श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मः ४ ॥ अखी प्रेमि कसाईआ हरि हरि नामु पिखंन्हि ॥ जे करि दूजा देखदे जन नानक कढि दिचंन्हि ॥२॥

पद्अर्थ: प्रेमि = प्रेम ने। कसाईआ = कसक डाली, खींच डाली। पिखंन्हि = देखते हैं। दूजा = प्रभु के बिना कुछ और। कढि दिचंन्हि = निकाल दिए जाते हैं।2।

अर्थ: म: ४। (हे भाई! वही लोग हर जगह) परमात्मा का नाम देखते हैं, जिनकी आँखों को प्रेम ने कसक डाली होती है। पर, हे नानक! जो मनुष्य (प्रभु को छोड़ के) और-और को देखते हैं वे प्रभु की हजूरी में से निकाल दिए जाते हैं।2।

पउड़ी ॥ जलि थलि महीअलि पूरनो अपर्मपरु सोई ॥ जीअ जंत प्रतिपालदा जो करे सु होई ॥ मात पिता सुत भ्रात मीत तिसु बिनु नही कोई ॥ घटि घटि अंतरि रवि रहिआ जपिअहु जन कोई ॥ सगल जपहु गोपाल गुन परगटु सभ लोई ॥१३॥

पद्अर्थ: जलि = जल में। थलि = धरती में। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पर, अंतरिक्ष में, आकाश में। अपरंपरु = परे से परे, बेअंत। सुत = पुत्र। भ्रात = भाई। घटि घटि = हरेक घट में। रवि रहिआ = व्यापक है। जन = हे संत जनो! सगल = सारे। लोई = सृष्टि में।

अर्थ: (हे भाई!) वह बेअंत (परमात्मा) ही जल में धरती में आकाश में (हर जगह) व्यापक है, वह सारे जीवों की पालना करता है, जो कुछ वह करता है वही होता है। (हे भाई! सदा साथ निभने वाला) माता-पिता-पुत्र-भाई-मित्र उस (परमात्मा) के बिना और कोई नहीं है। हे संत जनो! कोई पक्ष भी जप के देख लो (जो भी जपता है उसको निश्चय हो जाता है कि वह परमात्मा) हरेक शरीर में (सबके) अंदर व्यापक है। हे भाई! सारे उस गोपाल प्रभु के गुण याद करते रहो, वह प्रभु सारी सृष्टि में प्रत्यक्ष (बसता दिखाई दे रहा) है।13।

सलोक मः ४ ॥ गुरमुखि मिले सि सजणा हरि प्रभ पाइआ रंगु ॥ जन नानक नामु सलाहि तू लुडि लुडि दरगहि वंञु ॥१॥

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की ओर मुँह कर के, गुरु के सन्मुख रह के। से = वह लोग। सजणा = अच्छे जीवन वाले मनुष्य। प्रभ रंगु = परमात्मा का प्यार। सालाहि = महिमा करा कर। लुडि लुडि = बेफिक्र हो के। वंञु = जा।

अर्थ: हे दास नानक! (कह: हे भाई!) जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर (प्रभु की याद में) जुड़े रहते हैं (और इस तरह जिन्होंने) परमात्मा का प्रेम हासिल कर लिया, वह अच्छे जीवन वाले बन जाते हैं। हे भाई! तू भी प्रभु की महिमा (सदा) करता रह, परमात्मा की हजूरी में बेफिक्र हो के जाएगा।1।

मः ४ ॥ हरि तूहै दाता सभस दा सभि जीअ तुम्हारे ॥ सभि तुधै नो आराधदे दानु देहि पिआरे ॥ हरि दातै दातारि हथु कढिआ मीहु वुठा सैसारे ॥ अंनु जमिआ खेती भाउ करि हरि नामु सम्हारे ॥ जनु नानकु मंगै दानु प्रभ हरि नामु अधारे ॥२॥

पद्अर्थ: सभस दा = सब जीवों का। सभि = सारे। जीअ = जीव। देहि = तू देता है। पिआरे = हे प्यारे! दातै = दाते ने। दातारि = दातार ने। वुठा = बसा। सैसारे = संसार में। जंमिआ = पैदा हुआ। खेती भाउ = प्रेम रूप खेती। करि = कर के, करने से। समारे = संभाले। अधारे = आसरा।

नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।

अर्थ: हे प्रभु! तू ही सारे जीवों को दातें देने वाला है, सारे जीव तेरे ही (पैदा किए हुए) हैं। सारे जीव (दुनिया के पदार्थों के लिए) तुझे ही याद करते हैं, और, हे प्यारे! तू (सबको) दान देता है। (हे भाई!) हरि दाते ने हरि दातार ने (जब अपनी मेहर का) हाथ निकाला तब जगत में (गुरु के उपदेश की) वर्षा हुई। (जो मनुष्य गुरु की शरण आता है) प्रेम- (रूप) खेती करने से (उसके अंदर परमात्मा का नाम-) फसल उग जाती है, (वह हर वक्त) परमात्मा का नाम (हृदय में) बसाता है।

हे प्रभु! (तेरा) दास नानक (भी तेरे नाम की) ख़ैर (तुझसे) माँगता है, तेरा नाम (दास नानक की जिंदगी का) आसरा (बना रहे)।2।

पउड़ी ॥ इछा मन की पूरीऐ जपीऐ सुख सागरु ॥ हरि के चरन अराधीअहि गुर सबदि रतनागरु ॥ मिलि साधू संगि उधारु होइ फाटै जम कागरु ॥ जनम पदारथु जीतीऐ जपि हरि बैरागरु ॥ सभि पवहु सरनि सतिगुरू की बिनसै दुख दागरु ॥१४॥

पद्अर्थ: पूरीऐ = पूरी हो जाती है। जपीऐ = जपना चाहिए। सुख सागरु = सुखों का समुंदर प्रभु। आराधीअहि = आराधने चाहिए। सबदि = शब्द से। रतनागरु = रत्नों की खान। मिलि = मिल के। उधारु = पार उतारा। फाटै = फट जाता है, दरार डालता है। कागरु = (लेखे वाला) कागज़। जीतीऐ = जीत लेना है। जपि = जप के। बैरागरु = प्यार का श्रोत। सभि = सारे। बिनसै = नाश हो जाता है। दागरु = दाग़, निशान।

अर्थ: (हे भाई!) सुखों के समुंदर परमात्मा का नाम जपना चाहिए गुरु के शब्द से रत्नों की खान प्रभु की आराधना करनी चाहिए, प्रभु के चरणों की आराधना करनी चाहिए। (स्मरण-आराधना की इनायत से) मन की (हरेक) इच्छा पूरी हो जाती है (मन की वासनाएं समाप्त हो जाती हैं)। हे भाई! गुरु की संगति में मिल के (नाम-जपने से संसार-समुंदर से) पार-उतारा हो जाता है, यमराज का (लेखे वाला) कागज़ फट जाता है। प्यार के श्रोत परमात्मा का नाम जप के कीमती मनुष्य-जनम की बाज़ी जीत ली जाती है।

हे भाई! सभी गुरु की शरण पड़े रहो (गुरु की शरण पड़ कर नाम जपने से मन में) दुखों का निशान ही मिट जाता है।14।

सलोक मः ४ ॥ हउ ढूंढेंदी सजणा सजणु मैडै नालि ॥ जन नानक अलखु न लखीऐ गुरमुखि देहि दिखालि ॥१॥

पद्अर्थ: हउ = मैं। अलखु = जिसका सही स्वरूप बयान ना किया जा सके। न लखीऐ = बयान नहीं किया जा सकता। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले बंदे। देहि दिखालि = दर्शन करवा देते हैं।1।

अर्थ: (हे सहेलिए!) मैं सज्जन (प्रभु) को (बाहर) ढूँढ रही थी (पर, गुरु के माध्यम से समझ आई है कि वह) सज्जन (प्रभु तो) मेरे साथ ही है (मेरे अंदर ही बसता है)। हे दास नानक! (कह: हे सहेलिए!) वह प्रभु अलख है उसका सही स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता। गुरु के सन्मुख रहने वाले (संत जन उसके) दर्शन करवा देते हैं।1।

नोट: फरीद जी के शलोकों में नंबर: 121 पर भी यही श्लोक मिलता है, बस थोड़ा सा फर्क है।

मः ४ ॥ नानक प्रीति लाई तिनि सचै तिसु बिनु रहणु न जाई ॥ सतिगुरु मिलै त पूरा पाईऐ हरि रसि रसन रसाई ॥२॥

पद्अर्थ: तिनि सचै = उस सदा कायम रहने वाले ने स्वयं (ही)। पाईऐ = पा लेते हैं। रसि = रस में। रसन = जीभ। रसाई = रसी रहती है।2।

म: ४। हे नानक! (कह: हे भाई! जिस मनुष्य के अंदर) उस सदा कायम रहने वाले परमात्मा ने (अपना) प्यार (स्वयं ही) पैदा किया है (वह मनुष्य) उस (की याद) के बिना रह नहीं सकता। (जिस गुरु की) जीभ परमात्मा के नाम-रस में सदा रसी रहती है (जब वह) गुरु मिलता है तब वह पूरन प्रभु भी मिल जाता है।2।

पउड़ी ॥ कोई गावै को सुणै को उचरि सुनावै ॥ जनम जनम की मलु उतरै मन चिंदिआ पावै ॥ आवणु जाणा मेटीऐ हरि के गुण गावै ॥ आपि तरहि संगी तराहि सभ कुट्मबु तरावै ॥ जनु नानकु तिसु बलिहारणै जो मेरे हरि प्रभ भावै ॥१५॥१॥ सुधु ॥

पद्अर्थ: कोई = जो कोई मनुष्य। गावै = गाता है। को = जो कोई मनुष्य। उचरि = उचार के, बोल के। मन चिंदिआ = मन इच्छित (फल)। आवणु जाणा = पैदा होना मरना। तरहि = (संसार समुंदर से) पार लांघ जाते हैं। संगी = साथियों को। तराहि = पार लंघाते हैं। कुटंबु = परिवार। तरावै = पार लंघा लेता है। प्रभ भावै = प्रभु को प्यारा लगता है।

अर्थ: हे भाई! जो कोई मनुष्य (परमात्मा के महिमा के गीत) गाता है अथवा सुनता है अथवा बोल के (और लोगों को) सुनाता है, उसके अनेक जन्मों की (विकारों की) मैल उतर जाती है वह मन-इच्छित फल पा लेता है। हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के गुण गाता है उसका पैदा होने मरने का चक्कर समाप्त हो जाता है।

(हे भाई! परमात्मा के महिमा के गीत गाने वाले मनुष्य) स्वयं (संसार-समुंदर से) पार लांघ जाते हैं, साथियों को पार लंघा लेते हैं। (हे भाई! महिमा करने वाला मनुष्य अपने) सारे परिवार को पार लंघा लेता है।

हे भाई! दास नानक उस मनुष्य से सदा सदके जाता है जो (महिमा करने की इनायत से) प्यारे प्रभु को प्यारा लगता है।15।1। सुधु।

रागु कानड़ा बाणी नामदेव जीउ की    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

ऐसो राम राइ अंतरजामी ॥ जैसे दरपन माहि बदन परवानी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: राम राइ = राम राय, प्रकाश-रूप परमात्मा, शुद्ध स्वरूप हरि। अंतरजामी = (अन्तर+या। या = जाना, पहुँचना। अंतर = अंदर) हरेक जीव के धुर अंदर तक पहुँचने वाला, हरेक के अंदर बैठा हुआ, हरेक के दिल की बात जानने वाला। दरपन = शीशा। बदन = मुँह। परवानी = प्रत्यक्ष।1। रहाउ।

अर्थ: शुद्ध स्वरूप परमात्मा ऐसा है कि वह हरेक जीव के अंदर बैठा हुआ है (पर, हरेक के अंदर बसता भी ऐसे) प्रत्यक्ष (निर्लिप रहता है) जैसे शीशे में (शीशा देखने वाले का) मुँह।1। रहाउ।

बसै घटा घट लीप न छीपै ॥ बंधन मुकता जातु न दीसै ॥१॥

पद्अर्थ: घटा घट = हरेक घट में। लीप = माया का लेप, माया का असर। छीपे = (संस्कृत: क्षेप, painting, besmearing) लेप, दाग़। न जातु = कभी भी नहीं।1।

नोट: ‘जातु’, इस शब्द के मेल को ध्यान से देखें, आखिर में ‘ु’ की मात्रा है। जिस शब्द ‘जाति’ का अर्थ है ‘कुल’, उसके आखिर में मात्रा ‘ि’ लगी होती है। इस तरह शब्द ‘जातु’ और ‘जाति’ अलग अलग शब्द हैं। (संस्कृत शब्द ‘जातु’ का अर्थ है: at all, ever, at any time, possibly. ‘न जातु–not at all, never, not at any time) कभी भी, किसी वक्त।

अर्थ: शुद्ध स्वरूप परमात्मा ऐसा है कि वह हर एक जीव के अंदर है (पर) उस पर माया का कोई असर नहीं होता। वह माया के बंधनों में फसा हुआ नहीं नजर आता।1।

पानी माहि देखु मुखु जैसा ॥ नामे को सुआमी बीठलु ऐसा ॥२॥१॥

पद्अर्थ: बीठलु = जो माया के प्रभाव से परे है, पर निर्लिप भी है।2[

अर्थ: तुम जैसे पानी में (अपना) मुँह देखते हो, (मुँह पानी में टिका हुआ दिखाई देता है पर उस पर पानी का कोई असर नहीं होता), इसी तरह है नामे का मालिक (जिसको नामा) बीठल (कहता) है।2।1।

नोट: इस शब्द में नामदेव जी परमात्मा के सिर्फ इस गुण पर जोर दे रहे हैंकि वह हरेक जीव के अंदर बसा हुआ भी माया के बंधनो में कभी नहीं फसा। आखिर में कहते हैं कि मैं तो ऐसे ‘राम’ को ही ‘बीठल’ कहता हूँ।

दक्षिण में लोग किसी मंदिर में स्थापित बीठल को पूजते होंगे, जिसको वे ईट पर बैठा विष्णू व कृष्ण समझते हैं। पर, हरेक कवि को अधिकार है कि वह नए अर्थों में भी शब्द का प्रयोग कर ले। जैसे गुरु गोबिंद सिंह जी ने शब्द ‘भगौती’ को अकाल पुरख के अर्थों में प्रयोग किया है। नामदेव जी इस शब्द में ‘बीठल’ का अर्थ ‘ईट पर बैठा कृष्ण’ नहीं करते, उनका भाव है ‘वह प्रभु जो माया के प्रभाव से दूर व परे है’। दूसरी मजेदार बात ये है कि शब्द ‘राम’ और ‘बीठल’ को एक ही भाव में बरतते हैं। अगर कृष्ण जी की किसी बीठुल-मूर्ति के पुजारी होते तो उसको ‘राम’ ना कहते। जिसको ‘रहाउ’ की तुक में ‘राम राइ’ कहा है, उसी को आखिरी बंद में ‘बीठल’ कहते हैं। अभी भी वक्त है कि हम स्वार्थी लोगों की चालों को समझें, और श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की वाणी को समझने में गलतियों से बचें।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh