श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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नाउ प्रभातै सबदि धिआईऐ छोडहु दुनी परीता ॥ प्रणवति नानक दासनि दासा जगि हारिआ तिनि जीता ॥४॥९॥

पद्अर्थ: सबदि = गुरु के शब्द में (जुड़ के)। दुनी परीता = दुनिया की प्रीत, माया का मोह। तिनि = उस मनुष्य ने।4।

अर्थ: (हे भाई!) अमृत बेला में (उठ के) गुरु के शब्द में जुड़ के कर्तार का नाम स्मरणा चाहिए, (हे भाई!) माया का मोह त्यागो (ये मोह ही कर्तार की याद भुलाता है)। कर्तार के सेवकों का सेवक नानक विनती करता है कि जो व्यक्ति (माया का मोह त्याग के) जगत में निम्रता के साथ जिंदगी गुजारता है, उसी ने ही (जीवन की बाज़ी) जीती है।4।9।

प्रभाती महला १ ॥ मनु माइआ मनु धाइआ मनु पंखी आकासि ॥ तसकर सबदि निवारिआ नगरु वुठा साबासि ॥ जा तू राखहि राखि लैहि साबतु होवै रासि ॥१॥

पद्अर्थ: धाइआ = दौड़ता है। पंखी = पंछी। आकासि = आकाश में। तसकर = (कामादिक) चोर। सबदि = गुरु के शब्द से। निवारिआ = दूर किए, अंदर से निकाले। नगरु = शरीर नगर। वुठा = बस गया (शरीर नगर का वासी मन बाहर की दौड़-भाग छोड़ के शरीर के अंदर टिक गया)। रासि = भले गुणों की पूंजी।1।

अर्थ: (हे प्रभु! तेरे नाम-खजाने से वंचित) मन (कामादिक चोरों के प्रभाव में आकर, सदा) माया ही माया (चाहता रहता है), (माया के पीछे ही) दौड़ता है, मन (मन माया की खातिर ही उड़ानें भरता रहता है जैसे) पक्षी आकाश में (उड़ानें लगाता है, और शरीर-नगर सूना पड़ा रहता है, कामादिक चोर शुभगुणों की राशि-पूंजी लूटते रहते हैं)। जब गुरु के शब्द से ये चोर (शरीर-नगर में से) निकाल दिए जाते हैं, तो (शरीर-) नगर बस जाता है (भाव, मन बाहर माया के पीछे भटकने से हट के अंदर टिक जाता है, और इसको) शोभा-बड़ाई मिलती है। (पर, हे प्रभु!) जब तू खुद (इस मन की) रखवाली करता है, (जब तू खुद इसको कामादिक चोरों से) बचाता है, तब (मनुष्य-शरीर की शुभ-गुणों की) राशि-पूंजी राशि-पूंजी सही-सलामत बची रहती है।1।

ऐसा नामु रतनु निधि मेरै ॥ गुरमति देहि लगउ पगि तेरै ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: निधि = खजाना। मेरै = मेरे पास, मेरे अंदर, मेरे हृदय में। देहि = (हे प्रभु! तू) दे। लगउ = मैं लगता हूं। पगि = पैरों में। तेरै पगि = तेरे पैरों में। लगउ पगि तेरै = मैं तेरी शरण आया हूँ।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्रभु! तेरा नाम श्रेष्ठ रतन है। गुरु की मति से यह नाम मुझे दे, मैं तेरी शरण आया हूँ। (मेहर कर तेरा यह नाम) मेरे पास खजाना बन जाए।1। रहाउ।

मनु जोगी मनु भोगीआ मनु मूरखु गावारु ॥ मनु दाता मनु मंगता मन सिरि गुरु करतारु ॥ पंच मारि सुखु पाइआ ऐसा ब्रहमु वीचारु ॥२॥

पद्अर्थ: जोगी = विरक्त, दुनिया की ओर से उदास। भोगीआ = दुनिया के भोगों में प्रवृत। मन सिरि = मन के सिर पर। पंच मारि = कामादिक पाँचों को मार के। ब्रहमु = ईश्वरीय महिमा।2।

अर्थ: (जब तक मन के सिर पर गुरु कर्तार का कुंडा ना हो अंकुश ना हो, तब तक) मन मूर्ख है मन गँवार है (अपने मूर्ख-पने में कभी यह) मन (माया से नफ़रत कर के) विरक्त बन जाता है, कभी मन दुनिया के भोगों में व्यस्त हो जाता है (कभी माया की खुमारी में अपने आप को) दानी समझता है (कभी धन गायब होने पर) कंगाल बन जाता है।

जब मन के सिर पर गुरु रखवाला बनता है, कर्तार हाथ रखता है, तब यह श्रेष्ठ रूहानी महिमा (का खजाना मिल जाता है, और उसकी इनायत से) कामादिक पाँच चोरों को मार के आत्मिक आनंद पाता है।2।

घटि घटि एकु वखाणीऐ कहउ न देखिआ जाइ ॥ खोटो पूठो रालीऐ बिनु नावै पति जाइ ॥ जा तू मेलहि ता मिलि रहां जां तेरी होइ रजाइ ॥३॥

पद्अर्थ: घटि घटि = हरेक शरीर में। कहउ = मैं (भी) कहता हूँ। खोटे = खोटा जीव, जिसके अंदर खोट है। रालीऐ = रुलाते हैं। पूठो रालीऐ = (गर्भ जोनि में) उल्टा करके रुलाया जाता है। पति = इज्जत। रजाइ = रज़ा में, हुक्म, मर्जी।3।

अर्थ: हे प्रभु! यह कहा जाता है (भाव, हरेक शरीर यह कहता तो है) कि तू हरेक शरीर में मौजूद है, मैं भी यह कहता हूँ (पर निरे कहने से हरेक में) तेरे दर्शन नहीं होते। अंदर से खोटा होने के कारण जीव (चौरासी की गर्भ जोनि में) उल्टा (लटका के) रुलाया जाता है, तेरा नाम स्मरण करे बिना इसका आदर-सत्कार भी चला जाता है। हे प्रभु! जब तू स्वयं मुझे अपने चरणों में जोड़ता है, जब तेरी अपनी मेहर होती है, तब ही मैं तेरी याद में जुड़ा रह सकता हूँ।3।

जाति जनमु नह पूछीऐ सच घरु लेहु बताइ ॥ सा जाति सा पति है जेहे करम कमाइ ॥ जनम मरन दुखु काटीऐ नानक छूटसि नाइ ॥४॥१०॥

पद्अर्थ: सच घरु = सदा कायम रहने वाले प्रभु का ठिकाना। लेहु बताइ = पूछ लो। जति पति = जाति पाति। नाइ = नाम में जुड़ के।4।

अर्थ: हे नानक! (प्रभु हरेक जीव के अंदर मौजूद है, प्रभु ही हरेक की जाति-पाति है। भिन्नता में पड़ कर) ये नहीं पूछना चाहिए कि (फलाने की) जाति कौन सी है किस कुल में उसका जनम हुआ है। (पूछना है तो) पूछो कि सदा कायम रहने वाला परमात्मा किस हृदय-घर में प्रकट हुआ है। जाति-पाति तो जीव की वही है जिस तरह के जीव कर्म कमाता है।

जनम-मरण (के चक्र) का दुख तब ही दूर होता है जब जीव प्रभु के नाम में जुड़ता है। नाम में जुड़ने से ही (कामादिक पाँच चोरों से) खलासी होती है।4।10।

प्रभाती महला १ ॥ जागतु बिगसै मूठो अंधा ॥ गलि फाही सिरि मारे धंधा ॥ आसा आवै मनसा जाइ ॥ उरझी ताणी किछु न बसाइ ॥१॥

पद्अर्थ: जागतु = (अपनी ओर से) जागता, (दुनिया के कामों में) सुचेत समझदार। बिगसै = खुश होता है। मूठो = ठगा जा रहा है, लुटा जा रहा है। अंधा = (माया के मोह में) अंधा। गलि = गले में। सिरि = सिर पर। मारे = (चोटें) मारता है। धंधा = जगत के जंजालों का फिक्र। मनसा = मन के फुरने। उरझी = उलझी हुई, बिगड़ी हुई। बसाइ = वश, जोर, पेश।1।

अर्थ: जीव अपनी तरफ से समझदार है; पर माया के मोह में अंधा हुआ पड़ा है, लुटा जा रहा है (अनेक विकार इसकी आत्मिक राशि-पूंजी को लूट रहे हैं) पर ये खुश-खुश हुआ फिरता है। इसके गले में माया के मोह का फंदा पड़ा हुआ है (जो इसे दुनियावी पदार्थों के पीछे घसीटता फिरता है)। जगत के जंजालों का फिक्र इसके सिर पर चोटें मारता रहता है। दुनियाँ की आशाओं में बँधा जगत में आता है, मन के अनेक फुरने ले के यहाँ से चल पड़ता है। इसकी जिंदगी की ताणी दुनिया की आशा और मन की दौड़ों से पेचीदा हुई पड़ी है। (इस ताणी को इन पेचीदा पेचों से साफ़ रखने के लिए) इसकी कोई पेश नहीं चलती।1।

जागसि जीवण जागणहारा ॥ सुख सागर अम्रित भंडारा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जीवण = हे (जगत के) जीवन! जगणहारा = हे जागनहार! हे जागते रहने की समर्थता रखने वाले!।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्रभु! तू सारे जगत का जीव है; एक तू ही जागता है; सिर्फ तेरे में ही समर्थता है कि माया तुझे अपने मोह में नहीं सुला सकती। हे सुखों के समुंदर प्रभु! (तेरे घर में) नाम-अमृत के भण्डारे भरे पड़े हैं (जो माया के मोह में आत्मिक मौत मरे पड़े हुओं को जिंदा कर सकता है।)।1। रहाउ।

कहिओ न बूझै अंधु न सूझै भोंडी कार कमाई ॥ आपे प्रीति प्रेम परमेसुरु करमी मिलै वडाई ॥२॥

पद्अर्थ: बूझै = समझता। अंधु = (माया के मोह में) अंधा जीव। भोंडी = बुरी। आपे = स्वयं ही। करमी = (प्रभु की) मेहर से।2।

अर्थ: (माया के मोह में) जीवन इतना अंधा हुआ पड़ा है कि किसी कही हुई शिक्षा को यह समझ नहीं सकता, अपने आप इसको (आत्मिक जीवन बचाने की कोई बात) नहीं सूझती, नित्य बुरे कर्म ही किए जा रहा है। (पर जीव के वश की बात नहीं है) परमेश्वर स्वयं ही अपने चरणो की प्रीति प्रेम बख्शता है, उसकी मेहर से ही उसके नाम-स्मरण का माण मिलता है।2।

दिनु दिनु आवै तिलु तिलु छीजै माइआ मोहु घटाई ॥ बिनु गुर बूडो ठउर न पावै जब लग दूजी राई ॥३॥

पद्अर्थ: दिनु दिनु आवै = एक-एक करके दिन आता है। छीजै = (उम्र) कम होती जा है। घटाई = घट ही, घटि ही, हृदय में ही (टिका हुआ है)। ठउर = जगह। दूजी = प्रभु के बिना किसी ओर की प्रीति। राई = रक्ती भर भी।3।

अर्थ: जिंदगी का एक-एक करके दिन आता है और इस तरह थोड़ी-थोड़ी करके उम्र कम होती जाती है; पर माया का मोह जीव के हृदय में (उसी तरह) टिका रहता है। गुरु की शरण आए बिना जीव (माया के मोह में) डूबा रहता है। जब तक इसके अंदर रक्ती भर भी माया की प्रीति कायम है, यह भटकता फिरता है इसको (आत्मिक सुख की) जगह नहीं मिलती।3।

अहिनिसि जीआ देखि सम्हालै सुखु दुखु पुरबि कमाई ॥ करमहीणु सचु भीखिआ मांगै नानक मिलै वडाई ॥४॥११॥

पद्अर्थ: अहि = दिन। निसि = रात। देखि = देख के, ध्यान से। पुरबि कमाई = पिछली की कमाई के अनुसार। करम हीणु = जिसको किसी पूर्बले कर्मों का गुमान नहीं है। सचु = सदा कायम रहने वाले प्रभु का नाम। वडाई = इज्जत।4।

अर्थ: (आत्मिक जीवन की दाति प्रभु से ही मिलती है जो) दिन-रात बड़े ध्यान से जीवों की संभाल करता है और जीवों की पूर्बली कमाई अनुसार इनको सुख अथवा दुख (भोगने को) देता है।

हे प्रभु! मैं अच्छे किए कर्मों का गुमान नहीं करता, मुझे नानक को तेरा नाम जपने की बड़ाई मिल जाए, नानक तेरे दर से तेरे नाम की नाम-जपने की भिक्षा ही माँगता है।4।11।

प्रभाती महला १ ॥ मसटि करउ मूरखु जगि कहीआ ॥ अधिक बकउ तेरी लिव रहीआ ॥ भूल चूक तेरै दरबारि ॥ नाम बिना कैसे आचार ॥१॥

पद्अर्थ: मसटि = खामोशी। मसटि करउ = अगर मैं खामोशी (इख्तियार) करूँ, अगर मैं चुप रहूँ। जगि = जगत में। कहीआ = कहा जाता है। अधिक = बहुत। बकउ = अगर मैं बोलूं। रहीआ = रह जाती है, कम हो जाती है। भूल चूक = कमियां। तेरै दरबारि = तेरी हजूरी में। आचार = भाईचारक रस्में। कैसे = किसी काम की नहीं।1।

अर्थ: (दुनियावी रस्म-रिवाज से बेपरवाह हो के तेरी महिमा में मस्त हो के) अगर मैं चुप कर रहता हूँ, तो जगत में मैं मूर्ख कहा जाता हूँ, पर अगर (इन टूटे हुए लोगों को इनकी यह कमियाँ समझाने के) मैं बहुत बोलता हूँ, तो तेरे चरणों में तवज्जो का टिकाव कम होता है। (यह लोग निरी भाईचारक रस्मों के करने को ही जीवन का सही रास्ता समझते हैं, तेरे स्मरण के उद्यम को ये निंदते हैं। इनमें से कमी वाला रास्ता कौन सा है?) असल कमियां वही हैं जो तेरी हजूरी में कमी जानीं जाएं। वे भाईचारक रस्में किसी अर्थ की नहीं जो तेरे नाम-स्मरण से विछोड़ती हैं।1।

ऐसे झूठि मुठे संसारा ॥ निंदकु निंदै मुझै पिआरा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: ऐसे = ऐसे तरीके से। झूठि = झूठ में, व्यर्थ की भाईचारक रस्मों के बंधनो में। मुठे = लूटे जा रहे हें। संसारा = संसारी जीव। निंदकु = (नाम स्मरण की) निंदा करने वाला। निंदै = नाम स्मरण को निंदता है, भाईचारक रस्मों के पाबंदी को नाम-स्मरण करने के मुकाबले में बेहतर समझता है।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्रभु! संसारी जीव व्यर्थ की रस्मों के वहम में फंस के माया के चक्कर में ऐसे लूटे जा रहे हैं (आत्मिक जीवन ऐसा लुटा रहे हैं कि इनको ये समझ ही नहीं पड़ती)। (निरी भाईचारक रस्मों के मुकाबले और तेरे नाम-जपने की) निंदा करने वाला मनुष्य (तेरे नाम को) बुरा कहता है (पर तेरी मेहर से) मुझे (तेरा नाम) प्यारा लगता है।1। रहाउ।

जिसु निंदहि सोई बिधि जाणै ॥ गुर कै सबदे दरि नीसाणै ॥ कारण नामु अंतरगति जाणै ॥ जिस नो नदरि करे सोई बिधि जाणै ॥२॥

पद्अर्थ: जिसु = जिस (नाम-जपने वाले को)। सोई = वह मनुष्य। बिधि = जीवन की विधि, जीवन जुगति। सबदे = सबदि, शब्द में जुड़ के। दरि = प्रभु के दर पर। नीसानै = प्रकट होता है। अंतरि गति = अपने हृदय में। जाणै = पहचानता है, सांझ डालता है। नदरि = मेहर की निगाह।2।

अर्थ: (ये कर्मकांडी लोग प्रभु की भक्ति करने वालों की निंदा करते हैं, पर) जिसको ये बुरा कहते हैं (असल में) वही मनुष्य जीवन की सही जुगति जानता है, वह मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ के प्रभु के दर पर आदर-माण हासिल करता है, सारी सृष्टि के मूल प्रभु के नाम को वह अपने हृदय में बसाता है।

पर महिमा की यह जुगति वही मनुष्य समझता है जिस पर प्रभु स्वयं मेहर की नजर करता है।2।

मै मैलौ ऊजलु सचु सोइ ॥ ऊतमु आखि न ऊचा होइ ॥ मनमुखु खूल्हि महा बिखु खाइ ॥ गुरमुखि होइ सु राचै नाइ ॥३॥

पद्अर्थ: मै मेलौ = हम जीव (नाम से भूल के) विकारों से मलीन। सचु = सदा कायम रहने वाला प्रभु। आखि = (अपने आप को) कह के। मनमुखु = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। खूल्हि = खुल के, प्रत्याप्त तौर पर। बिखु = (विषौ-विकारों का) जहर। नाइ = प्रभु के नाम में।3।

अर्थ: (प्रभु के नाम से टूट के) हम जीवमलीन-मन हो रहे हैं, वह सदा कायम रहने वाला प्रभु ही (विकारों की मैल से) साफ़ है। (प्रभु की याद भुला के सिर्फ कर्मकांड के आसरे अपने आप को) उत्तम कह के कोई मनुष्य ऊँचे जीवन वाला नहीं हो सकता। जो मनुष्य (गुरु के शब्द से टूटता है और) अपने मन के पीछे चलता है वह बेझिझक (माया के मोह का) जहर खाता रहता है (जो आत्मिक जीवन को खत्म कर देता है। फिर यह स्वच्छ और ऊँचा कैसे?) जो मनुष्य गुरु के बताए हुए रास्ते पर चलता है, वह प्रभु के नाम में लीन रहता है (और वह स्वच्छ जीवन वाला है)।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh