श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 1367

कबीर थोरै जलि माछुली झीवरि मेलिओ जालु ॥ इह टोघनै न छूटसहि फिरि करि समुंदु सम्हालि ॥४९॥

पद्अर्थ: थोरै जलि = कम पानी में। थोरै जलि माछुली = कम पानी में मछली।49।

अर्थ: हे कबीर! थोड़े पानी में मछली रहती हो, तो झिउर मछुआरा आ के जाल डाल देता है (वैसे ही अगर जीव दुनियावी भोग विद्या धन आदि को अपने जीवन का आसरा बना ले तो माया के ‘पांचउ लरिका’ आसानी से ही ग्रस लेते हैं)। हे मछली! इस तालाब में रह के तू झिउर के जाल से बच नहीं सकती, अगर बचना है तो समुंदर ढूँढ (हे जीवात्मा! इन भोग-पदार्थों को आसरा बनाने से तू कामादिक की मार से बच नहीं सकती, ये होछे आसरे छोड़, और परमात्मा को तलाश)।49।

नोट: जैसे पानी मछली के प्राणों का आसरा है, वैसे ही परमात्मा जीवातमा का आसरा है। अगर मछली कम पानी वाले छप्पर में रहने लग जाए, तो झिउर आदि आसानी से आ के जाल लगा के उसको पकड़ लेते हैं; वैसे ही यदि जीव धन विद्या दुनियावी भोग आदि को अपने जीवन का आसरा बना ले तो माया के ‘पांचउ लरिका’ आसानी से ही ग्रस लेते हैं। यह टोघनै–इस गड्ढे में, इस छप्पड़ में, इस तालाब में, इन होछे आसरों के अधीन रहने से। समालि–संभाल, आसरा ले।

कबीर समुंदु न छोडीऐ जउ अति खारो होइ ॥ पोखरि पोखरि ढूढते भलो न कहिहै कोइ ॥५०॥

पद्अर्थ: जउ = अगर। खारो = नमकीन, बेस्वादा। पोखर = (सं: पुष्कर = a lake a pond) छप्पड़। पोखरि = तालाब में। पोखरि पोखरि = हरेक छोटे तालाब में। पोखरि पोखरि ढूढते = छोटे छोटे छप्परों में (जिंद का आसरा) ढूँढने से। कोई न कहि है = कोई नहीं कहता।50।

अर्थ: हे कबीर! समुंदर नहीं छोड़ना चाहिए चाहे, (उसका पानी) जितना भी खारा हो, छोटे छोटे तालाबों में (जीवात्मा का आसरा) तलाशने से- कोई नहीं कहता कि ये काम अच्छा है।51।

नोट: दुनिया के भोग स्वादिष्ट लगते हैं, धन विद्या आदि का गर्व भी हिलौरे में ले आता है। प्रभु की याद इनके मुकाबले में बेस्वादी चीज प्रतीत होती है, स्वै वारना पड़ता है। पर, फिर भी प्रभु के नाम के सामने दुनिया वाले ये सारे आसरे होछे हैं; इनकी टेक रखने से कामादिक आ दबाते हैं, जीवन के राह से भटक जाते हैं, जीवन के राह से भटक जाते हैं, और अंत फिटकारें ही मिलती है।

कबीर निगुसांएं बहि गए थांघी नाही कोइ ॥ दीन गरीबी आपुनी करते होइ सु होइ ॥५१॥

पद्अर्थ: गुसांई = गो+साई, धरती का साई, प्रभु पति। निगुसाइआ = निखसमा। निगुसांए = निखसमे। बहि गए = बह गए। थांघी = मल्लाह, गुरु मल्लाह। दीन = दीनता, निम्रता। आपुनी = (जिन्होंने) अपनी (बनाई)। करते होइ सु होइ = कर्तार द्वारा जो होता है सो (सही) होता है, उनको कर्तार की रज़ा मीठी लगती है।

अर्थ: हे कबीर! (यह संसार, मानो समुंदर है, जिसमें से जीवों के जिंदगी के बेड़े तैर के गुजर रहे हैं, पर) जो बेड़े निखस्मे (मालिक के बगैर) होते हैं जिस पर कोई गुरु-मल्लाह नहीं होता, वे डूब जाते हैं। जिस लोगों ने (अपनी समझदारी छोड़ के) निम्रता और गरीबी धार के (गुरु-मल्लाह का आसरा लिया है, वे संसार-समुंदर की लहरें देख के) जो होता है उसको कर्तार की रजा जान के बेफिक्र रहते हैं (उनको अपने बेड़े के डूबने का कोई फिक्र नहीं होता है)।51।

नोट: यह संसार, मानो, एक समुंदर है जिसमें विकारों की लहरें चल रही हैं। हरेक प्राणी की जिंदगी, मानो, एक छोटी सी बेड़ी है जो इस समुंदर में तैर के गुजरनी है। दरिया में से बेड़ी और समुंदर में से जहाज तब ही सही–सलामत पार लांघ सकते हैं अगर इनको चलाने वाले मल्लाह समझदार हों। निखसमों और मल्लाह–हीन बेड़ियां लहरों में फस के अवश्य डूब जाती हैं। इसी तरह जिस प्राणियों की जिंदगी–रूप बेड़ियों का कोई गुरु–मल्लाह नहीं होता, वे बेड़ियां विकारों की लहरों से ठोकरें खा के डूब जाती हैं। पर जिन्होंने अपनी चतुराई छोड़ के निम्रता से गुरु–मल्लाह का आसरा देखा है, वे इन लहरों से नहीं डरते, उनको अपने गुरु पर यकीन होता है कि वह पार लंघा लेगा।

कबीर बैसनउ की कूकरि भली साकत की बुरी माइ ॥ ओह नित सुनै हरि नाम जसु उह पाप बिसाहन जाइ ॥५२॥

पद्अर्थ: बैसनउ = वैश्णव, परमात्मा का भक्त। कूकरि = कुक्ती (कूकरु = कुक्ता)। साकत = रब से टूटा हुआ व्यक्ति, मनमुख। माइ = माँ। बुरी = खराब, दुर्भाग्यपूर्ण। ओह = वह भक्त। जसु = यश, बड़ाई। बिसाहण = विहाजने।

नोट: ‘ओह’ शब्द पुलिंग है, शब्द ‘उह’ स्त्रीलिंग है।

अर्थ: हे कबीर! (किसी) भक्त की कुक्ती भी भाग्यशाली जान, पर रब से टूटे हुए व्यक्ति की माँ भी दुर्भागिनी है; क्योंकि वह भक्त सदा हरि-नाम की बड़ाई करता है उसकी संगति में रह के वह कुक्ती भी सुनती है, (साकत नित्य पाप कमाता है, उसके कुसंग में) उसकी माँ भी पापों की भागणि बनती है।52।

कबीर हरना दूबला इहु हरीआरा तालु ॥ लाख अहेरी एकु जीउ केता बंचउ कालु ॥५३॥

पद्अर्थ: दुबला = कमजोर। हरना = जीव हिरन। इहु = यह जगत। इहु तालु = ये जगत-रूप तालाब। हरीआला = हरियाली भरा, जिसमें मायावी भोगों की हरियाली है। अहेरी = शिकारी, बेअंत विकार। एकु = अकेला। जीउ = जीव, जिंद। केता कालु = कितना समय? ज्यादा समय तक नहीं। बंचउ = मैं बच सकता हूँ।

अर्थ: हे कबीर! यह जगत एक ऐसा सरोवर है जिसमें बेअंत मायावी भोगों की हरियाली है, मेरा ये जिंद-रूप हिरन कमजोर है (इस हरियाली की तरफ जाने से रह नहीं सकता)। मेरी जिंद अकेली है (इसको फसाने के लिए मायावी भोग) लाखों शिकारी हैं (इनकी मार से अपने उद्यम से) मैं ज्यादा समय बच नहीं सकता।53।

कबीर गंगा तीर जु घरु करहि पीवहि निरमल नीरु ॥ बिनु हरि भगति न मुकति होइ इउ कहि रमे कबीर ॥५४॥

पद्अर्थ: तीर = किनारे पर। जु = अगर। करहि = तू बना ले। निरमल = साफ। नीरु = पानी। मुकति = (‘लाख अहेरी’ आदि विकारों से) खलासी। इउ कहि = इस तरह कह के। रमे = (प्रभु का नाम) स्मरण करता है।

अर्थ: हे कबीर! यदि तू गंगा के किनारे पर (रहने के लिए) अपना घर बना ले, तो (गंगा का) साफ पानी पीता रहे, तो भी परमात्मा की भक्ति किए बिना (‘लाख अहेरी’ आदि विकारों से) मुक्ति नहीं हो सकती। कबीर तो ये बात बता के परमात्मा का नाम ही स्मरण करता है।54।

कबीर मनु निरमलु भइआ जैसा गंगा नीरु ॥ पाछै लागो हरि फिरै कहत कबीर कबीर ॥५५॥

अर्थ: हे कबीर! (गंगा आदि तीर्थों के साफ जल के किनारे रिहायश रखने से तो कामादिक विकार खलासी नहीं करते, और ना ही मन ही पवित्र हो सकता है, पर) जब (परमात्मा के नाम का स्मरण करने से) मेरा मन गंगा के साफ पानी जैसा पवित्र हो गया, तो परमात्मा मुझे कबीर कबीर कह के (आवाजें मारता) मेरे पीछे चलता फिरेगा।55।

नोट: शलोक नं: 54 और 55 मिश्रित ख्याल देते हैं कि तीर्थ पर रिहायश रखने से मन विकारों से नहीं बचता, स्मरण से ही पवित्र होता है, और इतना पवित्र हो जाता है कि परमात्मा खुद मनुष्य के अंदर आ प्रकट होता है।

कबीर हरदी पीअरी चूंनां ऊजल भाइ ॥ राम सनेही तउ मिलै दोनउ बरन गवाइ ॥५६॥

पद्अर्थ: हरदी = हल्दी। पीअरी = पीली, पीले रंग की। ऊजल भाइ = सफेद रंग पर, सफेद। सनेही = स्नेह करने वाला, प्यार करने वाला। तउ = तब। दोनउ बरन = दोनों ऊँची और नीच जाति (का भेदभाव)।56।

अर्थ: हे कबीर! हल्दी पीले रंग की होती है, चूना सफेद होता है (पर जब ये दोनों मिलते हैं तो दोनों का रंग दूर हो जाता है; इसी तरह) परमात्मा से प्यार करने वाला मनुष्य परमात्मा को तब मिला हुआ समझो, जब मनुष्य ऊँच-नीच जातियों (का भेद) मिटा देता है, (और उसके अंदर सब जीवों में एक प्रभु की ज्योति ही देखने की सूझ पैदा हो जाती है)।56।

कबीर हरदी पीरतनु हरै चून चिहनु न रहाइ ॥ बलिहारी इह प्रीति कउ जिह जाति बरनु कुलु जाइ ॥५७॥

पद्अर्थ: पीरतनु = पिलत्तन, पीला रंग। हरै = दूर कर देती है। चून चिहनु = चूने का सफेद रंग, चूने का चिन्ह। न रहाइ = नहीं रहता। बलिहारी = सदके, कुर्बान। जिह = जिस प्रीति की इनायत से।57।

अर्थ: हे कबीर! (जब हल्दी और चूना मिलते हैं तो) हल्दी अपना पीला रंग छोड़ देती है, चूने का सफेद रंग नहीं रहता, (इस तरह नाम-जपने की इनायत से नीच जाति वाले मनुष्य के अंदर से नीच जाति वाली ढहिंदी कला नीच सूझ मिट जाती है, और ऊँची जाति वाले के मन में से उच्चता का घमण्ड दूर हो जाता है)। मैं सदके हूँ इस प्रभु-प्रीति से, जिस सदका ऊँच नीच जाति वर्ण कुल (का फर्क) मिट जाता है।57।

नोट: जैसे गंगा आदि तीर्थों का स्नान ‘पांचउ लरिका’ और ‘लाख अहेरी’ की मार से नहीं बचा सकता, वैसे उच्च जाति में जन्म होना भी कोई सहायता नहीं कर सकता।

कबीर मुकति दुआरा संकुरा राई दसएं भाइ ॥ मनु तउ मैगलु होइ रहिओ निकसो किउ कै जाइ ॥५८॥

पद्अर्थ: मुकति दुआरा = वह दरवाजा जिसमें गुजर के ‘लाख अहेरी’ और ‘पांचउ लरिका’ से खलासी हो सकती है। संकुरा = संकुचित, भीड़ा। दसऐं भाइ = दसवां हिस्सा। मैगल = (सं: मदकल) मस्त हाथी, तीर्थ स्नान और उच्च जाति में जन्म के अहंकार से हाथी की तरह मस्त हुआ। किउ कै = कैसे? किस तरह? (भाव, नहीं)। निकसो जाइ = पार किया जाए।58।

अर्थ: हे कबीर! वह दरवाजा जिसमें से लांघ के ‘लाख अहेरी’ और ‘पांचउ लरिका’ से खलासी होती है, बहुत सँकरा है, राई के दाने से भी दसवाँ हिस्सा समझो, पर जिस मनुष्य का मन तीर्थ-स्नान और ऊँची जाति में जन्म लेने के अहंकार से मस्त हाथी जैसा बना हुआ है, वह इस दरवाजे में से नहीं गुजर सकता।58।

कबीर ऐसा सतिगुरु जे मिलै तुठा करे पसाउ ॥ मुकति दुआरा मोकला सहजे आवउ जाउ ॥५९॥

पद्अर्थ: तुठा = प्रसन्न हो के। पसाउ = प्रसाद, मेहर, कृपा। मोकला = खुला। सहजे = सहज में, अडोल अवस्था में टिक के। ‘पांचउ लरिका’ और ‘लाख अहेरी’ की घबराहट से परे रह के। आवउ जाउ = बेशक काम काज करते रहो।59।

अर्थ: हे कबीर! अगर कोई ऐसा गुरु मिल जाए, जो प्रसन्न हो के (मनुष्य पर) मेहर करे तो वह दरवाजा जिससे इन कामादिकों से मुक्ति हो सकती है, खुला हो जाता है, (गुरु दर से मिली) अडोल अवस्था में टिक के फिर बेशक काम-काज करते फिरो।59।

नोट: कबीर जी के इन शलोकों के साथ मिला कर गुरु अमरदास जी का निम्न-लिखित शलोक पढ़ो जो राग गूजरी की वार महला ३ की पउड़ी ४ के साथ दर्ज है;

नानक मुकति दुआरा अति नीका, नान्हा होइ सु जाइ॥ हउमै मनु असथूलु है, किउकरि विचुदे जाइ॥ सतिगुरि मिलिऐ हउमै गई, जोति रही सभ आइ॥ इहु जीउ सदा मुकतु है सहजे रहिआ समाइ॥२॥४॥

गुरु अमरदास जी ने कबीर जी के शब्द ‘मैगल’ की व्याख्या कर दी है ‘हउमै मनु असथूलु’। ‘तुठा’ गुरु क्या ‘पसाउ’ करता है? ‘सतिगुरि मिलिअै हउमै गई’।

एक बात साफ स्पष्ट है। जब गुरु अमरदास जी ने ये शलोक लिखा था, कबीर जी के ये दोनों शलोक उनके पास मौजूद थे। यह कहानी गलत है कि भगतों की वाणी गुरु अरजन साहिब ने एकत्र की थी।

कबीर ना मुोहि छानि न छापरी ना मुोहि घरु नही गाउ ॥ मत हरि पूछै कउनु है मेरे जाति न नाउ ॥६०॥

पद्अर्थ: मुोहि = मेरे पास। छानि = छंन। छापरी = कुल्ली। गाउ = गाँव। मत = शायद, कहीं। मेरे = मेरे पास (आसरा)। नाउ = नाम, मल्कियत की बड़ाई, शोभा।60।

नोट: ‘मुोहि’ असल में है ‘मोहि’ यहां ‘मुहि’ पढ़ना है। पाठ की चाल को ठीक रखने के लिए एक मात्रा घटानी है।

अर्थ: हे कबीर! मेरे पास ना कोई छंन ना कुल्ली; ना मेरे पास कोई घर ना गाँव; जैसे मेरे मन में जाति का कोई भेद-भाव नहीं वैसे ही मल्कियत की शोभा की भी कोई चाह नहीं (अगर जाति अभिमान और माया की ममता छोड़ दें तो) शायद परमात्मा (हमारी) बात पूछ ले।60।

नोट: जैसे तीर्थ–स्नान और ऊँची जाति व कुल का आसरा स्मरण नहीं करने देते, बल्कि ‘लाख अहेरी’ और पांचउ लरिका’ के जाल में फसा देते हें, वैसे ही जायदाद की मल्कियत, माया की ममता भी प्रभु-चरणों में जुड़ने नहीं देती।

कबीर मुहि मरने का चाउ है मरउ त हरि कै दुआर ॥ मत हरि पूछै कउनु है परा हमारै बार ॥६१॥

पद्अर्थ: मुहि = मुझे। मरने का = स्वै भाव मिटाने का, अच्छे कर्म उच्च जाति ओर मल्कियत के घमण्ड से मरने का। चाउ = तमन्ना, चाव। मरउ = यदि मैं ये मौत मरना चाहता हूँ। त = तो। बार = दरवाजे पर।61।

अर्थ: हे कबीर! मेरे अंदर तमन्ना है कि मैं स्वै-भाव मिटा दूँ, ममता खत्म कर दूँ; पर ये स्वै-भाव तब ही मिट सकता है अगर प्रभु के दर पर गिर जाएं, (इस तरह कोई अजब बात नहीं कि मेहर करके वह बख्शिंद) प्रभु पूछ ही बैठे कि मेरे दरवाजे पर कौन गिरा पड़ा है।61।

नोट: ममता त्यागनी है, पर यह त्याग के भी प्रभु के दर से बख्शिश की आस रखनी है, ममता के त्याग से कोई हक नहीं बन जाता कि अब जरूर मिल जाएगा।

कबीर ना हम कीआ न करहिगे ना करि सकै सरीरु ॥ किआ जानउ किछु हरि कीआ भइओ कबीरु कबीरु ॥६२॥

पद्अर्थ: नाह हम कीआ = मैंने यह काम नहीं किया, ये मेरी हिम्मत नहीं थी कि कामादिक ‘लाख अहेरी’ की मार से बच के मैं प्रभु-चरणों में जुड़ सकता। न करहिगे = आगे को भी मेरे में ये ताकत नहीं आ सकती कि मैं इन विकारों का मुकाबला खुद कर सकूँ। ना करि सकै सरीरु = मेरा ये शरीर भी अपने आप इतनी हिम्मत करने के लायक नहीं, क्योंकि इसके ज्ञान इन्द्रिए विकारों की तरफ ही प्रेरित कर रहे हैं। किआ जानउ = क्या पता? कोई अजीब बात नहीं कि, असल बात ये होगी कि। किछु = जो कुछ किया है, कामादिक को जीत के जो भी भक्ति की है। कबीरु = बड़ा।

अर्थ: हे कबीर! ये मेरी हिम्मत नहीं थी कि कामादिक ‘लाख अहेरी’ की मार से बच के मैं प्रभु-चरणों में जुड़ सकता; आगे को भी मेरे मन में ताकत नहीं आ सकती कि खुद इन विकारों का मुकाबला करूँ; मेरा ये शरीर इतने लायक है ही नहीं। असल बात ये है कि कामादिकों को जीत के जो थोड़ी-बहुत भक्ति मुझसे हुई है यह सब कुछ प्रभु ने आप किया है और (उसकी मेहर से) कबीर (भक्त) मशहूर हो गया है।62।

नोट: पिछले शलोक में के ‘मत हरि पूछै कउनु है’ के ख्याल को फिर दोहराया है कि प्रभु के चरणों का प्यार केवल प्रभु की अपनी दाति है, जिस पर मेहर करे उसी को मिलती है। जगत में ‘लाख अहेरी’ हैं, मनुष्य अपनी हिम्मत से इनसे बच नहीं सकता, प्रभु खुद सहायता करे तो ही इनके पंजे से निकला जा सकता है।

नोट: इस शलोक के साथ यज्ञ आदि की कच्ची कहानियां जोड़ के अपनी समझ का मजाक बनाने वाली बात है।

कबीर सुपनै हू बरड़ाइ कै जिह मुखि निकसै रामु ॥ ता के पग की पानही मेरे तन को चामु ॥६३॥

पद्अर्थ: सुपनै हू = सपने में। बरड़ाइ कै = सोते हुए सपने में कई बार बातें करने लग जाते हैं, इसको बरड़ाना कहते हैं। जिह मुखि = जिस मनुष्य के मुँह से। निकसै = निकले। पग = पैर। पानही = (सं: उपानह) जूती। चामु = चमड़ी, खाल।63।

अर्थ: हे कबीर! सोए हुए सपने में ऊँचा बोलने से अगर किसी मनुष्य के मुँह से परमात्मा का नाम निकले तो उसके पैरों की जूती के लिए मेरे शरीर की खाल हाजिर है (भाव, मैं हर तरह से उसकी सेवा करने को तैयार हूँ)।63।

नोट: जो काम सारा दिन करते रहें, जिस तरफ सारा दिन तवज्जो जुड़ी रहे, रात को सोते हुए भी आम तौर पर तवज्जो ने उधर ही जाना है और उन्हीं कामों के सपने आने हैं। सालाना इम्तिहान के दिनों में विद्यार्थी पढ़ने में दिन–रात एक कर देते हैं, तो सोए हुए भी वही विषय वही किताबें पढ़ते जाते हैं।

इसी तरह दिन में काम–काज करते हुए जिस मनुष्य की तवज्जो प्रभु की याद में जुड़ी रहती है, उसी को सपने में भी रब याद आ सकता है।

कबीर जी इस शलोक में अपने स्वाभाविक गूझ ढंग से कहते हैं कि दिन के वक्त काम–काज करते हुए तवज्जो प्रभु-चरणों में जोड़ो, रात को सोते हुए अपने आप तवज्जो प्रभु में जुड़ी रहेगी; और, इस तरह उठते–बैठते सोते–जागते हर वक्त प्रभु-चरणों में जुड़ने की आदत बन जाएगी।

कबीर माटी के हम पूतरे मानसु राखिओु नाउ ॥ चारि दिवस के पाहुने बड बड रूंधहि ठाउ ॥६४॥

पद्अर्थ: पूतरे = पुतले। पाहुने = प्राहुणे मेहमान। रूंधहि = हम मलते हैं। ठाउ = जगह। बड बड = ज्यादा ज्यादा, और-और। मानसु = मनुष्य।

नोट: ‘राखिओु’ में ‘उ’ जिसे हिन्दी में यहाँ ‘अ’ के रूप में लिखा गया है के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’। असल शब्द ‘राखिओ’ है, यहाँ पाठ की चाल को ठीक रखने के लिए ‘राखिउ’ पढ़ना है।

अर्थ: हे कबीर! हम मिट्टी की पुतलियां हैं, हमने अपने आप का नाम तो मनुष्य रख लिया है (पर रहे हम मिट्टी के पुतले ही, क्योंकि जिस परमात्मा ने हमारा यह पुतला सजा के इस में अपनी ज्योति डाली है उसको बिसार के मिट्टी से ही प्यार कर रहे हैं); हम यहाँ चार दिनों के लिए मेहमान हैं पर ज्यादा से ज्यादा जगह कब्जा करते जा रहे हैं।

नोट: जो तवज्जो सारा दिन सिर्फ ये भी वो भी पा लेने में लगी रहें, वे रात को सोते हुए भी प्रभु-चरणों में नहीं लग सकती।

कबीर महिदी करि घालिआ आपु पीसाइ पीसाइ ॥ तै सह बात न पूछीऐ कबहु न लाई पाइ ॥६५॥

पद्अर्थ: महिदी करि = महिंदी की तरह। घालिआ = मेहनत की। आपु = अपने आप को। पीसाइ पीसाइ = पीस पीस के, तप आदिक कष्ट दे दे के। सह = हे खसम! तै बात न पूछीऐ = तूने बात भी नहीं पूछी, तू ध्यान भी ना दिया, तूने पलट के देखा भी नहीं। कबहु = कभी भी। न लाई पाइ = पैरों पर ना लगाया, चरणों में ना जोड़ा (जैसे पीसी हुई मेंहंदी कोई पैरों पर लगाता है)।

अर्थ: हे कबीर! (मेहंदी पीस-पीस के बारीक की जाती है, और फिर पैरों पर लगाई जाती है। इस तरह मेहंदी द्वारा सहे हुए कष्ट, मानो, स्वीकार हो जाते हैं; पर) जिस मनुष्य ने तप आदि से कष्ट दे कर बड़ी मेहनत की जैसे मेहंदी को पीस-पीस के बारीक किया जाता है, हे प्रभु! तूने उसकी की हुई मेहनत की तरफ तो पलट के देखा भी नहीं, तूने उसको कभी अपने चरणों से नहीं जोड़ा।65।

नोट: जिंदगी की सारी दौड़–भाग ‘ये भी वो भी पा लेने’ के लिए नहीं होनी चाहिए, पर दूसरी तरफ, दुनिया छोड़ के धूनीयां तपाने से, उल्टा लटकने से और ऐसे अनेक कष्ट शरीर को देने से भी रब नहीं मिलता। दुनिया के काम–काज करने हैं और हक की मेहनत-कमाई करते हुए उसके दर से नाम की दाति भी माँगनी है, उसकी याद केवल उसकी बख्शिश है बख्शिश। किसी जप–तप का कोई माण नहीं किया जा सकता, कोई हक नहीं जताया जा सकता।

नोट: रामकली की वार म: ३ की पउड़ी नं2 के साथ कबीर जी का ये शलोक दर्ज है, और इस शलोक के साथ गुरु अमरदास जी का नीचे दिया हुआ शलोक है;

म: ३॥ नानक महिदी करि कै रखिआ, सो सहु नदरि करेइ॥ आपे पीसै आपे घसै, आपे ही लाइ लएइ॥ इहु पिरमु पिआला खसम का, जै भावै ते देइ॥२॥२॥

दोनों शलोकों को मिला के पढ़ें। ये शलोक लिखने के वक्त गुरु अमरदास जी के पास कबीर जी का शलोक मौजूद था। सो, यह कहानी गलत है कि भगतों की वाणी गुरु अरजन साहिब ने इकट्ठी की थी।

कबीर जिह दरि आवत जातिअहु हटकै नाही कोइ ॥ सो दरु कैसे छोडीऐ जो दरु ऐसा होइ ॥६६॥

पद्अर्थ: हटकै = रोक डालता है, टोकता है, जिंदगी की सही राह से रोकता है। आवत जातिअहु = आने जाने वाले को, जो सदा आता जाता रहे, जो सदा टिका रहे, सदा टिके रहने वाले को। कोइ = ‘लाख अहेरी’ ‘पांचउ लरिका’ में से कोई भी। कैसे छोडीऐ = छोड़ना नहीं चाहिए। ऐसा = ऐसा। दरु = दरवाजा, प्रभु के चरण, प्रभु का आसरा।

अर्थ: हे कबीर! जो दरवाजा ऐसा है कि उस दर पर टिके रहने से (‘लाख अहेरी’ ‘पांचउ लरिका’ आदि में से) कोई भी (जीवन की) सही राह में से रोक नहीं डाल सकता, वह दर कभी छोड़ना नहीं चाहिए।66।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh