श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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चउबोलियों का भाव:

हरेक बंद का अलग-अलग

परमात्मा के नाम का प्रेम, धन के बदले नहीं मिल सकता।

सच्चे प्रेमी के मन में अपने प्रीतम के प्रति रक्ती भर भी दूरी नहीं होती।

तीर्थ-यात्रा आदि के लिए धरती का रटन परमात्मा के प्यार के रास्ते में कौड़ी भी मूल्य नहीं रखता।

जिस मनुष्यों के हृदय-आकाश को प्रभु-प्रेम की रौशनी रौशन करती है, वह सदा परमात्मा के चरणों में जुड़े रहते हैं।

जाप, ताप, उल्टे लटकना- शरीर को कष्ट देने वाले इस प्रकार के साधन भी प्रभु-प्यार के मुकाबले पर कोई मूल्य नहीं पाते।

प्रीतम-प्रभु के प्यार से वंचित मनुष्य आत्मिक मौत बनाए रखता है।

जो मनुष्य परमात्मा की याद भुलाए रखता है, वह अपने आत्मिक जीवन की राशि-पूंजी लुटाए जाता है।

परमात्मा के नाम के आशिक मनुष्य तीर्थ यात्रा आदि और तप आदि वाले रस्ते को नहीं अपनाते।

प्रभु-चरणों के प्रेमियों को निम्रता वाले जीवन में से आत्मिक आनंद मिलता है।

जो मनुष्य परमात्मा के नाम का प्रेमी है उसको ‘नवखंड बसुधा भ्रम’ और ‘जप तप संजम’ आदि साधन बेमतलब लगते हैं।

आखिरी बात, प्रभु चरणों का प्रेम मिलता है स्वै कुर्बान करने से।

लड़ी वार भाव:

(1,2) धन के बदले प्रभु-चरणों का प्रेम नहीं मिलता, यहाँ तो हर वक्त मन को प्रभु की याद में जोड़े रखने की आवश्यक्ता होती है।

(3 से 7) तीर्थ-यात्रा, जप तप संयम आदि साधन- यह कोई भी, मनुष्य के आत्मिक जीवन को विकारों में गलतान होने से बचा नहीं सकते। परमात्मा की याद को भुलाने से आत्मिक जीवन की राशि-पूंजी लूटी जाती है।

(8 से 11) प्रभु-प्रेम के रास्ते में तीर्थ-यात्रा, जप तप संजम आदि की जरूरत ही नहीं पड़ती। विनम्रता वाला जीवन आत्मिक आनंद पैदा करता है। प्रेम के सौदे के लिए स्वै भाव देना पड़ता है।

मुख्य भाव:

परमात्मा के चरणों का प्यार ना धन से मिलता है ना तीर्थ-यात्रा और जप तप संजम आदि साधनों से। अहंकार का त्याग करके परमात्मा की याद में जुड़े रहना ही सही रास्ता है।


सलोक कबीर जीउ के

प्राथमिक जान–पहिचान:

पहले पहल मुझे सन् 1925 में पता चला कि कि कुछ सज्जन भक्त-वाणी को गुरमति के अनुसार ना समझ के इसके विरुद्ध प्रचार कर रहे हैं। संन् 1927 में जब कि अभी मैं शिरोमणी गुरद्वारा प्रबंधक कमेटी के दफतर में उप–सचिव था, मुझे एक खबर मिली कि ये सज्जन भट्टों के सवैयों, सद, सते बलवंड की वार, तुखारी राग के एक छंत महला ४ को भी श्री गुरु ग्रंथ साहिब में देखना पसंद नहीं करते। उनके विचार के अनुसार ये बाणियां भी गुरमति के अनुकूल नहीं हैं। सो, गुरु ग्रंथ साहिब की वाणी की साधारण विचार के साथ-साथ इन ऊपर बताई गई बाणियों के संबंध में मैंने खास विशेष मेहनत शुरू की। जुलाई 1929 में जब कि मैं गुरु नानक खालसा कालज गुजरांवाला छोड़ चुका था, मैंने भट्टों के सवैयों का टीका लिखना शुरू किया जो मैंने अकटूबर नवंबर में खत्म कर लिया। इस वाणी के विरोधियें में से एक प्रमुख सज्जन डाक्टर रण सिंघ जी गुजरांवाले में आ टिके हुए थे, उनके साथ मेरी खूब सांझ–मित्रता बन चुकी हुई थी। इस टीके का सारा खरड़ा मैंने उनको पढ़ने के लिए दिया; उन दिनों वे इस वाणी के विरुद्ध अपनी पुस्तक ‘भाट गिरा कसौटी’ लिख रहे थे। मेरा खरड़ा वे 20 दिन पढ़ते रहे। आखिर उन्होंने अपना पुराना बना हुआ ख्याल छोड़ दिया, और मेरे साथ सहमति हो गए। उन्होंने मेरे साथ वादा किया कि वे अपने पहले हम–ख्याल साथियों में भाटों के सवैयों के गुरमति अनुकूल होने का प्रचार करेंगे; पर कुदरत को ये बात मंजूर नहीं थी, डाक्टर रण सिंघ जी महीना बीमार रह के गुरपुरी सिधार गए। अपने इस विछुड़े मित्र के दिए उत्साह से मैंने भक्त-वाणी के कुछ शबदों पर भी हाथ डाला, उन पर विचार और उनका टीका एक-एक कर के मैं मासिक–पत्र ‘अमृत’ में छापता रहा। संन 1935–36 में रामकली राग की वाणी ‘सद्’ पर भी एक खाली विचार लिख के मैंने पाठकों के सामने रखी और बताया कि ये वाणी बिलकुल गुरमति अनुसार है। संन 1942 में मैंने बाबा फरीद जी के शलोकों का टीका लिखा, पर मेरे एक मित्र ने मुझे समझाया कि ऐसे इक्कड़–दुक्कड़ काम काफी नहीं हैं; मेरी लिखी हुई ‘गुरबाणी व्याकरण’ सब लोगों ने ना ही पढ़नी है और ना ही गुरबाणी के अनुसार समझने की मुश्किल मेहनत करनी है; जितना हो सके ये काम मुझे ही शुरू करना चाहिए। सो, ‘बाईस वारों’ के 1924 के शुरू किए हुए टीके को खतम करके 1945 में मैंने भगतों की वाणी का टीका शुरू कर दिया। यह काम बहुत ही मुश्किल साबित हुआ; आठ–नौ महीनों में ही मैं थक गया, और कबीर जी के शलोक मुझे छोड़ने ही पड़े। संन 1946 में मैं भगतों संबंधी और-और विचारें लिखता रहा, जिनमें से कुछ मैंने पुस्तक ‘गुरमति प्रकाश’ में पाठकों के सामने पेश कीं।

मार्च संन् 1947 में लाहौर और अमृतसर में फिरकू फसाद शुरू हो गए। इन्होंने इतनी भयानक शकल अख्तियार कर ली कि हजारों हिन्दू और सिख बुरे हालातों में खालसा कालेज के अंदर आ गए। पढ़ाई का सारा काम उलट–पलट गया। दिन–रात फसादों की दंद–कथाएं ही हर जगह चलती रहती थीं। महीना डेढ़ महीना तो ‘ये आए वो आए’ के शोर–शराबे में गुजारे; आखिर समझ आई कि ये झगड़े जल्दी खतम होने वाले नहीं हैं, और इस बेचैनी में ज्यादा समय गुजारा नहीं जा सकेगा। सो, भक्त-वाणी में से जो हिस्सा टीका करने से रह गया था, उसको शुरू करने की सलाह की। पर, तवज्जो अभी शोर–शराबे में बहुत बिखरी हुई थी; इसको ठहराने के लिए मैंने टीके का सारा खरड़ा दोबारा ध्यान से पढ़ा। इस तरह चेता–शक्ति को ताजा करके कबीर जी के शलोकों का टीका मैंने 9 जून को आरम्भ किया।

पहले–पहले मेरा ख्याल बना हुआ था कि ये सलोक आसान ही हैं, इनका टीका मैं दस–बारह दिनों में कर लूँगा। पर ज्यों-ज्यों एक-एक कर के मैंने इनको हाथ डाला, कबीर जी की ऊँची उड़ानों पर मैं हैरान होता गया। इतनी गहरी रम्जों से सामना होने लगा कि कई जगहों पर तो एक-एक सलोक में घंटों तक डुबकी लगानी पड़ती थी। बड़ा ही गहरा समुंदर छोटे से कटोरे में बंद किया हुआ प्रतीत होता था। कई समझदार विद्वानों और प्रचारकों के मुँह से अब तक मैं सुनता आया था– कबीर जी प्राणायाम आदि किया करते थे; मास के बारे में कबीर जी का मत सिख धर्म के साथ नहीं मिलता क्योंकि वे मास खाने का विरोध कर गए हैं; कबीर जी मछली मास खाने से मना कर गए हैं। बांग आदि में कई मुसलमान प्रचारक कबीर जी को इस्लाम से ना–वाकिफ़ साबित करते सुने जा रहे थे। पर, उच्च कोटि के गहरे कवियों को ऊपरी नज़र से देखने पर ऐसे भुलेखे पड़ने कुदरती बात थी। जब ये सारे शलोक मुझे एक विचार–कड़ी में परोए हुए दिखाई दिए, तो उन लोगों द्वारा डाले हुए भुलेखे और भ्रम–वहिम मेरे मन में से ऐसे उड़े, जैसे तेज़ हवा से धूएँ का पहाड़ उड़ जाता है।

इस टीके के साथ कबीर जी के सलोकों के बारे अब मैं निम्न-लिखित विचारे पाठकों के सामने पेश कर रहा हूँ;

सारे श्लोकों का मिलाजुला लड़ीवार भाव।

ये विचार कि कबीर जी के सारे सलोक एक ही विचारधारा में बँधे हुए हैं।

क्या कबीर जी वैश्णव भक्त थे?

कबीर जी के शलोक और गुरु नानक साहिब।

यह टीका चुँकि सिर्फ शलोकों का ही है, मैं कबीर जी के शबदों में कोई गवाही–प्रमाण पेश नहीं कर रहा। कबीर जी के जीवन के बारे में पड़े हुए भुलेखों पर की हुई विचार मैं ‘दर्पण’ के पाँचवें के संस्करण में पेश कर चुका हूँ जो पहले ‘भक्त-वाणी सटीक’ के चौथे हिस्से में भी छप चुकी है।

मेरे पातिशाह सतिगुरु जी ने जो कुछ मुझे बख्शा है उसके अनुसार नेक–नीयती से मैं भेटा पेश करता हूँ। हो सकता है कि कई सज्जनों के साथ कई जगह मेरा मतभेद हो। फिर भी अगर कहीं किसी एक–आध सज्जन को ही इस मेहनत से इस वाणी में से कोई मजेदार हुलारा आ सका तो मैं अपने ऊपर सतिगुरु जी की बेअंत कृपा समझूँगा कि उसने मुझे उस हिलजुल और शोर–शराबे में अच्छी तरफ लगाए रखा।

साहिब सिंघ
24, खालसा कालज, अमृतसर
नवंबर 19, 1947 ...................... बी.ए.


सलोक नं: 1 से 12 तक:

जब से संसार बना है मनुष्य के लिए सुख का एक ही अटल नियम चला आ रहा है कि सुख सिर्फ नाम-स्मरण में है; नीच से नीच जाति के व्यक्ति के लिए भी कोई बंदिश नहीं है। मनुष्य कितना भी धनाढ हो, और बाहर से बाँका बना हो, नाम के बिना हृदय में जलन ही टिकी रहती है, और, जब तक धन आदि सांसारिक सुखों की लालसा है तब तक हरि-नाम का स्मरण नहीं हो सकता, और सुख नहीं हो सकता।

प्रभु का नाम स्मरण करके जिस मनुष्य का ‘अहम्’ समाप्त होता है, उसकी सारी ज्ञान-इंद्रिय की रुचि ईश्वर की तरफ हो जाती है; पहले उसको अपना आप अच्छा लगता था, अब उसको दूसरों में गुण दिखने लग जाते हैं; पर यह सारी इनायत गुरु-दर से नसीब होती है।

‘अहम्’ को मारना एक ऐसा भला काम है जिसको सारा संसार सराहता है। निम्रता वाला मनुष्य, मानो, चँदन का पौधा है जो सबको सुगंधि देता है। ‘अहम्’ के मारे हुए बंदे अंधेरी रातों जैसे काले दिल वाले होते हैं, वे मानो, बाँस हैं जो चँदन के नजदीक होते हुए भी सुगंधि से वंचित रहते हैं और आपस में ही रगड़ खा-खा कर जल जाते हैं।

मुख्य भाव:

हरि-नाम का स्मरण मनुष्य के लिए सुख का असल साधन है, और यह हरि-नाम गुरु-दर पर पड़ने से मिलता है। गरीब से गरीब और नीच से नीच जाति का व्यक्ति भी हरि-नाम स्मरण करके सुखी हो जाता है।

सलोक नं: 13 से 30 तक:

दुनियावी पदार्थों को सुख का साधन समझ कर जो मनुष्य हरि-नाम को बिसारता है वह घाटे में रहता है; दुनिया के रंग-तमाशे और महल-माड़ियां भखती-सुलगती भट्ठी जैसे हैं क्योंकि नाम बिसार के दुनिया में मस्त लोगों के अंदर तृष्णा की आग जलती रहती है और सारी उम्र माया की खातिर भटकना करके फिर वह कई जूनियों में भटकते हैं। ऐसे लोगों के मुँह से जब भी निकलते हैं बुरे बोल ही निकलते हैं; मनुष्य-जन्म के असल उद्देश्य से विछुड़ के वे सारी उम्र दुखी ही होते हैं क्योंकि माया अनेक रूप धार के सदा उनको गलत रास्ते पर डाले रखती है। इतने दुखी रह के भी माया-ग्रसित जीव माया का मोह छोड़ने को तैयार नहीं होते; ये जानते हुए भी कि ‘मरने ही ते पाईअै पूरनु परमानंदु’ माया का मोह त्याग के हरि-नाम के गाहक नहीं बनते। जिस लोगों ने हरि-नाम की जगह, विद्या राज जमीन आदि को जिंदगी का सहारा बनाए रखा है, उनकी सांझ-मित्रता भी ऐतबार-योग नहीं होती।

लंबी जटाओं वाले व सिर मुंडाए सन्यासी देख के एक गृहस्थी को ये ख्याल पैदा हो सकता है कि ये लोग तो ‘दुनी’ छोड़ के ‘दीन’ के रास्ते पर पड़े हुए हैं। पर यह ग़लत है, कोई भेस व बाहरी त्याग ‘दुनी’ के मोह से बचा नहीं सकता, और, जब तक यह मोह कायम है तब तक सहम प्राणों को खाता ही रहेगा। ‘काजल की कोठरी’ जगत में बेदाग़ रहने के लिए हरि-नाम ही एक-मात्र उपाय है जो ‘साधु-संगत’ में रह के स्मरण किया जा सकता है।

अजीब खेल बनी हुई है। ‘दुनी’ का व्यापारी जीव हर वक्त मौत के सहम तले दबा रहता है, फिर भी ‘दुनी’ का मोह त्यागने को तैयार नहीं; ‘बन फल पाके’ की तरह ये जनम भी व्यर्थ गवाता है और दोबारा चौरासी के चक्कर में पड़ जाता है।30।

31 से 40 तक:

शरीर का मोह मनुष्य को ‘दुनिया’ की दौड़-भाग की तरफ प्रेरित करता है, अगर इसकी चाहत अनुसार माया ना इकट्ठी हो तो गिले-शिकवे करता है। प्रभु के गुण भी गाए और गिले-शिकवे भी करता फिरे- यह ‘सलामु जबाबु दोवे करे, मुढहु घुथा जाइ’। प्रभु से प्रीति की परख में वही मनुष्य पूरा उतरता है जो ‘दुनिया’ के मोह से मर के हरि-नाम के प्यार में जी उठता है। इन्सानी जिंदगी, मानो, एक बेड़ी है, कई जूनियों में से गुजरने के कारण यह बेड़ी पुरानी हो चुकी है, अनेक जन्मों के किए कुकर्मों के संस्कार इस बेड़ी में मानो, छेद हैं, इस दुनिया के मोह में फसा हुआ मनुष्य डूबा ही समझो। फिर, यह मोह करना भी किस चीज़ से? सुंदर शरीर आखिर मिट्टी में मिल जाता है, महल-माड़ियां छोड़ने पड़ जाते हैं, धन-पदार्थ जाते हुए समय नहीं लगता।

मुख्य भाव:

दुनियावी पदार्थों और भोगों को सुख का साधन समझ के हरि-नाम बिसारने से निरा दुख ही नसीब होता है, और इनके साथ साथ नहीं निभता।

सलोक नं: 41 से 70 तक;

यह मनुष्य-जनम ही हरि-नाम जपने की बेला है; पर यह नाम-धन इकट्ठा करने के लिए जरूरी है कि मनुष्य पहले शारीरिक मोह छोड़ विकारों से भी अपना साथ त्यागे। इन भोगों-विकारों की पायां असल में इतनी ही समझो, जैसे किसी दुकान से सौदा लेने के वक्त झूंगे के रूप में ऊपर से थोड़ा सा गुड़ ले के खा लिया जाता है। दुनिया के भोग तो कहीं रहे, अगर विद्या और भक्ति में से किसी एक को चुनना पड़ जाए, तो विद्या छोड़ के हरि-नाम ही चुनना चाहिए। यहाँ संसार में जीव की जोगी वाली ही चार दिनों की फेरी है; विकारों की आग में पड़ के जिस अभागे जीव-जोगी की शरीर-गोदड़ी जल के कोयला हो गई, उसके पल्ले खेह-ख्वारी ही राख ही पड़ती है। अगर जीव दुनियावी भोग विद्या-धन आदि को अपने जीवन का आसरा बना ले, तो माया के ‘पांचउ लरका’ इसको आसानी से ग्रस लेते हैं जैसे थोड़े पानी में रहती मछली को मछुवारा जल्दी पकड़ लेता है। ये भोग स्वदिष्ट प्रतीत होते हैं, फिर भी प्रभु के नाम के सामने दुनिया वाले ये सारे आसरे होछे हैं। पति-हीन और बे-मल्लाह बेड़ियां लहरों के सामने आ के डूब जाती हैं, इसी तरह जिस जीव की जिंदगी की बेड़ी का कोई गुरु-मल्लाह नहीं है वह विकारों की लहरों से टक्कर खा के डूब जाती हैं। विकारी कुसंगति से बचो, वरना इन कमजोर जीव-हिरन विकार-शिकारियों के असर से नहीं बच सकोगे।53।

तीर्र्तों पर स्नान व रिहायश रखने पर मन विकारों से नहीं बच सकता, ऊँची जाति में जन्म लेना भी कोई सहायता नहीं करता, स्मरण से ही मन पवित्र हो सकता है। तीर्थ-स्नान और ऊँची जाति तो बल्कि मन को अहंकार से हाथी जैसा बना देते हैं। जायदाद की मल्कियत की लालसा, माया की ममता भी प्रभु-चरणों में जुड़ने नहीं देती। जिस पर प्रभु मेहर करे, वह काम-काज करता हुआ भी तवज्जो प्रभु-चरणों में रखता है। दिन के वक्त काम-काज करते हुए तवज्जो परमात्मा की याद में रखो, रात सोते हुए अपने आप ही ध्यान उधर ही रहेगा, इस तरह उठते-बैठते सोते-जागते हर वक्त प्रभु-चरणों में जुड़ने की आदत बन जाएगी। पर, अगर सारा दिन ‘बड बड रूंधउ ठाउ’, जो तवज्जो सारा दिन सिर्फ दुनियावी चीजें हासिल करने में लगी रहे, वह प्रभु-चरणों में नहीं जुड़ सकती। जिंदगी की सारी दौड़-भाग दुनियावी वस्तुएं हासिल करने के लिए ही नहीं चाहिए; पर दूसरी तरफ, दुनिया छोड़ के धूणियां तपानी उल्टे लटक के भी ईश्वर नहीं मिलता। हमने मेहनत-कमाई करनी है, और हक की मेहनत-कमाई करते हुए उसके दर से नाम की दाति भी माँगनी है। उसकी याद बिलकुल उसकी बख्शिश है किसी जप-तप का कोई मान नहीं किया जा सकता, कोई हक नहीं जता सकता।65।

अगर प्रभु के दर पर टिके रहें तो ‘लाख अहेरी’ ‘पांचउ लरिका’आदि में से कोई भी जीवन के सही राह में रुकावट नहीं डाल सकता। महिमा का हुलारा एक ऐसी ताकत है कि सांसारिक मोह की लहरों में से अडोल ही मनुष्य को ऊपर उठा लेती है, और डूबने से बचा लेती है। फिर भी विकारी व्यक्ति को ये महिमा अच्छी नहीं लगती, उसका स्वभाव मक्खी की तरह हो जाता है। जो सदा बद-बू वाली जगह ही जाती है। कोई अंजान हो चाहे समझदार हो, जो भी हरि-नाम का स्मरण त्यागता है वह मायावी मोह में डूब के आत्मिक मौत मर रहा है, उसको विकार अंदर ही अंदर से खोखला किए जाते हैं।70।

मुख्य भाव:

यह मानव-जनम ही नाम-जपने की बेला है, पर विकारों से बचने पर ही ये कमाई हो सकती है। और, जहाँ स्मरण नहीं है वहाँ विकार आ के दबा लेते हैं।

सलोक नं: 71 से 101:

जिस मनुष्य को प्रभु-दर से भक्ति की दाति मिलती है वह सती की तरह खुशी-खुशी शारीरिक मोह को जलाता है, विकारों से मुँह मोड़ता है। गंने को मीठा रस मिलता है, उसके बदले में वह वेलने में पीढ़ा जाता है, वैसे ही गुणों के बदले स्वै-भाव को मारना ही पड़ता है। इस शरीर की पायां भी कच्चे घड़े जैसी चार दिन की ही है, इसका मोह तो त्याग के गुरु के बताए हुए राह पर चलना चाहिए, क्योंकि पालतू कुत्ते की तरह एक मालिक का हो के रहने में आदर और सुख है, दर-दर पर भटकने में निरादरी और दुख है। गुरु-दर से जिस मनुष्य को यह सूझ मिलती है कि इन कामादिकों ने मुझे ईश्वर से विछोड़ दिया है, परमात्मा से विछोड़े का अहसास एक ऐसा डंक उसको लगता है कि विकारों का कोई मंत्र उस पर नहीं चल सकता। प्रभु-पारस उसको सोना बना देता है, गुरु-चँदन उसके अंदर नाम-जपने की सुगंधी पैदा कर देता है। गुरु विकारों की मार से बचा के मौत का सहम दूर कर देता है। यहाँ सदा नहीं टिके रहना, मौत आनी ही आनी है, तो फिर मन-मर्जी की मौजों में पड़ कर मनुष्य-शरीर गवा लेना भारी भूल है, यह दोबारा जल्दी नहीं मिलेगा।80।

इन्सान ने परमात्मा के गुण इसलिए नहीं गाने कि गुणों का अंत पाया जा सके। गुणों के साथ मन को बार-बार जोड़ने से मन में गुण पैदा होने शुरू हो जाते हैं, नीच जाति आदि का दुर्बलता भरा एहसास कम होने लगता है। जैसे परलोक पहुँचे पति की खातिर सती हस-हस के अपना शरीर चिखा में जलाती है, वैसे ही प्रभु-पति को मिलने के लिए जीव-स्त्री महिमा की ब्रहमाग्नि में शारीरिक मोह को जलाती है, मन-पंछी माया के पीछे दौड़ने से हट के प्रभु-चरणों में टिका रहता है, कुसंग से बचा रहता है और जिंद आत्मिक मौत मरने से बच जाती है। निंदा एक ऐसी चंदरी दुष्टता है मनुष्य औरों के ऐब फरोलता-फरोलता अपने दुष्कर्मों के प्रति बेखबर हो जाता है; प्रभु की महिमा इस खतरनाक रास्ते से बचाती है। महिमा से टूटा हुआ मनुष्य कुसंगति में फसता है, धीरे-धीरे उसकी कोमल जिंद विकारों में जल कर कोयला बन जाती है, वह हर वक्त खिझता और जलता है। यह खिझ, यह जलन, ये कालिख खत्म होने को नहीं आती। जला हुआ मनुष्य कुसंगति में बैठा और जलता है और जलने खिजनी की ये लंबी कहानी बनी रहती है। महिमा की इनायत से मन विकारों के प्रति उदासीन हो जाता है, मन के मरने से जाति-अभिमान, शारीरिक मोह, तृष्णा, कुसंगत, निंदा आदि सारे ऐब दूर हो जाते हैं।81।

परमात्मा का नाम ही विकारों की ओर भटकने से बचाता है, और वह नाम साधु-संगत में से मिलता है। और, साधु वे हैं जिनहोंने सर्व-व्यापक प्रभु को याद रखा हुआ है, उनकी संगति ही मन के लिए शांति की ‘ठौर’ है। पर जिन्होंने चेले-चाटड़ों वाला आडंबर रच लिया है, जो बँदगी की ओर से टूट के अपनी सेवा-पूजा में ही मस्त हो गए हैं, वे ‘साधु’ नहीं हैं। इन्सानी उच्च जीवन-रूप वृक्ष की चोटी पर पहुँचाने के लिए ‘साधु’ मानो, टहनियां, डालियां हैं जिनका आसरा ले के मनुष्य ने चोटी पर पहुँचना है, पर, भेस वाले और चेले-चाटड़े ही बनाने वाले साधु कमजोर टहनियां हैं, इनका आसरा लेने से मुँह भार गिर के आत्मिक मौत मरने का खतरा पड़ जाता है। ये जो सिर मुना के अपने आप को ‘साधु’ समझता फिरता है, अगर इसने मन पर से विकारों की मैल दूर नहीं की, तो सिर के केस मुनाने से ये साधु नहीं बन गया, ऐसे लोग बल्कि साकत होते हैं, इनकी सुहबति में मन पवित्र होने की जगह बल्कि काला हो जाता है। मन को साधने वाले गुरमुखों की संगति में रहने से दिनो-दिन परमात्मा के साथ प्यार बढ़ता ही बढ़ता है, ऐसे सौभाग्यशाली लोगों की संगति में रहने से अगर मेहनत-कमाई घटने से गरीबी आदि कष्ट भी आ जाए तो भी परवाह नहीं करनी चाहिए।

मुख्य भाव:

गुणों के बदले स्वैभाव से मरना ही पड़ता है, विकार छोड़ने ही पड़ते हैं, गुण गाने की इनायत से जाति-अभिमान, शारीरिक मोह, तृष्णा, कुसंग, निंदा आदि सारे ऐब दूर हो जाते हैं। पर, महिमा की यह दाति साधु-संगत में से मिलती है।

शलोक नं: 102 से 131

‘तनु धनु’ जाने पर भी अगर हमारा मन ‘रामहि नामि’ समाया रहे तो भी यह सौदा बड़ा सस्ता है क्योंकि नाम की इनायत से शारीरिक मौह मात पड़ जाती है; वह मन ही नहीं रह जाता जो शारीरिक मोह का बाजा बजाता है। वेदों आदि के कर्मकांड विकारों से नहीं बचा सकते, बाहरी धर्म-भेस से लोग तो भले ही पतीज जाएं, पर अंदरूनी पाप परमात्मा से छुपे नहीं रह सकते।

परमात्मा का स्मरण छोड़ने का ही नतीजा है कहीं कोई सारी उम्र सिर्फ परिवार ही पालता-पालता आत्मिक मौत मर जाता है, कहीं कोई औतरी जाहिल औरत औलाद की खातिर रात को मसाण जगाने चल पड़ती है, कहीं कोई स्त्री सीतला आदि का व्रत रखती फिरती है। वैसे स्मरण करना भी कोई आसान कार नहीं है, दुनिया के चस्के छोड़ने पड़ते हैं। और, अगर कोई स्मरण करता है उसकी अपनी आत्मा उसका शरीर उसकी कुल सभ पवित्र हो जाते हैं। स्मरण-हीन राज-भाग के सुख से माँग के खाना अच्छा है अगर जिंदगी के दिन प्रभु की याद में गुजरें, क्योंकि नाम के बिना और कोई किसी के साथ निभने वाला साथी नहीं होता। पर, प्रभु स्वयं ही मेहर करे, तो ही ये जीव गुण गा सकता है। जिस पर नाम-जपने की बख्शिश नहीं होती उसका सारा ही परिवार (आँखें, नाक, कान आदि सारी ही इन्द्रियों का टोला) अवश्य ही विकारों में डूब जाता है।115।

नाम-जपने की दाति गुरमुखों की संगति में ही मिलती है। सत्संगि में जाने के वकत कोई आसरे नहीं ढूँढने चाहिए, किसी साथ का इन्तजार नहीं करना चाहिए, क्योंकि आम तौर पर हरेक जीव ममता में बँधा हुआ है, आसरा देखते-देखते कहीं ममता-बंधे साथी की प्रेरणा में ही आ जाएं। ये ममता की जंजीर इतनी पक्की होती है कि मृत्यु-शैया पर पड़ा मनुष्य भी प्रभु को याद करने की जगह इशारों से ही सम्बन्धियों को संभाल के रखे धन की बातें समझाने का प्रयत्न करता है।118।

प्रभु-दर से नाम-जपने की दात मांगो। परमात्मा के सुंदर चरणों की याद के हुलारे का आनंद ऐसा होता है कि किसी स्वर्ग आदि का सुख इसकी बराबरी नहीं कर सकता, और नर्क आदि का कोई डर नजदीक नहीं आता।122।

पर भाग्य-हीन मनुष्य का हाल देखो! कूंज की तरह इसकी तवज्जो हर वक्त माया की मल्कियत की तमन्ना में ही टिकी रहती है, और पपीहे की तरह सदा बिलकता ही रहता है। माया की ममता का यह अंधेरा जन्मों-जन्मांतरों तक इसकी खलासी नहीं करता; प्रभु-चरणों से विछुड़ के माया की खातिर यह दर-दर पे तरले लेता है। फिर भी मोह की इस मीठी नींद में से जागने को इसका चिक्त नहीं करता, कभी नहीं सोचता कि एक दिन यह सब कुछ सदा के लिए छोड़ जाना पड़ेगा। असल बात ये है कि यह जाग गुरमुखों की संगति में रहने से और साकतों से परे हट के ही आ सकेगी।131

मुख्य भाव:

प्रभु का स्मरण छोड़ने से कई किस्म के सहम और भ्रम-वहम आ दबाते हैं। प्रभु के चरणों में जुड़े रहना सबसे अच्छा स्वर्ग और विछुड़ना नर्क है। पर, यह स्मरण तब ही हो सकता है जब भलों की संगति में टिके रहें और साकतों की सुहबति से बचे रहें।102 से 131।

सलोक नं: 132 से 183 तक:

साधारण तौर पर नाम-जपने की आदत पकाने का समय बुढ़ापे से पहले-पहले ही होता है, वैसे है यह असली बख्शिश; बुढ़ापा हो चाहे जवानी, स्मरण वही करता है जिस पर मेहर हो। और, जो भाग्यशाली पूरी श्रद्धा में रह के याद में जुड़े रहते हैं उनका जीवन स्वीकार होता है। पर मूर्ति-पूजा और तीर्थ-स्नान के, ‘भरवासे जो रहे, बूडे काली धार’। पण्डितों की इस कैद में से निकल के परमात्मा का स्मरण करो, और आजकल कहते हुए समय व्यर्थ ना गवाओ।138।

परमात्मा की याद से टूटा हुआ मनुष्य भले ही कितना भी चुस्त-चालाक दिखता हो, असल में वह अक्ल से वंचित होता है। समझदार उसी को जानो जो प्रभु की भक्ति से नहीं हटता। वह मनुष्य भौरे की तरह प्रभु-प्यार में लीन रहता है। जो मनुष्य निरा कुटंब के गार में फसा हुआ है, परमात्मा का भजन उसके हृदय से छूट जाता है, ऐसे साकतों से तो सूअर ही अच्छा जो गाँवों के चौगिर्दे की गंदगी खा के गाँव को साफ-सुथरा रखता है। सिर्फ धन कमाने वाले व्यक्ति उम्र व्यर्थ गवाते हैं, पर निरे भेस को ही भक्ति मार्ग समझने वाले भी कुछ नहीं कमा रहे। अभिमान त्यागना है, हृदय को कोमल बनाना है, सबके साथ ऐसा शालीन व्यवहार करना है कि ‘जैसा हरि ही होइ’ वैसा बनना है; ऐसी अवस्था में पहुँचे मनुष्य को सत्संग सबसे प्यारी जगह लगती है, उसका मन उस पत्तन पर जा टिकता है जहाँ सहज अवस्था है और जहाँ मायावी पदार्थों के फुरनों से शूनय है। ऐसे मनुष्य के ऊँचे जीवन की कीमत नहीं पाई जा सकती।153।

पर ‘ऊच भवन कनकामनी’ आदि पदार्थों में मस्त रहने के कारण यह हीरा जनम ‘कउडी बदले’ जाता है क्योंकि दुनिया की मौजों के ‘लोभ’ के कारण मनुष्य आत्मिक मौत सहेड़ लेता है। (इसका यह भाव नहीं कि दुनिया ‘त्याग’ के कहीं जंगल में जा बैठना है, यह तरीका तो बल्कि और अहंकार पैदा करता है। हीरे जन्म को ‘कौड़ी बदले’ जाने से बचाने का बस, एक ही रास्जा है, वह है गुरु की शरण। पर गुरु दर पर भी रस्मी तौर पर नहीं आना, अपनी चतुराई छोड़ के गुरु के बताए हुए राह चलना है)। सो, ‘बिखै कउ मांग’ सवारने वाली ‘छत्रपति की नारि’ से ‘हरि जन की पनिहार’ भाग्यशाली है क्योंकि साधु-संगत में रह के ‘ओह सिमरै हरि नामु’। (गुर-शब्द की इनायत से हरि-नाम की कद्र जानने वाले भाग्यशाली व्यक्ति संत-संग में मिल के बड़े भावना और प्यार से परमात्मा की महिमा करते हैं। यहाँ ये बात याद रखने वाली है कि एक तो परमात्मा के बिना किसी और देवी-देवता की पूजा ना करो, दूसरे, परमात्मा का मिलाप सिर्फ सत्संग में है, कर्मकांडी पण्डितों के आगे नाक ना रगड़ते फिरो। कर्मकांड की कैद में कुलारीति भी बड़ी जकड़ रखती है, इसको भी निडर हो के त्यागना पड़ेगा)। सिर्फ जयदादों के कब्जे से मँगता बन के घर-घर से रोटी माँग के गुजारा कर लेना बेहतर है क्योंकि मल्कियतें बनाने से मनुष्य के अंदर खिझ और जलन पैदा होती हैं। प्रभु संसार के जर्रे-जर्रे में बसता हो, पर लोग हर चीज़ को कब्जा करने के आहर लग के तृष्णा अग्नि में जलते हुए उस घट-घट वासी को ना पहचान सकें- ये कितनी हसरत भरी घटना है। मल्कियतों से पैदा हुई अंदरूनी तपश के कारण मनुष्य की ज्ञान-इन्द्रियों में प्रभु की लौ कम होती चली जाती है, माया अनेक रूपों में मनुष्य को मोह रही है, मनुष्य इस माया की हरेक मौज को अपनी मल्कियत बनाने की कोशिश करता है। सो, सांसारिक वस्तुओं पर कब्जे करने की अंदरूनी आग, जैसे, हरेक तरफ से लगी हुई है। जो मल्कियत बनाने की इस कोशिश से बेपरवाह रहते हैं, उनको दुनिया मूर्ख कहती है। जिस किसी को विद्या हासिल करने का मौका मिला है उसको चाहिए कि उसके द्वारा दुनियां मल्कियतों में डूबने की जगह विचारवान बने और परमात्मा का स्मरण करे।173।

जैसे साँपों से घिरा हुआ भी चंदन का पौधा अपनी अंदरूनी ठंढक नहीं त्यागता, वैसे ही नाम-जपने की इनायत से संत-गुरमुख करोड़ों बुरे लोगों से सामना होने पर भी शांत स्वभाव नहीं छोड़ते। हजूरी में रहने वाले को पता होता है कि माया की जलन से बचने के लिए माया के रचनहार प्रभु के चरणों में जुड़े रहना ही सही तरीका है। माया के असर तले सदा यह खतरा रहता है कि जीव औले (अहिण) की तरह कठोर ना बन जाएं, इसको अंतरात्मे (सूरज की) गर्मी की जरूरत है, ये गर्मी (प्यार) और ये शीतलता गुरु परमात्मा के चरणों में जुड़ने से मिलती है। अजब खेल बनी हुई है! जीवन के इस भेद को ना समझने के कारण लोग दहन, संशय, कठोरता आदि में बिलकते भी रहते हैं और विकारों में गलतान होने से फिर भी नहीं हटते। प्रभु-चरणों में जुड़े रहने वाला व्यक्ति इस माया का सदा मुकाबला करता है, वैसे ये काम बहुत ही मुश्किल है। जो भाग्यशाली मनुष्य गुरु के शब्द-नेज़े की चोट सहता रहता है, बिरही नारि की तरह उसके अंदर प्रभु-पति से मिलने की तड़प पैदा हो जाती है और माया वाले दहन (जलन), संशय आदि उसको दुखी नहीं कर सकते।183।

मुख्य भाव:

समय सिर जब कि शरीर में सत्ता है (ताकत है) परमात्मा का भजन करो। जगत में बेअंत विकार और झमेले हैं जो इन्सानी जिंदगी को दुखी बनाए रखते हैं, इनसे बचे रहने के लिए प्रभु-चरणों में जुड़े रहना ही सही तरीका है।

सलोक नं: 184 से 227 तक:

मज़हब ने, मज़हब के रीति-रिवाजों ने, बाँग-निमाज़ हज आदि ने, दिल की सफाई सिखानी है; पर अगर रिश्वत तअसुब आदि से दिल निर्दयी हो चुका है, और, अगर बल्कि यही धार्मिक काम दिल को और भी कठोर बनाते जा रहे हैं, तो इनके करने का कोई लाभ नहीं है। जिस मनुष्य के अपने मन में शांति नहीं आई, उसके लिए तो रब कहीं भी नहीं है। जानवर की कुर्बानी देने से पाप नहीं बख्शे जाते, यह मास तो कुर्बानी देने वाले मिल-जुल के खुद ही खा जाते हैं।188।

ब्राहमण से जनेऊ पहनवा के, उसको गुरु धार के, ठाकुर-पूजा और दिन-त्यौहारों के समय ब्राहमण की सेवा को हिन्दू अपना मुख्य धर्म समझ लेता है; पर इस बात की तरफ वह कभी भी ध्यान नहीं देता कि जीवन में क्या फर्क पड़ा है। पराई निंदा करनी और सुननी, विकारों की ओर जाना, अहंकार -ऐसे बुरे कर्मों को त्यागने का ख्याल भी नहीं आता, फिर भी समझता है कि मैं गुरु-परोहित वाला हूँ। पर अगर प्रभु की मेहर से मनुष्य को गुरु मिल जाए, गुरु इसकी शरीर-धरती को ऐसा सवार देता है कि यह अपना जीवन भी सफल कर लेता है और ओरों की भी सेवा करता है, कोई विकार कोई कुसंग इसको इस सुंदर रास्ते से उखाड़ नहीं सकता।196।

खुदा के नाम पर गाय आदि की कुर्बानी दे देनी, मिल-जुल के खा-पी जाना सब कुछ खुद ही, और फिर ये समझ लेना कि इस कुर्बानी के एव्ज़ में हमारे गुनाह बख्श दिए गए हैं: ये बहुत ही बड़ा भुलेखा है। खुदा को खुश करने का यह तरीका नहीं है, खुदा खुश होता है दिल की पाकीज़गी पवित्रता से। अगर दिल में कठोरता और विकार हैं, तो अनेक बार हज करने पर भी खुदा खुश हो के हाजी को दीदार नहीं देता।201।

इन्सान के हृदय की द्वैत-मेर-तेर इन्सानी जिंदगी के सफर में एक बड़ी मुश्किल घाटी है। इस ‘दुइ’ व ‘द्वैत’ को मिटाने के लिए ना हज ना कुर्बानियां, ना ठाकुर-पूजा, ना ब्राहमण की सेवा, ना त्याग और ना ही योग-साधन - ये कोई सहायता नहीं करते। सिर्फ एक ही तरीका है, वह यह कि अपना आप प्रभु के हवाले करके उसको याद किया जाए। जो मनुष्य ‘द्वैत’ में फसे रह के स्मरण नहीं करते, किसी भी पदार्थ के मिलने से उनके मन की दौड़-भाग खत्म नहीं होती, आशाएं और बढ़ती जाती हैं और स्मरण के लिए आज-कल करते-करते सिर पर मौत आ पहुँचती है। (गुरु के बिना ये जीव टाल-मटोले करने पर मजबूर है, क्योंकि इसका स्वभाव कुत्ते जैसा है, इसकी वादी इसका स्वभाव ही यह है कि हर वक्त मुर्दे के पीछे दौड़ता फिरे। यदि अच्छे भाग्यों से इसको गुरमुख का मेल हो जाए तो भलाई की ओर पलट आता है। बहुत सचेत रहने की जरूरत है क्योंकि कुसंग की बैठक भले व्यक्ति को भी आखिर विकारों की मार पड़वा देती है: महला ५)। दुनिया की मेहनत-कमाई छोड़नी नहीं ये करते हुए ही हमने अपना चिक्त निरंजन के साथ जोड़ के रखना है क्योंकि असल साथी परमात्मा का नाम ही है। किसी खास नियत समय में पूजा-पाठ करके सारा दिन ठगी-धोखे के कार्य करने इस तरह ही है जैसे चक्की पीस-पीस के इकट्ठा किया हुआ आटा कीचड़ में गिर जाए; अथवा, जैसे रात के वक्त जलता दीया हाथ में पकड़ा हुआ हो, दीए की रौशनी होते हुए भी मनुष्य किसी कूएँ में जा गिरे। स्मरण-भजन के साथ-साथ हक की मेहनत-कमाई अत्यंत जरूरी है।216।

साक-संबन्धियों का मोह और ठगी की मेहनत-कमाई जीव को जिंद-दाता प्रभु से विछोड़ते हैं, और, प्रभु से विछुड़ी जिंद को सुख हो ही नहीं सकता। सिर्फ घर-बार महल-माढ़ियां का शौक भी आत्मिक मौत का कारण ही होता है, क्योंकि लालच-ग्रसित जीव हर वक्त माया की सोचें ही सोचता रहता है। जिंद को और ज्ञान-इंद्रिय को बाहरी बुरे असरों से बचा के रखने का एक ही तरीका है कि आलस त्याग के हर वक्त परमात्मा को स्मरण करते रहें। स्मरण से टूटा हुआ यह शरीर अनेक विकार-रूप उगे हुए वृक्षों का एक जंगल बन जाता है जिसमें मन-हाथी मस्त हुआ फिरता है। सत्संग में आ के इस मन को गुरु के हवाले करना पड़ेगा, तब ही नाम-जपने की दाति मिलती है; वरना दुनियां के झमेलों में पड़ के मनुष्य ऐसी आत्मिक मौत मरता है कि ना ही इन धंधों में से इसको कभी समय मिलता है और ना ही ये कभी परमात्मा का नाम मुँह से उचारता है, आखिर उम्र बीत जाने पर जम मौत का नगारा आ बजाते हैं।227।

मुख्य भाव:

इन्सान के हृदय में मेर-तेर एक ऐसी मुश्किल घाटी है कि इसको मिटाने के लिए ना हज ना कुर्बानियां, ना ठाकुर-पूजा ना ब्राहमण की सेवा, ना त्याग और ना योग-साधन -कोई भी सहायता नहीं करते। सत्संग में आ के मन को गुरु के हवाले करके परमात्मा का नाम स्मरणा ही एक मात्र सही तरीका है।

सलोक नं: 228 से 243 तक:

विकारों और वाद-विवाद की तपश से तप रहे इस संसार में परमात्मा का नाम ही ठंढक देने वाला है, ये नाम गुरमुखों की संगति में से मिलता है। सो, थोड़ा-बहुत जितना भी समय मिले, सत्संग जरूर करना चाहिए। पर कई लोग ऐसे भी होते हैं जो सत्संग में जा के राम-राम भी कर आते हैं और वहाँ से आ के विकारों में कसर नहीं रहने देते। ऐसे लोगों के धार्मिक उद्यम निष्फल जाते हैं। सत्संग में से यही लाभ कमाना है कि दुनिया के रसों से खेल खेलने की जगह जीव काम-काज करते हुए अपनी तवज्जो को सदा प्रभु-चरणों में जोड़ी रखे और किसी प्राणी मात्र से इसको नफरत ना रहे।

यह गुण करम-काण्डी ब्राहमण से नहीं मिल सकता, वह तो स्वयं ही कर्मकांड की उलझनों में पड़ कर आत्मिक मौत मर चुका होता है; क्योंकि कर्मकांड में से निरा अहंकार ही निकलता है, अहंकार और हरि-नाम का कभी मेल नहीं हो सकता। सो, अगर प्रभु-प्यार की खेल खेलने की चाहत है, तो जनेऊ आदि दे के गुरु बन बैठने वाले ब्राहमण से हट के नाम के रसिए गुरु की शरण आओ; नाम के रसियों की संगति के बिना परमात्मा के नाम की प्राप्ति नहीं हो सकती। नाम से टूटा तो सदा दुख ही दुख है। मनुष्य-जनम का उद्देश्य ही यह है कि जीव प्रभु का नाम स्मरण करे।

मुख्य भाव:

विकारों और वाद-विवाद की तपश में जल रहे संसार को ठंढक पहुँचाने वाला केवल हरि-नाम ही है, और इसकी प्राप्ति नाम के रसिए गुरमुखों के माध्यम से ही हो सकती है

कबीर जी के सारे श्लोकों का

समूचा भाव:

1 से 12 तक:

हरि-नाम का स्मरण मनुष्य के लिए सुख का असल साधन है, और यह हरि-नाम गुरु-दर पर पड़ने से मिलता है। गरीब से गरीब और नीच से नीच जाति का व्यक्ति भी हरि-नाम स्मरण करके सुखी हो जाता है।

13 से 40 तक:

दुनियावी पदार्थों के भोगों को सुख का साधन समझ के हरि-नाम बिसार के निरी खुआरी होती है, और इनके साथ, साथ भी नहीं निभता।

41 से 70 तक:

सिर्फ ये मनुष्य जन्म ही हरि-नाम के स्मरण का वक्त है, पर विकारों से बचे रह कर ही यह कमाई हो सकती है। और, जहाँ स्मरण नहीं है वहाँ विकार आ दबाते हैं।

71 से 101 तक:

हरि नाम जपने की इनायत से जाति-अभिमान, शारीरिक मोह, तृष्णा, कुसंग, निंदा आदि सारे एैब दूर हो जाते हैं। पर महिमा की ये दाति साधु-संगत में से मिलती है।

102 से 131 तक:

प्रभु का स्मरण छोड़ने से कई किस्म के सहम व वहम-भ्रम आ दबाते हैं। प्रभु के चरणों में जुड़े रहना सबसे अच्छा स्वर्ग और विछुड़ना नर्क है। पर ये स्मरण तब ही हो सकता है अगर भलों की संगति में टिके रहें और साकतों की सोहबत से बचे रहें।

132 से 183 तक:

समय रहते जबकि शरीर में ताकत है परमात्मा का स्मरण करो। जगत में बेअंत विकार और झमेले हैं जो इन्सानी जिंदगी को दुखी बनाए रखते हैं, इनसे बचे रहने के लिए प्रभु चरणों में जुड़े रहना ही सही तरीका है।

184 से 227 तक

प्रभु चरणों से विछोड़ा इन्सानी जीवन में एक बड़ी दुखदाई अवस्था है, इसको मिटाने के लिए ना हज ना कुर्बानियां, ना ठाकुर-पूजा, ना ब्राहमण की सेवा, ना घर का त्याग और ना जोग साधना -कोई भी सहायता नहीं करता। सत्संग में आ के मन को गुरु के हवाले करके परमात्मा का नाम स्मरणा ही एक-मात्र सही तरीका है।

228 से 243 तक

विकारों और वाद-विवाद की तपश में जल रहे संसार को ठंडक पहुँचाने वाला केवल हरि-नाम ही है, और इसकी प्राप्ति नाम के रसिए गुरमुखों से ही हो सकती है।

सारे शलोकों का मिला-जुला मुख्य भाव:

प्रभु के चरणों से विछोड़ा एक महा भयानक रोग है जो (शारीरिक मोह, जाति-अभिमान, कुसंग, निंदा, तृष्णा, वाद-विवाद आदि) कई रूपों में मनुष्य को दुखी कर रहा है। सुखी होने का एक ही तरीका है कि सत्संग में गुरु की शरण पड़ के हरि-नाम स्मरण करें। मनुष्य जनम का उद्देश्य ही ये है कि मनुष्य प्रभु का नाम स्मरण करे।

कबीर जी के सारे शलोक एक ही माला के मोती हैं

हमारे एक विद्वान सज्जन कबीर जी के शलोकों के बारे में लिखते हैं कि यह शलोक अलग-अलग होने के कारण विचार की लड़ी ढूँढने की आवश्यक्ता नहीं। इसी तरह फरीद जी के शलोकों की बाबत भी लिखते हैं कि फरीद जी के शलोक भी कबीर जी के शलोकों की तरह अलग-अलग होने के कारण ख्यालों की संगली तलाशने की जरूरत नहीं। बाकी टीकाकारों ने ये बात भले ही खुले तौर पर नहीं लिखी, पर उनके टीकों से साफ दिखता है कि वे भी इसी ख्याल के हैं। किसी भी टीकाकार ने कहीं भी शलोकों की आपस में समानता ढूँढने की कोशिश नहीं की।

यह विचार क्यों जरूरी है?

इन शलोकों में ख्याल की सांझी कड़ी है कि नहीं, ये शलोक अलग-अलग हैं अथवा मिश्रित– इस विषय पर विचार करना चोंच–ज्ञानता नहीं है। पाठक सज्जन इस भुलेखे में ना पड़ें कि मैं फालतू बातों में उनका कीमती समय बर्बाद करने लगा हूँ। संन् 1944 में मैं फरीद जी के शलोकों का टीका छपवाने के लिए शहर गया। वहाँ एक सिख सज्जन जो पंजाबी पुस्तकें लिखने के कारण पंजाबी से प्यार करने वालों में काफी नाम कमा चुके हैं, मुझे मिल गए। पहले दिन ही हमारी जान–पहचान बन गई। मेरे हाथ में फरीद जी के सटीक शलोकों का खरड़ा देख के उस लिखारी ने सज्जन ने अपने आप ही बाबा जी की बड़ाई में कहना शुरू कर दिया कि फरीद जी के शलोक पढ़ने पर इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि वे दुनिया से थके हुए थे; उनकी वाणी निराशता मायूसी की गिरावट की तरफ ले जाती है। और, अपने इस विद्वता–भरे कथन की प्रौढ़ता के लिए उस सज्जन ने तुरंत ही फरीद जी का यह श्लोक भी सुना दिया;

फरीदा जि दिहि नाला कपिआ, जे गलु कपहि चुख॥ पवनि न इति मामले, सहां न इती दुख।76।

कर्तार के रंग! जिस श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की वाणी को हम अपनी जिंदगी का सहारा समझते हुए उसके आगे अदब–सत्कार से निम्रता–अधीनगी से सिर निवाते हैं, उसी में कहीं ऐसे अंग भी समझे बैठे हैं जो हमें दुनिया से मायूस प्रतीत होते हैं जो हमें गिरावट की तरफ ले जाते दिखते हैं। इस का नाम श्रद्धा नहीं है, यह तो;

सलामु जबाबु दोवै करै, मुढहु घुथा जाइ॥

पर यह बोरीयत किनको दिख रही है? उनको जो इन शलोकों को अलग-अलग समझते हैं। (फरीद जी के इस शलोक को और फरीद जी के बारे कई भुलेखों को समझने के लिए पढ़ें ‘फरीद वाणी सटीक’)।

कबीर जी की बाबत भी ऐसे ही भुलेखे कई विद्वान प्रचारकों के मुँह से सुनने में आते रहते हैं कि कबीर जी वैश्णव भक्त थे। वे मास के विरुद्ध प्रचार करते हैं और हम सिख मास खाने के हक में हैं। (इस विषय पर चर्चा अगले लेख में की जाएगी)। ऐसे श्रद्धा–हीन बोल हम क्यों बोल रहे हैं? सिर्फ इसलिए कि हमने इन शलोकों को अलग-अलग जान के असल कड़ी में से अलग निकाल के पढ़ते हैं। अगर हमने थिरकने से बचना है, तो ये याद रखें कि हम समूचे श्री गुरु ग्रंथ साहिब को सिर झुकाते हैं, सिर झुकाने के वक्त कभी भी किसी सिख के दिल में ये भेद–भाव नहीं आ सकता कि हम सिर्फ गुरु–महलों की वाणी का सत्कार कर रहे हैं। गुरु नानक देव जी से ले के गुरु गोबिंद सिंघ जी तक गुरिआई सिर्फ एक-एक व्यक्ति को मिलती रही है, कभी भी किसी गुर-व्यक्ति का अलग-अलग विचारों वाला सारा परिवार ‘गुरु’ नहीं कहलवा सका। और, हरेक गुर-व्यक्ति सदा बिलकुल उन विचारों का होता था जो सतिगुरु नानक देव जी के थे;

जोति ओहा जुगति साइ, सहि काइआ फेरि पलटीऐ॥

गुरु गोबिंद सिंघ जी ने भी एक ही गुर-व्यक्ति को गुरिआई सौंपी थी, वह हैं श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी। यहाँ भी ‘ज्योति ओहा जुगति साइ’ ही हो सकती है। किसी भी जगह ‘ज्योति’ और ‘जुगति’ में रक्ती भर भी फर्क नहीं हो सकता।

गुरु ग्रंथ साहिब जी की सारी वाणी के बारे में यह सच्चाई आँखों के आगे रख के हमने ये विचारना है कि कबीर जी के सारे शलोकों का एक ही मिश्रित मूल विषय है, सारे शलोक एक ही विचार–कड़ी में परोए हुए हैं। पाठकों की सहूलत के लिए मैंने सारे शलोकों के मिश्रित भाव, समूचा भाव, और मुख्य भाव अलग-अलग भी पूरे विस्तार में दिए हैं। पर जिस पाठकों ने अपनी–अपनी विचार–कसवटी बरत के इस उपरोक्त ख्याल की और भी अधिक गहराई में जाना है, उनकी सहायता के लिए कुछ बातें पेश की जाती हैं;

आदि और अंत का विचार एक ही है:

पहले शलोक में कबीर जी लिखते हैं;

कबीर मेरी सिमरनी, रसना ऊपरि रामु॥ आदि जुगादी सगल भगत, ता को सुखु बिस्रामु॥१॥

कि

जो मनुष्य हरि-नाम को विसार के किसी और जगह से सुख–शांति की आस रखते हैं वे गलती कर रहे हैं।

सबसे आखिरी शलोक नंबर 243 में कबीर जी ने ये मोहर लगा दी और फैसला दे दिया है कि बस! हरि-नाम ही गृहस्थी का मुख्य धर्म है; अगर हरि-नाम को बिसार के सांसारिक भोगों और विकारों में से मनुष्य सुख तलाशता है तो यह इसका पागल–पन है। मनुष्य के लिए घर–बार वाला जीवन जिंदगी का सही रास्ता है, पर वह भी तब ही, यदि इसमें हरि-नाम स्मरण करे; नहीं तो जीवन गंदा कर देने से बेहतर है घर–बार छोड़ दे। लिखते हैं;

कबीर जउ ग्रिहु करहि त धरमु करु, नाही त करु बैरागु॥ बैरागी बंधनु करै, ता को बडो अभागु॥243॥

जिस विचार से इन शलोकों को कबीर जी ने शुरू किया है, वहीं आ के समाप्त किया है।

केन्द्रिय विचार ‘स्मरण’ के भिन्न-भिन्न पहलू:

सारे ही शलोकों में एक ही विषय ‘हरि-नाम का स्मरण’ पर उसके अलग-अलग पहलू ले के विचार की गई है। इस दृष्टिकोण से हमने इन सारे शलोकों को आठ हिस्सों में बाँटा है, और हरेक हिस्से का अलग-अलग मिश्रित और मुख्य भाव दिया है। पाठक सज्जन उनको पढ़ के स्वयं विचार लेंगे कि ये शलोक अलग-अलग नहीं हैं।

क. सलोक नं: 1 से 9 तक ध्यान से पढ़ के देखें। ‘राम...सुखु बिस्रामु’ से शुरू हो के यही ख्याल कई रूपों में चल के ‘जिह मूअै सुखु होइ’ पर आ पहुँचता है। साफ तौर पर एक ही कड़ी है।

ख. महिमा की इनायत –‘सती’ का संदेश:

सलोक नं: 81 से 91 तक ध्यान से पढ़ें। नं: 81 में परमात्मा के गुण गाने का वर्णन है; इसके आगे के नौ शलोकों में कबीर जी लिखते हैं कि महिमा की इनायत से नीच जाति वाला निताणा–पन शारीरिक मोह, मन की भटकना, कुसंग, निंदा आदि ऐब दूर हो जाते हैं। आखिर शलोक नं: 91 में फिर समूचे तौर पर पहले 10 शलोकों का संक्षेप भाव बताते हैं कि हरि-नाम-जपने की इनायत से मन वश में आता है, इस एक के मरने से पाँच और विकार नाश हो जाते हैं।

इस संग्रह में से निम्न-लिखित 3 सलोक खास तौर पर स्वादिष्ट तरीके से हमारे इस विचार की प्रौढ़ता करते हैं कि शलोक भिन्न-भिन्न विचार वाले नहीं हैं;

कबीर ऐसा को नही, मंदरु देइ जराइ॥
पांचउ लरिके मारि कै, रहै राम लिउ लाइ॥83॥
कबीर ऐसा को नही, इहु तनु देवै फूकि॥
अंधा लोगु न जानई, रहिओ कबीरा कूकि॥84॥
कबीर सती पुकारै चिह चड़ी, सुनु हो बीर मसान॥
लोगु सबाइआ चलि गइओ, हम तुम कामु निदान॥85॥

इन सलोकों को अलग-अलग विचारधारा वाले लिखने वाले हमारे विद्वानों ने सलोक नं: 85 अर्थ इस तरह लिख दिया– कबीर! चिखा पर चढ़ी हुई सती पुकार के कहती है ‘हे मसाणों में आए हुए भाईयो! सुनो, सारा जगत चला गया है, हमारा तुम्हारा सबका अंत यही काम है।

पर यहाँ ऐतराज उठता है कि मौत का ये संदेश सिर्फ ‘सती’ के मुँह से ही क्यों सुनाया गया है, सूझ वाले व्यक्ति को तो हरेक जलती चिखा से यही चेतावनी मिलती है कि तेरी भी वारी आनी है। काव्य–मण्डल में इतनी ऊँची उड़ान भरने वाले कबीर जी ने शब्द ‘सती’ किसी खास सुंदर ख्याल को जाहिर करने के लिए बरता होगा। कबीर जी की वह गहरी रम्ज़ इन तीन शलोकों को एक साथ पढ़ने पर ही मिल सकती है।

पहले दो शलोकों (नं: 83 और 84) में कबीर जी कहते हैं जगत में कोई विरला ही है जो अपने आप को जलाता है। नं: 85 में कहते हैं कि हमने ‘सती’ को देखा है जो हस–हस के अपने शरीर को जलाती है। सारा संसार मसाणों से डरता काँपता है; पर ‘सती’ मसाण को ‘वीर’ (भाई) कह के बुलाती है, उस मसाण से प्यार करती है।

यह क्यों?

‘सती’ जानती है कि जब यह मसाण मेरे शरीर को जला देगा, तो मैं अपने परलोक पहुँचे पति को जा मिलूँगी।

प्रभु–पति परदेस में बैठा है, जीव-स्त्री पेके–लोक में बैठी अपने ही शरीर से प्यार करी जा रही है। जीव-स्त्री का ये शारीरिक मोह प्रभु–पति को मिलने की राह में रोक डाल रहा है। यह मोह बड़ा ही बलवान है, इसको कोई एक–आध विरली ही जलाती है, सिर्फ वही जलाती है जिसको समझ आ गई कि इसके जलाने से प्रभु–पति मिलेगा।

जिस जीव-स्त्री को यह यकीन बन जाता है कि शारीरिीक मोह को जलाए बिना प्रभु–पति से मिलाप नहीं हो सकता, और इस मोह को जलाने के लिए सिर्फ महिमा ही समर्थ है सिर्फ ‘ब्रहम–अग्नि’ ही इसको जला सकती है, वह जीव-स्त्री ‘सती’ की तरह इस महिमा को प्यार करती है, इस ‘ब्रहम–अग्नि’ को ‘वीर’ कह के बुलाती है और कहती है: ‘हे प्यारी ब्रहम–अग्नि! दुनिया वाले साथी मुझे प्रभु–पति से नहीं जोड़ सके, उनका साथ भी कच्चा ही साबित हुआ। हे ब्रहम–अग्नि! एक तू ही है जो मेरे शरीर–मोह को जला के मुझे प्यारे प्रभु पति से मिला सकती है। आखिर मैंने तेरा आसरा लिया है।

अब शलोक नं: 81 से ले के 85 तक पढ़ के देखो। इनको भी अलग-अलग नहीं कहा जा सकता।

ग. कब्ज़े करना कि माँग के खाना:

शलोक नं: 168 से 171 तक मिला के पढ़ो:

कबीर भली मधूकरी, नाना बिधि को नाजु॥
दावा काहू को नही, बडा देसु बड राजु॥168॥
कबीर दावै दाझनु होतु है, निरदावै रहै निसंक॥
जो जनु निरदावै रहै, सो गनै इंद्र सो रंक॥169॥
कबीर पालि समुहा सरवरु भरा, पी न सकै कोई नीरु॥
भाग बडे तै पाइओ, तूं भरि भरि पीउ कबीर॥170॥
कबीर परभाते तारे खिसहि, तिउ इहु खिसै सरीरु॥
ए दुइ अखर ना खिसहि, सो गहि रहिओ कबीरु॥171॥

अगर सलोक नं: 168 को अलग समझ के अकेला ही पढ़ोगे तो ऐसा लगेगा कि कबीर जी माँग के खाने की हिदायत करते हैं। पर, जब इसके अगले शलोक को इसके साथ मिला के पढ़ोगे तो कबीर जी के कहने का असल भाव स्पष्ट हो जाएगा। कहते हैं कि जायदादें बनाने, कब्जे करने, दुनियां की जीतें, मल्कियतें बनाने से तो मँगतों की तरह माँग के खाना बेहतर है, क्योंकि ज्यों-ज्यों मनुष्य जायदाद इकट्ठी करता है, त्यों-त्यों उसके अंदर ‘दाझन’ (दहन) बढ़ती है। अब इन दोनों शलोकों के साथ अगला शलोक नं: 170 मिलाओ। कैसी हसरत भरी दुखदाई बात बता रहे हैं! लोग ‘दाझन’ के कारण अंदरूनी प्यास–जलन के कारण, पानी के बगैर तड़प रहे हैं। पानी का तालाब भरा पड़ा है, और लबा–लब भरा हुआ है, पर किसी को दिखता ही नहीं। यह सारा दोष किसका है? कब्जे करने का, मलिकयतें बनाने का। संसार के ज़रे–ज़रे में प्रभु बसता हो, घट–घट में व्यापक हो, पर लोग दुनिया फतह करने के आहर में लग के तृष्णा की आग में जलते हुए घट–घट वासी को ना पहचान सकें– ये कितनी हसरति–भरी घटना है!

अब शलोक नं: 171 के शब्द ‘गहि रहिओ’ को ध्यान से पढ़ें। जगत मल्कियतें बना रहा है, कब्जे कर रहा है, पर कबीर दुनिया के कब्जे करने की जगह हरि-नाम को संभाले बैठा है। यहाँ ये शब्द ‘गहि रहिओ’ साफ तौर पर शलोक नं: 169 के ‘दावै’ की ओर इशारा करते हैं। सिर्फ यही शब्द नहीं, प्रभात के समय अलोप होते (खिसकते) तारों का दृष्टांत भी शलोक नं: 169 की ओर ही इशारा करते हैं। रात की ठहरी हुई शांति में तारे चमकते हैं, पर प्रभात में सूरज के आते तेज प्रताप के कारण मध्यम पड़ते जाते हैं।

ये ज्ञान-इंद्रिय शरीर–आकाश के मानो, तारे हैं। प्रभु-चरणों में जुड़ के प्राप्त की हुई ठहरी शांति के कारण ये तारे प्रभु–प्यार में चमकते हैं; पर मलिकयतों से पैदा हुई अंदरूनी तपश (प्रभात) के कारण ज्ञान–इन्द्रियों (तारों) में से प्रभु वाली लो कम होती जाती है। सिर्फ एक हरि-नाम ही है जो मल्कियतों की तपश के असर से परे रहता है, इस वास्ते दुनिया को हासिल करने की जगह कबीर वह हरि-नाम को ‘गहि रहिओ’।

कौन कह सकता है कि इन शलोकों में गहरी सांझ नहीं है? यह ख्याल कड़ी अभी आगे चलती जा रही है।

घ. लोगों से रूखा और ईश्वर से भी रूखा:

सलोक नं: 174 से 179 तक मिला के पढ़ो:

कबीर संतु न छाडै संतई, जउ कोटिक मिलहि असंत॥
मलिआगरु भुयंगम बेढिओ, त सीतलता न तजंत॥174॥
कबीर मनु सीतलु भइआ, पाइआ ब्रहम गिआनु॥
जिनि जुआला जगु जारिआ, सु जन के उदक समानि॥175॥
कबीर सारी सिरजनहार की, जानै नाही कोइ॥
कै जानै आपन धनी, कै दासु दीवानी होइ॥176॥
कबीर भली भई जो भउ परिआ, दिसा गई सभ भूलि॥
ओरा गरि पानी भइआ, जाइ मिलिओ ढलि कूलि॥177॥
कबीरा धूरि सकेलि कै, पुरीआ बांधी देह॥
दिवस चारि को पेखना, अंति खेह की खेह॥178॥
कबीर सूरज चांद कै उदै, भई सभ देह॥
गुर गोबिंद के बिनु मिले, पलटि भई सभ खेह॥179॥

बड़े–बड़े जहरीले साँप जिनकी सिर्फ फूक ही जला देने की ताकत रखती है चँदन के पौधे को घेरे रखते हैं, पर चँदन की अपनी अंदरूनी ठंडक उसको साँपों के जहर से बचा लेती है। यह माया, मानो ज्वाला है ‘जिनि जगु जारिआ’, पर, प्रभु की हजूरी में रहने वाले को पता होता है कि माया की जलन से बचने के लिए माया को बनाने वाले के चरणों में जुड़े रहना ही सही रास्ता है।

बरखा होने पर बारिश की बूँदें मिल के नदी में जा मिलती हैं। पर ज्यादा ठंड पड़ जाने पर वह बूँदें जम के ओले बन जाती हैं, ये ओले आपस से अलग हो कर धरती पर गिर कर इधर–उधर बिखरते हैं। जब इन्हें फिर सेक लगे, तो फिर पानी बन के अपने असल नदी के पानी के साथ जा मिलते हैं।

‘दाझन’ (दहन) के इलावा माया मनुष्य के अंदर ‘अहण’ (ओले) वाली कठोरता भी पैदा करती है, लोगों की ओर रूखा और ईश्वर की ओर से भी रूखा; माया की भटकना में इधर–उधर बिखर के ठोकरें खाता फिरता है। जब प्रभु का डर–रूप सेक इसको लगता है तब और सब भुला के प्रभु-चरणों में आ जुड़ता है।

सलोक नं: 178 की तुक ‘अंति खेह की खेह’ और नं: 179 की तुक ‘पलटि भई सभ खेह’ से स्पष्ट दिखाई देता है कि ये दोनों शलोक एक साथ ही विचारने हैं। भले ही ये शरीर–नगरी चार दिनों के लिए ही है, पर इसमें सूर्य का प्रकाश होना चाहिए, इसमें चँद्रमा की ठंडी–मीठी किरणें पड़नी चाहिए।

सलोक नं: 175 और 177 में माया के जो भयानक असर बताए हैं, उनका इलाज सलोक नं: 179 में बताया है। जीव के चार–चुफेरे विकारों की तपस है; इस तपस से बचने के लिए इसके अंतरात्मे को चँद्रमा वाली शीतलता की आवश्यक्ता है; जैसे चँदन को उसकी अपनी शीतलता साँपों के जहर से बचाए रखती है। माया के असर तले सदा यह खतरा है कि जीव ओले की तरह कठोर ना बन जाए, इस कठोरता से बचने के लिए इसको अंतरात्मे सूरज की गर्मी की जरूरत है। यह गर्मी (प्यार) और यह शीतलता (शांति) गुरु परमात्मा के चरणों में जुड़ने से मिलते हैं।

देख लो, यह सारे शलोक एक ही विचार–कड़ी के मोती हैं।

ञ. कबीर जी के साथ बेइन्साफी

बूडा बंसु कबीर का, उपजिओ पूतु कमालु॥ हरि का सिमरनु छाडि कै, घरि ले आया मालु॥115॥

कबीर जी की बहुत सारी वाणी ऐसी है जिसमें गहरी रम्ज़ें हैं। पर हमारे कई टीकाकार इन मुश्किल घाटियों को कहानियां घड़–घड़ के पार करते आए हैं। कहानियां घड़ते वक्त कई बार इस बात का भी ख्याल नहीं रहा कि इस कहानी की टेक पर किए गए अर्थ हमारे मौजूदा इन्सानी जीवन के साथ मेल नहीं खाते हैं अथवा नहीं। कबीर का अपनी पत्नी लोई से गुस्सा हो जाना, नामदेव का मुग़ल को ईश्वर कहना – ऐसी कई असंगत कथा–कहानियां इस वक्त सिख प्रचारक सुना देते हैं जो असल में सिख–धर्म के आशय के ही बिलकुल विरुद्ध जाती है।

पर इस मौजूदा शलोक में तो कबीर जी के साथ एक बे–इन्साफी भी की गई है। अपने कच्चे और कमजोर अर्थ की मजबूती के लिए कहानियां घड़ने वालों ने यह अंदाजा लगाया है कि कबीर जी का पुत्र (जिसका नाम ये लोग कमाल बता रहे हैं) किसी लालच में फस के कुछ ‘माल’ घर ले आया था, और कबीर जी ने उसकी इस करतूत की निंदा इस शलोक में की है। कुछ इसी तरह ही ‘गउड़ी’ राग के एक ‘छंत’ में शब्द ‘मोहन’ देख के कहानियाँ घड़ने वालों ने बाबा मोहन की सैंचियों की कहानी गुरु अरजन साहिब के साथ जोड़ दी। (इस बारे पढ़ें मेरी पुस्तक ‘कुछ होर धार्मिक लेख’ के पहले तीन लेख)। ऐसे अंदाजे लगाने कई बार महापुरुषों की निरादरी के तूल्य हो जाते हैं।

इस शलोक के साथ यह अनुचित कहानी जोड़ने की जरूरत क्यों पड़ी? सिर्फ इस वास्ते कि इसको अलग-अलग जान के इस को अकेले–अकेले समझने की कोशिश की गई। पर, इस सारे संग्रह को मिला के पढ़ो। शलोक नं: 102 में कबीर जी हिदायत करते हैं कि;

कबीर रामु न छोडीऐ, तनु धनु जाइ त जाउ॥

शरीर और धन कुर्बान करके भी क्यों ‘राम न छोडीअै’ – ये बात सलोक नं: 103, 104 और 105 में समझा के आगे लिखते हैं कि स्मरण छोड़ के दुनिया उल्टे राह पर चल पड़ती है।

कबीर हरि का सिमरनु छाडि कै, पालिओ बहुतु कुटंबु॥
धंधा करता रहि गइआ, भाई रहिआ न बंधु॥106॥
कबीर हरि का सिमरनु छाडि कै, राति जगावन जाइ॥
सरपनि होइ कै अउतरै, जाए अपुने खाइ॥107॥
कबीर हरि का सिमरनु छाडि कै, अहोई राखै नारि॥
गदही होइ कै अउतरै, भारु सहै मन चारि॥108॥

प्रभु-चरणों से विछुड़े मनुष्य को जगत के कई सहम घेरा डाले रखते हैं: दुख-कष्ट, रोग, गरीबी, लोक-सम्मान, ईष्या-जलन कई किसमों की मुथाजियां आदिक। इनके असर को भुलाने की खातिर कहीं ये बेचारा छुपे हुए पाप करता है, कहीं संतान की खातिर मसाण जगाए जाते हैं, कहीं व्रत रखे जाते हैं। फिर भी सुख नहीं है, सहम ही सहम है। ये सारी समझदारियां व्यर्थ जा रही हैं।

इनका इलाज एक ही है। प्रभु से विछोड़े के कारण ये दुख हैं। सिर्फ विछोड़ा दूर करना है, प्रभु के चरणों में जुड़ना है। पर, निरा ‘राम राम’ कहने को स्मरण नहीं कहा जाता। इस दवा के साथ कई परहेज़ भी हैं –चस्के, शारीरिक मोह, जाति–अभिमान, पराई निंदा, कुसंग, व्रत आदि का भ्रम, संग्रांद–अमावस्या की भटकना, नाक–नमूज की खातिर की जा रही व्यर्थ की रस्में– ऐसे कई काम हैं जो जब तक छोड़े ना जाएं, स्मरण अपना जौहर नहीं दिखा सकता। पर, इनका त्याग कोई आसान खेल नहीं; कहीं अपना ही बिगाड़ा हुआ मन वर्जित करता है, कहीं लोग–इज्जत नहीं करने देती। सो, स्मरण करना एक बड़ी मुश्किल खेल है, सूली पर चढ़ने के समान है। पर, स्मरण के बिना और कोई रास्ता भी नहीं है जिस पर चल कर मनुष्यता की चोटी पर पहुँचा जा सके;

कबीर चतुराई अति घनी, हरि जपि हिरदै माहि॥ सूरी ऊपरि खेलना, गिरै त ठाहर नाहि॥109॥

इस वास्ते वह गाँव पवित्र है वह कुल भला है जिस में कोई भाग्यशाली हरि-नाम स्मरण करता है;

कबीर सुोई मुखु धंनि है, जा मुखु कहीऐ रामु॥
देही किस की बापुरी, पवित्रु होइगो ग्रामु॥110।
कबीर सोई कुल भली, जा कुल हरि को दासु॥
जिह कुल दासु न ऊपजै, सो कुल ढाकु पलासु॥111।

‘हरि का सिमरनु छाडि कै’ वाले ख्याल को जारी रखते हुए अगले दो शलोकों में कहते हैं: मैंने सारे जगत को पूछ देखा है कि बताओ, भाई! इस राज–भाग महल–माड़ियों साक–संबन्धियों में से कोई आखिर तक साथ निभने वाला साथी भी किसी ने देखा है पर किसी ने हामी नहीं भरी;

कबीर है गइ बाहन सघन घन, लाख धजा फहराइ॥
इआ सुख ते भिख्या भली, जउ हरि सिमरत दिन जाहि॥112॥
कबीर सभु जगु हउ फिरिओ, मांदलु कंध चढाइ॥
कोई काहू को नही, सभ देखी ठोकि बजाइ॥113॥

फिर भी अंधे हुए मनुष्य को नाम-जपने की सार नहीं आती;

मारगि मोती बीथरे, अंधा निकसिओ आइ॥ जोति बिना जगदीस की, जगतु उलंघे जाइ॥114॥

सलोक नं: 106, 107 अते 108 वाला विचार जारी रखते हुए और वही तुक ‘हरि का स्मरण छाडि कै’ बरत के कहते हैं;

बूडा बंसु कबीर का, उपजिओ पूतु कमालु॥ हरि का सिमरनु छाडि कै, घरि ले आया मालु॥115॥

सलोक नं: 106 से 115 तक ध्यान से पढ़ के देखें। जगत की आम हालत बता रहे हैं कि स्मरण से वंचित रह के इन्सान किसी नीच दशा में जा गिरता है। स्मरण से टूट के मनुष्य सारी उम्र छोटा सा परिवार ही पालता रहता है, परिवार की खातिर जगत के धंधे करता–करता आखिर आत्मिक मौत मर जाता है। स्मरण से वंचित रहने के कारण कोई औतरी जाहिल औरत रात को मसाण जगाने चल पड़ती है। हरि-नाम छोड़ने का ही ये नतीजा है कि कई मूर्ख स्त्रीयां शीतला आदि का व्रत रखती फिरती हैं। आखिरी शलोक में कहते हैं: हरि-नाम बिसारने का नतीजा आखिर ये निकलता है कि मनुष्य अपने अंदर निरा माया का मोह ही बसा लेता है और इसका सारा ‘वंश’ (आँखें, नाक, कान आदि सारी ही इन्द्रियों का टोला) विकारों में अवश्य डूब जाता है।

सलोक नं: 106 से 115 तक ‘हरि का स्मरण छाडि कै’ तुक का प्रयोग ये बताता है कि इनका मिला हुआ सांझा ख्याल है।

शब्द ‘पूत’ कबीर जी ने दो और शबदों (राग सोरठि और बसंत) में भी बरता है, इसका अर्थ है ‘मन’। (ओर विस्तार से समझने के लिए पढ़िए इस शलोक नं: 115 के अर्थ)।

च. केसों के बारे कबीर जी

कबीर प्रीति इक सिउ कीए, आन दुबिधा जाइ॥ भावै लांबे केस करु, भावै घररि मुडाइ॥25॥

श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की वाणी सिख–आत्मा की जिंद–जान है। भक्त कबीर जी के शलोक भी गुरु ग्रंथ साहिब जी का हिस्सा हैं। पर जब हमारे सिख विद्वानों ने ये समझ रखा कि इन शलोकों की आपस में विचारों की कोई समानता नहीं है, मन–मतियों से तो ऐसी आस ही नहीं हो सकती थी कि वे कोई मेहनत करके इसमें से असल सच्चाई को तलाशते। आज से तकरीबन 30–40 साल पहले एक समय ऐसा आया जब मज़हबी वाद–विवाद होते थे, पण्डित प्रचारक पार्टी ओर मौलवी लोग जलसे कर–कर के दूसरे धर्मों पर कीचड़ उछालने की कोशिश करते थे, और इन जलसों में आए लोग सुन-सुन के बड़े खुश होते थे, कई सिख–धर्म विरोधी भाई इस ऊपर लिखे शलोक का हवाला दे के गुरु ग्रंथ साहिब में से केसों की विरोधता साबित करने का प्रयत्न करते थे।

हमने यहाँ केस रखने अथवा ना रखने पर कोई बहस नहीं करनी, सिर्फ ये देखना है कि प्रसंग अनुसार इस शलोक के क्या अर्थ हैं। जिस कड़ी में यह शलोक आया है उसको पेश करने से पहले पाठकों को एक और बात याद करवा देनी जरूरी है। परंपरा से ये रीति चली आ रही है कि धरती पर तब ही कोई महापुरख होता है जब लोगों के रोजाना जीवन में बहुत कुरीतियाँ चल पड़ें, जब अपने आप को धार्मिक समझने वाले अथवा जाहिर करने वाले लोग निरा धार्मिक भेस को ही धर्म समझ के आम लोगों में भी इसी ही धर्म–भेस का प्रचार करें और इस तरह धर्म और इन्सानी जीवन में बहुत अंतर आ जाए। ऐसे समय में महापुरुष प्रकट हो के अपने समय की धार्मिक ठगीयां और भेस आदि की पोल खोल के लोगों को सही जीवन की राह बताते हैं। पर अभी तक ये कभी नहीं हो सका, और, ना ही आगे कभी हो पाएगा कि कोई महापुरुख किसी ऐसी धर्म–मर्यादा पर नुक्ताचीनी कर जाए जो मर्यादा अभी अस्तित्व में ही ना आई हो। कबीर जी के वक्त ‘खालसे’ की तरह अभी कोई केसाधारी पंथ मौजूद नहीं था जिसकी किसी रहत–मर्यादा पर कबीर जी को नुक्ताचीनी करने की आवश्यक्ता पड़ती।

अब आईए असल विषय पर;

सलोक नं: 13 से उनका जिकर चला है जो ‘दीन’ को बिसार के निरा ‘दुनी’ का व्यापार कर रहे हैं।

कबीर दीनु गवाइआ दुनी सिउ, दुनी न चाली साथि॥ पाइ कुहाड़ा मारिआ, गाफलि अपुनै हाथि॥13।

यही विषय सलोक नं: 40 तक आगे चलता है। इस संग्रह के सलोक नं: 21 से 28 तक ध्यान से पढ़ें;

कबीर सूखु न ऐंह जुगि, करहि जु बहुतै मीत॥
जो चितु राखहि एक सिउ, ते सुखु पावहि नीत॥21।
कबीर जिसु मरने ते जगु डरै, मेरै मनि आनंदु॥
मरने ही ते पाईऐ, पूरनु परमानंदु॥22॥
राम पदारथु पाइ कै, कबीरा गांठि न खोल्॥
नही पटणु नही पारखू, नही गाहकु नही मोलु॥23॥
कबीर ता सिउ प्रीति करि, जा को ठाकुरु रामु॥
पंडित राजे भूपती, आवहि कउने काम॥24॥
कबीर प्रीति इक सिउ कीए, आन दुबिधा जाइ॥
भावै लांबे केसु करु, भावै घररि मुडाइ॥25॥
कबीर जगु काजल की कोठरी, अंध परे तिस माहि॥
हउ बलिहारी तिन कउ, पैसि जु नीकसि जाहि॥26॥
कबीर इहु तनु जाइगा, सकहु त लेहु बहोरि॥
नांगे पावहु ते गए, जिन के लाख करोरि॥27॥
कबीर इहु तनु जाइगा, कवनै मारगि लाइ॥
कै संगति करि साध की, कै हरि के गुन गाइ॥28॥

‘दीन’ बिसार के परमात्मा को भुला के मनुष्य पुत्र स्त्री धन पदार्थ आदि कई मित्र बनाता है, पर इन मित्रों से सुख नहीं मिलता। फिर भी सुख की आस में इनसे मोह नहीं तोड़ सकता, जबकि ‘दुनिया’ के इस मोह के मरने से ही ‘पूरनु परमानंद’ मिल सकता है। जगत ‘दुनी’ में इतना मस्त है कि हरि-नाम के खरीदने के लिए कोई तैयार ही नहीं होता, क्योंकि मोह–ग्रसे हुए जीव को यह बड़ा ही महंगा सौदा लगता है कि ‘दुनी’ का यह मोह छोड़ के ‘दीन’ खरीदे। दुनिया में हफड़ा–तफड़ी मची हुई है, कोई किसी का नहीं बनता। चाहे विद्या है, चाहे राज है, चाहे जमीन है, जिन्होंने इसे अपनी जिंदगी का सहारा–आसरा बना रखा है, उनकी सांझ–मित्रता ऐतबार–योग्य नहीं, क्योंकि हरेक के अंदर ‘दुविधा’ ही ‘दुविधा’ है। लंबी जटाओं वाले व घोन–मोन सन्यासी साधुओं को देख के एक गृहस्थी के मन में ये ख्याल पैदा हो जाना स्वाभाविक है कि ये लोग तो ‘दुनी’ त्याग के ‘दीन’ के रास्ते पर पड़े हुए हैं, इनके अंदर तो ‘दुबिधा’ नहीं होगी। कबीर जी कहते हैं कि कोई भेख व बाहरी त्याग ‘दुनी’ के मोह से बचा नहीं सकता, सिर्फ प्रभु–प्रीत ही कारगर नुस्खा है (नोट: सलोक नं: 24 की पहली आधी तुक ‘कबीर ता सिउ प्रीति करि’ और नं: 25 की भी पहली आधी तुक ‘कबीर प्रीति इक सिउ कीऐ’ के शब्दों की सांझ बताती है कि दोनों में एक ही ख्याल दिया जा रहा है। नं: 24 में बिलकुल दुनियादारों का वर्णन है, नं: 25 में उनका जिकर है जो अपनी ओर से ‘दुनिया’ त्याग गए हैं। पण्डित हो चाहे कोई राजा भूपति हो, विद्या अथवा बेअंत धन–पदार्थ ‘दुनी’ के मोह की कालिख–भरी कोठरी में गिरने से बचा नहीं सकते। पर ये भुलेखा है कि कि जटाधारी या घोन–मोन सन्यासी आदि साधु जो हमें गृहस्तियों को त्यागी लगते हैं इस कालिख की कोठरी में गिरने से बचे हुए हैं। यह दिखाई देता जाहरा त्याग भी बचाने लायक नहीं है। एक प्रभु-प्रीति ही साधन है जो साध–संगति में प्राप्त होती है।)

छ. अंधेरे में ठोकरें:

सन् 1925 की जिक्र है, होला–महला के मौके पर अमृतसर में एक भारी एकत्र हुआ। मैं भी दर्शन करने गया। मेरे एक रिश्तेदार सज्जन वहाँ मिल गए। बुरज बाबा फूला सिंघ के पास उन्होंने डेरा लगाया हुआ था। अपने इलाके में उनकी कुछ मान–प्रतिष्ठा बनी हुई थी, लोग उनको ‘संत जी, संत जी’ कह के बुलाते थे (नोट: हमारा वह इलाका अब पाकिस्तान में रह गया है)। सो, वे तो एक चारपाई पर थे, और पाँच–छह सेवक जमीन पर बैठे हुए थे। मैं भी फतह बुला के सेवकों में बैठ गया। वहाँ बातें ब्रहमज्ञान की हो रही थीं; पर अजीब रम्ज़ों में व इशारों में। एक पक्ष कोई प्रश्न करता था, और दूसरा पक्ष उस प्रश्न के उक्तर में कोई बात कहने की जगह प्रश्न के उक्तर में प्रश्न ही कर देता था। ऐसी हरेक प्रश्नोक्तरी के वे सारे ‘हा, हा, हा’ करके खूब ऊँचा–ऊँचा हँसते थे, और कभी-कभी संत जी ‘हरे! हरे! तू धन्य है’ के नारे लगा देते थे।

इस प्रश्नोक्तरी के बाद वे गुरबाणी की विचार की तरफ चल दिए। वही तरीका था, विरोधाभास। एक सेवक ने कहा– महाराज जी! इसका क्या भाव है;

तनु तपै तनूर जिउ, बालण हड बलंनि॥ पैरी थकां सिरि जुलां, जे मू पिरी मिलंनि॥

किसी दूसरे सेवक ने पास से ही इसका उक्तर दे दिया;

तन न तपाइ तनूर जिउ, बालण हड न बालि॥ सिरि पैरी किआ फेड़िआ, अंदर पिरी निहालि॥

सभ मिल के हसे और संत जी ने चार–पाँच बार नारा लगाया, ‘हूँह! हरे! धंन हैं! ’ कुछ समय के लिए सबकी ‘समाधि’ लग गई।

फिर एक और सेवक बोला;

फरीदा पाड़ि पटोला धज करी, कंबलड़ी पहिरेउ॥ जिनी वेसी सहु मिलै, सेई वेस करेउ॥

ये सुन के सबको कुछ हिलौरा सा आया, पर फिर एक और सज्जन बोल उठे;

काइ पटोला पाड़ती, कंबलड़ी पहिरेइ॥ नानक घर ही बैठिआं सहु मिलै, जे नीअति रासि करेइ॥

ये सुन के पहले की ही तरह सभ हसे, और संत जी ने फिर उसी तरह कहा, ‘हरे! हरे! धंन हैं! धंन हैं! ’

कुछ समय चुप में बीता और एक सेवक ने कबीर जी का शलोक सुनाया;

कबीर प्रीति इक सिउ कीए, आन दुबिधा जाइ॥ भावै लांबे केस करु, भावै घररि मुडाइ॥25॥

तो, तुरंत एक और सज्जन ने कहा;

कबीर मनु मूंडिआ नही, केस मुंडाए कांइ॥ जो केछु कीआ सो मन कीआ, मूंडा मूंडु अजांइ॥101॥

बड़ा हैरान हो के मैं सोचने लगा कि क्या श्री गुरु ग्रंथ सहिब में विरोधी बातें भी लिखी हुई हैं जो इन्सानी जीवन से मेल नहीं खा सकतीं। तो फिर जीवन-यात्रा में सही रौशनी कैसे मिले?

पर इन ठोकरों का सिर्फ एक ही कारण है कि हम इन शलोकों को अलग-अलग समझते हैं।

यह शलोक नं: 101 शलोक नं: 25 का विरोधी नहीं है। जैसे शलोक नं: 25 में केस रखने व ना रखने पर विचार नहीं है, वैसे इस नं: 101 में भी केस कटाने व ना कटाने का विषय नहीं। इसको सही तरह समझने के लिए नं: 92 से आरम्भ करें, 92 से 101 तक एक ही ख्याल–कड़ी है;

कबीर देखि देखि जगु ढूंढिआ, कहूँ न पाइआ ठउरु॥
जिनि हरि का नामु न चेतिओ, कहा भुलाने अउर॥92॥
कबीर संगति करीऐ साध की, अंति करै निरबाहु॥
साकत संगु न कीजीऐ, जा ते होइ बिनाहु॥93॥
कबीर जग महि चेतिओ जानि कै, जग महि रहिओ समाइ॥
जिन हरि का नामु न चेतिओ, बादहि जनमें आइ॥94॥
कबीर आसा करीऐ राम की, अवरै आस निरास॥
नरकि परहि ते मानई, जो हरि नाम उदास॥95॥
कबीर सिख साखा बहुते कीए, केसो कीओ न मीतु॥
चाले थे हरि मिलन कउ, बीचै अटकिओ चीतु॥96॥
कबीर कारनु बपुरा किआ करै, जउ रामु न करै सहाइ॥
जिह जिह डाली पगु धरउ, सोई मुरि मुरि जाइ॥97॥
कबीर अवरह कउ उपदेसते, मुख मै परि है रेतु॥
रासि बिरानी राखते, खाया घर का खेतु॥98।
कबीर साधू की संगति रहउ, जउ की भूसी खाउ॥
होनहारु सो होइ है, साकत संगि न जाउ॥99॥
कबीर संगति साध की, दिन दिन दूना हेतु॥
साकत कारी कांबरी, धोए होइ न सेतु॥100॥
कबीर मनु मूंडिआ नही, केस मुंडाए कांइ॥
जो केछु कीआ सो मन कीआ, मूंडा मूंडु अजांइ॥101॥

मन के लिए शांति की ‘ठौर’ सर्व-व्यापक परमात्मा का नाम ही है जो साध संगति में मिलता है; पर जिन्होंने चेलों–चाटड़ों वाला आडमबर रच लिया है और जो बँदगी से टूट के अपनी ही सेवा–पूजा कराने में मस्त हैं वे ‘साध’ नहीं हें, ऐसे ‘साधों’ का आसरा कमजोर आसरा है, वे सिर्फ और लोगों को सलाहें उपदेश देते हैं उनके अपने अंदर कोई रस नहीं आता। और, वे जो सिर मुना के अपने आप को ‘साध’ समझता फिरता है, जो उसने अपने मन पर से विकारों की मैल दूर नहीं की, तो सिर के केस दूर करने से तो वह ‘साध’ नहीं बन गया। ऐसे लोग बल्कि साकत होते हैं, इनकी सुहबति में मन पवित्र होने की जगह काला हो जाता है।

शलोक नं 25 और 101 दोनों ही भेखी साधों का जिकर है चाहे वे जटाधारी हैं चाहे घोन–मोन सन्यासी।

ये थोड़े से प्रमाण विचारवान पाठक–सज्जनों को इस नतीजे पर पहुँचाने के लिए काफी होंगे कि कबीर जी के शलोक अलग-अलग नहीं, बल्कि सारे एक ही लड़ी के मोती हैं।

क्या कबीर जी वैश्नव भक्त थे?

हमारे कई प्रसिद्ध प्रचारक ये कहते हुए सुने जा रहे हैं कि भक्तों की वाणी हू–ब–हू, शब्द–ब–शब्द नहीं मानी जा सकती, कई जगहों पर सिख धर्म से इसके विचारों में अंतर है। प्रचार बड़ा ही खतरनाक है, सिखों के अंदर श्री गुरु ग्रंथ सहिब जी के प्रति दोचिक्तापन पैदा करेगा। अजब दुखदाई हालत बनी हुई है। गुरु ग्रंथ साहिब जी की बीड़ तैयार हुए को आज साढ़े तीन सौ साल से ऊपर हो गए हैं, अभी तक आम जनता तो कहां रही, सिख विद्वान भी अपने अंदर ये यकीन नहीं बना सके कि श्री गुरु ग्रंथ साहिब की सारी वाणी ‘गुरु’–रूप है और सारी का आशय एक ही है। कहीं कोई विरोधता नहीं है, क्योंकि गुरु अरजन साहिब कहीं भी किसी पन्ने के हाशिए पर भी कोई ऐसी चेतावनी नहीं लिख–लिखा गए। और, साधारण सी समझ वाला व्यक्ति भी यह विचार सकता है कि ना–मिलने वाले ख्यालों वाली ‘कविता’ को श्री गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज करने की जरूरत ही पैदा नहीं हो सकती थी। अन–मतियों की गुरमति से ना–मिलने वाली रस्मों–रीतियों की विरोधता, एक जगह नहीं, सैकड़ों जगह की गई है। फिर गोल–मोल तरीके से ऐसे शब्द–शलोक क्यों दर्ज किए जाते, जिनका निर्णय करना सिख जनता के हाथ में छोड़ा जाता?

इस बात में कोई शक नहीं कि सिख जथेबंदियों द्वारा कहीं-कहीं ऐसे आश्रम खुलते रहे हैं और खुले हुए हैं जहाँ सिख प्रचारकों को गुरमति की सूझ कराने के प्रयत्न किए जाते बताए जा रहे हैं। पर, इस बारे मेरे साथ घटी एक अनोखी घटना है। इससे पाठक सज्जन अंदाजा लगा लें कि हम कहाँ जा रहे हें। घटना जनवरी–फरवरी 1928 की है, श्री गुरु हरि राय जी के जनम–पुरब से अगला दिन था। मैं उन दिनों गुरु नानक खालसा कालेज गुजरांवाले में पढ़ाता था। गुजरांवाले से 15–16 मील की दूरी पर जिला सियालकोट में डसके के पास एक नगर गलोटीआं है। वहाँ हर साल गुरु हरि राय साहिब जी के जनम–दिन पर इलाके की संगति द्वारा दो–दिन भारी दीवान होता था जिसमें बहुत सही समझदार–समझदार प्रसिद्ध सिख प्रचारक और रागी जत्थे बुलाए जाते थे। मैं 1928 के गुरपुरब का जिक्र कर रहा हूँ। गुरु नानक खालसा कालज के सामने के तरफ खालसा यतीमखाना है जिसमें एक शानदार गुरद्वारा बना हुआ है। वहाँ हर रोज सवेरे कीर्तन होता था और पड़ोस की आबादी की संगति सत्संग में जुड़ते थे। गुरु हरि राय साहिब के जनम–पुरब के अगले दिन खालसा यतीमखाने के गुरद्वारे में अभी सवेरे का सत्संग जारी ही था कि एक प्रमुख सिख आश्रम का एक विद्वान प्रचारक गलोटियां के दीवान से वापसी पर आ पहुँचा। ये प्रचारक कहीं पहले उस यतीमखाने में भी पढ़ता रहा था। यतीमखाने के हैडमास्टर साहब ने प्रचारक सज्जन की, संगत से जान–पहचान करवाई, और, दस मिनट के लिए व्याख्यान के लिए विनती की। व्याख्यान हुआ, उसमें दो बातें खास मजेदार थीं। प्रचारक जी बहुत ही जल्दी-जल्दी बोलते थे, और व्याख्यान में आधे से अधिक फारसी के शेअर थे। मैं वरनेकुलर मिडल तक पाँच साल फारसी पढ़ता रहा था, और 1928 में भाई नंदलाल जी की गज़लें तकरीबन आधी मुझे ज़बानी याद थीं। हमारे प्रचारक जी हमें साहदी और हाफ़ज सुना रहे थे। मैंने बहुत सिर मारा, पर उनके व्याख्यान की मुझे पूरी समझ ना पड़ सकी। दीवान में बैठी बीबियां उस व्याख्यान को सुन के मस्ती में हिलौरे ले रही थीं। उनको देख के मैं अपने दिल में बहुत शर्मिंदा हुआ कि मेरी कई सालों की पढ़ने–पढ़ाने की सिर–दर्दी ऐसे ही गई; ये बीबियां ही समझदार निकलीं जो व्याख्यान को समझ रही हैं मैं तो उललू की तरह बिट–बिट ही ताक रहा हूँ।

व्याख्यान समाप्त हुआ। यतीमखाने के हैडमास्टर ने उठ के प्रशंशा की और तज़वीज़ रखी कि शाम को शहर में ढंढोरा दिलवा के एक घंटा और दीवान कराया जाए और भाई साहिब को ठहरने के लिए विनती की जाए। हामी भराने की खातिर कह दिया, क्यों भाई साहिब सिंघ जी! ठीक है ना? मैं तो पहले ही अपनी अनपढ़ता को धिक्कार लगा रहा था, ये सुन के घबराहट से मेरा मुँह खुला रह गया और मैं कोई ‘हाँ हूँ’ ना कर सका।

सत्संग का भोग पड़ा। सतसंगी अपने-अपने घर जाने लग पड़े। मैंने गुरद्वारे के अंदर ही हैडमास्टर साहिब को बाँह से पकड़ लिया और पूछा– मास्टर जी! श्री गुरु ग्रंथ साहिब की हजूरी में खड़े हो सच बताओ कि आपको इस व्याख्यान में से कितना समझ आया है। उन्होंने साफ मान लिया कि कुछ समझ नहीं आया।

मैंने पूछा, आप 30सालों से इस आश्रम में बड़ी जमातों के बच्चों को पढ़ा रहे हो, अगर आपको समझ नहीं लगी, तो ये बीबियां क्या कुछ समझ के सिर हिला रही थीं?

कहने लगे, कर्तार जाने, उन्होंने क्या कुछ समझा था। हैड–मास्टर ने शाम का दीवान फिर नहीं करवाया।

इस ऊपर बताई श्रेणी के प्रचारक, अभी खुलमखुला तो नहीं, पर अकेले बैठ के कबीर जी की बाबत ये कहते सुने जा रहे हैं कि कबीर जी वैश्णव थे, माया खाने के विरुद्ध कह गए हैं, हम उनकी ये शिक्षा मानने को तैयार नहीं हैं। हो सकता है कि यह ख्याल ज्यादा चल पड़े और किसी वक्त दुख्दाई साबित हो। सो, मैंने इस विषय को पिछले लेख से खास तौर पर अलग कर लिया है ताकि पाठक सज्जन इस तरफ ध्यान दे सकें।

सन् 1913 में मैं एफ. ए. के इम्तिहान दे के अपने गाँव थरपाल गया जो रावी के पास 3 मील पर जिला सियालकोट में उस सड़क पर है जो अमृतसर से सियालकोट को जाती है। जुलाई अगस्त के दिन थे। एक दिन बादल–वाही के दिन में घर से सैर करने चल पड़ा चलते–चलते रावी दरिया के किनारे आ पहुँचा। परले पासे आई बेड़ी में से मुसाफिर उतरे, उन्हें देखने के लिए खड़ा हो गया। एक मुसाफिर उतरा जिसको मैंने पहचान लिया, कभी वह हमारे घर का परोहित था। पंण्डित जी की गठड़ी मैंने उठा ली और उनको मैं अपने गाँव ले आया। हम तीन भाई थे और तीनों ही सिंघ बन चुके थे। परोहित जी ने बड़ी आह भरी। फिर उन्होंने अपनी गठड़ी में से एक किताब निकाली और मुझे कहने लगे –काका! आओ, मैं तुम्हें तुम्हारे गुरु की बातें सुनाऊँ। तुम्हारा गुरु कहता है;

काजिआ बाहमणा की गल थकी, अगदु पढ़ै सैतानु वे लालो॥

कि

जिस लोगों का विवाह ना ब्राहमण पढ़ाता है ना काज़ी, उनका विवाह शैतान पढ़ाता है। बताओ, तुम्हारा गुरु ये तुम्हारे लिए ही कह गया है ना?

अपने सकूल व कालेज के सिख लड़कों में भले ही मैं ‘उजड़े पिंड भड़ोला महल’ की तरह गुरबाणी की कुछ सूझ रखने वाला समझा जाता था, पर पण्डित जी के इस बाण का तब मैं उक्तर देने के काबिल नहीं था।

अभी मैं हैरान ही खड़ा था कि पंडित जी ने उसी किताब के कुछ पन्ने और फरोल के मुझे कहा– हे, काका! तुम्हारे गुरु ने हमसे एक बार मुआफी भी माँगी थी;

मेरो कछू अपराध नही, गयो याद ते भूल न कोप चितारो॥

चार–पाँच साल हुए थे, इसी तरह सबब से मुझे यहाँ खालसा कालेज अमृतसर में दो कादियानी भाई (इस्लाम का एक समुदाय जिसका केन्द्र कादियां में है) आ मिले। घंटा इधर–उधर की मार के वे अपने असली मतलब पर आ गए और कहने लगे– हज़रति बाबा नानक मिर्जा साहिब के बारे में एक पेशीनगोई कर गए हैं और सिखों को हिदायत कर गए हैं कि तुमने उनकी विरोधता नहीं करनी;

वेल न पाईआ पंडती....॥ वखतु न पाइओ कादीआ....॥

कहने लगे– शब्द ‘पाइआ’ बीत गए समय के लिए है, और शब्द ‘पाइओ’ आने वाले समय के लिए है। ग्रंथ साहिब में बिंदी (ं) बरतने का रिवाज नहीं था, शब्द ‘कादीआ’ को ‘कादीआं’ पढ़ना था; ये नगर ‘कादीआं’ का वर्णन है।

अनमती लोगों ने तो यह होछी बातें अन्जान सिखों को थिरकाने के लिए करनी ही हुई; पर अफसोस!

इस घर को आग लग रही (गई) घर के चिराग़ से॥

जिस शलोक में मास खाने के विरुद्ध उपदेश समझा जा रहा है, वह इस प्रकार है;

कबीर खूब खाना खीचरी, जा महि अंम्रितु लोनु॥ हेरा रोटी कारने, गला कटावै कउनु॥188॥

हम पिछले पन्नों में कई प्रमाण दे के विस्तार से साबित कर चुके हैं कि कबीर जी के सारे शलोक एक ही विचार–कड़ी में परोए हुए हैं। किसी एक शलोक को कड़ी में से अलग करके पढ़ने से असल भाव से हटने की संभावना बनी रहती है। इस उपरोक्त शलोक नं: 188 को भी कड़ी में से अलग करने के कारण भुलेखा पड़ रहा है। इस संग्रह में पाँच शलोक हैं, सो, इकट्ठे ही पढ़ने–विचारने हैं;

कबीर मुलां मुनारे किआ चढहि, सांई न बहरा होइ॥
जा कारनि तूं बांग देहि, दिल ही भीतरि जोइ॥184॥
सेख सबूरी बाहरा, किआ हज काबै जाइ॥
कबीर जा की दिल साबति नही, ता कउ कहां खुदाइ॥185॥
कबीर अलह की करि बंदगी, जिह सिमरत दुखु जाइ॥
दिल महि सांई परगटै, बुझै बलंती नांइ॥186॥
कबीर जोरी कीए जुलमु है, कहता नाउ हलालु॥
दफतरि लेखा मांगीऐ, तब होइगो कउनु हवालु॥187॥
कबीर खूब खाना खीचरी, जा महि अंम्रितु लोनु॥
हेरा रोटी कारने, गला कटावै कउनु॥188॥

कोई भी मज़हब धर्म हो, इन्सान के लिए वह तब तक ही लाभदायक है, जब तक उसके बनाए पद्चिन्हों पर चल के मनुष्य अपने दिल में भलाई पैदा करने की कोशिश करता है, खालक और उसकी इनायत के लिए दिल में मुहब्बत बनाता है। जब मनुष्य रिवाजी तौर पर ही मज़हब के असूलों और रस्मों को करने लग जाता है, पर यह नहीं देखता कि दिल में कोई भली तब्दीली आई है अथवा नहीं।, अथवा बल्कि कहीं भलाई की जगह मन में कठोरता तुअसब आदि तो नहीं बढ़ रहे, उस वक्त उसके सारे धार्मिक उद्यम व्यर्थ हो जाते हैं।

पठानों मुगलों के राज के वक्त हमारे देश में इस्लामी शरह का कानून चलता था। भारतवासियों के लिए और आम मुगलों के लिए भी अरबी बोली बेगाने देश की बोली थी। सो, हरेक मुसलमान कुरान–शरीफ़ को नहीं समझ सकता था। इसका तरीका यह निकला कि जहाँ तक कानून को बरतने को संबंध होता था, राजसी ताकत काज़ियों–मौलवियों के हाथ में थी, क्योंकि यही लोग कुरान–शरीफ़ के अर्थ करने में ऐतबार–योग्य माने जाते थे। एक तरफ़ ये लोग राजसी ताकत के मालिक; दूसरी तरफ यही लोग धार्मिक नेता आम लोगों को जीवन का सही राह बताने वाले। ये दोनों विरोधी बातें इकट्ठी हो गई। राज प्रबंध चलाने वाले गुलाम हिन्दू कौम पर कठोरता बरतनी इन लोगों के लिए कुदरती बात थी। पर इस कठोरता को अपनी ओर से वे इस्लामी शरह समझते व बताते थे। सो, मज़हब से स्वाभाविक तौर पर दिल की कठोरता ही मिलती गई। जिस भी देश में राज–प्रबंध किसी खास मज़हब के असूलों के अनुसार चलाया जाता रहा है उस मज़हब के प्रचारकों का यही हाल होता रहा है।

कबीर जी अपने वक्त के काजियों–मौलवियों की यह हालत देख के इन शलोकों में कह रहे हैं कि मज़हब ने, मजहब के रीति–रिवाजों ने, बांग–निमाज़ आदि ने, दिल की सफाई सीखनी थी। पर, जो रिश्वत कठोरता तुअसब आदि के कारण दिल निर्दयी हो चुका है, बल्कि यही हज आदि कर्म दिल को और कठोर बनाए जा रहे हैं, तो इनके करने का कोई लाभ नहीं, क्योंकि जिस मनुष्य के अपने दिल में शांति नहीं आई, उसके लिए तो रब कहीं भी नहीं है। यही ख्याल कबीर जी ने प्रभाती राग के शब्द नं: 9 में बताया है;

मुलां, कहहु निआउ खुदाई॥ तेरे मन का भरमु न जाई॥१॥ रहाउ॥ पकरि जीउ आनिआ, देह बिनासी, माटी कउ बिसमिल कीआ॥ जोति सरूप अनाहत लागी, कहु हलालु किआ कीआ॥२॥ किआ उजू पाकु कीआ मुहु धोइआ, किआ मसीत सिरु लाइआ॥ जउ दिल महि कपटु निवाज गुजारहु, किआ हज काबै जाइआ॥३॥

ऊपर–लिखे पाँच शलोकों का भाव इस प्रकार है;

जो मुल्लां बाँग दे के सिर्फ लोगों को ही बुला रहा है, पर उसके अपने दिल में शांति नहीं है, हरेक के दिल की जानने वाले रब को वह इस बांग आदि से धोखा नहीं दे सकता। ऐसा मनुष्य अगर हज भी कर आए तो उसका कोई लाभ नहीं होता, क्योंकि दिल के कठोर व्यक्ति के लिए रब है ही नहीं। फिर, किसी जानवर को बिसमिल्लाह कह के ये लोग ज़बह करते हैं और यह कहते हैं कि ये ज़बह किया जानवर रब के नाम की कुर्बानी देने के काबिल हो गया है और खुदा ने खुश हो के कुर्बानी देने वाले बंदे के गुनाह बख्श दिए हैं: ये बात विचार से वंचित है। जानवर का मास तो ये लोग मिलजुल कर खुद ही खा लेते हैं। कबीर जी कहते हैं कि कुर्बानी के बहाने मास खाने से बेहतर तो खिचड़ी ही खा लेनी ठीक है।

इन शलोकों में कबीर जी ने इस्लामी शरह की तरह निमाज़–हज कुर्बानी का जिकर किया है। यहाँ शब्दावली भी आम तौर पर मुसलमानी ही बरती है। आगे शलोक नं: 189 से ले के 196 तक आठ शलोकों में ब्राहमण के रस्मी गुरु बनने और मूर्ति-पूजा का जिक्र है, इनमें शब्दावली भी सारी ‘हिन्दकी’ ही बरती गई है। इनसे आगे नें: 197 से 201 तक फिर ‘कुर्बानी’ देने का जिक्र है, यहाँ फिर सारे शब्द और विचार आम तौर पर मुसलमानी है;

कबीर हज काबे कउ जाइ था, आगै मिलिआ खुदाइ॥ सांई मुझ सिउ लरि परिआ, तुझै किनि् फुरमाई गाइ॥197॥ कबीर हज काबै होइ होइ गइआ, केती बार कबीर॥ सांई मुझ महि किआ खता, मुखहु न बोलै पीर॥198॥ कबीर जीअ जु मारहि जोरु करि, कहते हहि जु हलालु॥ दफतरु दई जब काढि है, होइगा कउनु हवालु॥199॥ कबीर जोरु कीआ सो जुलमु है, लेइ जबाबु खुदाइ॥ दफतरि लेखा नीकसै, मार मुहै मुहि खाइ॥200॥ कबीर लेखा देना सुहेला, जउ दिल सूची होइ॥ उसु साचे दीबान महि, पला न पकरै कोइ॥201॥

चुँकि आम मुसलमान काबे को खुदा का घर मानता है, इसलिए कबीर जी भी वही ख्याल बता के कहते हैं कि खुदा इस हज पे खुश नहीं होता। अनेक बार हज करने पर भी खुदा खुश हो के क्यों हाज़ी को दीदार नहीं देता और वह हाज़ी खुदा की निगाहों में अभी भी गुनाहगार समझा जाता है; इस भेद का जिक्र इन शलोकों में किया गया है कि खुदा के नाम पर गाय आदि की ‘कुबानी’ देनी, मिल–जुल के खुद ही खा पी जाना, और फिर ये समझ लेना कि इस ‘कुर्बानी’ के इवज़ में हमारे गुनाह बख्श दिए गए हैं: यह एक बड़ा भुलेखा है। यह खुदा को खुश करने का तरीका नहीं। खुदा खुश होता है दिल की पाकीज़गी पवित्रता से।

हम देख चुके हैं कि जिस शलोक में खिचड़ी के द्वारा वैश्णव मत का प्रचार किया समझा जा रहा है, वह दरअसल ऐसे शलोकों के संग्रह के साथ संबंध रखता है, जिनमें ‘कुर्बानी’ की रसम और बहस है। अगर कोई सज्जन ये कहें कि ‘परथाइ साखी महा पुरख बोलदे, साझी सगल जहानै’ के अनुसार अब इसमें से मास के विरुद्ध उपदेश लिया जा सकता है, तो भी ये दलील फबती नहीं। रिश्वत आदि से मनुष्य का खून पी के व और जोर–जबरदस्ती–पाप रोजाना करता हुआ अगर कोई मुसलमान यह समझता है कि गाय आदि की ‘कुर्बानी’ से मैं खुदा को खुश कर रहा हूँ, और अपने गुनाह बख्शवा रहा हूँ, तो ‘सांझी सगल जहानै’ की कसवटी बरत के इस तरह कहना पड़ेगा– ठगी फरेब की कमाई करके, सूद खोरी से गरीबों का लहू पी के, आम जनता की बेबसी से फायदा उठाते हुए सौदा इतना महंगे भाव बेच के कि गरीब लोग पीसे जाएं; रिश्वत आदि से; रही बात और ऐसे तरीके बरत के जिनसे गरीब लोग बहुत दुखी हों, अगर कोई मनुष्य (चाहे वह किसी भी देश व कौम का है) पैसा कमाता है और उसमें से मन्दिर गुरद्वारे बनाने के लिए दान करता है, तीर्थ–यात्रा करता है, गुरद्वारों के दर्शन करने पर माया खर्चता है, गुरु–दर पर कड़ाह प्रसाद भेटा करता है, ऐसे भले ही अनेक भले पुण्य–काम करे; गुरु–परमात्मा उस पर खुश नहीं हो सकता। बस! इन शलोकों में इन्सानी जीवन की वही तस्वीर है जिसका कुछ हिस्सा मलिक भागो वाली साखी में मिलता है।

कबीर जी का ये शलोक और है जिसकी बाबत ये ख्याल बना हुआ है कि कबीर जी ने मछली का मास मना किया है;

कबीर भांग माछुली सुरापानि, जो जो प्रानी खांहि॥ तीरथ बरत नेम कीए, ते सभै रसातलि जांहि॥232॥

इस शलोक के असल भाव को तब ही समझा जा सकेगा, जब इस के साथी शलोकों से मिला के पढ़ेंगे। यह नया संग्रह नं: 228 से शुरू होता है;

कबीर तरवर रूपी रामु है, फल रूपी बैरागु॥
छाइआ रूपी साधु है, जिनि तजिआ बादु बिबादु॥228॥
कबीर ऐसा बीजु बोइ, बारह मास फलंत॥
सीतल छाइआ, गहिर फल, पंखी केल करंत॥229॥
कबीर दाता तरवरु दया फलु, उपकारी जीवंत॥
पंखी चले दिसावरी, बिरखा सुफल फलंत॥230॥
कबीर साधू संगु परापती, लिखिआ होइ लिलाट॥
मुकति पदारथु पाईऐ, ठाक न अवघट घाट॥231॥
कबीर एक घड़ी आधी घरी, आधी हूँ ते आध॥
भगतन सेती गोसटे, जो कीनो सो लाभ॥232॥
कबीर भांग माछुली सुरापानि, जो जो प्रानी खांहि॥
तीरथ बरत नेम कीए, ते सभै रसातलि जांहि॥232॥

शलोक नं: 228 से एक नया विचार आरम्भ हुआ है। जगत में ‘वाद–विवाद’ की तपश पड़ रही है जीव तड़प रहे हैं। परमात्मा का नाम यहाँ एक सुंदर वृक्ष है। जिस विरले भाग्यशाली गुरमुखों ने दुनिया का यह ‘वाद–विवाद’ त्यागा है, वे इस वृक्ष की ठंडी छाया हैं। इस छाया का आसरा लेने पर, साधु–गुरमुखों की संगति करने से, इस वाद–विवाद की तपश में जलन से बचा जा सकता है, इस ‘वाद विवाद’ से ‘वैराग’ प्राप्त हो जाता है।

पर दुनिया में एक अजब खेल हो रही है। लोग सवेरे धर्म स्थान में भी हो आते हैं, व्रत आदि भी रखते हैं, और कई किस्मों के नियम भी निभाते हैं, पर इनके साथ विकार भी करते जाते हैं। कबीर जी जहाँ कहते हैं कि ‘साधु’ की संगति करने का भाव यह नहीं है कि जितना समय सत्संग में बैठो उतना समय ‘राम राम’ करी जाओ, वहाँ से आ के विकारों में हिस्सा लिए जाओ। ये तीर्थ–यात्रा, व्रत नेम सब ही निष्फल हो जाते हैं अगर मनुष्य विकारी जीवन से नहीं पलटता।

पिछले शलोक नं: 232 में वर्णन है कि ‘भगतन सेती गोसटे, जो कीनो सो लाभ’। यहाँ नं: 233 में ये कहते हैं कि जो मनुष्य ‘भगतन सेती गोसटे’ से आ के शराब–मास आदि विकारों में लगा रहे, तब वह किया हुआ सतसंग और वहाँ हुए प्रण (व्रत) सब व्यर्थ जाते हैं।

शब्द ‘भांग माछुली ते सुरा’ से यह भाव नहीं लेना कि कबीर जी सिर्फ भांग और शराब से रोकते हैं, और पोस्त व अफीम आदि से मनाही नहीं करते। इसी तरह ये बात नहीं कि यहाँ मछली–मास खाने से रोक रहे हैं। सारे प्रसंग को मिला के पढ़ो। सत्संग भी करना और विकार भी करते रहना –कबीर जी इस दोगले काम से वरजते हैं। कामी लोग आम तौर पर शराब–मास आदि का प्रयोग कर के काम-वासना व्यभचार आदि में प्रवृत्त होते हैं, और, मछली का मास चुँकि काम–रूची बढ़ाने के लिए प्रसिद्ध है, इस वास्ते कबीर जी ने शराब भांग मछली आदि शब्द बरते हैं।

शलोक नं: 228 से 236 तक का मिश्रित भाव:

विकारों और वाद–विवाद की तपश से तप रहे इस संसार में परमात्मा का नाम ही ठंड देने वाला है, यह नाम गुरमुखों की संगति में से मिलता है। सो, थोड़ा बहुत जितना भी समय मिले सत्संग जरूर करना चाहिए। पर कई लोग ऐसे भी होते हैं जो सत्संग में जा के ‘राम राम’ भी कर आते हैं और वहाँ से आ के विकारों में भी कसर नहीं रखते। ऐसे लोगों के सारे धार्मिक उद्यम निष्फल जाते हैं। सत्संग में से तो ये लाभ कमाना है कि दुनिया के रसों से खेल खेलने की जगह जीव मेहनत-कमाई करता–करता अपनी तवज्जो को सदा प्रभु-चरणों में जोड़े रखे और प्राणी–मात्र के प्रति इसमें नफ़रत ना रहे।

इस उपरोक्त सारी विचार से पाठक–सज्जन देख चुके हैं कि कबीर जी ने कहीं भी मास खाने अथवा ना खाने की बहस नहीं छेड़ी है। जल्दबाजी में ऊपरी निगाह से इन शलोकों को अलग-अलग समझ के ये ख्याल बना लेना बहुत हानिकारक है कि कहीं-कहीं कबीर जी के विचार गुरमति से नहीं मिलते।

कबीर जी के शलोक और गुरु नानक साहिब:

लेख–लड़ी की मेरी दूसरी ‘कुछ और धार्मिक लेख’ (गुरबाणी और इतिहास के बारे) के पहले 3 लेखों में ये बात बड़े विस्तार के साथ बताई जा चुकी है कि सतिगुरु नानक देव जी अपनी सारी ही वाणी अपने हाथों से खुद लिख के संभालते रहे थे। गुरु अंगद देव जी को गुरु–गद्दी देने के वक्त यह सारा खजाना उन्होंने इनके हवाले कर दिया था। गुरु अंगद साहिब ने यह जिंमेवारी गुरु अमरदास जी को सौंपने के समय गुरु नानक साहिब जी की वाणी और अपनी वाणी गुरु अमरदास जी को दे दी। इसी तरह गुरु अमरदास जी से गुरु रामदास जी तक और इनसे गुरु अरजन साहिब जी तक ये सारी वाणी पहुँची, जिसका वर्णन गुरु अरजन साहिब ने एक शब्द में यूँ किया है:

गउड़ी गुआरेरी महला ५॥ हम धनवंत भागठ सच नाइ॥ हरि गुण गावह सहजि सुभाइ॥१॥ रहाउ॥ पीऊ दादे का खोलि डिठा खजाना॥ ता मेरै मनि भइआ निधाना॥१॥ रतन लाल जा का कछू न मोलु॥ भरे भंडार अखूट अतोल॥२॥ खावहि खरचहि रलि मिलि भाई॥ तोटि न आवै वधदो जाई॥३॥ कहु नानक जिसु मसतकि लेखु लिखाइ॥ सु एतु खजानै लइआ रलाइ॥४॥३१॥१००॥

लेख लड़ी की तीसरी पुस्तक ‘गुरमति प्रकाश’ में निम्न-लिखित भगतों की वाणी में से हवाले दे के ये बात साफ तौर पर सिद्ध की जा चुकी है कि इनकी सारी वाणी गुरु नानक साहिब के पास मौजूद थी;

बाबा फरीद जी

भक्त जैदेव जी

भक्त बैणी जी

भक्त रविदास जी

जब सतिगुरु जी ने 3 ‘उदासियों’ में सारे भारत व अन्य देशों का चक्कर लगाया था, तब इनके वतन पहुँच कर इनकी संतान अथवा श्रद्धालुओं से इनकी वाणी ले के आए थे। (नोट: वे सारे लेख ‘इसी दर्पण तीसरे और पाँचवें भाग में छप चुके हैं)।

जब हम गुरु नानक देव जी की वाणी और भगतों की वाणी को ध्यान से पढ़ते हैं तो ये बात बड़ी प्रत्यक्ष दिखती है कि सतिगुरु जी और भगतों का आशय बिल्कुल एक था। मूर्ति-पूजा, जाति–अभिमान दो बड़ी कुरीतियां हिन्दू कौम में उस वक्त आम प्रचलित थीं, चारों तरफ कर्मकांड का जाल बिछा हुआ था; हक की कमाई और शुद्ध आचरण को धार्मिक जीवन में कोई जगह नहीं दी जा रही थी, करोड़ों लोगों को शूद्र कह: कह के पैरों तले लिताड़ा जा रहा था। इन सारी कुरीतियों के विरुद्ध गुरु नानक साहिब ने बड़े जोरों से आवाज़ उठाई और अपनी सारी उम्र इसी सुधार पर लगा दी। भगतों की वाणी पढ़ के देखो, उसमें से भी यही दिख रहा है कि वे सारे महापुरख भी सारी उम्र यही काम करते रहे। जैसे उच्च–जाति वालों की ओर से गुरु नानक साहिब के रास्ते में कई रोकें डाली गई, वैसे ही इन भगतों के साथ भी सलूक होता रहा। पर ये निडर रह के अपना ये सुधार का काम पूरे जोर से करते रहे। ये कुदरती बात थी कि सतिगुरु नानक देव जी इन महापुरुखों के उद्यम की सराहना करते और इनकी वाणी सतिगुरु जी को प्यारी लगती। सो, ‘उदासियों’ के वक्त जिस-जिस भक्त की जनम–भूमि पर गए, उनसे या उनके श्रद्धालुओं से उनकी वाणी लिख के अपने पास अपनी लिखी वाणी के साथ संभालते गए। जब सतिगुरु जी ने अपनी वाणी गुरु अंगद साहिब जी के सुपुर्द की, उस वक्त भगतों की वाणी भी साथ ही सौंपी। और, गुरु अंगद साहिब से ये सारी वाणी गुरु अमरदास जी को मिली। कबीर जी के इन शलोकों में से ये सबूत साफ़ मिलते हैं कि ये शलोक गुरु अमरदास जी के पास मौजूद थे।

शलोक नं: 28 और 29 में कबीर जी लिखते हैं;

कबीर इहु तनु जाइगा, कवनै मारगि लाइ॥ कै संगति करि साध की, कै हरि के गुन गाइ॥28॥ कबीर मरता मरता जगु मूआ, मरि भी न जानिआ कोइ॥ ऐसे मरने जो मरै, बहुरि न मरना होइ॥29॥

तुक ‘अैसे मरने’ के माध्यम से कबीर जी ने साफ शब्दों में यह नहीं बताया कि वे ‘अैसे मरने से क्या भाव लेते हैं। वैसे शलोक नं: 28 में वह बता आए हैं कि इस नाशवान शरीर को सफल करने के लिए ‘संगति करि साध की, हरि के गुन गाइ’। शब्द ‘अैसे’ बताता है कि इसका जिकर पहले शलोक नं: 28 में किया जा चुका है। जब मनुष्य निरी ‘दुनिया’ की खातिर भटकता है, तो इस माया को अपनी जिंदगी का सहारा बना लेता है; फिर हर वक्त ये सहम भी बना रहता है कि कहीं यह राशि-पूंजी हाथ से ना चली जाए अथवा इस जोड़ी हुई पूंजी को जल्दी ही ना छोड़ना पड़ जाए, जल्दी ही मौत का नगारा ना आ बजे। सो, निरी ‘दुनिया’ का गाहक मनुष्य इस तरह दिन में कई बार बेमौत ही मरता रहता है सहम से हर वक्त इसकी सांसें सूखी रहती हैं। इस रोजाना मौत से बचने के लिए कबीर जी ने शलोक नं: 28 में ‘मारग’ बताया है ‘संगति करि साध की, हरि के गुन गाइ’। इसी ख्याल को सलोक नं: 29 में इशारे मात्र कहते हैं‘अैसे मरने जो मरै’। ये सारी विचार–कड़ी शलोक नं: 13 से शुरू हुई है और नं: 40 पर जा के समाप्त होती है। पर जो सज्जन सारे शलोकों को अलग-अलग समझ रहे हैं वे ‘अैसे मरने’ का अर्थ अपने ही अंदाजे से लगाएंगे।

इस ‘अैसे मरने जो मरै’ को गुरु अमरदास जी ने साफ शब्दों में समझा दिया है। बिहागड़े की वार की पउड़ी नं 17 के साथ कबीर जी का ये शलोक नं: 29 और गुरु अमरदास जी का शलोक यूँ है;

सलोक॥ कबीर मरता मरता जगु मूआ, मरि भी न जानै कोइ॥ ऐसी मरनी जो मरै, बहुरि न मरना होइ॥१॥

कबीर जी के इस ‘अैसी मरनी जो मरै’ के भाव को समझाने के लिए गुरु अमरदास जी लिखते हैं;

महला ३॥ किआ जाणा किव मरहिगे, कैसा मरना होइ॥ जेकरि साहिबु मनहु न वीसरै, ता सहला मरणा होइ॥ मरणै ते जगतु डरै, जीविआ लोड़ै सभु कोइ॥ गुर परसादी जीवतु मरै, हुकमै बूझै सोइ॥ नानक ऐसी मरनी जो मरै, ता सद जीवणु होइ॥२॥१७॥

परमात्मा को मन में से ना बिसारना और उसकी रजा को समझना– यह है कबीर जी के गहरे–गुप्त भाव की व्याख्या जो सतिगुरु अमरदास जी ने की है। आखिर में हजूर ने कबीर जी के शब्दों को दोहरा के भी कह दिया है;

‘नानक अैसी मरनी जो मरै, ता सद जीवणु होइ।’

कबीर जी लिखते हैं, ‘अैसी मरनी जो मरै’; सतिगुरु जी लिखते हैं ‘नानक अैसी मरनी जो मरै’। कबीर जी लिखते हैं ‘बहुरि न मरना होइ’; सतिगुरु जी इसी विचार को और शब्दों में बदल के लिखते हैं ‘ता सद जीवणु होइ’।

विचार और शब्दों की ये सांझ सबब से नहीं हो गई। सतिगुरु अमरदास जी के पास कबीर जी का यह शलोक हू–ब–हू मौजूद था। कबीर जी ने ख्याल गुप्त सा रखा था, गुरु अमरदास जी ने उसको खुले शब्दों में स्पष्ट कर दिया।

कबीर मुकति दुआरा संकुरा, राई दसऐं भाइ॥ मनु तउ मैगलु होइ रहिओ, निकसो किउ कै जाइ॥५९॥

राग गूजरी की वार म: ३ की पौड़ी नं: 4 के साथ कबीर जी के यह दोनों शलोक इस प्रकार लिखे मिलते हैं;

कबीर मुकति दुआरा संकुड़ा, राई दसवै भाइ॥ मनु तउ मैगलु होइ रहा, निकसिआ किउ करि जाइ॥ ऐसा सतिगुरु जे मिलै, तुठा करे पसाउ॥ मुकति दुआरा मोकला, सहजे आवउ जाउ॥१॥

इस शलोक के साथ गुरु अमरदास जी का निम्न-लिखित शलोक मिला के पढ़ो, जो उसी ही पउड़ी के साथ दर्ज है;

नानक मुकति दुआरा अति नीका, नान्हा होइ सु जाइ॥ हउमै मनु असथूलु है, किउकरि विचुदे जाइ॥ सतिगुर मिलिऐ हउमै गई, जोति रही सभ आइ॥ इह जीउ सदा मुकतु है, सहजे रहिआ समाइ॥२॥

कबीर जी ने अपने शलोकों में जो बातें गुप्त रखी थीं, गुरु अमरदास जी ने उनकी व्याख्या कर दी है। कबीर जी ने कहा, ‘मनु तउ मैगलु होइ रहिओ’। शब्द ‘मैगलु’ की व्याख्या में गुरु अमरदास जी ने लिखा है ‘हउमै मनु असथूलु है’। कबीर जी ने लिखा है कि अगर गुरु मिल जाए तो वह ‘तुठा करे पसाउ’, पर वह कौन सी मेहर है जो गुरु तुठ (प्रसन्न हो के) करता है, ये बात गुरु अमरदास जी ने बताई है कि ‘सतिगुरु मिलिअै हउमै गई’।

अब कबीर जी और गुरु अमरदास जी के शलोकों को ध्यान से देखें, कई शब्द सांझे हैं। सो, यहाँ एक बात साफ स्पष्ट है, कि जब गुरु अमरदास जी ने ये शलोक लिखा था, कबीर जी ने ये दोनों शलोक नं: 58 और 59 उनके पास मौजूद थे।

कबीर महिदी करि घालिआ, आपु पीसाइ पीसाइ॥ तै सह बात न पूछीऐ, कबहु न लाई पाइ॥६५॥

शलोक नं: 41 से नई विचार–कड़ी चलती है जो नं: 70 पर जा के खत्म होती है। इस सारी लड़ी को ध्यान से मिला के पढ़ के देखो। नं: 60 और 61 तक कबीर जी कहते आ रहे हैं कि तीर्थ–स्नान और ऊँची जाति कुल का आसरा मनुष्य को परमात्मा का स्मरण करने से रोकते हैं, बल्कि ये ‘लाख अहेरी’ और ‘पांचउ लरिका’ के जाल में फसा देते हैं। इसी तरह जायदाद की मल्कियत और माया की ममता भी प्रभु-चरणों में जुड़ने नहीं देती। इस तरह जिंदगी की सारी दौड़–भाग हर चीज़ हथियाने के लिए ही नहीं चाहिए। पर, दूसरी तरफ? दुनिया छोड़ के धूणीयां तपानी उल्टे लटकना और अनेक ऐसे कष्ट शरीर को देने से ईश्वर नहीं मिलता। दुनिया के काम–काज करने हैं, और हक की मेहनत-कमाई करते हुए उसके दर से नाम की दाति भी माँगनी है। उसकी याद असली उसकी बख्शिश है। किसी जप–तप का कोई माण नहीं किया जा सकता।

कबीर जी के इस ख्याल को जो थोड़ा सा गूझ शब्दों में है गुरु अमरदास जी ने साफ शब्दों में बयान किया है। रामकली की वार महला ३ की पउड़ी नं: 2 के साथ पहले कबीर का उपरोक्त शलोक है, फिर,

म: ३॥ नानक महिदी करि कै रखिआ, सो सहु नदरि करेइ॥ आपे पीसै आपे घसै, आपे ही लाइ लएइ॥ इह पिरम पिआला खसम का, जै भावै तै देइ॥२॥२॥

इन दोनों शलोकों के सांझे शब्द साफ बता रहे हैं कि ये शलोक लिखने के वक्त गुरु अमरदास जी के पास कबीर जी का शलोक मौजूद था।

कबीर जो मै चितवउ ना करै, किआ मेरे चितवे होइ॥ अपना चितविआ हरि करे, जो मेरे चिति न होइ॥२१९॥

इसके साथ गुरु अमरदास जी का नीचे लिखा हुआ शलोक नं: 220 है;

म: ३॥ चिंता भि आपि कराइसी, अचिंतु भि आपे देइ॥ नानक सो सालाहीऐ, जि सभना सार करेइ॥२२०॥

इन दोनों शलोकों को मिला के पढ़ने से साफ दिखता है कि गुरु अमरदास जी ने कबीर जी के शलोक नं: 219 के संबंध में ये शलोक उचारा था।

लेख–लड़ी की दूसरी पुस्तक ‘कुछ और धार्मिक लेख’ (गुरबाणी और इतिहास बारे) में हम देख आए हैं कि गुरु अमरदास जी को सारी वाणी गुरु अंगद जी से मिली थी। (देखें इस ‘दर्पण’ के तीसरे भाग के आखिरी लेख)। यह नहीं हो सकता कि उनको सिर्फ ये चार ही शलोक मिले थे; ये सारे शलोक एक ही विचार कड़ी में परोए हुए थे, और यह सारा संग्रह इकट्ठा ही था जो सारे का सारा गुरु नानक साहिब के पास था, और उनसे गुरु अंगद साहिब को और फिर गुरु अमरदास जी को मिला था।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh