श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मः ४ ॥ हरि प्रभु सजणु लोड़ि लहु भागि वसै वडभागि ॥ गुरि पूरै देखालिआ नानक हरि लिव लागि ॥२॥

पद्अर्थ: लोड़ि लहु = ढूँढ लो। भागि = किस्मत से। वडभागि = बड़ी किस्मत से। गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। लिव = लगन, तवज्जो, ध्यान।

अर्थ: (हे भाई! , गुरु की शरण पड़ के) मित्र प्रभु को ढूँढ लो, (वह मित्र प्रभु) किस्मत से बड़ी किस्मत से (हृदय में आ) बसता है। हे नानक! (कह: हे भाई!) जिस मनुष्य को पूरे गुरु ने (उसके) दर्शन करवा दिए, उसकी तवज्जो (हर वक्त) हरि-प्रभु में लगी रहती है।2।

पउड़ी ॥ धनु धनु सुहावी सफल घड़ी जितु हरि सेवा मनि भाणी ॥ हरि कथा सुणावहु मेरे गुरसिखहु मेरे हरि प्रभ अकथ कहाणी ॥ किउ पाईऐ किउ देखीऐ मेरा हरि प्रभु सुघड़ु सुजाणी ॥ हरि मेलि दिखाए आपि हरि गुर बचनी नामि समाणी ॥ तिन विटहु नानकु वारिआ जो जपदे हरि निरबाणी ॥१०॥

पद्अर्थ: धनु धनु = धन्य धन्य, भाग्यशाली। सुहावी = सुखावीं, सुलक्षणी, सुंदर। जितु = जिस (घड़ी) में। मनि = मन में। भाणी = प्यारी लगी। प्रभ अकथ कहाणी = अकथ प्रभु की महिमा की बात। पाइऐ = मिलता है। किउ = कैसे? सुघड़ु = सुंदर घाड़त वाला। नामि = नाम में। विटहु = से। वारिआ = कुर्बान। निरबाणी = वासना रहित, निर्लिप।

अर्थ: (हे भाई! मनुष्य के लिए वह) घड़ी भाग्यशाली होती है मनुष्य जीवन का उद्देश्य पूरा करने वाली होती है। जिस में (मनुष्य को अपने) मन में परमात्मा की सेवा-भक्ति अच्छी लगती है।

हे मेरे गुरु के सिखो! तुम मुझे भी अकथ प्रभु की महिमा की बातें सुनाओ (और बताओ कि) वह सुंदर समझदार प्रभु कैसे मिल सकता है कैसे उसका दर्शन हो सकता है।

हे भाई! गुरु के वचनों पर चल के जिस मनुष्यों की तवज्जो परमात्मा के नाम में लीन होती है उनको परमात्मा स्वयं (अपने चरणों में) जोड़ के अपना दर्शन करवाता है। हे भाई! नानक उनसे सदके जाता है जो निर्लिप परमात्मा (का नाम हर वक्त) जपते हैं।10।

सलोक मः ४ ॥ हरि प्रभ रते लोइणा गिआन अंजनु गुरु देइ ॥ मै प्रभु सजणु पाइआ जन नानक सहजि मिलेइ ॥१॥

पद्अर्थ: रते = रंगे हुए। लोइणा = आँखें। गिआन = आत्मिक जीवन की सूझ। अंजनु = सुरमा। देइ = देता है। मै प्रभु = मेरा प्रभु, प्यारा प्रभु। सहजि = आत्मिक अडोलता में।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! जिस मनुष्यों को) गुरु आत्मिक जीवन की सूझ का सुरमा देता है, उनकी आँखें प्रभु के प्यार में रंगी जाती हैं, उनको प्यारा प्रभु मिल जाता है, वे मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिके रहते हैं।

मः ४ ॥ गुरमुखि अंतरि सांति है मनि तनि नामि समाइ ॥ नामु चितवै नामो पड़ै नामि रहै लिव लाइ ॥ नामु पदारथु पाईऐ चिंता गई बिलाइ ॥ सतिगुरि मिलिऐ नामु ऊपजै त्रिसना भुख सभ जाइ ॥ नानक नामे रतिआ नामो पलै पाइ ॥२॥

पद्अर्थ: गुरमुखि = जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहता है। अंतरि = अंदर। मनि तनि = मन से तन से, तन मन से। नामि = नाम में। चितवै = चेते करता है। लिव = लगन। लाइ = लगा के। पाईऐ = मिलता है। गई बिलाइ = दूर हो जाती है। सतिगुरि मिलिऐ = अगर गुरु मिल जाए। नामे = नाम में ही। नामो = नाम ही। पलै पाइ = मिलता है।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के बताए हुए राह पर चलता है उसके अंदर शांति बनी रहती है वह मन से तन से (हर वक्त परमात्मा के) नाम में लीन रहता है, वह (सदा) नाम चेते करता है वह सदा नाम ही पढ़ता है, वह हरि-नाम में तवज्जो जोड़े रखता है।

(हे भाई! अगर गुरु मिल जाए तो परमात्मा का) कीमती नाम हासिल हो जाता है (जिसको हासिल होता है उसके अंदर से) चिन्ता दूर हो जाती है। अगर गुरु मिल जाए तो (मनुष्य के अंदर) नाम (का बूटा) उग पड़ता है (जिसकी इनायत से माया की) प्यास (माया की) भूख सारी दूर हो जाती है।

हे नानक! अगर परमात्मा के नाम में रंगे रहें तो ही नाम मिलता है।2।

पउड़ी ॥ तुधु आपे जगतु उपाइ कै तुधु आपे वसगति कीता ॥ इकि मनमुख करि हाराइअनु इकना मेलि गुरू तिना जीता ॥ हरि ऊतमु हरि प्रभ नामु है गुर बचनि सभागै लीता ॥ दुखु दालदु सभो लहि गइआ जां नाउ गुरू हरि दीता ॥ सभि सेवहु मोहनो मनमोहनो जगमोहनो जिनि जगतु उपाइ सभो वसि कीता ॥११॥

पद्अर्थ: उपाइ कै = पैदा करके। वसगति = वश में। इकि = कई जीव। मनमुख = (अपने) मन के मुरीद। करि = कर के। हाराइअनु = उस ने (जीवन बाजी में) हरा दिए। मेलि = मिला के। ऊतमु = (जीवन को) ऊँचा करने वाला। गुरबचनि = गुरु के उपदेश से। सभागै = भाग्यशाली (मनुष्य) ने। सभि = सारे। जिनि = जिस (प्रभु) ने। वसि = (अपने) वश में।

अर्थ: हे प्रभु! तूने स्वयं ही जगत पैदा करके (इसको) स्वयं ही तूने (अपने) वश में रखा हुआ है।

हे भाई! कई जीवों को मन का मुरीद बना के उस (परमात्मा) ने (जीवन-खेल में) हार दे दी है, पर कईयों को गुरु मिला के (उसने ऐसा बना दिया है कि) उन्होंने (जीवन की बाज़ी) जीत ली है।

हे भाई! परमात्मा का नाम (मनुष्य के जीवन को) ऊँचा करने वाला है, पर किसी भाग्यशाली ने (ही) गुरु के उपदेश से (यह नाम) स्मरण किया है। जब गुरु ने परमात्मा का नाम (किसी भाग्यशाली को) दिया, तो उसका सारा दुख सारा दरिद्र दूर हो गया।

हे भाई! तुम सभी उस मन-मोहन प्रभु का जग-मोहन प्रभु का नाम स्मरण किया करो, जिसने जगत पैदा करके यह सारा अपने वश में रखा हुआ है।11।

सलोक मः ४ ॥ मन अंतरि हउमै रोगु है भ्रमि भूले मनमुख दुरजना ॥ नानक रोगु वञाइ मिलि सतिगुर साधू सजना ॥१॥

मः ४ ॥ मनु तनु तामि सगारवा जां देखा हरि नैणे ॥ नानक सो प्रभु मै मिलै हउ जीवा सदु सुणे ॥२॥

पद्अर्थ: भ्रमि = (माया की) भटकना में पड़ के। भूले = गलत रास्ते पर पड़े रहते हैं। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। वञाए = दूर कर। मिलि = मिल के।1।

नोट: वारां ते वधीक सलोक महला ४ में नंबर 29 पर यह शलोक मिलता है, थोड़ा सा फर्क है।

पद्अर्थ: तामि = तब ही। सगारवा = गौरा, आदर योग। देखा = मैं देख सकूँ। नैणे = आँखों से। मै = मुझे। हउ = मैं। जीवा = जीऊँ, मैं आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ। सदु = (उसकी) आवाज़, महिमा की बात। सुणे = सुन के।2।

अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले दुराचारी मनुष्य भटकना के कारण गलत राह पर पड़े रहते हैं (क्योंकि) उनके मन में अहंकार (का) रोग (टिका रहता) है। हे नानक! (कह: हे भाई!) साधु-सज्जन गुरु को मिल के (ही यह) रोग दूर (दूर किया जा सकता है)।1।

महला ४। हे भाई! (मेरा यह) मन और शरीर तब ही आदर-योग हो सकता है, जब मैं (अपनी) आँखों से परमात्मा के दर्शन कर सकूँ। हे नानक! (कह: हे भाई! जब) वह प्रभु मुझे मिलता है, तब मैं उसकी महिमा की बात सुन के आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ।2।

पउड़ी ॥ जगंनाथ जगदीसर करते अपर्मपर पुरखु अतोलु ॥ हरि नामु धिआवहु मेरे गुरसिखहु हरि ऊतमु हरि नामु अमोलु ॥ जिन धिआइआ हिरदै दिनसु राति ते मिले नही हरि रोलु ॥ वडभागी संगति मिलै गुर सतिगुर पूरा बोलु ॥ सभि धिआवहु नर नाराइणो नाराइणो जितु चूका जम झगड़ु झगोलु ॥१२॥

पद्अर्थ: जगंनाथ = हे जगत के नाथ! जगदीसर = हे जगत के ईश्वर! करते = हे कर्तार! अपरंपरु = हे बेअंत! पुरख = सर्व व्यापक। अतोलु = जिसकी हस्ती का अंदाजा ना लग सके। ऊतमु = जीवन को ऊँचा बनाने वाला। अमोलु = जो किसी (माया आदि की) कीमत से ना मिल सके। हिरदै = हृदय में। रोलु = शक। मिलै = मिलता है। पूरा बोलु = पूरन उपदेश। सभि = सारे। जितु = जिस (स्मरण) से। झगड़ु झगोलु = झगड़ा रगड़ा।

अर्थ: हे जगत के नाथ! हे जगत के मालिक! हे बेअंत कर्तार! तू सर्व-व्यापक है, तेरी हस्ती का अंदाजा नहीं लग सकता।

हे मेरे गुरु के सिखो! परमात्मा का नाम स्मरण किया करो, परमात्मा का नाम जीवन को ऊँचा करने वाला है (पर) वह नाम किसी मूल्य से नहीं मिलता। जिस मनुष्यों ने दिन-रात (हर वक्त) अपने हृदय में हरि-नाम स्मरण किया, वे मनुष्य परमात्मा के साथ एक-रूप हो गए, इसमें कोई शक नहीं है। (पर) बड़े भाग्यों से मनुष्य गुरु की संगति में मिलता है (और संगति में से उसको) गुरु का पूर्ण उपदेश मिलता है (जिसकी इनायत से वह हरि-नाम स्मरण करता है)।

(सो, हे भाई! गुरु की संगति में मिल के) सभी परमात्मा का नाम स्मरण किया करो जिसकी इनायत से जम का रगड़ा-झगड़ा समाप्त हो जाता है।12।

सलोक मः ४ ॥ हरि जन हरि हरि चउदिआ सरु संधिआ गावार ॥ नानक हरि जन हरि लिव उबरे जिन संधिआ तिसु फिरि मार ॥१॥

पद्अर्थ: चउदिआ = उचारते हुओं को। सरु = तीर। संधिआ = चलाया, निशाना साधा। गावार = मूर्खों ने। लिव = तवज्जो, ध्यान। उबरे = बच गए। जिनि = जिस (मूर्ख) ने। फिरि = पलट के। मार = मौत, आत्मिक मौत।1।

अर्थ: हे नानक! मूर्ख मनुष्य ही परमात्मा का नाम जपने वाले संत-जनों पर तीर चलाते हैं। पर, वे संत-जन तो परमात्मा में तवज्जो जोड़ के बच निकलते हैं। जिस (मूर्ख) ने (तीर) चलाया होता है, उसको ही पलट के मौत आती है (भाव, संत से वैर करने वाले मनुष्य आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं)।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh