श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 1331

अंधौ बोलौ मुगधु गवारु ॥ हीणौ नीचु बुरौ बुरिआरु ॥ नीधन कौ धनु नामु पिआरु ॥ इहु धनु सारु होरु बिखिआ छारु ॥४॥

पद्अर्थ: अंधे = माया के मोह में अंधा हुआ जीव। बोलौ = वह मनुष्य जो प्रभु की महिमा नहीं सुनता, नाम की ओर से बहरा। मुगधु = मूर्ख। बुरिआरु = बुरे बुरा। नीधन = कंगाल, निर्धन। कौ = वास्ते। सारु = श्रेष्ठ। बिखिआ = माया। छारु = राख, निकम्मी।4।

अर्थ: माया के मोह में अंधा हुआ मनुष्य, प्रभु की महिमा से कान मूँद के रखने वाला मनुष्य मूर्ख है, गवार है, आत्मिक जीवन से वंचित है। गिरावट की ओर जा रहा है, बुरे से बुरा है। परमात्मा का नाम परमात्मा के चरणों का प्यार (आत्मिक जीवन की ओर से) कंगालों के लिए धन है। यही धन श्रेष्ठ धन है, इसके बिना दुनिया की माया राख के समान है।4।

उसतति निंदा सबदु वीचारु ॥ जो देवै तिस कउ जैकारु ॥ तू बखसहि जाति पति होइ ॥ नानकु कहै कहावै सोइ ॥५॥१२॥

पद्अर्थ: तिस कउ = उस परमात्मा को। जैकारु = नमस्कार। कहावै सोइ = वह परमात्मा ही (जीव के मुँह से अपनी महिमा) कहलवाता है।5।

अर्थ: (पर जीवों के भी क्या वश? महिमा अथवा इससे नफरत, गुरु के शब्द का प्यार, प्रभु के गुणों की विचार- ये जो कुछ भी देता है प्रभु स्वयं ही देता है), जो जो प्रभु जीवों को यह देता है सदा उसी को नमस्कार करनी चाहिए (और कहना चाहिए कि) हे प्रभु! जिसको तू अपनी महिमा बख्शता है, उसकी, मानो, ऊँची जाति हो जाती है, उसको इज्जत मिलती है।

(प्रभु का दास) नानक (प्रभु की महिमा के बोल तभी) कह सकता है यदि प्रभु स्वयं ही कहलवाए।5।12।

प्रभाती महला १ ॥ खाइआ मैलु वधाइआ पैधै घर की हाणि ॥ बकि बकि वादु चलाइआ बिनु नावै बिखु जाणि ॥१॥

पद्अर्थ: पैधे = पहनने से, पहनने के रस में फसे रहने से। हाणि = नुकसान। घर की हाणि = घर का ही नुकसान, अपना ही नुकसान, अपने आत्मिक जीवन को ही घाटा। बकि बकि = बोल बोल के। वादु = झगड़ा। बिखु = समझ।1।

अर्थ: प्रभु के स्मरण को छोड़ के ज्यों-ज्यों मनुष्य स्वादिष्ट खाने के चस्के की मैल अपने मन में बढ़ाता है, (सुंदर वस्त्र) पहनने के रसों में फंसने से भी मनुष्य के आत्मिक जीवन में ही कमी आती है। (अपनी प्रशंसा के) बोल बोल के भी (दूसरों से) झगड़ा खड़ा कर लेता है। (सो, हे भाई! स्मरण से टूट के यही) समझ कि मनुष्य जहर (ही विहाजता है)।1।

बाबा ऐसा बिखम जालि मनु वासिआ ॥ बिबलु झागि सहजि परगासिआ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: बाबा = हे भाई! ऐसा वासिआ = इतनी बुरी तरह से डाला गया है, ऐसा बुरा फसाया गया है। बिखम जालि = मुश्किल जाल में। बिबलु = बाढ़ का पानी जो झाग से भरा होता है। झागि = मुश्किल से गुजर के। सहजि = अडोल अवस्था में, ठहराव वाली हालत में।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! (खाने पहनने और अपनी शोभा करवाने आदि पर) मुश्किल जाल में मन ऐसा फंस जाता है (कि इसमें से निकलना मुश्किल हो जाता है। संसार-समुंदर में माया के रसों की ठिलें पड़ रही हैं, इस) झागदार पानी को बड़ी मुश्किल से लांघ के ही जब ठहाराव वाली अवस्था में पहुँचा जाता है तब मनुष्य के अंदर ज्ञान का प्रकाश होता है।1। रहाउ।

बिखु खाणा बिखु बोलणा बिखु की कार कमाइ ॥ जम दरि बाधे मारीअहि छूटसि साचै नाइ ॥२॥

पद्अर्थ: जम दरि = जम राज के दर पर। मारीअहि = मारे जाते हैं, कूटे जाते हैं। साचै नाइ = सदा स्थिर रहने वाले प्रभु के नाम में (जुड़ के)।2।

अर्थ: (मोह के जाल में फंस के) मनुष्य जो कुछ खाता है वह भी (आत्मिक जीवन के लिए) जहर, जो कुछ बोलता है वह भी जहर, जो कुछ करता कमाता है वह भी जहर ही है। (ऐसे लोग आखिर) जम राज के दरवाजे पर बँधे हुए (मानसिक दुखों की) मार खाते हैं। (इन मानसिक दुखों से) वही निजात हासिल करता है जो सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के नाम में जुड़ता है।2।

जिव आइआ तिव जाइसी कीआ लिखि लै जाइ ॥ मनमुखि मूलु गवाइआ दरगह मिलै सजाइ ॥३॥

पद्अर्थ: कीआ = किए कर्मों का समूह। लिखि = लिख के, (किए कर्मों के) संस्कार मन में उकर के। मूलु = असल राशि-पूंजी।3।

अर्थ: जगत में जैसे जीव नंगा आता है वैसे नंगा ही यहाँ से चला जाता है (पर मोह के करड़े जाल में फसा रह के यहाँ से) किए हुए बुरे कर्मों के संस्कार अपने मन में उकर के अपने साथ ले चलता है। (सारी उम्र) अपने मन के पीछे चल के (भले गुणों की) राशि-पूंजी (जो थोड़ी बहुत पल्ले थी यहीं) गवा जाता है, और परमात्मा की दरगाह में इसको सज़ा मिलती है।3।

जगु खोटौ सचु निरमलौ गुर सबदीं वीचारि ॥ ते नर विरले जाणीअहि जिन अंतरि गिआनु मुरारि ॥४॥

पद्अर्थ: मुरारि गिआनु = परमात्मा के साथ सांझ।4।

अर्थ: जगत (का मोह) (भाव, मनुष्य के मन को खोटा-मैला बना देता है), परमात्मा का सदा-स्थिर नाम पवित्र है (मन को भी पवित्र करता है), (यह सच्चा नाम) गुरु के शब्द में तवज्जो जोड़ के प्राप्त होता है। (पर) ऐसे लोग कोई विरले-विरले ही मिलते हैं जिन्होंने अपने हृदय में परमात्मा के साथ जान-पहचान डाली है।4।

अजरु जरै नीझरु झरै अमर अनंद सरूप ॥ नानकु जल कौ मीनु सै थे भावै राखहु प्रीति ॥५॥१३॥

पद्अर्थ: अजरु = वह चोट जो सहन करनी मुश्किल है। जरै = सह जाए। नीझरु = चश्मा, झरना। झरै = चल पड़ता है, फूट जाता है। जल कौ = पानी को। मीनु = मछली। सै = है। थे = तुझे (हे प्रभु!)। भावै = अच्छा लगे।5।

अर्थ: (माया के मोह की चोट सहनी बहुत मुश्किल खेल है, यह चोट आत्मा को मार के रख देती है, पर जो कोई) इस ना सही जाने वाली चोट को सह लेता है (उसके अंदर) सदा अटल और आनंद स्वरूप परमात्मा (के प्यार) का चश्मा फूट पड़ता है।

हे प्रभु! जैसे मछली (ज्यादा से ज्यादा) जल की तमन्ना रखती है, वैसे (तेरा दास) नानक (तेरी प्रीति तलाशता है) तेरी मेहर हो, तो तू अपना प्यार (मेरे हृदय में) टिकाए रख (ता कि नानक माया के मोह-जाल में फसने से बचा रहे।)।5।13।

प्रभाती महला १ ॥ गीत नाद हरख चतुराई ॥ रहस रंग फुरमाइसि काई ॥ पैन्हणु खाणा चीति न पाई ॥ साचु सहजु सुखु नामि वसाई ॥१॥

पद्अर्थ: नाद = आवाज। गीत नाद = गीत गाने। हरख = खुशियां। रहस = आनंद, चाव। फुरमाइसि = हकूमत। काई = कोई भी चीज। काई चीति न पाई = कुछ भी चिक्त में नहीं पड़ता, कुछ भी चिक्त को अच्छा नहीं लगता। सहजु = अडोल अवस्था। वसाई = (जब तक) मैं (अपने मन को) बसाता हूँ।1।

अर्थ: दुनियावी गीत गाने, दुनियावी खुशियाँ और चतुराईयाँ, दुनिया वाले चाव उल्लास और हकूमतें, अनेक पदार्थ खाने और सुंदर वस्त्र पहनने- (इनमें से) कुछ भी मेरे चिक्त को नहीं भाता। (जब तक) स्मरण से मैं (परमात्मा को अपने दिल में) बसाता हूँ, मेरे अंदर अटल अडोलता बनी रहती है, मेरे अंदर सुख बना रहता है।1।

किआ जानां किआ करै करावै ॥ नाम बिना तनि किछु न सुखावै ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: किआ जानां = मैं क्या जानता हूँ? तनि = शरीर में।1। रहाउ।

अर्थ: मुझे ये समझ नहीं कि (मेरा विधाता मेरे लिए) क्या कुछ कर रहा है और (मुझसे) क्या करवा रहा है। (पर, मैं यह समझता हूँ कि) परमात्मा के नाम के बिना और कुछ भी मेरे हृदय को अच्छा नहीं लगता।1। रहाउ।

जोग बिनोद स्वाद आनंदा ॥ मति सत भाइ भगति गोबिंदा ॥ कीरति करम कार निज संदा ॥ अंतरि रवतौ राज रविंदा ॥२॥

पद्अर्थ: बिनोद = करिश्मे। भाइ = प्रेम से। सत भाइ = सच्चे प्रेम से। कीरति = महिमा। करम कार = नित्य की कार। निज संदा = मेरी अपनी। संदा = का। रवतौ = रम रहा है, प्रकट हो रहा है। राज = प्रकाश। राज रवंदा = प्रकाश कर रहा है।2।

अर्थ: (प्रभु चरणों के) सच्चे प्रेम की इनायत से मेरी मति में गोबिंद की भक्ति टिकी हुई है, प्रभु की महिमा करनी ही मेरी अपनी नित्य की कार बन गई है, इसी में से मुझे जोग के करिश्मों के स्वाद और आनंद आ रहे हैं। (सारे जगत में) प्रकाश करने वाला प्रभु मेरे हृदय में हर वक्त हिल्लोरे दे रहा है।2।

प्रिउ प्रिउ प्रीति प्रेमि उर धारी ॥ दीना नाथु पीउ बनवारी ॥ अनदिनु नामु दानु ब्रतकारी ॥ त्रिपति तरंग ततु बीचारी ॥३॥

पद्अर्थ: प्रेमि = प्रेम से। उर धारी = मैं हृदय में टिका रहा हूँ। पीउ = पति प्रभु। बनवारी = जगत का मालिक। अनदिनु = हर रोज। ब्रत कारी = व्रत कर रहा हूँ, नियम निभा रहा हूँ। तरंग = माया के मोह की लहरें। ततु = जगत का मूल प्रभु।3।

अर्थ: प्रभु के प्रेम में (जुड़ के) मैं उस प्यारे को नित्य पुकारता हूँ, उसकी प्रीति मैं अपने हृदय में टिकाता हूँ। (मुझे यकीन बन गया है कि) वह दीनों का नाथ है, वह सबका पति है, वह जगत का मालिक है। हर रोज (हर वक्त) उसका नाम स्मरणा और-और लोगों को स्मरण करने के लिए प्रेरित करना - यह नियम मैं सदा निभा रहा हूँ। ज्यों-ज्यों मैं जगत के मूल प्रभु (के गुणों) को विचारता हूं; माया के मोह की लहरों की ओर से मैं तृप्त होता जा रहा हूँ।3।

अकथौ कथउ किआ मै जोरु ॥ भगति करी कराइहि मोर ॥ अंतरि वसै चूकै मै मोर ॥ किसु सेवी दूजा नही होरु ॥४॥

पद्अर्थ: अकथौ = जिसके गुण कथन नहीं किए जा सकते। कथउ = मैं बयान कर सकूँ। मोर = मुझसे। करी = मैं करूँ। मै मोर = मैं मेरी।4।

अर्थ: हे प्रभु! तेरे गुण बयान नहीं किए जा सकते। मेरी क्या ताकत है कि मैं तेरे गुणों का बयान करूँ? जब तू मुझसे अपनी भक्ति कराता है तब ही मैं कर सकता हूँ। जब तेरा नाम मेरे अंदर आ बसता है तब (मेरे अंदर से) ‘मैं मेरी’ समाप्त हो जाती है (अहंकार और ममता दोनों नाश हो जाती हैं) तेरे बिना मैं किसी और की भक्ति नहीं कर सकता, मुझे तेरे जैसा और कोई दिखता ही नहीं।4।

गुर का सबदु महा रसु मीठा ॥ ऐसा अम्रितु अंतरि डीठा ॥ जिनि चाखिआ पूरा पदु होइ ॥ नानक ध्रापिओ तनि सुखु होइ ॥५॥१४॥

पद्अर्थ: जिनि = जिस मनुष्य ने। पदु = आत्मिक दर्जा। ध्रापिओ = संतुष्ट हो गया, अघा गया, तृप्त हो गया।5।

अर्थ: (हे प्रभु! तेरी मेहर से) तेरा नाम-अमृत मेरे अंदर ऐसा प्रकट हो गया है कि गुरु का शब्द (जिसके द्वारा तेरा नाम-अमृत मिलता है) मुझे मीठा लग रहा है मुझे और सारे रसों से शिरोमणी रस (सर्वोक्तम) लग रहा है।

हे नानक! जिस मनुष्य ने प्रभु का नाम-रस चखा है उसको पूर्ण आत्मिक अवस्था का दर्जा मिल जाता है, वह दुनिया के पदार्थों की ओर से तृप्त हो जाता है, उसके हृदय में आत्मिक सुख बना रहता है।5।14।

प्रभाती महला १ ॥ अंतरि देखि सबदि मनु मानिआ अवरु न रांगनहारा ॥ अहिनिसि जीआ देखि समाले तिस ही की सरकारा ॥१॥

पद्अर्थ: देखि = देख के। सबदि = गुरु के शब्द में (जुड़ के)। अहि = दिन। निसि = रात। समाले = संभाल करता है। तिस ही की = उस (परमात्मा) की ही। सरकार = हकूमत, बादशाही।1।

अर्थ: (जीवों के मनों पर प्रेम का) रंग चढ़ाने वाला (प्रेम के श्रोत परमात्मा के बिना) कोई और नहीं है, (उसी की मेहर से) गुरु के शब्द में जुड़ के प्रभु को अपने हृदय में (बसता) देख के जीव का मन उसके प्रेम-रंग को स्वीकार कर लेता है। (प्रेम का श्रोत) प्रभु दिन-रात ध्यान से जीवों की संभाल करता है, उसी की ही सारी सृष्टि में बादशाहियत है (प्रेम की दाति उसके अपने ही हाथ में है)।1।

मेरा प्रभु रांगि घणौ अति रूड़ौ ॥ दीन दइआलु प्रीतम मनमोहनु अति रस लाल सगूड़ौ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: रांगि = रंग वाला। रांगि घणौ = गाढ़े रंग वाला। रूड़ौ = सुंदर। लाल सगूड़ौ = गाढ़े लाल रंग वाला। अति रस = बहुत रस वाला, रसों का श्रोत, प्रेम का श्रोत।1। रहाउ।

अर्थ: मेरा प्रभु बड़े गाढ़े प्रेम-रंग वाला है बहुत सुंदर है दीनों पर दया करने वाला है, सबका प्यारा है, सबके मन को मोहने वाला है, प्रेम का श्रोत है, प्रेम के गाढ़े लाल रंग में रंगा हुआ है।1। रहाउ।

ऊपरि कूपु गगन पनिहारी अम्रितु पीवणहारा ॥ जिस की रचना सो बिधि जाणै गुरमुखि गिआनु वीचारा ॥२॥

पद्अर्थ: ऊपरि = ऊपर, सबसे ऊँचा। कूपु = कूआँ, अमृत का कूआँ, नाम अमृत का श्रोत परमात्मा। गगन = आकाश, चिदाकाश, दसवां द्वार। गगन पनिहारी = गगन का पनिहारी, गगन का पानी भरने वाला, ऊँची सूझ वाला। बिधि = तरीका, नाम अमृत पिलाने का तरीका। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। गिआनु = जान पहचान, गहरी सांझ।2।

अर्थ: नाम-अमृत का श्रोत परमात्मा सबसे ऊँचा है, ऊँची सूझ वाला जीव ही (उसकी मेहर से) नाम-अमृत पी सकता है। नाम-अमृत पिलाने का ढंग (भी) वह परमात्मा स्वयं ही जानता है जिसकी रची हुई सारी सृष्टि है। (उस तरीके से प्रभु की मेहर से) जीव गुरु की शरण पड़ के प्रभु के साथ गहरी सांझ बनाता है और उसके गुणों की विचार करता है।2।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh