनी कृपा होती है। हे दास नानक! दयाल, कृपाल, कृपा के खजाना प्रभु संत जनों की चरण-धूल में रहने से मिलता है।2।2।47।

कानड़ा महला ५ ॥ माई सिमरत राम राम राम ॥ प्रभ बिना नाही होरु ॥ चितवउ चरनारबिंद सासन निसि भोर ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: माई = हे माँ! सिमरत = स्मरण करते हुए। चितवउ = मैं चितवता हूँ। चरनारबिंद = (चरण+अरबिंद। अरविंद = कमल फूल) कमल के फूल जैसे सुंदर चरण। सासन = हरेक सांस के साथ। निसि = रात। भोर = दिन।1। रहाउ।

अर्थ: हे माँ! प्रभु के बिना (मेरा) और कोई (आसरा) नहीं है। उसका नाम हर वक्त स्मरण करते हुए मैं दिन-रात हरेक सांस के साथ उसके सुंदर चरणों का ध्यान धरता रहता हूँ।1। रहाउ।

लाइ प्रीति कीन आपन तूटत नही जोरु ॥ प्रान मनु धनु सरबसुो हरि गुन निधे सुख मोर ॥१॥

पद्अर्थ: लाइ = लगा के, जोड़ के। कीन आपन = अपना बना लिया है। जोरु = जोड़, मिलाप। सरबसुो = (सर्वश्व), सारा धन पदार्थ, सब कुछ। गुन निधे = गुणों का खजाना हरि। मोर = मेरा।1।

नोट: ‘सरबसुो’ में से अक्षर ‘स’ के साथ दो मात्राएं हैं: ‘ो’ और ‘ु’। असल शब्द ‘सरबसु’ है, यहाँ ‘सरबसो’ पढ़ना है।

अर्थ: हे माँ! (उस परमात्मा के साथ) प्यार डाल के (मैंने उसको) अपना बना लिया है (अब यह) प्रीति की गाँठ टूटेगी नहीं। मेरे लिए गुणों का खजाना हरि ही सुख है, जिंद है, मन है, धन है, मेरा सब कुछ वही है।1।

ईत ऊत राम पूरनु निरखत रिद खोरि ॥ संत सरन तरन नानक बिनसिओ दुखु घोर ॥२॥३॥४८॥

पद्अर्थ: ईत = यहाँ। ऊत = वहाँ। निरखत = (मैं) देखता हूँ। रिद खोरि = हृदय की खोड़ में, हृदय के गुप्त स्थान में। तरन = बेड़ी, जहाज। घोर = बहुत भारी।2।

अर्थ: हे नानक! यहाँ-वहाँ हर जगह परमात्मा ही व्यापक है, मैं उसको अपने हृदय के गुप्त स्थान में (बैठा) देख रहा हूँ। (जीवों को पार लंघाने के लिए वह) जहाज़ है, संतों की शरण में (जिन्हें मिल जाती है, उनका) सारा बड़े से बड़ा दुख भी नाश हो जाता है।2।3।48।

कानड़ा महला ५ ॥ जन को प्रभु संगे असनेहु ॥ साजनो तू मीतु मेरा ग्रिहि तेरै सभु केहु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: को = का। प्रभु = मालिक। संगे = (तेरे) साथ। असनेहु = नेहु, प्यार। साजनो = साजन, सज्जन। ग्रिहि तेरै = तेरे घर में। सभ केहु = सब कुछ, हरेक पदार्थ।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्रभु! तू अपने सेवक के सिर पर रखवाला है, (तेरे सेवक का तेरे) साथ प्यार (बना रहता है)। हे प्रभु! तू (ही) मेरा सज्जन है, तू (ही) मेरा मित्र है, तेरे घर में हरेक पदार्थ है।1। रहाउ।

मानु मांगउ तानु मांगउ धनु लखमी सुत देह ॥१॥

पद्अर्थ: मानु = इज्जत। मागउ = मैं माँगता हूं। तानु = ताकत, आसरा। लखमी = माया। सुत = पुत्र। देह = शरीर, शारीरिक अरोग्यता।1।

अर्थ: हे प्रभु! मैं (तेरे दर से) इज्जत माँगता हूँ, (तेरा) आसरा माँगता हूँ, धन-पदार्थ माँगता हूं, पुत्र माँगता हूं, शारीरिक आरोग्यता माँगता हूँ।1।

मुकति जुगति भुगति पूरन परमानंद परम निधान ॥ भै भाइ भगति निहाल नानक सदा सदा कुरबान ॥२॥४॥४९॥

पद्अर्थ: मुकति = (विकारों से) मुक्ति, खलासी। जुगति = जीवन विधि। भुगति = खुराक, भोजन। परमानंद = परम आनंद, सबसे उच्च आनंद का मालिक। निधान = खजाना। भै = डर में, अदब में। भाइ = प्यार में। निहाल = प्रसन्न।2।

अर्थ: हे प्रभु! तू ही विकारों से खलासी देने वाला है, तू ही जीवन-युक्ति सिखाता है, तू ही भोजन देने वाला है, तू ही सबसे ऊँचे आनंद और सुखों का खजाना है। हे नानक! (कह: हे प्रभु! मैं तुझ पर से) सदा ही सदके जाता हूँ, (जो मनुष्य तेरे) डर में प्यार में (टिक के तेरी) भक्ति (करते हैं, वे) निहाल (हो जाते हैं)।2।4।49।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh