श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 1344

प्रभाती महला १ दखणी ॥ गोतमु तपा अहिलिआ इसत्री तिसु देखि इंद्रु लुभाइआ ॥ सहस सरीर चिहन भग हूए ता मनि पछोताइआ ॥१॥

पद्अर्थ: लुभाइआ = मस्त हो गया। सहस = हजार। चिहन = निशान। मनि = मन में।1।

अर्थ: गौतम (एक प्रसिद्ध) तपस्वी (था), अहिल्या (उसकी) स्त्री (थी), उसका रूप देख के (देवताओं का राजा कहलवाने वाला) इन्द्र मोहित हो गया। (गौतम के श्राप से) (उसके इन्द्र के) शरीर पर हजार भगों के निशान बन गए, तब इन्द्र अपने मन में (उस कुकर्म पर) पछताया।1।

कोई जाणि न भूलै भाई ॥ सो भूलै जिसु आपि भुलाए बूझै जिसै बुझाई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जाणि = जान बूझ के, सोच समझ के। भूलै = गलत रास्ते पर पड़ता है। भाई = हे भाई!।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! कोई भी जीव जान-बूझ के गलत राह पर नहीं पड़ता (जीव के वश की बात नहीं)। वही मनुष्य कुमार्ग पर पड़ता है जिसको परमात्मा स्वयं कुमार्ग पर डालता है। वही मनुष्य (सही जीवन-राह को) समझता है, जिसको परमात्मा स्वयं समझ बख्शता है।1। रहाउ।

तिनि हरी चंदि प्रिथमी पति राजै कागदि कीम न पाई ॥ अउगणु जाणै त पुंन करे किउ किउ नेखासि बिकाई ॥२॥

पद्अर्थ: तिनि हरी चंद राजे = उस राजे हरी चंद ने। कागदि = कागज़ पर। कीम = कीमत! नेखासि = मंडी में।2।

अर्थ: धरती के राजे उस राजा हरी चंद ने (इतने दान-पुण्य किए कि उनका) मूल्य कागज़ पर नहीं पड़ सकता। अगर (राजा हरी चंद उन दान-पुन्यों को) बुरा काम समझता तो दान-पुण्य करता ही क्यों? (ना वह दान पुण्य करता) और ना ही मंडी में बिकता।2।

करउ अढाई धरती मांगी बावन रूपि बहानै ॥ किउ पइआलि जाइ किउ छलीऐ जे बलि रूपु पछानै ॥३॥

पद्अर्थ: करउ अढाई = ढाई करम (लम्बी)। बावन रूपि = बौने रूप में। बहानै = बहाने से। पइआलि = पाताल में। छलीऐ = ठगा जाता है। रूपु = बौने रूप को।3।

अर्थ: (विष्णू ने) बौने रूप में (आ के) बहाने से राजा बलि से ढाई करम धरती (का दान अपनी कुटिया बनाने के लिए) माँगा। अगर बलि राजा बौने रूप को पहचान लेता, तो ना ही ठगा जाता और ना ही पाताल में जाता।3।

राजा जनमेजा दे मतीं बरजि बिआसि पड़्हाइआ ॥ तिन्हि करि जग अठारह घाए किरतु न चलै चलाइआ ॥४॥

पद्अर्थ: दे = दे के। मती = शायद। बरजि = वरज के, रोक के। बिआसि = ब्यास ने। तिनि = उस (राजा जनमेजा) ने। घाए = मार दिए। किरतु = किए हुए कर्मों के संस्कारों का समूह।4।

अर्थ: ब्यास ऋषि ने राजा जनमेजा को खूब समझाया और मना किया (कि उस अप्सरा को अपने घर ना लाना। पर, परमात्मा ने उसकी बुद्धि भ्रष्ट की हुई थी। उसने ऋषि का कहना नहीं माना। अप्सरा को ले आया। फिर) उसने अठारह यज्ञ करके अठराह ब्राहमण मार दिए (क्योंकि वह बहुत ही बारीक कपड़ों में आई अर्ध-नग्न अप्सरा देख के हँस पड़े थे)। किए कर्मों के फल को कोई मिटा नहीं सकता।4।

गणत न गणीं हुकमु पछाणा बोली भाइ सुभाई ॥ जो किछु वरतै तुधै सलाहीं सभ तेरी वडिआई ॥५॥

पद्अर्थ: न गणीं = मैं नहीं गिनता। बोली = मैं बोलता हूँ। भाइ = भाय, प्रेम में। तुधै = तुझे ही, हे प्रभु! सलाहीं = मैं सलाहता हूं।5।

अर्थ: हे प्रभु! मैं और कोई सोचें नहीं सोचता, मैं तो तेरी रज़ा को समझने का प्रयत्न करता हूँ, और तेरे प्रेम में (मगन हो के) तेरे गुण उचारता हूँ। मैं तो तेरी ही महिमा करता हूँ। जो कुछ जगत में हो रहा है तेरी ताकत का जहूर हो रहा है।5।

गुरमुखि अलिपतु लेपु कदे न लागै सदा रहै सरणाई ॥ मनमुखु मुगधु आगै चेतै नाही दुखि लागै पछुताई ॥६॥

पद्अर्थ: अलिपतु = निर्लिप। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। आगै = पहले, समय सिर। दुखि लागै = दुख लगने पर, जब दुख में फसता है।6।

अर्थ: जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है वह जगत में निर्लिप रहता है, उस पर माया का प्रभाव नहीं पड़ता, वह सदा परमात्मा की ओट पकड़ता है। पर अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (जिंदगी में) समय सिर परमात्मा को याद नहीं करता, जब (अपनी इस मूर्खता के कारण) दुख में फंस जाता है तो हाथ मलता है।6।

आपे करे कराए करता जिनि एह रचना रचीऐ ॥ हरि अभिमानु न जाई जीअहु अभिमाने पै पचीऐ ॥७॥

पद्अर्थ: जिनि = जिस (कर्तार) ने। हरि = हे हरि! जीअहु = दिल में से। पै = पड़ कर।7।

अर्थ: जिस परमात्मा ने यह जगत रचना रची है वह स्वयं ही सब कुछ करता है वह स्वयं ही जीवों से सब कुछ कराता है।

हे प्रभु! (हम जीव मूर्ख हैं, हम यह गुमान करते हैं कि हम ही सब कुछ करते हैं और कर सकते हैं) हमारे दिलों में से अहंकार दूर नहीं होता। अहंकार में पड़ कर दुखी होते हैं।7।

भुलण विचि कीआ सभु कोई करता आपि न भुलै ॥ नानक सचि नामि निसतारा को गुर परसादि अघुलै ॥८॥४॥

पद्अर्थ: सभु कोई = हरेक जीव। निसतारा = विकारों से निजात। परसादि = कृपा से। अघुलै = खलासी प्राप्त करता है, मुक्ति मिलती है।8।

अर्थ: ईश्वर स्वयं कभी गलती नहीं करता। पर, हरेक जीव जो उसने पैदा किया है भूलों में फंसता रहता है।

हे नानक! सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के नाम में जुड़ने से इन भूलों से बचा जा सकता है। गुरु की कृपा से ही कोई विरला जीव कुमार्ग पर पड़ने से बचता है।8।4।

प्रभाती महला १ ॥ आखणा सुनणा नामु अधारु ॥ धंधा छुटकि गइआ वेकारु ॥ जिउ मनमुखि दूजै पति खोई ॥ बिनु नावै मै अवरु न कोई ॥१॥

पद्अर्थ: अधारु = आसरा। वेकारु = व्यर्थ। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। दूजै = प्रभु के बिना किसी और आसरे की झाक में। पति = इज्जत।1।

अर्थ: जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम सुनने व सुनाने को अपने आत्मिक जीवन का सहारा बना लिया है, उसकी माया की खातिर हर वक्त की व्यर्थ दौड़-भाग समाप्त हो जाती है। पर अपने मन के पीछे चलने वाला बँदा परमात्मा के बिना और-और आसरे की झाक में (दौड़-भाग करता) है और इज्जत गवा लेता है। (हे मेरे मन!) मुझे तो परमात्मा के नाम के बिना कोई और आसरा नहीं सूझता।1।

सुणि मन अंधे मूरख गवार ॥ आवत जात लाज नही लागै बिनु गुर बूडै बारो बार ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मन गवार = हे गवार मन! लाज नही लागै = शर्म नहीं आती। बारो बार = बार-बार।1। रहाउ।

अर्थ: हे (माया के मोह में) अंधे हुए मन! हे मूर्ख मन! हे गवार मन! सुन (जो व्यक्ति माया के मोह में अंधा हो जाता है, और बार-बार माया के मोह में फंसने से बाज़ नहीं आता, उसको सिर्फ) माया की खातिर दौड़-भाग करने में कोई शर्म महसूस नहीं होती। गुरु की शरण से वंचित रह के वह बार-बार माया के मोह में ही डूबता है (हे मन! याद रख कि तू भी ऐसा ही निर्लज हो जाएगा)।1। रहाउ।

इसु मन माइआ मोहि बिनासु ॥ धुरि हुकमु लिखिआ तां कहीऐ कासु ॥ गुरमुखि विरला चीन्है कोई ॥ नाम बिहूना मुकति न होई ॥२॥

पद्अर्थ: मोहि = मोह में। बिनासु = आत्मिक मौत। कासु = किस को? चीनै = पहचानता है।2।

अर्थ: (हे भाई!) माया के मोह में (फंस के) इस मन की आत्मिक मौत हो जाती है (पर, जीव के क्या वश?) जब धुर से ही यह हुक्म चला आ रहा है तो किसी और के आगे पुकार नहीं की जा सकती (भाव, माया का मोह आत्मिक मौत का कारण बनता है; ये नियम अटल है, कोई इसकी उलंघना नहीं कर सकता)। कोई विरला व्यक्ति ही गुरु की शरण में पड़ कर समझता है कि प्रभु के नाम के बिना माया के मोह से खलासी नहीं हो सकती।2।

भ्रमि भ्रमि डोलै लख चउरासी ॥ बिनु गुर बूझे जम की फासी ॥ इहु मनूआ खिनु खिनु ऊभि पइआलि ॥ गुरमुखि छूटै नामु सम्हालि ॥३॥

पद्अर्थ: भ्रमि = भटक के। ऊभि = ऊँचा, आकाश में। पइआल = पाताल में।3।

अर्थ: माया के मोह में भटक-भटक के जीव चौरासी लाख जूनियों के चक्करों में धक्के खाता फिरता है। गुरु के बिना सही जीवन-राह को नहीं समझता और जम का फंदा (इसके गले में पड़ा रहता है)। (माया के असर में) यह मन कभी आकाश में जा चढ़ता है और कभी पाताल में गिर जाता है। जो मनुष्य गुरु के बताए हुए राह पर चलता है वह परमात्मा का नाम स्मरण करके इस चक्कर में से बच निकलता है।3।

आपे सदे ढिल न होइ ॥ सबदि मरै सहिला जीवै सोइ ॥ बिनु गुर सोझी किसै न होइ ॥ आपे करै करावै सोइ ॥४॥

पद्अर्थ: सहिला = आसान।4।

अर्थ: जिस मनुष्य को प्रभु स्वयं ही (अपने चरणों में जुड़ने के लिए) बुलाता है उसको मिलते हुए समय नहीं लगता, वह मनुष्य गुरु के शब्द से माया के मोह से उपराम हो जाता है (भाव, माया उस पर प्रभाव नहीं डाल सकती) और वह बड़ा आसान जीवन बिताता है। गुरु की शरण पड़े बिना किसी को आत्मिक जीवन की समझ नहीं पड़ती (गुरु से भी प्रभु स्वयं ही मिलाता है) प्रभु स्वयं ही ये सब कुछ करता है और जीवों से करवाता है।4।

झगड़ु चुकावै हरि गुण गावै ॥ पूरा सतिगुरु सहजि समावै ॥ इहु मनु डोलत तउ ठहरावै ॥ सचु करणी करि कार कमावै ॥५॥

पद्अर्थ: सहिज = आत्मिक अडोलता में। सचु = सदा स्थिर परमात्मा का नाम स्मरण।5।

अर्थ: जिस मनुष्य का माया के मोह का लंबा चक्र प्रभु खत्म कर देता है वह मनुष्य प्रभु के गुण गाता है, पूरा गुरु उसके सिर पर रखवाला बनता है और वह आत्मिक अडोलता में टिका रहता है। तब मनुष्य का यह मन माया के पीछे भटकने से हट जाता है, तब मनुष्य सदा-स्थिर-नाम के स्मरण को अपना कर्तव्य जान के नाम-जपने की कार करता है।5।

अंतरि जूठा किउ सुचि होइ ॥ सबदी धोवै विरला कोइ ॥ गुरमुखि कोई सचु कमावै ॥ आवणु जाणा ठाकि रहावै ॥६॥

पद्अर्थ: सुचि = पवित्रता। कोइ = कोई विरला। ठाकि = रोक के।6।

अर्थ: पर जिस मनुष्य का मन (विकारों से) मैला हो चुका हो उसके अंदर (बाहरी स्नान आदि से) पवित्रता नहीं आ सकती। कोई विरला मनुष्य गुरु के शब्द के साथ ही (मन को) साफ करता है। कोई विरला ही गुरु की शरण पड़ कर सदा-स्थिर-हरि-नाम को स्मरण करने का कार्य करता है और अपने मन की भटकना को रोक के रखता है।6।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh