श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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कबीर मानस जनमु दुल्मभु है होइ न बारै बार ॥ जिउ बन फल पाके भुइ गिरहि बहुरि न लागहि डार ॥३०॥

पद्अर्थ: मानस = मनुष्य का। बारै बार = बार-बार। बन = जंगल। पाके = पके हुए। भइ = जमीन पर। गिरहि = गिरते हैं। डार = डाली।

अर्थ: हे कबीर! मनुष्य जन्म बड़ी मुश्किल से मिलता है, (और, यदि प्रभु का नाम बिसार के सिर्फ ‘दुनिया’ में लग के एक बार हाथ से निकल गया) तो बार-बार नहीं मिलता; जैसे जंगल के पेड़ों के पके हुए फल (जब) जमीन पर गिर जाते हैं तो दोबारा डाली पर नहीं लगते।30।

नोट: जंगल के वृक्षों से गिरे हुए फल किसी के काम भी नहीं आते, और दोबारा डाली पर भी नहीं लग सकते। इस तरह यदि ‘दीन’ को ‘दुनी’ की खातिर गवा दिया, माया की खातिर परमात्मा की याद बिसार रखी, तो यह मिला हुआ जनम भी व्यर्थ गया, और दोबारा मिलता भी नहीं।

कबीरा तुही कबीरु तू तेरो नाउ कबीरु ॥ राम रतनु तब पाईऐ जउ पहिले तजहि सरीरु ॥३१॥

पद्अर्थ: तुही तू = तू ही तूं, सिर्फ तू। कबीरु = सबसे बड़ा। तजहि = यदि (हे कबीर!) तू छोड़ दे। सरीरु = शरीर का मोह, देह अध्यास।

अर्थ: (इस मनुष्य-जनम का असल उद्देश्य ‘परमात्मा के नाम की प्राप्ति’ है, इसके लिए यह जरूरी है कि परमात्मा का स्मरण किया जाए; सो) हे कबीर! (सदा ऐसे कह: हे प्रभु!) तू ही सबसे बड़ा है, तेरा ही नाम सबसे बड़ा है। (पर इस महिमा के साथ हे कबीर!) अगर तू पहले अपने शरीर का मोह भी तयागे, तब ही परमात्मा का नाम रूप रत्न मिलता है।31।

कबीर झंखु न झंखीऐ तुमरो कहिओ न होइ ॥ करम करीम जु करि रहे मेटि न साकै कोइ ॥३२॥

पद्अर्थ: झंखु = बुड़ बुड़, गिले-गुजारी। न होइ = नहीं हो सकता। करम = बख्शिश। करीम = बख्शिश करने वाले प्रभु जी। मेटि न साकै = कम ज्यादा नहीं कर सकता।

अर्थ: हे कबीर! (‘शरीर त्यागने’ का भाव ये है कि ‘दुनिया’ की खातिर) गिले-शिकवे ना करते रहें, (दुनिया की लालच में फसा हुआ) जो कुछ तू कहता है वही नहीं हो सकता, (महिमा करने के साथ-साथ ये भी यकीन रख कि) बख्शिश करने वाले प्रभु जी जो बख्शिशें (जीवों पर) करते हैं उनको (और जीव) कम-ज्यादा नहीं कर सकता।32।

नोट: पिछले शलोक नं: 31में लिखे हुए ‘जउ पहिले तजहि सरीरु’ की इस शलोक में और व्याख्या की गई है। शरीर का मोह मनुष्य को ‘दुनिया’ की दौड़–भाग की तरफ प्रेरता है, यदि मनुष्य की चाह अनुसार माया ना इकट्ठी हो तो ये गिले–शिकवे करता है। प्रभु के गुण भी गाए, और गिले–शिकवे भी करता रहे– ये दोनों बातें नहीं फबतीं। इसे बँदगी नहीं कहा जाता। उस प्रभु के राज़क होने पर भी यकीन बँधना चाहिए।

कबीर कसउटी राम की झूठा टिकै न कोइ ॥ राम कसउटी सो सहै जो मरि जीवा होइ ॥३३॥

पद्अर्थ: कस = (संस्कृत: कष् to test, rub on a touch stone) परखना, पत्थर पर रगड़ना जैसे सोना परखने के लिए घिसाते हैं। वटी = (सं: वट:) रोड़ा, पत्थर। कश वटी = वह रोड़ा जिस पर सोना रगड़ के परखा जाता है कि खरा है कि खोटा। कसउटी = कस वटी। कसउटी राम की = वह कसौटी जिससे मनुष्य की प्रभु के साथ सच्ची प्रीति परखी जा सके। झूठा = झूठ से प्यार करने वाला, सिर्फ ‘दुनिया’ से मोह करने वाला, ‘दीन’ को ‘दुनी’ की खातिर गवाने वाला। सहै = सहता है, पार उतारता है, खरा साबत होता है। मरि जीवा = मर के जीवित होया हुआ, जो ‘दुनिया’ की तरफ से मर के ‘दीन’ पर जीया, जिसने देह अध्यास समाप्त कर दिया है। न टिकै = परख में खरा साबित हीं होता, पूरा नहीं उतरता।

अर्थ: हे कबीर! जो मनुष्य ‘दुनिया’ के साथ मोह करने वाला है वह उस कसौटी पर खरा साबित नहीं होता जिससे मनुष्य की प्रभु से सच्ची प्रीति परखी जाती है। प्रभु के साथ प्रीति की परख में वही मनुष्य पूरा उतरता है जो ‘दुनिया’ के मोह से मर के ‘दीन’ के प्यार में जी पड़ा है।33।

कबीर ऊजल पहिरहि कापरे पान सुपारी खाहि ॥ एकस हरि के नाम बिनु बाधे जम पुरि जांहि ॥३४॥

पद्अर्थ: ऊजल = उजले, साफ सुथरे, सफेद, बढ़िया। पहिरहि = पहनते हैं। कापरे = कपड़े। खाहि = खाते हैं। पान सुपारी खाहि = बाँके लगने के लिए पान सुपारी खाते हैं। बाधे = बँधे हुए, शरीर को सजाए रखने के मोह में बँधे। जमपुरि = जम के शहर में, जम के वश में, जम के दबाव में, मौत के सहम में। जोहि = जाते हैं, टिके रहते हैं।

अर्थ: हे कबीर! (सिर्फ ‘दुनिया’ के व्यापारी लोग अपने आप के दिखावे-शौकीनी के लिए) बढ़िया कपड़े पहनते हैं और पान सुपारियां खाते हैं; पर (शरीर को सजाए रखने के मोह से) बँधे हुए वे मौत आदि के सहम में बने रहते हैं क्योंकि वे परमात्मा के नाम से वंचित रहते हैं (‘दीन’ विसार के ‘दुनी’ का मोह हर हालत में दुखदाई है)।34।

कबीर बेड़ा जरजरा फूटे छेंक हजार ॥ हरूए हरूए तिरि गए डूबे जिन सिर भार ॥३५॥

पद्अर्थ: बेड़ा = जहाज। जरजरा = बहुत पुराना, जर्जर, खद्दा, भुग्गा। फूटे = फूटे हुए हैं, पड़े हुए हैं। छेंक हजार = हजारों छेद। हरूए हरूए = हल्के हल्के, हल्के भार वाले, जिन्होंने भार नहीं उठाया हुआ। तिरि गए = तैर जाते हैं।

अर्थ: हे कबीर! अगर एक बहुत ही पुराना जहाज़ हो, जिसमें हजारों ही छेंक पड़ गए हों (वह आखिर में समुंदर में डूब ही जाता है, इस जहाज के मुसाफिरों में से) सिर्फ वही लोग तैर के पार लांघ जाते हैं जिन्होंने कोई भार नहीं उठाया होता; पर जिनके सिर पर भार होता है, (वे भार तले दब के) डूब जाते हैं।

नोट: इन्सानी जिंदगी मानो, एक बेड़ी है। जीव कई जूनियों में से गुजरता और बेअंत बुरे कर्म करता चला आ रहा है; सो, इस जिंदगी की पुरानी हो चुकी बेड़ी में किए कर्मों के संस्कार, मानो, छेद हो गए हैं। जैसे जहाज़ में छेदों के माध्यम से बाहर से समुंदर का पानी आ के जहाज को डुबा देता है, वैसे ही पिछले बुरे संस्कार इन्सान के अंदर और-और बुरी वासनाएं पैदा करते हैं। इस तरह इन्सानी जीवन की बेड़ी विकारों की लहरों में डूब जाती है। जिन्होंने विकारों का, दुनिया के मोह का, देह अध्यास का, भार नहीं उठाया हुआ होता, वे साफ–सुथरा जीवन गुजार जाते हैं।

कबीर हाड जरे जिउ लाकरी केस जरे जिउ घासु ॥ इहु जगु जरता देखि कै भइओ कबीरु उदासु ॥३६॥

पद्अर्थ: उदासु = (हड्डी केस आदि के बने शरीर के मोह से) उपराम, निर्मोह।

अर्थ: (‘दीन’ को बिसार के सिर्फ ‘दुनिया’ की खातिर दौड़-भाग करते हुए मनुष्य अपने शरीर में इतना फंस जाता है कि हर वक्त मौत से सहमा रहता है। फिर भी, ये शरीर सदा कायम नहीं रह सकता, मौत आ ही जाती है, तब) हे कबीर! (शरीर को चिखा में डालने पर) हड्डियां लकड़ियों की तरह जलती हैं, केस घास की तरह जलते हैं। इस सारे संसार को ही जलता देख के (भाव, ये देख के कि सभ जीवों का इस शरीर से विछोड़ा आखिर जरूर होता है) मैं कबीर इस शरीर के मोह से उपराम हो गया हूँ (मैंने शरीर का मोह छोड़ दिया है)।36।

कबीर गरबु न कीजीऐ चाम लपेटे हाड ॥ हैवर ऊपरि छत्र तर ते फुनि धरनी गाड ॥३७॥

पद्अर्थ: गरबु = अहंकार, माण। हैवर = है+वर, हय वर, चुने हुए बढ़िया घोड़े। वर = चुनिंदा, बढ़िया। छत्र = छत्र। तर = तले, नीचे। ते फुनि = वह मनुष्य भी, ऐसे लोग भी। धरनी = मिट्टी, धरती। गाड = मिल जाते हैं, रल जाते हैं।

अर्थ: हे कबीर! (इस शरीर की जवानी सुंदरता आदि का) माण नहीं करना चाहिए (आखिर है तो ये) हड्डियों (की मूठ) जो चमड़ी से लपेटी हुई हैं। (इस शरीर का अहंकार करते) वे लोग भी (अंत को) मिट्टी में जा मिले जो बढ़िया घोड़ों पर (सवार होते थे) और जो (झूलते) छतरों तले बैठते थे।37।

कबीर गरबु न कीजीऐ ऊचा देखि अवासु ॥ आजु काल्हि भुइ लेटणा ऊपरि जामै घासु ॥३८॥

पद्अर्थ: देखि = देख के। अवासु = महल। आजु काल्हि = आजकल में ही। भुइ = जमीन पर। जामै = उग जाता है।38।

अर्थ: हे कबीर! अपना ऊँचा महल देख के (भी) अहंकार नहीं करना चाहिए (ये भी चार दिनों की ही खेल है; मौत आने पर इस महल को छोड़ के) आज या कल मिट्टी में ही मिल जाना है, हमारे (शरीर) पर घास उग आएगा।38।

कबीर गरबु न कीजीऐ रंकु न हसीऐ कोइ ॥ अजहु सु नाउ समुंद्र महि किआ जानउ किआ होइ ॥३९॥

पद्अर्थ: रंकु = कंगाल मनुष्य। नाउ = नाँव, बेड़ी, जिंदगी की बेड़ी। किआ जानउ = मैं क्या जानता हूँ? न हसीऐ = मजाक ना करना।

अर्थ: हे कबीर! (यदि तू धनवान है, तो इस धन-पदार्थ का भी) माण नहीं करना, ना किसी कंगाल को देख के हँसी-मजाक करना। (तेरी अपनी जीवन-) बेड़ी अभी समुंदर में है, पता नहीं क्या हो जाए (ये धन-पदार्थ हाथ से जाने पर देर नहीं लगती)।39।

कबीर गरबु न कीजीऐ देही देखि सुरंग ॥ आजु काल्हि तजि जाहुगे जिउ कांचुरी भुयंग ॥४०॥

पद्अर्थ: देही = शरीर, काया। सुरंग = सुंदर रंग वाली। आजु काल्हि = आज कल, थोड़े ही समय में। कांचुरी = कुँज। भुयंग = साँप।

अर्थ: हे कबीर! इस सुंदर रंग वाले शरीर को देख के भी अहंकार नहीं करना चाहिए; ये शरीर भी थोड़े दिनों में ही छोड़ जाओगे जैसे साँप कुँज उतार देता है (प्राण और शरीर का भी पक्का साथ नहीं है)।40।

कबीर लूटना है त लूटि लै राम नाम है लूटि ॥ फिरि पाछै पछुताहुगे प्रान जाहिंगे छूटि ॥४१॥

पद्अर्थ: लूटना है = अगर दबा दब संभालना है, यदि इकट्ठा करना है। त = तो। लूटि लै = इकट्ठा कर ले। राम नाम है लूटि = परमात्मा के नाम की लूट पड़ी हुई है। फिरि = दोबारा, समय बीत जाने पर।

अर्थ: हे कबीर! (‘दुनिया’ की खातिर क्या भटक रहा है? देख) परमात्मा के नाम की लूट लगी हुई है (दबादब बाँटा जा रहा है), अगर इकट्ठा करना है तो यह नाम-धन इकट्ठा कर। जब प्राण (शरीर में से) निकल गए, समय बीत जाने पर बाद में अफसोस करना पड़ेगा।41।

कबीर ऐसा कोई न जनमिओ अपनै घरि लावै आगि ॥ पांचउ लरिका जारि कै रहै राम लिव लागि ॥४२॥

पद्अर्थ: कोई न जनमिओ = कोई विरला ही होता है। अपनै...आगि = जो अपने घर को आग लगाए, जो अपनत्व को जलाए, जो देह के मोह को समाप्त कर दे। पांचउ लरिका = पाँचों लड़के, माया के पाँचों पुत्र कामादिक। जारि कै = जला के। लागि रहै = लगाए रखे। लिव = तवज्जो/ध्यान की तार।

अर्थ: (पर नाम धन इकट्ठा करने के लिए जरूरी है कि मनुष्य अपनत्व को पहले खत्म करे, और) हे कबीर! (जगत में) ऐसा कोई विरला ही मिलता है जो अपने शरीर मोह को जलाता है, और, कामादिक माया के पाँचों ही पुत्रों को जला के परमात्मा (की याद) में तवज्जो में जोड़े रखता है।42।

को है लरिका बेचई लरिकी बेचै कोइ ॥ साझा करै कबीर सिउ हरि संगि बनजु करेइ ॥४३॥

नोट: पिछले शलोक में शब्द ‘पांचउ लरिका’ में ‘लरिका’ बहुवचन है, यही शब्द इस शलोक में भी उस पहले भाव में ही बरता है। इसी तरह शब्द ‘लरिकी’ भी बहुवचन है।

पद्अर्थ: लरिका = ‘पांचउ लरिका’, कामादिक माया के पाँचों ही पुत्र। लरिकी = लडकियां, आशा तृष्णा ईष्या आदि माया की बेटियां। बेचै = नाम धन के बदले में दे दे, नाम धन खरीदने के लिए यह कामादिक और आशा तृष्णा आदि दे। को है = कोई विरला ही होता है। बेचई = बेचे, बेचता है। साझा = सांझ, सत्संग की सांझ, नाम धन के व्यापार की सांझ। कबीर सिउ = कबीर से, कबीर चाहता है कि मेरे साथ। हरि संगि बनजु = ‘लरिका लरकी’ हरि को दे के हरि के नाम का सौदा। बनजु = सौदा, लेन देन, व्यापार।

अर्थ: कोई विरला ही होता है जो परमात्मा से (उसके नाम का) वणज करता है, जो (नाम-धन खरीदने के लिए कामादिक माया के पाँच) पुत्र और (आशा तृष्णा ईष्या आदि) लड़कियों के बदले में देता है। कबीर चाहता है कि ऐसा मनुष्य (इस व्यापार में) मेरे साथ भी सत्संग की सांझ बनाए।43।

कबीर इह चेतावनी मत सहसा रहि जाइ ॥ पाछै भोग जु भोगवे तिन को गुड़ु लै खाहि ॥४४॥

पद्अर्थ: चेतावनी = चेता, याद दिलानी। मत = कहीं। सहसा = हसरत, भ्रम, गुमर। पाछै = अब तक के जीवन में। भोग जु = जो भोग। पाछै भोग जु भोगवे = जो भोग अब तक भोगे हैं। तिन को = उन भोगों के बदले में। तिन को गुड़ु लै खाहि = (उन भोगों की कीमत बस इतनी है कि) उनके बदले में थोड़ा सा गुड़ ले कर खा ले, उनके बदले थोड़ा सा गुड़ ही मिल सकता है (जैसे कोई गाहक दुकान से सौदा ले और बाद में झूँगे के तौर पर थोड़ा सा गुड़ माँग लेता है)।

अर्थ: हे कबीर! मैं तुझे चेतावनी देता हूँ कि कहीं ये भ्रम रह जाए, जो भोग अब तक तूने भोगे हैं (ये ना समझ लेना कि तूने बहुत मौजें माण ली हैं, दरअसल) इनकी पायां बस इतनी ही है (जैसे किसी दुकान से सौदा ले के झूँगे के तौर पर) थोड़ा सा गुड़ लेकर खा लिया।44।

कबीर मै जानिओ पड़िबो भलो पड़िबे सिउ भल जोगु ॥ भगति न छाडउ राम की भावै निंदउ लोगु ॥४५॥

पद्अर्थ: जानिओ = जाना, समझा था। पढ़िबो भलो = पढ़ना अच्छा है, मनुष्य जीवन का सबसे अच्छा काम विद्या पढ़नी है। पढ़िबे सिउ = पढ़ने से। जोगु = प्रभु चरणों में जुड़ना। निंदउ = बेशक निंदा करे, बुरा कहे।

नोट: ‘निंदउ’ है हुकमी भविष्यत, अंन पुरख, एकवचन।

अर्थ: हे कबीर! (यहाँ काशी में उच्च जाति वालों को वेद-शास्त्र आदि पढ़ता देख के) मैंने समझा था कि विद्या पढ़नी मनुष्य जन्म का सबसे अच्छा काम होगा, पर (इन लोगों के निरे वाद-विवाद को देख के मुझे यकीन हो गया है कि ऐसी विद्या) पढ़ने से प्रभु-चरणों में जुड़ना (मनुष्य के लिए) भला है। (सो, इस बात से) जगत बेशक मुझे चाहे बुरा कहता रहे मैं (विद्या के बदले भी) परमात्मा की भक्ति नहीं छोड़ूँगा।45।

नोट: पिछले शलोकों में दुनिया के भोग–पदार्थों से ‘नाम’ को बेहतर कहा है, इस शलोक में विद्या के मुकाबले ‘नाम’ की महत्वता बताई है।

कबीर लोगु कि निंदै बपुड़ा जिह मनि नाही गिआनु ॥ राम कबीरा रवि रहे अवर तजे सभ काम ॥४६॥

पद्अर्थ: कि निंदै = क्या निंदा कर सकता है? (उसके द्वारा) ढूँढे हुए अवगुणों को कौन सही मानेगा? बपुड़ा = बेचारा, मूर्ख। जिह मनि = जिस के मन में। गिआनु = समझ, अच्छे बुरे की पहचान। रवि रहे = स्मरण कर रहा है। तजे = तजि, छोड़ के।

अर्थ: हे कबीर! जिस मनुष्य के अंदर (यह) समझ नहीं है (कि विद्या के मुकाबले पर पभू की भक्ति कितनी बहुमूल्य दाति है, वह मनुष्य यदि मेरे इस चयन पर मुझे बुरा कहे) तो उस मनुष्य का यह निंदा करने का कोई अर्थ नहीं है। सो, कबीर (ऐसे लोगों की इस दंतकथा की परवाह नहीं करता, और) परमात्मा का स्मरण कर रहा है, और अन्य सारे (कामों के) मोह का त्याग कर रहा है।

नोट: किसी मनुष्य के अच्छे और बुरे पहलू को सही तरीके से वही मनुष्य परख सकता है जिसे दोनों पक्षों की खुद पहले समझ हो। उसी मनुष्य द्वारा की नुक्ताचीनी का कोई मूल्य पड़ सकता है। कबीर के शलोक नं: 45 में लिखते हैं अगर विद्या और भक्ति में से कोई एक चीज चुननी है तो मैं तो भक्ति को ही पसंद करूँगा। इसमें कोई शक नहीं कि लोग मेरे इस चुनाव की हँसी उड़ाएंगे; इस बारे लोगों के हँसी–मज़ाक की परवाह तब ही की जा सकती है यदि उन्हें विद्या और भक्ति की कुछ समझ हो। परन्तु आम हालत ये है कि लोग बेचारे भक्ति की सार ही नहीं जानते, इसलिए यदि ये लोग मुझे मेरे इस चयन को बुरा कहते हैं तो इनकी नुक्ताचीनी का कौड़ी मूल्य नहीं है।

कबीर परदेसी कै घाघरै चहु दिसि लागी आगि ॥ खिंथा जलि कोइला भई तागे आंच न लाग ॥४७॥

पद्अर्थ: परदेसी = यह जीव जो इस जगत में मुसाफिर की तरह चार दिन के लिए रहने आया है, जैसे कोई जोगी किसी बस्ती में दो चार दिन के लिए आ बसता है। घाघरा = (सं: घर्घर, घर घरा a gate, a door) दरवाजा (भाव, ज्ञान इन्द्रिया)। घाघरै = दरवाजे को, ज्ञान इन्द्रियों को। चहु दिसि = चारों तरफ से (भाव, हरेक ज्ञान इन्द्रिय को)। आगि = आग, विकारों की आग (आँखों को ‘पर द्रिसटि विकार’, कानो को निंदा; जीभ को ‘मीठा स्वाद’ इत्यादिक)। खिंथा = गोदड़ी, इस परदेसी जोगी का शरीर रूप गोदड़ी। तागा = इस शरीर गोदड़ी की टाकियों को जोड़ के रखने वाला धागा, जिंद आत्मा। आँच = सेक, विकारों की आग का सेक।

अर्थ: इस परदेसी जीव की ज्ञान-इन्द्रियों को हर तरफ से विकारों की आग लगी हुई है, (जो परदेसी जोगी बेपरवाह हो कर इस आग की गर्मी का आनंद लेता रहा, उसकी) शरीर गोदड़ी (विकारों की आग में) जल के कोयला हो गई, (पर जिस परदेसी जोगी ने इस गोदड़ी के धागे का, इस शरीर में बसते प्राणों का, ख्याल रखा और विकार-अग्नि की गर्मी का रस लेने से संकोच करता रहा, उसकी) आत्मा को (इन विकारों की आग का) सेक भी ना लगा (भाव, वह जलती आग में बच गया)।47।

कबीर खिंथा जलि कोइला भई खापरु फूट मफूट ॥ जोगी बपुड़ा खेलिओ आसनि रही बिभूति ॥४८॥

पद्अर्थ: खापरु = खप्पर जिसमें जोगी घर-घर से आटा माँगता है, वह मन जो दर-दर पर भटकता है, वह मन जो कई वासनाओं में भटकता फिरता है। फूट मफूट = दुकड़े टुकड़े हो गया, बेअंत वासनाओं के पीछे दौड़ भाग करने लग पड़ा। बपुड़ा = बेचारा, दुर्भाग्यशाली, जिसने इस जनम फेरी में कुछ भी नहीं कमाया। खेलिओ = खेल उजाड़ गया, बाजी हार गया। आसनि = आसन पर, इसके पल्ले। बिभूति = राख।

अर्थ: हे कबीर! (विकारों की आग में पड़ कर जिस बद्नसीब जीव जोगी की) शरीर-गोदड़ी जल के कोयला हो गई और (जिसका) मन-खप्पर दर-दर से वासना की भिक्षा ही इकट्ठी करता रहा, (वह) दुर्भाग्यपूर्ण जीव-जोगी मनुष्य जनम की खेल उजाड़ के ही जाता है, उसके पल्ले खेह-ख्वारी ही पड़ती है।48।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh