श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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कानड़ा छंत महला ५    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

से उधरे जिन राम धिआए ॥ जतन माइआ के कामि न आए ॥ राम धिआए सभि फल पाए धनि धंनि ते बडभागीआ ॥ सतसंगि जागे नामि लागे एक सिउ लिव लागीआ ॥ तजि मान मोह बिकार साधू लगि तरउ तिन कै पाए ॥ बिनवंति नानक सरणि सुआमी बडभागि दरसनु पाए ॥१॥

पद्अर्थ: से = वे मनुष्य (बहुवचन)। जिन = जिन्होंने। कामि = काम में। सभि = सारे। धनि धंनि = सराहनीय। ते = वह बंदे। सत संगि = साधु-संगत में। जागे = माया के मोह की नींद में से जाग उठे। नामि = नाम में, नाम स्मरण में। एक सिउ = एक परमात्मा से। लिव = लगन, प्यार। तजि = त्याग के। साधू = भले मनुष्य। तरउ = मैं तैरता हूं। लगि तिन कै पाए = उनके चरणों में लग के। बिनवंति = विनती करता है। बडभागि = बड़ी किस्मत से।1।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने परमात्मा का नाम स्मरण किया, वे (विकारों की मार से) बच गए (आखिरी वक्त भी हरि-नाम ही उनका साथी बना)। माया (इकट्ठी करने) के प्रयत्न (तो) किसी के काम नहीं आते (माया यहीं ही धरी रह जाती है)। हे भाई! जिन्होंने प्रभु का नाम स्मरण किया, उन्होंने (मनुष्य जीवन के) सारे फल प्राप्त कर लिए, वे मनुष्य भाग्यशाली होते हैं, वे मनुष्य शोभा कमा के जाते हैं। वे मनुष्य साधु-संगत में टिक के (माया के हमलों से) सचेत रहे, वह हरि नाम में जुड़े रहे, उनकी (सदा) एक परमात्मा के साथ तवज्जो जुड़ी रही।

नानक विनती करता है: हे मेरे मालिक प्रभु! (जो मनुष्य अपने अंदर से) माण मोह विकार त्याग के ऊँचे आचरण वाले बन जाते हैं, (मुझे उनकी) शरण में (रख), उनके चरणों में लग के मैं (भी संसार-समुंदर से) पार लांघ सकूँ। बड़ी किस्मत से (ऐसे साधु जनों के) दर्शन प्राप्त होते हैं।1।

मिलि साधू नित भजह नाराइण ॥ रसकि रसकि सुआमी गुण गाइण ॥ गुण गाइ जीवह हरि अमिउ पीवह जनम मरणा भागए ॥ सतसंगि पाईऐ हरि धिआईऐ बहुड़ि दूखु न लागए ॥ करि दइआ दाते पुरख बिधाते संत सेव कमाइण ॥ बिनवंति नानक जन धूरि बांछहि हरि दरसि सहजि समाइण ॥२॥

पद्अर्थ: मिलि साधू = संत जनों को मिल के। भजह = आओ हम भजन करें। नाराइण = परमात्मा (नार = जाल। अयन = घर। समुंदर में जिसका घर है, विष्णु)। रसकि = स्वाद से। सुआमी = मालिक प्रभु। गाइ = गा के। जीवह = हम आत्मिक जीवन प्राप्त करें। अमिउ = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल, अमृत। पीवह = आओ हम पीएं। भागए = भागे, दूर हो जाता है। सत संगि = साधु-संगत में। पाईऐ = मिलता है। धिआईऐ = ध्याना चाहिए। बिधाते = हे विधाता! दाते = हे दातार! कमाइण = कमाने का अवसर। जन धूरि = संत जनों की चरण धूल। बाछहि = (जो मनुष्य) माँगते हैं। दरसि = दर्शन में। सहजि = आत्मिक अडोलता में। समाइण = लीनता।2।

अर्थ: हे भाई! आओ, संत जनों को मिल के सदा परमात्मा का भजन किया करें, और पूरे आनंद से मालिक-प्रभु के गुण गाया करें। हे भाई! प्रभु के गुण गा-गा के आत्मिक-जीवन देने वाला नाम-जल हम पीते रहें और आत्मिक जीवन हासिल करें। (हरि-नाम-जल की इनायत से) जनम-मरण के चक्कर समाप्त हो जाते हैं। हे भाई! (संत-जनों की संगति में) परमात्मा का नाम स्मरणा चाहिए, सत्संग में (ही) परमात्मा मिलता है, और पुनः कोई दुख छू नहीं सकता।

हे दातार! हे सर्व-व्यापक विधाता! (मेरे पर) मेहर कर, संत जनों की सेवा करने का अवसर दे। नानक विनती करता है (जो मनुष्य) संत जनों के चरणों की धूल माँगते हैं वे परमात्मा के दर्शन में आत्मिक अडोलता में लीनता हासिल कर लेते हैं।2।

सगले जंत भजहु गोपालै ॥ जप तप संजम पूरन घालै ॥ नित भजहु सुआमी अंतरजामी सफल जनमु सबाइआ ॥ गोबिदु गाईऐ नित धिआईऐ परवाणु सोई आइआ ॥ जप ताप संजम हरि हरि निरंजन गोबिंद धनु संगि चालै ॥ बिनवंति नानक करि दइआ दीजै हरि रतनु बाधउ पालै ॥३॥

पद्अर्थ: सगले जंत = हे सारे प्राणियो! गोपालै = गोपाल को, सृष्टि के पालनहार को। संजम = इन्द्रियों को वश में रखने का प्रयत्न। घाल = मेहनत। अंतरजामी = सबके दिल की जानने वाला। सबाइआ = सारा ही। गाईऐ = गाना चाहिए, महिमा करनी चाहिए। धिआईऐ = स्मरणा चाहिए। आइआ = जगत में पैदा हुआ। निरंजन = (निर+अंजन। अंजन = कालिख, माया के मोह की कालिख) निर्लिप। संगि = (जीव के) साथ। करि = कर के। दीजै = दे। बाधउ = मैं बाँध लूं। पालै = (अपने) पल्ले।3।

अर्थ: हे सारे प्राणियो! सृष्टि के पालनहार प्रभु का भजन किया करो। (यह भजन ही) जप-तप-संजम आदि सारी मेहनत है। हे प्राणियो! सदा अंतरजामी मालिक प्रभु का भजन किया करो (भजन की इनायत से) सारा ही जीवन कामयाब हो जाता है। हे प्राणियो! गोबिंद की महिमा करनी चाहिए, सदा स्मरण करना चाहिए, (जो स्मरण-भजन करता है) वही जगत में पैदा हुआ स्वीकार समझो।

हे प्राणियो! माया-रहत हरि का नाम-जपना ही जप-तप-संजम (आदि उद्यम) है। परमात्मा का (नाम-) धन ही (मनुष्य के) साथ जाता है। नानक विनती करता है (और कहता है = हे प्रभु!) मेहर करके (मुझे अपना) नाम-रतन दे, मैं (अपने) पल्ले बाँध लूँ।3।

मंगलचार चोज आनंदा ॥ करि किरपा मिले परमानंदा ॥ प्रभ मिले सुआमी सुखहगामी इछ मन की पुंनीआ ॥ बजी बधाई सहजे समाई बहुड़ि दूखि न रुंनीआ ॥ ले कंठि लाए सुख दिखाए बिकार बिनसे मंदा ॥ बिनवंति नानक मिले सुआमी पुरख परमानंदा ॥४॥१॥

पद्अर्थ: मंगलचार = खुशी के गीत, खुशियां। चोज = खुशी के करिश्मे। करि = कर के। परमानंद = परम आनंद का मालिक प्रभु, वह प्रभु जो सबसे ऊँचे आनंद का मालिक है। प्रभ मिले = प्रभु जी मिल पड़े। सुखहगामी = सुख पहुँचाने वाले। इछ = इच्छा। पुंनीआ = पूरी हो जाती है। बजी बधाई = वधाई बज पड़ती है, चिक्त उल्लास में आ जाता है। सहजे = आत्मिक अडोलता में। समाई = लीनता। बहुड़ि = दोबारा। मंदा = बुरा, विकार।4।

अर्थ: हे भाई! सबसे ऊँचे आनंद के मालिक प्रभु जी मेहर करके (जिस जीव-स्त्री को) मिल जाते हैं, (उसके हृदय में) आत्मिक आनंद खुशियाँ पैदा हो जाती हैं। हे भाई! सुख देने वाले मालिक-प्रभु जी (जिस जीव-स्त्री को) मिल जाते हैं, (उसके) मन की (हरेक) इच्छा पूरी हो जाती है, उसके चिक्त में उल्लास सा बना रहता है, वह आत्मिक अडोलता में टिकी रहती है, वह फिर कभी किसी दुख के कारण घबराती नहीं।

नानक विनती करता है: हे भाई! सबसे ऊँचे आनंद के मालिक प्रभु जी (जिस जीव-स्त्री को) मिल जाते हैं, जिसको गले से लगा लेते हैं, उसको (सारे) सुख दिखाते हैं, उसके अंदर से सारे विकार सारी बुराईयाँ नाश हो जाती हैं।4।1।


ੴ सतिगुर प्रसादि॥
कानड़े की वार महला ४

कानड़े की वार महला ४ मूसे की वार की धुनी

वार का भाव

पउड़ी वार:

त्यागी क्या और गृहस्थी क्या? - सबमें परमात्मा स्वयं बस रहा है। सब जीवों में खुद ही व्यापक हो के सब काम कर रहा है साधु-संगत में बैठ के ही मनुष्य उस सर्व-व्यापक परमात्मा की महिमा कर सकता है।

परमात्मा सब जीवों में व्यापक है। कोई गरीब है कोई अमीर है, हरेक में वह खुद ही मौजूद है। गरीब क्या और अमीर क्या? सब उसके दर के भिखारी हैं।

अनेक किस्मों की और रंग-बिरंगी यह सृष्टि परमात्मा ने स्वयं बनाई है, और, इस में हर जगह वह स्वयं मौजूद है। जिस मनुष्य पर परमात्मा स्वयं मेहर करता है उसको गुरु से मिलाता है, और, गुरु के द्वारा उसको अपना ज्ञान बख्शता है।

इस जगत-पसारे में सारे जीव परमात्मा के नाम का वणज करने आए हुए हैं। जीवों के लिए यही वणज है सबसे बढ़िया वणज। गुरु की शरण पडत्र कर जो मनुष्य यह नाम-वणज करता है वह मानव-जीवन का उद्देश्य हासिल कर लेता है।

जो मनुष्य गुरु की मति पर चल के परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं, उनके सारे पाप नाश हो जाते हैं, वे उस परमात्मा के साथ एक-मेक हो जाते हैं उसका रूप बन जाते हैं। भाग्यशाली हैं वे मनुष्य।

परमात्मा का नाम मनुष्य को आत्मिक जीवन देता है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर हरि-नाम स्मरण करता है, उस पर जगत की माया अपना प्रभाव नहीं डाल सकती। यह आश्चर्यजनक खेल है कि परमात्मा सबमें व्यापक होता हुआ सदा निर्लिप भी रहता है।

जो मनुष्य गुरु के बताए हुए राह पर चल कर परमात्मा का नाम जपता है उसके अंदर सदा आत्मिक आनंद हिल्लोरे मारता रहता है। उसकी आत्मा बलवान हो जाती है, जगत के विकार उस पर अपना जोर नहीं छाल सकते।

साधु-संगत गुरु की पाठशाला है। उस पाठशाला में वाणी के द्वारा गुरु पाठशाला में आए सिखों को परमात्मा की महिमा की विधि सिखाता है। महिमा की इनायत से ही परमात्मा के दर्शन होते हैं।

जिस मनुष्य पर परमात्मा की मेहर होती है उसको गुरु मिलता है। गुरु के बताए हुए राह पर चल के मनुष्य परमात्मा की महिमा करता है, और उसके साथ एक-रूप हो जाता है।

गुरु के डाले हुए पद्चिन्हों पर चल के ही मनुष्य परमात्मा के नाम में लीन हो सकता है। मनुष्य की सारी जिंदगी में वही वक्त भाग्यशाली होता है जब मनुष्य परमात्मा की याद में जुड़ता है। परमात्मा की सेवा-भक्ति ही जिंदगी का असल उद्देश्य है।

अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य जिंदगी की बाजी हार के जाता है। भाग्यशाली है वह जो गुरु के हुक्म में चल के नाम जपता है, उसको कोई दुख-दर्द पोह नहीं सकता।

इसमें रक्ती भर भी शक नहीं कि जो मनुष्य नाम स्मरण करता है वह परमात्मा के साथ एक-रूप हो जाता है। भाग्यशाली वही मनुष्य है जो साधु-संगत में मिलता है, संगति मेंसे ही गुरु से स्मरण का उपदेश मिलता है।

सर्व-व्यापक और सर्व-पालक विधाता प्रभु ही सदा साथ निभने वाला साथी है। जो मनुष्य उसका नाम स्मरण करता है उसको निश्चय हो जाता है कि परमात्मा हरेक शरीर के अंदर मौजूद है।

गुरु की संगति में मिल के परमात्मा का नाम जपने से मनुष्य-जीवन के रारस्ते में कोई विकार अपना जोर नहीं डाल सकते, मन की सारी वासनाएं समाप्त हो जाती हैं।

महिमा की इनायत से मनुष्य की अनेक जन्मों की विकारों की मैल उतर जाती है। जो मनुष्य परमात्मा की भक्ति करता है वह संसार-समुंदर में से पार लांघ जाता है, अपने साथियों-सन्बंधियों को भी पार लंघा लेता है।

लड़ी-वार भाव:

(1 से 5) यह रंग-बिरंगी सृष्टि प्रभु ने खुद बनाई है और इसमें हर जगह वह स्वयं बस रहा है।

(6 से 10) हरेक जगह व्यापक होते हुए भी परमात्मा निर्लिप रहता है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर गुरु की संगति में रह के उसका नाम जपता है, उस पर जगत की माया अपना प्रभाव नहीं डाल सकती।

(11 से 15) उसी मनुष्य की जिंदगी कामयाब है जो गुरु की संगति में रह के परमात्मा की महिमा में भी समय खर्च करता है, उसके अनेक जन्मों के विकारों की मैल दूर हो जाती है।

मुख्य भाव:

गुरु की संगति में परमात्मा का नाम जपने से जगत के विकार अपना जोर नहीं डाल सकते। जिंदगी की वही घड़ी भाग्यशली है जो परमात्मा की याद में गुजरे।

वार की संरचना:

यह ‘वार’ गुरु रामदास जी की उचारी हुई है, इसमें 15 पउड़ियां और 80 शलोक हैं, ये सारे शलोक भी गुरु रामदास जी के हैं।

पाँचवीं, दसवी और पन्द्रहवीं पउड़ी में शब्द ‘नानक’ बरता हुआ है। जिसका भाव यह है कि लड़ी वार इस वार के तीन हिस्से हैं।

हरेक पौड़ी की पाँच-पाँच तुके हैं। तुकों का आकार लगभग एक जितना ही है। पर, श्लोकों का आकार बड़ा-छोटा है। सहज ही यही अनुमान लग सकता है कि जब यह ‘वार’ लिखी गई थी, उस वक्त के शलोक नहीं हैं।

सलोक गुरु अरजन साहिब जी ने दर्ज किए:

गुरु रामदास जी की ‘आठ’ ‘वारें’ हैं, निम्न-लिखित रागों में–सिरी राग, गउड़ी, बिहागड़ा, वडहंस, सोरठि, बिलावल, सारंग और कानड़ा।

सिरी राग– इस राग की ‘वार’ में 21 पौड़ियां हैं। पौड़ी नं 15 के साथ एक ही शलोक गुरु अरजन साहिब जी का है और एक शलोक गुरु अंगद देव जी का। अगर गुरु रामदास जी खुद ही सलोक भी पौड़ियों के साथ दर्ज करते, तो पौड़ी नं: 15 के साथ भी दो ही शलोक दर्ज करते। अधूरी ना रहने देते। सारे सलोक गुरु अरजन साहिब ने स्वयं ही दर्ज किए हैं।

गउड़ी– पौड़ी नं: 32 के साथ दोनों ही शलोक गुरु अरजन साहिब जी के हैं। यहाँ भी वही दलील काम करती है। सारे सलोक गुरु अरजन साहिब जी ने दर्ज किए।

बिहागड़ा– इस ‘वार’ में 21 पौड़ियां हैं। पौड़ी नं: 14 के साथ दोनों सलोक गुरु अरजन देव जी के हैं।। सारे ही सलोक गुरु अरजन साहिब जी ने दर्ज किए।

सारंग– इस ‘वार’ की 36 पौड़ियां हैं। नं: 35 गुरु अरजन साहिब की है। पौड़ी नं: 26 के साथ एक शलोक गुरु अरजन साहिब जी का है, और पौड़ी नंबर 36 के साथ दोनों शलोक गुरु अरजन साहिब जी के हैं। उपरोक्त दलील के अनुसार सारे ही शलोक गुरु अरजन साहिब जी ने दर्ज किए थे।

आठ ‘वारों’ में से चार ‘वारें’ प्रत्यक्ष रूप से ऐसी मिलती हैं जहाँ शलोक गुरु रामदास जी ने दर्ज नहीं किए। बाकी की चार ‘वारें’ –वडहंस, सोरठि, बिलावल और कानड़ा – में भी काव्य-दृष्टिकोण से वही नियम मानना पड़ेगा। इन ‘वारों’ में भी शलोक गुरु अरजन साहिब जी ने ही दर्ज किए थे।

यह नियम बाँधा गुरु नानक देव जी ने स्वयं:

गुरु नानक देव जी द्वारा सबसे पहले लिखी हुई ‘वार’ मलार राग में दर्ज है। इस ‘वार’ में 28 पौड़ियां हैं। पौड़ी नं: 27 गुरु अरजन साहिब की है। बाकी 27 गुरु नानक देव जी की हैं।

पौड़ी नं: 5,6,7,8,9,10,11,12 और 13 के साथ सारे ही शलोक गुरु अमरदास जी के हैं। पौड़ी नं: 14 के साथ के दोनों ही शलोक गुरु अरजन देप जी के हैं। फिर पौड़ी नं: 15,16,17 और 18 के साथ के सारे ही शलोक गुरु अमरदास जी के। बस! सीधी और साफ बात है कि ये सलोक गुरु अरजन देव जी ने दर्ज किए।

सारी ही ‘वारों’ में यही तरीका बरता गया।

कानड़े की वार महला ४ मूसे की वार की धुनी

गुरु रामदास जी की इस वार को मूसे की वार की सुर में गाना है।

मूसा एक शूरवीर था, इसकी मंगेतर किसी राजे के साथ बयाही गई। मूसे ने उस राजा पर हमला बोल के राजा और उस अपनी मंगेतर को पकड़ कर ले आया। पर, जब उसने स्त्री से पूछा कि तू किसके साथ रहना चाहती है, उसने उक्तर दिया कि जिसके साथ मैं ब्याही गई हूँ। मूसे ने ये सुन के राजा को और स्त्री को माफ करके बा–इज्जत उन्हें वापस भेज दिया। मूसे की इस बहादुरी और खुलदिली पर ढाढियों ने वारें लिखीं, जिसकी बतौर नमूने एक पौड़ी इस प्रकार है;

त्रै सै सठ मरातबा इक गुरीए डगै॥ चढ़िआ मूसा पातशाह सभ जग परखै॥ चंद चिटे बड हाथीआ कहु कित वरगे॥ रुत पछाती बगलिआं घट काली अगै॥ एही कीती मूसिआ किन करी न अगै॥

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

सलोक मः ४ ॥ राम नामु निधानु हरि गुरमति रखु उर धारि ॥ दासन दासा होइ रहु हउमै बिखिआ मारि ॥ जनमु पदारथु जीतिआ कदे न आवै हारि ॥ धनु धनु वडभागी नानका जिन गुरमति हरि रसु सारि ॥१॥

पद्अर्थ: निधानु = खजाना। उर = हृदय। धारि = धार के, टिका के। बिखिआ = माया। मारि = मार के। जनमु पदारथु = कीमती मानव जनम। हारि = बाजी हार के। न आवै = नहीं आता। जिन = जिन्होंने। रसु = स्वाद। सारि = संभाला है, चखा है।1।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम (असल) खजाना (है) सतिगुरु की शिक्षा पर चल कर (इसको अपने) हृदय में परोए रख। (इस नाम की इनायत से) अहंकार (-रूप) माया (के प्रभाव) को (अपने अंदर से) खत्म कर के (परमात्मा के) सेवकों का सेवक बना रह। (जो मनुष्य यह उद्यम करता है, वह) मानव-जनम का कीमती उद्देश्य हासिल करके (जगत से मनुष्य-जीवन की बाज़ी) हार के कभी नहीं आता।

हे नानक! धन्य है वे भाग्यशाली मनुष्य, जिन्होंने सतिगुरु की शिक्षा पर चल कर परमात्मा के नाम का स्वाद चखा है।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh