श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1365 कबीर चंदन का बिरवा भला बेड़्हिओ ढाक पलास ॥ ओइ भी चंदनु होइ रहे बसे जु चंदन पासि ॥११॥ पद्अर्थ: बिरवा = छोटा सा पौधा। बेड़्हिओ = वेड़ा हुआ, घिरा हुआ। पलास = पलाह, छिछरा। ओइ = वह (ढाक पलाह के वृक्ष)। जु = जो वृक्ष। बसे = बसते हैं, उगे हुए हैं। पासि = नजदीक। अर्थ: हे कबीर! चँदन का छोटा सा भी पौधा बेहतर जानो, चाहे वह ढाक-पलाह जैसे पेड़ों से घिरा हुआ हो। वह (ढाक-पलाह जैसे बेकाम के वृक्ष) भी, जो चँदन के पास उगे हुए होते हैं, चँदन ही हो जाते हैं।11। नोट: जहाँ अहंकार है वहाँ रब से विछुड़े हुए हैं, उनके दिल काली रातों जैसे काले हैं, वहाँ सुख कहाँ? दूसरी तरफ, एक छोटा सा, गरीब सा, व्यक्ति भी बहुत भाग्यशाली है अगर उसके अंदर विनम्रता की सुगंधि है। इस सुगंधि से वह अपने आस-पास के बहुतों का बेड़ा पार कर देता है। कबीर बांसु बडाई बूडिआ इउ मत डूबहु कोइ ॥ चंदन कै निकटे बसै बांसु सुगंधु न होइ ॥१२॥ पद्अर्थ: बडाई = अहंकार में, ऊँचा लंबा होने के माण में। बूडिआ = डूबा हुआ समझो। कोइ = तुममें से कोई पक्ष। इउ = इस तरह। मत डूबहु = ना डूबना। निकटे = नजदीक। सुगंधु = सुगन्धी वाला। अर्थ: हे कबीर! बाँस का पौधा (ऊँचा-लंबा होने के) माण में डूबा हुआ है; बाँस चाहे चँदन के पास भी उगा हुआ हो, उसमें चँदन वाली सुगन्धि नहीं आती। (हे भाई!) तुममें से कोई भी बाँस की तरह (अहंकार में) ना डूब जाना।12। शलोक 1 से 12 तक मिश्रित भाव: सुख सिर्फ वहाँ है जहाँ प्रभु की याद है; क्योंकि प्रभु का नाम-जपना ही मनुष्य की ‘मैं-मैं’ का नाश करता है, और सुख ‘मैं-मैं’ के नाश में है। गुरु-दर पर पहुँच के प्रभु की की हुई बँदगी अहम् से हटा के विनम्रता की ओर लाती है। अहंकार को मारना ही ऐसा भला काम है जिसको सारा संसार सराहता है। निम्रता वाला मनुष्य, मानो चँदन का पौधा है जो सबको सुगन्धि देता है। अहंकार के मारे हुए बँदे अंधेरी रातों जैसे काले दिल वाले होते हैं, वे, मानो, बाँस हैं जो चँदन के पास रहते हुए भी चँदन की सुगन्धि से वंचित रहते हैं, और आपस में खह-खह के (रगड़ खा-खा के) जलते रहते हैं। शलोक 13 से 40 तक कबीर दीनु गवाइआ दुनी सिउ दुनी न चाली साथि ॥ पाइ कुहाड़ा मारिआ गाफलि अपुनै हाथि ॥१३॥ पद्अर्थ: दीनु = धरम, मज़हब। सिउ = खातिर, वास्ते। पाइ = पैर पर। गाफिल = गाफिल (मनुष्य) ने। अर्थ: हे कबीर! गाफिल मनुष्य ने ‘दुनिया’ (के धन-पदार्थों) की खातिर ‘दीन’ गवा लिया, (आखिर में यह) दुनिया भी मनुष्य के साथ ना चली। (सो) लापरवाह बंदे ने अपने पैरों पर अपने ही हाथ से कोहाड़ा मार लिया (भाव, अपना नुकसान आप ही कर लिया)।13। कबीर जह जह हउ फिरिओ कउतक ठाओ ठाइ ॥ इक राम सनेही बाहरा ऊजरु मेरै भांइ ॥१४॥ पद्अर्थ: जह जह = जहाँ जहाँ। हउ = मैं। कउतक = करिश्मे, तमाशे, रंग तमाशे। ठाओ ठाइ = जगह-जगह पर, हरेक जगह। सनेही = स्नेह करने वाला, प्यार करने वाला। बाहरा = बिना, बगैर। ऊजरु = उजाड़ जगह। मेरै भांइ = मेरे लिए तो। राम सनेही = राम से स्नेह करने वाला, परमात्मा से प्यार करने वाला। अर्थ: हे कबीर! मैं जहाँ-जहाँ गया हूँ, जगह-जगह ‘दुनिया’ वाले रंग-तमाशे ही (देखें हैं); पर मेरे लिए तो वह जगह उजाड़ है जहाँ परमात्मा के साथ प्यार करने वाला (संत) कोई नहीं (क्योंकि वहाँ ‘दुनिया’ ही ‘दुनिया’ देखी है ‘दीन’ का नाम-निशान नहीं)।14। कबीर संतन की झुंगीआ भली भठि कुसती गाउ ॥ आगि लगउ तिह धउलहर जिह नाही हरि को नाउ ॥१५॥ पद्अर्थ: झुंगीआ = छोटी सी झुग्गी, छोटी यी कुल्ली। भली = सुंदर। भठि = भट्ठी (जैसा)। गाउ = गाँव। कुसती = कुसत्ती, बेईमान, खोटा मनुष्य। आगि = आग लगने से। तिह धउलहर = उस महल माढ़ी को। जिह = जिस (धउलहर) में। को = का। नाउ = नाम। नोट: ‘आगि’ है हुकमी भविष्यत अन्य-पुरुष, एकवचन है; जैसे ‘भिजउ सिजउ कंबली, अलह वरसउ मेह’ में शब्द ‘भिजउ’ ओर ‘वरसउ’ हैं। अर्थ: हे कबीर! संतों की छोटी सी कुल्ली भी (मुझे) सुंदर (लगती) है, (वहाँ ‘दीन’ विहाजते हैं कमाते हैं) पर खोटे मनुष्य का गाँव (जलती हुई) भट्ठी जैसा (जानो) (वहाँ हर वक्त दुनिया की तृष्णा की आग जल रही है)। जिस महल-माढ़ी में परमात्मा का नाम नहीं स्मरण किया जाता, उसे आग लगे (मुझे ऐसे महल-माढ़ियों की जरूरत नहीं)।15। कबीर संत मूए किआ रोईऐ जो अपुने ग्रिहि जाइ ॥ रोवहु साकत बापुरे जु हाटै हाट बिकाइ ॥१६॥ पद्अर्थ: किआ रोईऐ = रोने की जरूरत नहीं, क्यों रोना? ग्रिहि = घर में। अपुने ग्रिहि = अपने घर में, वह घर जो सिर्फ और सिर्फ उसका अपना है, जहाँ से उसे कोई नहीं निकालेगा। जाइ = जाता है। साकत = रब से टूटा हुआ, परमात्मा से विछुड़ा हुआ जीव, जो ‘दुनिया’ की खातिर ‘दीन’ गवा रहा है। बापुरा = बेचारा, बदनसीब, दुर्भाग्यशाली। रोवहु = अफसोस करो। जु = जो। हाटै हाट = दुकान दुकान पर, हरेक दुकान पर, एक हाट से दूसरी हाट पर। बिकाइ = बिकता फिरता है, किए विकारों के बदले भटकता है। अर्थ: हे कबीर! किसी संत के मरने पर अफसोस करने की आवश्यक्ता नहीं, क्योंकि वह संत तो उस घर में जाता है जहाँ उसको कोई निकालेगा नहीं (भाव, वह संत ‘दीन’ का व्यापारी होने के कारण प्रभु चरणों में जा पहुँचता है); (अगर अफसोस करना ही है) उस अभागे (के मरने) पर अफसोस करो जो प्रभु-चरणों से विछुड़ा हुआ है, (वह अपने किए हुए बुरे कर्मों के बदले में) हरेक हाट पर बिकता है (भाव, सारी ‘दुनिया’ की खातिर भटकना करके अब कई जूनियों में भटकता है)।16। कबीर साकतु ऐसा है जैसी लसन की खानि ॥ कोने बैठे खाईऐ परगट होइ निदानि ॥१७॥ पद्अर्थ: साकतु = प्रभु से टूटा हुआ मनुष्य, परमात्मा से विछुड़ा हुआ जीव, जो ‘दुनिया’ की खातिर ‘दीन’ गवा रहा है। लसन = लस्सुन। खानि = कोठी, स्टोर। कोनै = (घर के किसी) कोने में, कहीं छुप के। बैठे = बैठ के। परगट = प्रकट हो जाता है। निदानि = आखिर में, अवश्य। अर्थ: हे कबीर! जो मनुष्य रब से टूटा हुआ है (जो ‘दुनिया’ की खातिर ‘दीन’ गवाए जा रहा है) उसको यूँ समझो जैसे लस्सुन की भरी हुई कोठरी है। लस्सुन कहीं छुपी हुई जगह भी बैठ के खा लें, तो भी वह हर हाल में (अपनी बदबू से) जाहिर हो जाता है (साकत के अंदर से जब भी निकलेंगे बुरे वचन ही निकलेंगे)।17। कबीर माइआ डोलनी पवनु झकोलनहारु ॥ संतहु माखनु खाइआ छाछि पीऐ संसारु ॥१८॥ पद्अर्थ: माइआ = ‘दुनिया’। डोलनी = चाटी, दूध की चाटी। पवनु = हवा, सांस। झकोलहारु = वह चीज जिससे दूध मथा जाता है, मथानी। संतहु = संतों ने, उन लोगों ने जो ‘दुनिया’ की खातिर ‘दीन’ को नहीं गवाते। छाछि = लस्सी। संसारु = ‘दुनिया’ का व्यापारी। अर्थ: हे कबीर! इस ‘दुनिया’ (‘माया’) को दूध की भरी चाटी समझो, (हरेक जीव की) हरेक सांस (उस चाटी को मथने के लिए) मथानी मिथ लो। (जिनको ये दूध मथने की विधि आ गई, जिन्होंने परमात्मा का स्मरण करते हुए इस माया को बरता, जिन्होंने ‘दुनिया’ का वणज किया पर ‘दीन’ भी गवाने नहीं दिया) उन संत जनों ने (इस मंथन में से) मक्खन (हासिल किया और) खाया (भाव, मनुष्य-जनम का असल उद्देश्य हासिल किया, जैसे दूध को मथने बका मकसद है मक्खन निकालना); पर सिर्फ ‘दुनिया’ का व्यापारी (मानो,) लस्सी ही पी रहा है (मनुष्य-जन्म का असल उद्देश्य नहीं पा सका)।18। कबीर माइआ डोलनी पवनु वहै हिव धार ॥ जिनि बिलोइआ तिनि खाइआ अवर बिलोवनहार ॥१९॥ पद्अर्थ: वहै = चलती है। हिव = बर्फ। हिवधार = बर्फ की धार वाला, ठंडा, शीतल। पवनु = सांस। पवनु हिवधार वहै = (जिस चाटी में) शांत सांस रूप मथानी चलती है, नाम की ठंडक वाले श्वासों की मथनी हिलती है। जिनि = जिस मनुष्य ने। बिलोइआ = (इस मथानी से) मथा है। अवर = और लोग। बिलोवनहार = सिर्फ मथ ही रहे हैं। अर्थ: हे कबीर! यह ‘दुनिया’ (‘माया’) मानो, दूध की चाटी है (इस चाटी में नाम की) ठंडक वाले श्वास, मानो, जैसे मथानी चलाई जा रही है। जिस (भाग्यशाली मनुष्य) ने (इस मथानी से दूध) मथा है उसने (मक्खन) खाया है, बाकी के और लोग सिर्फ रिड़क ही रहे हैं (उन्हें मक्खन खाने को नहीं मिलता) (भाव, जो लोग निर्वाह-मात्र माया को बरतते हैं, और साथ-साथ श्वास-श्वास परमात्मा को याद रखते हैं, उनका जीवन शांति भरा होता है, मनुष्य-जन्म का असल उद्देश्य वे प्राप्त कर लेते हैं। पर, जो लोग ‘दीन’ को बिसार के सिर्फ ‘दुनिया’ के पीछे भाग-दौड़ करते हें, वे दुखी होते हैं, और जीवन व्यर्थ गवा देते हैं)।19। कबीर माइआ चोरटी मुसि मुसि लावै हाटि ॥ एकु कबीरा ना मुसै जिनि कीनी बारह बाट ॥२०॥ पद्अर्थ: चोरटी = चंदरी सी, चोरनी, ठगनी। मुसि = ठग के। मुसि मुसि = ठग के। मुसि मुसि = सदा ठग ठग के। लावै हाटि = दुकान सजाती है। ना मूसै = नहीं ठगा जाता। जिनि = जिस ने। बाहर बाट = बारह टुकड़े। नोट: शब्द ‘चोर’ से ‘चोरटा’ अल्पार्थक संज्ञा पुलिंग है, ‘चोरटी’ इसका स्त्रीलिंग है। अर्थ: हे कबीर! ये दुनिया, ये माया, चोरनी है (जो लोग ‘दीन’ बिसार के निरी ‘दुनिया’ की खातिर भटक रहे हें, उनको) ठग-ठग के यह माया अपनी दुकान (और-और) सजाती है। हे कबीर! सिर्फ वही मनुष्य इस ठगी से बचा रहता है जिसने इस माया के बारह टुकड़े कर डाले (जिसने इसकी ठगी को तोड़ के रख दिया है)।20। कबीर सूखु न एंह जुगि करहि जु बहुतै मीत ॥ जो चितु राखहि एक सिउ ते सुखु पावहि नीत ॥२१॥ पद्अर्थ: ऐंह जुगि = इस मनुष्य जनम में, यह मनुष्य जनम पा के। करहि जु = तू जो बना रहा है। बहुतै मीत = (कहीं पुत्र, कहीं स्त्री, कहीं धन, कहीं राज-भाग आदिक) कई यार। एक सिउ = एक परमात्मा के साथ। राखहि = जोड़ रखते हैं। ते = वह लोग। अर्थ: हे कबीर! (‘दीन’ बिसार के, परमात्मा को भुला के तू जो पुत्र स्त्री धन जमीन आदि) कई मित्र बना रहा है, इस मनुष्य जनम में (इन मित्रों से) सुख नहीं मिलेगा। सिर्फ वह मनुष्य सदा सुख पाते हैं जो (‘दुनिया’ में कार्य-व्यवहार करते हुए भी) एक परमात्मा के साथ अपना मन जोड़ के रखते हैं।21। कबीर जिसु मरने ते जगु डरै मेरे मनि आनंदु ॥ मरने ही ते पाईऐ पूरनु परमानंदु ॥२२॥ पद्अर्थ: मरने ते = मरने से, पुत्र स्त्री धन जमीन आदि से मोह तोड़ने की मौत से, ‘दुनिया’ के मोह से मरने से, ‘दुनिया’ से मोह तोड़ने से। जगु डरै = जगत डरता है, जगत संकोच करता है, जगत झकता है। आनंदु = खुशी। मरने ही ते = पुत्रादिक बहुते मित्रों से मोह तोड़ने पर ही। परमानंद = वह परमात्मा जिस में परम आनंद है, वह प्रभु जो ऊँची से ऊँची खुशी का मालिक है। अर्थ: (‘दुनिया’ की खातिर ‘दीन’ को बिसार के मनुष्य धन-पदार्थ पुत्र स्त्री आदि कई मित्र बनाता है, और इनसे सुख की आस रखता है, इस आस के कारण ही इनसे मोह तोड़ नहीं सकता; पर) हे कबीर! जिस (के त्याग रूप) मौत से जगत डरता है, उससे मेरे मन में खुशी पैदा होती है; ‘दुनिया’ के इस मोह से मरने पर ही वह परमात्मा मिलता है जो मुकम्मल तौर पर आनंद स्वरूप है।22। राम पदारथु पाइ कै कबीरा गांठि न खोल्ह ॥ नही पटणु नही पारखू नही गाहकु नही मोलु ॥२३॥ पद्अर्थ: पदारथु = सुंदर वस्तु। पाइ कै = हासिल करके, अगर तुझे मिल गया है। पटणु = शहर। पारखू = परख करने वाला, कद्र जानने वाला। गाहकु = खरीदने वाला। मोलु = (‘मरने ही ते पाईऐ’) ‘दुनिया’ से त्याग रूप कीमत। अर्थ: (जिधर देखो, ‘दुनिया’ की खातिर ही दौड़-भाग है; सो) हे कबीर! (सौभाग्य से) अगर तुझे परमात्मा के नाम की सुंदर (अमूल्य) वस्तु मिल गई है तो ये गठड़ी औरों के आगे ना खोलता फिर। (जगत ‘दुनिया’ में इतना मस्त है कि नाम-पदार्थ के खरीदने के लिए) ना कोई मंडी है ना कोई वस्तु की कद्र करने वाला है, ना यह कोई वस्तु खरीदनी चाहता है, और ना ही कोई इतनी कीमत ही देने को तैयार है (कि ‘दुनिया’ से प्रीति तोड़े)।23। कबीर ता सिउ प्रीति करि जा को ठाकुरु रामु ॥ पंडित राजे भूपती आवहि कउने काम ॥२४॥ पद्अर्थ: ता सिउ = उस (सत्संगी) से। जा को = जिसका (आसरा)। ठाकुरु = पालक। भूपति = (भू = धरती। पती = खसम) जमीनों के मालिक राजा। कउने काम आवहि = किस काम आते हैं, किसी काम नहीं आते; साथ नहीं निभाते। अर्थ: हे कबीर! उस (सत्संगी) के साथ सांझ बना जिसका (आसरा) वह परमात्मा है जो सबका पालक है, (‘राम पदारथ’ के बन्जारों से बनी हुई प्रीति आखिर तक निभ सकती है, पर जिन्हें विद्या रात भूमि आदि का माण है, जो ‘दुनिया’ के व्यापारी हैं वह) पण्डित हों चाहे राजा हों चाहे बहुत सारी भूमि के मालिक हों किसी काम नहीं आते।24। कबीर प्रीति इक सिउ कीए आन दुबिधा जाइ ॥ भावै लांबे केस करु भावै घररि मुडाइ ॥२५॥ पद्अर्थ: आन = और, ‘दुनिया’ वाली। दुबिधा = दोचिक्तापन, सहम। जाइ = दूर हो जाता है। भावै = चाहे। लांबे केस करु = (राख मल मल के) बालों की जटा बढ़ा ले (और ‘दुनिया’ छोड़ के बाहर डेरा जा कर)। घररि मुडाइ = बिल्कुल ही सिर के बाल साफ करा के रोड मोड साधु बन के ‘दुनिया’ त्याग दे। कीए = अगर की जाए। अर्थ: हे कबीर! (‘दुनिया’ वाला) और-और सहम तब ही दूर होता है जब एक परमात्मा से पयार डाला जाए। (जब तक प्रभु के साथ प्रीति नहीं जोड़ी जाती, ‘दुनिया’ वाली ‘दुबिधा’ नहीं मिट सकती) चाहे (राख मल के) लंबी बालों की जटा रख ले, चाहे बिलकुल ही रोड-मोड कर ले (और जंगलों अथवा तीर्थों पर जा के डेरा लगा ले)।25। नोट: श्लोक नं: 13 से उनका वर्णन चला आ रहा है जो ‘दीन’ को बिसार के सिर्फ ‘दुनी’ का व्यापार कर रहे हैं; यही विषय शलोक नं: 40 तक चलता है। पिछले शलोक में लिखते हैं कि जिन्होंने विद्या राज भूमि को जिंदगी का आसरा बना रखा है, उनकी सांझ–मित्रता भी ऐतबार योग नहीं होती, क्योंकि ‘दुनी’ वाला आसरा कच्चा है, मनुष्य के अंदर दोचिक्तापन सहम टिका रहता है। और अब कहते हैं कि इस ‘दुबिधा’ को दूर करने का सिर्फ एक ही तरीका है; ‘दुनी’ की जगह ‘दीन’ से प्यार, एक परमात्मा से प्रीत। लंबी जटाओं वाले अथवा सिर घिसे सन्यासी देख के एक गृहस्थी के मन में ये विचार पैदा हो जाना स्वाभाविक है कि ये लोग तो ‘दुनी’ छोड़ के ‘दीन’ के रास्ते पर पड़े हुए हैं, इनके अंदर तो ‘दुबिधा’ नहीं होगी। कबीर जी कहते हैं सच्चाई ये है कि कोई भी भेख अथवा बाहरी त्याग ‘दुनी’ के मोह से नहीं बचा सकता। सिर्फ प्रभु प्रीति ही कारगर नुस्खा है। नोट: पिछले शलोक में असली दुनियादारियों का जिक्र है, यहाँ पर उनका जिकर है जो अपनी तरफ से ‘दुनिया’ त्याग गए हैं। कबीर जी के वक्त अभी ‘खालसे’ की तरह पंथ नहीं था, जिस पर कोई नुक्ताचीनी करने की कबीर जी को जरूरत पड़ती अथवा खालसा नुक्ता–निगाह से अपने शलोक को देखते। यहाँ जटाधारियों का ही जिकर है। कबीर जगु काजल की कोठरी अंध परे तिस माहि ॥ हउ बलिहारी तिन कउ पैसि जु नीकसि जाहि ॥२६॥ पद्अर्थ: जगु = जगत, दुनिया का मोह। अंध = अंधे मनुष्य, वह लोग जिनको ‘दीन’ की कोई समझ नहीं, जिस की आँखें नहीं खुली। तिस महि = उस कोठरी में (जहाँ ‘दुनिया’ के मोह की कालिख है)। काजल = कालिख। बलिहारी = सदके। हउ = मैं। पैसि = पड़ कर, गिर के, बस के। नीकसि जाहि = निकल जाते हैं। अर्थ: हे कबीर! ‘दुनिया’ का मोह, मानो, एक ऐसी कोठरी है जो कालिख से भरी हुई है; इसमें वे लोग गिर गए हैं जिनकी आँखें बंद हैं (जिनको ‘दीन’ की सूझ नहीं आई, चाहे वह पण्डित राजे भूपति हैं, चाहे जटाधारी सन्यासी आदि हैं)। पर, मैं उन पर से सदके हूँ, जो इसमें गिर के दोबारा निकल आते हैं (जो एक परमात्मा के साथ प्यार डाल के ‘दुनी’ के मोह को त्याग देते हें)।26। नोट: पंडित हो चाहे राजा भूपति हो, विद्या अथवा बेअंत धन–पदार्थ ‘दुनिया’ के मोह की कालिख–भरी कोठरी में गिरने से बचा नहीं सकते। पर यह भुलेखा है कि जटाधारी व सन्यासी आदि साधु, जो हम गृहस्तियों को तयागी लगते हैं, इस काजल की कोठरी में गिरने से बचे हुए हैं। ये जाहरा त्याग बचाने के काबिल नहीं है। एक प्रभु की प्रीति ही एक मात्र तरीका है। कबीर इहु तनु जाइगा सकहु त लेहु बहोरि ॥ नांगे पावहु ते गए जिन के लाख करोरि ॥२७॥ पद्अर्थ: जाइगा = नाश हो जाएगा। सकहु = (अगर वापस कर) सको, यदि नाश होने से रोक सकते हो। त = तो। लेहु बहोरि = रोक लो, बचा लो। ते = वे लोग। नांगे पावहु = नंगे पैर, कंगालों की ही तरह। जिन के = जिस के पास। अर्थ: हे कबीर! यह सारा शरीर नाश हो जाएगा, यदि तुम इसको नाश होने से बचा सकते हो तो बचा लो (भाव, कोई भी अपने शरीर को नाश होने से नहीं बचा सकता, यह अवश्य ही नाश होगा)। जिस लोगों के पास लाखों-करोड़ों रुपए जमां थे, वे भी यहाँ से नंगे पैर ही (भाव, कंगालों की तरह ही) चले गए (सारी उम्र ‘दुनिया’ की खातिर भटकते रहे, ‘दीन’ को बिसार दिया; आखिर यह ‘दुनिया’ तो यहीं रह गई, यहाँ से आत्मिक जीवन में बिलकुल कंगाल हो के चले)।27। कबीर इहु तनु जाइगा कवनै मारगि लाइ ॥ कै संगति करि साध की कै हरि के गुन गाइ ॥२८॥ पद्अर्थ: कवनै मारगि = किस रास्ते पर, किसी उस काम में जो फायदेमंद हो। कै = या। अर्थ: हे कबीर! ये शरीर नाश हो जाएगा, इसको किसी (उस) काम में जोड़ (जो तेरे लिए लाभप्रद हो); सो, साधु-संगत कर और प्रभु की महिमा कर (‘दुनी’ तो यहीं रह जाती है, ‘दीन’ ही साथी बनता है)।28। नोट: यहाँ शब्द ‘कै’ से यह भाव नहीं है कि मनुष्य ने ‘साध संगति’ और ‘हरि गुन’ में से एक चीज चुननी है। यहाँ भाव ये है: बस! दो ही लाभप्रद काम हैं, ‘साध संगति– और ‘हरि गुन’, तीसरा और कोई नहीं। सो यहां ‘या’ से भाव ‘और’ का लेना है। कबीर मरता मरता जगु मूआ मरि भी न जानिआ कोइ॥ ऐसे मरने जो मरै बहुरि न मरना होइ॥२९॥ (पन्ना १३६६) नोट: ‘अैसे मरने जो मरै’ कबीर जी ने यहाँ साफ शब्दों में ये नहीं बताया कि वह ‘अैसे मरने’ से क्या भाव लेते हैं। वैसे शलोक नं: 28 में वे बता आए हैं कि इस नाशवान शरीर को सफल करने के लिए ‘संगति करि साध की, हरि के गुन गाइ’। शब्द ‘अैसे’ बताता है कि इसका जिकर पहले शलोक में किया जा चुका है। जब मनुष्य सिर्फ ‘दुनिया’ की खातिर भटकता है तो इस माया को अपनी जिंदगी का आसरा बना लेता है; फिर हर वक्त ये सहम भी बना रहता है कि राशि-पूंजी हाथ से चली ना जाए, या इस जोड़ी हुई को जल्दी ही ना छोड़ना पड़ जाए, जल्दी ही मौत का नगारा ना आ बजे। सो, सिर्फ ‘दुनिया’ का गाहक मनुष्य इस तरह दिन में कई बार अन–आई मौत ही मरता रहता है, सहम से हर वक्त इसकी सांसें सूखी रहती हैं। इस रोजाना कीमौत से बचने के लिए कबीर जी ने ‘मार्ग’ बताया है ‘संगति करि साध की, हरि के गुन गाइ’। उसी ख्याल को इस शलोक में इशारे-मात्र ही कहते हैं ‘अैसे मरने जो मरै’। इस ‘अैसे मरने जो मरै’ को गुरु अमरदास जी ने साफ शब्दों में समझा दिया है। देखो बिहागड़े की वार नं: 17। कबीर मरता मरता जगु मूआ मरि भी न जानिआ कोइ ॥ ऐसे मरने जो मरै बहुरि न मरना होइ ॥२९॥ पद्अर्थ: मरता मरता = बार बार मरता, रोज रोज मरता, हर रोज मौत के सहम में दबा हुआ। मरि न जानिआ = (मौत के सहम से) मरने की विधि ना सीखी, मौत का सहम खत्म करने का सलीका ना सीखा। ऐसे मरने जो मरै = जो इस तरह माया के प्रति मर जाए (जैसे पिछले शलोक नं: 28 में बताया है) जो साधु-संगत में प्रभु की महिमा करके माया के प्रति मरे। बहुरि = दोबारा, फिर। बहुरि न मरना होइ = उसको बार बार मौत का सहम नहीं होता। अर्थ: हे कबीर! (निरी ‘दुनिया’ का व्यापारी) जगत हर वक्त मौत के सहम में दबा रहता है, (सिर्फ माया का व्यापारी) किसी को भी समझ नहीं आती कि मौत का सहम कैसे खत्म किया जाए। (साधु-संगत में प्रभु की महिमा करके) जो मनुष्य जीते-जी ही मरता है (‘दुनिया’ से मोह तोड़ता है) उसको फिर यह सहम नहीं रहता।29। कबीर जी के इस ‘अैसे मरने जो मरै’ के भाव को समझाने के लिए गुरु अमरदास जी इस तरह लिखते हैं; म: ३॥ किआ जाणा किव मरहगे, कैसा मरणा होइ॥ जेकरि साहिब मनहु न वीसरै, ता सहिला मरणा होइ॥ मरणै ते जगतु डरै, जीविआ लोड़ै सभु कोइ॥ गुर परसादी जीवतु मरै, हुकमै बूझै सोइ॥ नानक ऐसी मरनी जो मरै, ता सद जीवणु होइ॥2॥17॥ (पंन्ना 555) परमात्मा को मन से ना बिसारना और उसकी रजा को समझना–ये है कबीर जी के गूझ भाव की व्याख्या जो सतिगुरु अमरदास जी ने की है; आखिर में हजूर ने कबीर जी के शब्दों को दोहरा कर कह भी दिया है; नानक ऐसी मरनी जो मरै, ता सद जीवणु होइ॥ कबीर जी लिखते हैं ‘अैसे मरने जो मरै’; सतिगुरु जी लिखते हैं ‘नानक अैसी मरनी जो मरै’। कबीर जी लिखते हैं ‘बहुरि न मरना होइ’; सतिगुरु जी इस ख्याल को और शब्दों में बदल के लिखते हैं ‘ता सद जीवणु होइ’। ख्याल और शब्दों की ये सांझ सबब से ही नहीं हो गई। गुरु अमरदास जी के पास कबीर जी का यह शलोक हू–ब–हू मौजूद था। कबीर जी ने ख्याल को गूझा सा रखा था, गुरु अमरदास जी ने उसको खुले शब्दों में स्पष्ट कर दिया। सो, ये कहानी गलत है कि भगतों की वाणी गुरु अरजन साहिब ने इकट्ठी की थी। ये तो पहले ही गुरु-व्यक्तियों के पास मौजूद थी (पढ़ें इस पुस्तक की शुरूआती विचार)। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |