श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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बिसम बिनोद रहे परमादी ॥ गुरमति मानिआ एक लिव लागी ॥ देखि निवारिआ जल महि आगी ॥ सो बूझै होवै वडभागी ॥५॥

पद्अर्थ: बिसम = आश्चर्य। बिनोद = रंग तमाशे। रहे = रह जाते हैं, समाप्त हो जाते हैं। परमादी = प्रमाद पैदा करने वाले, मस्ती पैदा करने वाले, प्रमोदी। देखि = (परमात्मा को) देख के। जल महि = नाम जल में डुबकी लगा के। आगी = आग, तृष्णा अग्नि।5।

अर्थ: (उस मनुष्य के अंदर से) मोह का प्रमोद करने वाले आश्चर्य रंग-तमाशे समाप्त हो जाते हैं, उसका मन गुरु की शिक्षा में पतीज जाता है, उसकी तवज्जो एक प्रभु में जुड़ी रहती है, परमात्मा के दर्शन करके परमात्मा के नाम-जल में डुबकी लगा के वह अपने अंदर से तृष्णा की आग बुझा लेता है। पर ये भेद वही समझता है जो भाग्यशाली हो।5।

सतिगुरु सेवे भरमु चुकाए ॥ अनदिनु जागै सचि लिव लाए ॥ एको जाणै अवरु न कोइ ॥ सुखदाता सेवे निरमलु होइ ॥६॥

पद्अर्थ: भरमु = भटकना। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। जागै = (माया के हमलों के प्रति) सचेत रहता है। सचि = सदा स्थिर प्रभु में।6।

अर्थ: जो मनुष्य सतिगुरु की शरण पड़ता है वह अपने मन की भटकना दूर कर लेता है, वह हर वक्त (माया के हमलों के प्रति) सुचेत रहता है, वह सदा-स्थिर प्रभु में अपनी तवज्जो जोड़े रखता है। वह मनुष्य सिर्फ परमात्मा को ही सुखों का दाता समझता है, किसी और को नहीं। वह उस सुखदाते को स्मरण करता है और (नाम-जपने की इनायत से) पवित्र (जीवन वाला) हो जाता है।6।

सेवा सुरति सबदि वीचारि ॥ जपु तपु संजमु हउमै मारि ॥ जीवन मुकतु जा सबदु सुणाए ॥ सची रहत सचा सुखु पाए ॥७॥

पद्अर्थ: स्बदि = गुरु के शब्द से। मारि = मार के। जा = जब। सची = सदा स्थिर।7।

अर्थ: गुरु के शब्द से परमात्मा के गुणों की विचार कर के उस मनुष्य की तवज्जो सेवा की ओर पलटती है, अपने अंदर से अहंकार को मार के वह, मानो, जप तप और संयम कमा लेता है। सतिगुरु उसको अपना शब्द सुनाता है और वह मनुष्य दुनिया के कार्य-न्व्यवहार करता हुआ ही (माया के मोह से) स्वतंत्र हो जाता है, उसकी रहिणी-बहिणी ऐसी हो जाती है कि (माया की तरफ) वह डोलता ही नहीं और (इस तरह) वह सदा कायम रहने वाला आत्मिक आनंद पाता है।7।

सुखदाता दुखु मेटणहारा ॥ अवरु न सूझसि बीजी कारा ॥ तनु मनु धनु हरि आगै राखिआ ॥ नानकु कहै महा रसु चाखिआ ॥८॥२॥

पद्अर्थ: बीजी = दूसरी, अन्य। नानकु कहै = नानक कहता है।8।

अर्थ: उस मनुष्य को परमात्मा ही सुखों के देने वाला और दुखों को काटने वाला दिखता है (इस वास्ते प्रभु के स्मरण के बिना) उसको और कोई काम (लाभदायक) नहीं सूझती। वह मनुष्य अपना शरीर अपना मन और अपना धन-पदार्थ परमात्मा के आगे भेटा रखता है। नानक कहता है कि वह मनुष्य (सब रसों से) श्रेष्ठ नाम-रस चखता है।8।2।

प्रभाती महला १ ॥ निवली करम भुअंगम भाठी रेचक पूरक कु्मभ करै ॥ बिनु सतिगुर किछु सोझी नाही भरमे भूला बूडि मरै ॥ अंधा भरिआ भरि भरि धोवै अंतर की मलु कदे न लहै ॥ नाम बिना फोकट सभि करमा जिउ बाजीगरु भरमि भुलै ॥१॥

पद्अर्थ: निवली करम = आँतों को चक्कर में घुमाना। भुअंगम = कुण्डलनी नाड़ी। भाठी = दसवाँ द्वार। रेचक = श्वास उतारने। पूरक = श्वास ऊपर चढ़ाने। कुंभ = श्वास सुखमना में टिकाए रखने (रेचक, पूरक, कुंभक = ये तीनों प्राणायाम के साधन हैं)। मरै = आत्मिक मौत सहेड़ लेता है। फोकट = फोके, व्यर्थ। सभि = सारे।1।

अर्थ: (अज्ञानी अंधे मनुष्य प्रभु का नाम बिसार के) निवली कर्म करता है, कुण्डलनी नाड़ी से दसवें द्वार में प्राण चढ़ाता है, श्वास उतारता है, श्वास चढ़ाता है, श्वास (सुखमना में) टिकाता है। पर इस भटकना में गलत रास्ते पर पड़ कर (इन कर्मों के चक्करों में) फंस के आत्मिक मौत सहेड़ लेता है। सतिगुरु की शरण पड़े बिना सही जीवन की इसको समझ नहीं पड़ती। अंधा मनुष्य विकारों की मैल से भरा रहता है, बार-बार गलत रास्ते पर पड़ कर और विकारों की मैल से लिबड़ता है (निवली कर्म आदि के द्वारा) यह मैल धोने का यत्न करता है, पर (इस तरह) मन की मैल कभी नहीं उतरती। (ये रेचक, पूरक आदि) आरे ही कर्म परमात्मा के नाम के बिना व्यर्थ हैं। जैसे किसी मदारी को देख के (अंजान मनुष्य) भुलेखे में पड़ जाता है (कि जो जो कुछ मदारी दिखाता है सचमुच उसके पास मौजूद है, वैसे ही कर्मकांडी मनुष्य इन नाटकों-चेटकों में भुलेखा खा जाता है)।1।

खटु करम नामु निरंजनु सोई ॥ तू गुण सागरु अवगुण मोही ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: खटु करम = शास्त्रों में बताए गए छह किस्म के धार्मिक कर्म। मोही = मेरे में ही।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्रभु! शास्त्रों में बताए गए छह धार्मिक कर्म (मेरे लिए) तेरा नाम ही है, तेरा नाम माया की कालिख से रहित है। हे प्रभु! तू गुणों का खजाना है, पर (पर तेरे नाम से टूट के और अन्य कर्मकांडों में पड़ कर) मेरे अंदर अवगुण पैदा हो जाते हैं।1। रहाउ।

माइआ धंधा धावणी दुरमति कार बिकार ॥ मूरखु आपु गणाइदा बूझि न सकै कार ॥ मनसा माइआ मोहणी मनमुख बोल खुआर ॥ मजनु झूठा चंडाल का फोकट चार सींगार ॥२॥

पद्अर्थ: धावणी = दौड़ भाग, भटकना। बिकार = व्यर्थ। आपु = अपने आप को। गणाइदा = अच्छा कहलवाता है। मनसा = कामना, ख्वाहिश। मजनु = स्नान। चार = सुंदर।2।

अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य के मन की दौड़-भाग तो माया के धंधों में ही रहती है; मूर्ख सही रास्ते के काम को तो समझता नहीं, (इन निवली कर्म आदि के कारण) अपने आप को बड़ा जाहिर करने का प्रयत्न करता है; उस मनमुख की ख्वाहिशें मोहनी माया में ही बनी रहती हैं (ऊपर-ऊपर से धर्म के) बोल से (बल्कि) ख्वार होता है। (अंतरात्मे उसका जीवन चण्डाल जैसा है) उस चण्डाल का किया हुआ तीर्थ-स्नान भी निरी ठगी ही होती है, (निवली कर्म आदि वाले उसके सारे) सुंदर श्रृंगार व्यर्थ जाते हैं।

उसका यह सारा उद्यम इस प्रकार है जैसे किसी ब्राहमण के लिए किसी चण्डाल का तीर्थ-स्नान निरी ठगी है और उसका सुंदर श्रृंगार भी फोका है।2।

झूठी मन की मति है करणी बादि बिबादु ॥ झूठे विचि अहंकरणु है खसम न पावै सादु ॥ बिनु नावै होरु कमावणा फिका आवै सादु ॥ दुसटी सभा विगुचीऐ बिखु वाती जीवण बादि ॥३॥

पद्अर्थ: बादि = व्यर्थ। बिबाद = झगड़ा। अहंकरणु = अहंकार। सादु = स्वाद, आनंद। विगुचीऐ = दुखी होते हैं। बिखु = जहर। वाती = वात में, मुँह में।3।

अर्थ: मनमुख के मन की मति झूठ की ओर ले जाती है, उसके कर्तव्य भी निरे झगड़े का मूल हैं और व्यर्थ जाते हैं। उस झूठ विहाजने वाले के अंदर अहमं अहंकार टिका रहता है उसको पति-प्रभु के मिलाप का आनंद नहीं आ सकता। परमात्मा के नाम को छोड़ के (निवली कर्म आदि) जो कर्म भी किए जाते हैं उनका स्वाद फीका होता है (वह जीवन को फीका ही बनाते हैं) ऐसी बुरी संगति में (बैठने से) ख्वार हुआ जाता है क्योंकि ऐसे लोगों के मुँह में (फीके बोल-रूप) जहर होता है और उनका जीवन व्यर्थ जाता है।3।

ए भ्रमि भूले मरहु न कोई ॥ सतिगुरु सेवि सदा सुखु होई ॥ बिनु सतिगुर मुकति किनै न पाई ॥ आवहि जांहि मरहि मरि जाई ॥४॥

पद्अर्थ: ए = हे! भ्रमि = भटकना में। मरि जाई = आत्मिक मौत मर जाता है।4।

अर्थ: (न्योली कर्म आदि की) भटकना में भूले हुए, हे लोगो! (इस राह पर पड़ कर) आत्मिक मौत ना सहेड़ों। सतिगुरु की शरण पड़ने से ही सदा का आत्मिक आनंद मिलता है। गुरु की शरण के बिना कभी किसी को (माया के मोह से) निजात नहीं मिलती। वे सदा पैदा होते हैं और आत्मिक मौत सहेड़ते हैं। (जो भी मनुष्य गुरु की शरण से और स्मरण से वंचित रहता है) वह आत्मिक मौत सहेड़ता है।4।

एहु सरीरु है त्रै गुण धातु ॥ इस नो विआपै सोग संतापु ॥ सो सेवहु जिसु माई न बापु ॥ विचहु चूकै तिसना अरु आपु ॥५॥

पद्अर्थ: धातु = माया। अरु = और। आपु = आपा भाव, स्वै भाव, अहंकार।5।

अर्थ: यह शरीर है ही त्रै-गुणी माया का स्वरूप (भाव, इन्द्रियाँ सहज ही माया के मोह में फंस जाती है, जिसका नतीजा यह निकलता है कि) शरीर को चिन्ता-फिक्र और दुख-कष्ट सताए रखता है। (हे भाई!) उस परमात्मा का स्मरण करो, जिसका ना कोई पिता है ना कोई माता है, (नाम-जपने की इनायत से) अंदर से माया की तृष्णा अहम्ं व अहंकार मिट जाता है।5।

जह जह देखा तह तह सोई ॥ बिनु सतिगुर भेटे मुकति न होई ॥ हिरदै सचु एह करणी सारु ॥ होरु सभु पाखंडु पूज खुआरु ॥६॥

पद्अर्थ: देखा = मैं देखता हूँ। सारु = श्रेष्ठ।6।

अर्थ: (गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम जप के अब) मैं जिधर-जिधर निगाह मारता हूँ मुझे वही परमात्मा बसता दिखता है (और मुझे माया गलत राह पर नहीं डालती)। पर गुरु की शरण के बिना माया के बंधनो से आजादी नहीं मिल सकती। (हे भाई!) सदा-स्थिर परमात्मा का नाम हृदय में बसाना - यह कर्तव्य सबसे श्रेष्ठ है (यह छोड़ के निवली आदि कर्म करना) यह सब कुछ पाखण्ड है (इन कर्मों के द्वारा लोगों से करवाई) पूजा-सेवा (आखिर) दुखी करती है।6।

दुबिधा चूकै तां सबदु पछाणु ॥ घरि बाहरि एको करि जाणु ॥ एहा मति सबदु है सारु ॥ विचि दुबिधा माथै पवै छारु ॥७॥

पद्अर्थ: दुबिधा = प्रभु के बिना अन्य आसरे की झाक। पछाणु = पहचानने योग्य। माथै = माथे पर, सिर पर। छारु = राख।7।

अर्थ: हे भाई! गुरु के शब्द से सांझ बनाओ, अपने अंदर और बाहर सारे संसार में सिर्फ एक परमात्मा को बसता समझो। तब ही अन्य आसरों की आस खत्म होगी। यही सद्-बुद्धि है। गुरु का शब्द (हृदय में बसाना ही) श्रेष्ठ (उत्तम) है। जो मनुष्य गुरु का शब्द बिसार के प्रभु का नाम भुला के अन्य आसरों की झाक में पड़ता है, उसके सिर राख ही पड़ती है (वह दुखी ही होता है)।7।

करणी कीरति गुरमति सारु ॥ संत सभा गुण गिआनु बीचारु ॥ मनु मारे जीवत मरि जाणु ॥ नानक नदरी नदरि पछाणु ॥८॥३॥

पद्अर्थ: करणी = करतब। कीरति = कीर्ति, महिमा। नदरी = मेहर की निगाह करने वाला परमात्मा।8।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा की महिमा करनी श्रेष्ठ करनी है, गुरु की शिक्षा पर चलना श्रेष्ठ उद्यम है। साधु-संगत में जा के परमात्मा के गुणों के साथ सांझ डालनी सीख। ये बात पक्की समझ कि जो मनुष्य अपने मन को मारता है वह दुनिया के कार्य-व्यवहार करता हुआ ही (विकारों की चोट से बचा रहता है) माया के मोह से उपराम रहता है। हे नानक! वह मनुष्य मेहर की निगाह करने वाले परमात्मा की नजर में आ जाता है (परमात्मा को जच जाता है)।8।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh