श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1311 पंकज मोह निघरतु है प्रानी गुरु निघरत काढि कढावैगो ॥ त्राहि त्राहि सरनि जन आए गुरु हाथी दे निकलावैगो ॥४॥ पद्अर्थ: पंकज = कीचड़। निघरतु है = धसता जाता है। काढि = निकाल के। कढावैगो = किनारे लगा देता है। त्राहि त्राहि = बचा ले बचा ले। हाथी = हाथ। दे = दे के।4। अर्थ: हे भाई! मनुष्य (माया के) मोह के दल-दल में धंसता जाता है, गुरु (इस गारे में) धंस रहे मनुष्य को (दल-दल में से) निकाल के किनारे लगा देता है। ‘बचा ले, बचा ले’-ये कहते हुए (जो) मनुष्य (गुरु की) शरण आते हैं, गुरु अपना हाथ पकड़ा के उनको (माया के मोह के कीचड़ में से) बाहर निकाल लेता है।4। सुपनंतरु संसारु सभु बाजी सभु बाजी खेलु खिलावैगो ॥ लाहा नामु गुरमति लै चालहु हरि दरगह पैधा जावैगो ॥५॥ पद्अर्थ: सुपनंतरु = (सुपन+अंतर) अंदरूनी सपना, मन का सपना, मन की भटकना। सभु = सारा (संसार)। खिलावैगो = खिलावै, (परमात्मा स्वयं) खेला रहा है। लाहा = लाभ, कमाई। लै = ले के। चालहु = (जगत से) चलो। पैधा = इज्जत से। जावैगो = जाता है।5। (नोट: शब्द ‘अंतर’ और ‘अंतरि’ में फर्क है, देखें बंद नं: 8 में ‘रिद अंतरि’) अर्थ: हे भाई! यह संसार (मनुष्य के) मन की भटकना (का मूल) है, (जीवों को परचाने के लिए) सारा जगत (एक) खेल (सी ही) है। यह खेल (जीवों को परमात्मा स्वयं) खेला रहा है। (इस खेल में परमात्मा का) नाम (ही) लाभ है। हे भाई! गुरु की मति से ये लाभ कमा के जाओ। (जो मनुष्य ये लाभ कमा के यहाँ से जाता है, वह) परमात्मा की हजूरी में इज्जत से जाता है।5। हउमै करै करावै हउमै पाप कोइले आनि जमावैगो ॥ आइआ कालु दुखदाई होए जो बीजे सो खवलावैगो ॥६॥ पद्अर्थ: करै करावै = करता कराता, हर वक्त करता। आनि = ला के। जमावैगो = जमाता है, बीजता है। कालु = मौत। जो = जो। कोइले = पाप। बीजे = बीजे होते हैं। खवलावैगो = फल भुगताता है।6। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य सारी उम्र ‘हउ हउ’ ही करता रहता है, वह मनुष्य (अपनी मानसिक खेती में) खुद ला-ला के पाप बोता (बीजता) रहता है। जब मौत आती है; (वे बीजे हुए कमाए हुए पाप) दुखदाई बन जाते हैं (पर उस वक्त क्या हो सकता है?) जो कोयले-पाप बीजे हुए होते हैं (सारी उम्र किए होते हैं) उनका फल खाना पड़ता है।6। संतहु राम नामु धनु संचहु लै खरचु चले पति पावैगो ॥ खाइ खरचि देवहि बहुतेरा हरि देदे तोटि न आवैगो ॥७॥ पद्अर्थ: संतहु = हे संत जनो! संचहु = संचित करो, इकट्ठा करो। लै = ले के। चले = चलते हैं। पति = इज्जत। पावैगो = पल्ले डालता है, देता है। खाइ = (स्वयं) खा के। खरचि = खर्च के, (और लोगों को) बाँट के। देवहि = (संत जन) देते हैं। देदे = देते हुए। तोटि = कमी।7। अर्थ: हे संत जनो! परमात्मा का नाम-धन इकट्ठा करते रहो, (जो मनुष्य जीवन-यात्रा में उपयोग के लिए नाम-) खर्च ले के चलते हैं (नाम की राशि ले कर चलते हैं) (परमात्मा उनको) आदर-सत्कार देता है। वे मनुष्य (ये नाम-धन खुद) खुला बरत के (और लोगों को भी) बहुत बाँटते हैं, इस हरि-नाम-धन के बाँटने से इसमें कमी नहीं होती।7। राम नाम धनु है रिद अंतरि धनु गुर सरणाई पावैगो ॥ नानक दइआ दइआ करि दीनी दुखु दालदु भंजि समावैगो ॥८॥५॥ पद्अर्थ: रिद अंतरि = हृदय में। दीनी = (नाम धन की दाति) दी। करि = कर के। दालदु = गरीबी। भंजि = तोड़ के, नाश करके, समाप्त कर के।8। अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) ये नाम-धन गुरु की शरण पड़ने से मिलता है, जिस मनुष्य के हृदय में ये नाम-धन बसता है, जिस मनुष्य को परमात्मा नाम-धन की दाति मेहर कर के देता है, वह अपना हरेक दुख दूर कर के (आत्मिक) गरीबी को खत्म कर के नाम में लीन रहता है।8।5। कानड़ा महला ४ ॥ मनु सतिगुर सरनि धिआवैगो ॥ लोहा हिरनु होवै संगि पारस गुनु पारस को होइ आवैगो ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मनु = (जिस मनुष्य का) मन। धिआवैगो = (हरि नाम का) स्मरण करता है। हिरनु = (हिरण्य) सोना। संगि पारस = पारस के साथ (छू के)। गुनु पारस को = पारस का गुण।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य का) मन गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम स्मरण करता रहता है (वह प्रभु-चरणों की छोह से ऊँचे जीवन वाला हो जाता है, जैसे) पारस से (छू के) लोहा सोना बन जाता है, पारस की छूह का गुण उसमें आ जाता है।1। रहाउ। सतिगुरु महा पुरखु है पारसु जो लागै सो फलु पावैगो ॥ जिउ गुर उपदेसि तरे प्रहिलादा गुरु सेवक पैज रखावैगो ॥१॥ पद्अर्थ: जा लागै = जो मनुष्य छूता है। उपदेसि = उपदेश से। तरे प्रहिलादा = प्रहलाद आदि कई तैर गए। पैज = इज्जत।1। अर्थ: हे भाई! गुरु (भी) बहुत बड़ा पुरख है, (गुरु भी) पारस है। जो मनुष्य (गुरु के चरणों में) लगता है वह (श्रेष्ठ) फल प्राप्त करता है, जैसे गुरु के उपदेश की इनायत से प्रहलाद (आदि कई) पार लांघ गए। हे भाई! गुरु अपने (सेवक) की इज्जत (अवश्य) रखता है।1। सतिगुर बचनु बचनु है नीको गुर बचनी अम्रितु पावैगो ॥ जिउ अ्मबरीकि अमरा पद पाए सतिगुर मुख बचन धिआवैगो ॥२॥ पद्अर्थ: नीको = अच्छा, श्रेष्ठ, उत्तम। गुर बचनी = गुरु के वचनों से। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। अंबरीकि = अंबरीक ने। अमरापद = अमर पद, वह दर्जा जहाँ आत्मिक मौत छू नहीं सकती। मुख बचन = मुँह के वचन। सतिगुर मुख बचन = गुरु के मुँह के वचन। धिआवैगो = ध्यावे, उचार रहा है।2। अर्थ: हे भाई! यकीन जान कि गुरु का वचन (बहुत) श्रेष्ठ है। गुरु के वचन की इनायत से (मनुष्य) आत्मिक जीवन देने वाला नाम हासिल कर लेता है। (जो भी मनुष्य) गुरु का उचारा हुआ शब्द हृदय में बसाता है (वह ऊँचा आत्मिक जीवन प्राप्त करता है) जैसे अंबरीक ने वह आत्मिक दर्जा हासिल कर लिया जहाँ आत्मिक मौत छू नहीं सकती।2। सतिगुर सरनि सरनि मनि भाई सुधा सुधा करि धिआवैगो ॥ दइआल दीन भए है सतिगुर हरि मारगु पंथु दिखावैगो ॥३॥ पद्अर्थ: मनि = मन में। भाई = अच्छी लगी। सुधा = अमृत। सुधा सुधा करि = आत्मिक जीवन दाता निश्चय कर के। दइआल दीन = दीनों पर दया करने वाले। मारगु पंथु = आत्मिक जीवन का रास्ता।3। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु की शरण पड़े रहना (अपने) मन में पसंद आ जाता है, वह (गुरु के वचन को) आत्मिक-जीवन-दाता निश्चय करके (उसको) अपने अंदर बसाए रखता है। हे भाई! गुरु दीनों पर दया करने वाला है, गुरु परमात्मा के मिलाप का रास्ता दिखा देता है।3। सतिगुर सरनि पए से थापे तिन राखन कउ प्रभु आवैगो ॥ जे को सरु संधै जन ऊपरि फिरि उलटो तिसै लगावैगो ॥४॥ पद्अर्थ: से = वह लोग। थापे = थापना दी गई, आदर दिया गया। को = कोई। सरु = तीर। संधै = निशाना बाँधता है। उलटो = पलटा हुआ।4। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ते हैं, उनको आदर मिलता है, परमात्मा उनकी रक्षा करने के लिए स्वयं पहुँचता है। अगर कोई मनुष्य उन सेवकों पर तीर चलाता है, वह तीर पलट के उसी को ही आ लगता है।4। हरि हरि हरि हरि हरि सरु सेवहि तिन दरगह मानु दिवावैगो ॥ गुरमति गुरमति गुरमति धिआवहि हरि गलि मिलि मेलि मिलावैगो ॥५॥ पद्अर्थ: सरु = सरोवर, तालाब। हरि सरु = वह सरोवर जिसमें हरि-नाम-जल का प्रवाह चल रहा है, साधु-संगत। हरि सरु सेवहि = (जो मनुष्य) साधु-संगत की सेवा करते हैं। मानु = आदर। गुरमति = गुरु की मति ले के। गलि = गले से। मिलि = मिल के। मेलि = मेल में, अपने साथ।5। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य सदा ही साधु-संगत का आसरा लिए रखते हैं, परमात्मा उनको अपनी हजूरी में आदर दिलवाता है। जो मनुष्य सदा ही गुरु की शिक्षा पर चल के परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं, परमात्मा उनके गले से मिल के उनको अपने साथ एक-मेक कर लेता है।5। गुरमुखि नादु बेदु है गुरमुखि गुर परचै नामु धिआवैगो ॥ हरि हरि रूपु हरि रूपो होवै हरि जन कउ पूज करावैगो ॥६॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने वाला मनुष्य, गुरु की शरण। गुर परचै = गुरु की प्रसन्नता से। रूपो = रूप ही। होवै = हो जाता है। पूज = पूजा, आदर।6। अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य के लिए गुरु की शरण ही नाद है गुरु की शरण ही वेद है। गुरु की शरण पड़े रहने वाला मनुष्य गुरु की प्रसन्नता प्राप्त करके हरि-नाम स्मरण करता है। वह मनुष्य परमात्मा का ही रूप हो जाता है, परमात्मा (भी हर जगह) उसकी इज्जत कराता है।6। साकत नर सतिगुरु नही कीआ ते बेमुख हरि भरमावैगो ॥ लोभ लहरि सुआन की संगति बिखु माइआ करंगि लगावैगो ॥७॥ पद्अर्थ: साकत नर = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य। कीआ = बनाया। ते = वे मनुष्य (बहुवचन)। बेमुख = गुरु से मुँह घुमा के रखने वाले मनुष्य। भरमावैगो = भटकना में डाले रखता है। सुआन = कुक्ता। बिखु = आत्मिक मौत लाने वाला जहर। करंगि = करंग पर, मुर्दे पर।7। अर्थ: हे भाई! परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य गुरु को (अपना आसरा) नहीं बनाते, वे गुरु से मुँह घुमाए रखते हैं, प्रभु उनको भटकना में डाले रखता है, (उनके अंदर) लोभ की लहर चलती रहती है, (यह लहर) कुत्ते के स्वभाव जैसी है, (जैसे कुक्ता) मुर्दे पर जाता है (मुर्दे को खुश हो के खाता है, वैसे ही लोभ-लहर का प्रेरा हुआ मनुष्य) आत्मिक मौत लाने वाली माया-जहर को चिपका रहता है।7। राम नामु सभ जग का तारकु लगि संगति नामु धिआवैगो ॥ नानक राखु राखु प्रभ मेरे सतसंगति राखि समावैगो ॥८॥६॥ छका १ ॥ पद्अर्थ: तारकु = तैराने वाला। लगि = लग के। प्रभ मेरे = हे मेरे प्रभु! राखि = रख के। समावैगो = (अपने आप में) लीन किए रखता है।8। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम सारे जगत का पार लंघाने वाला है। (जो मनुष्य) साधु-संगत में टिक के हरि-नाम स्मरण करता है (वह संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है)। हे नानक! (अरदास कर और कह:) हे मेरे प्रभु! (मुझे भी साधु-संगत में) रखे रख। हे भाई! (परमात्मा प्राणी को) साधु-संगत में रख के (अपने में) लीन करे रखता है।8।6। छका1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |