श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1368 कबीर डूबा था पै उबरिओ गुन की लहरि झबकि ॥ जब देखिओ बेड़ा जरजरा तब उतरि परिओ हउ फरकि ॥६७॥ पद्अर्थ: जरजरा = बहुत पुराना। डूबा था = डूब चला था। पै = पर। उबरिओ = निकल आया, डूबने से बच गया। झबकि = झबके से, झटके से। लहरि झबकि = लहरों के धक्के से। गुन = प्रभु की महिमा। गुन झबकि = प्रभु की महिमा रूप लहर के हुल्लारे से। हउ = मैं। फरकि = छलांग से, छलांग मार के, तुरंत। अर्थ: हे कबीर! (संसार-समुंदर में) मैं डूब चला था, पर प्रभु की महिमा की लहर के धक्के से (सांसारिक मोह की लहरों में से) मैं ऊपर उठ आया। (पहले मोह में मस्त था, अब आँखें खुल गई) उस वक्त मैंने देखा (कि जिस शारीरिक मोह के बेड़े में मैं सवार हूँ) थोड़ा-बहुत पुराना होया हुआ है (विकारों से छेद-छेद होया हुआ है)। मैं छलांग लगा के (उस ममता वाले बेड़े में से) उतर गया (मैंने अपनत्व, शारीरिक मोह छोड़ दिया। पर यह सब कुछ इसी कारण था कि मैंने वह ‘दर’ नही छोड़ा जिस दर पर टिकने से ‘हटकै नाही कोइ’)।67। कबीर पापी भगति न भावई हरि पूजा न सुहाइ ॥ माखी चंदनु परहरै जह बिगंध तह जाइ ॥६८॥ पद्अर्थ: न भावई = अच्छी नहीं लगती। न सुहाइ = सुख नहीं देती। परहरै = त्याग देती है। जह = जहाँ। बिगंध = बदबू। अर्थ: हे कबीर! (चाहे प्रभु के दर पर टिके रहने में प्रभु की महिमा करने में ये इनायत है कि संसार-समुंदर में डूबने से बच जाया जाता है, पर) विकारी व्यक्ति को परमात्मा की भक्ति अच्छी नहीं लगती, परमात्मा की पूजा नहीं सोहाती (सुखद नहीं लगती)। (विकारी व्यक्ति का स्वभाव मक्खी की तरह हो जाता है) मक्खी (सुंदर खुशबू वाले) चँदन को त्याग देती है, जहाँ बदबू हो वहाँ जाती है।68। कबीर बैदु मूआ रोगी मूआ मूआ सभु संसारु ॥ एकु कबीरा ना मूआ जिह नाही रोवनहारु ॥६९॥ पद्अर्थ: बैदु = रोगियों का इलाज करने वाला, वैद्य, विकारियों को उपदेश करके आत्मिक मौत से बचाने के प्रयत्न करने वाला। मूआ = (रो-रो के) मर गया, (मायावी भोगों को रो = रो के) मर गया, (मायावी भोगों की खातिर खप = खप के आत्मिक मौत) मर गया। एकु = सिर्फ वह मनुष्य। जिह = जिसका। रोवनहारु = राने वाला, रो रो के खपने वाला, मायावी भोगों के लिए खपने वाला। नाही = कोई नहीं। अर्थ: हे कबीर! (मायावी भोगों की खातिर खप-खप के) सारा जगत (संसार-समुंदर में डूब के, मायावी मोह में डूब के, आत्मिक मौत) मर रहा है, चाहे कोई रोगी है चाहे कोई हकीम है (भाव, एक तो वे लोग हैं जो अंजान और मूढ़ होने के कारण जीवन का राह जानते ही नहीं, और विकारों में फसे पड़े हैं, दूसरे वो हैं जो विद्वान पंडित हैं और मूर्ख लोगों को उपदेश करते हैं। पर हालत दोनों की ये है कि इनकी सारी दौड़-भाग मायावी भोगों के लिए ही है, इनकी ज्ञान-इंद्रिय अपने-अपने विषौ-भोगों में खप रही हैं, भोगों को रो रही हैं। एक भक्ति से वंचित रहने के कारण ये सब आत्मिक मौत मरे पड़े हैं)। सिर्फ वह मनुष्य (आत्मिक मौत) नहीं मरता जिसका कोई (संगी-साथी, ज्ञान-इंद्रिय) (मायावी भोगों की खातिर) रो नहीं रहा (खप नहीं रहा और, ऐसा मनुष्य सिर्फ वही हो सकता है जो प्रभु-दर नहीं छोड़ता, क्योंकि प्रभु-दर पर रहने से ‘हटकै नाही कोइ’)।69। कबीर रामु न धिआइओ मोटी लागी खोरि ॥ काइआ हांडी काठ की ना ओह चर्है बहोरि ॥७०॥ पद्अर्थ: खोरि = खोड़, खोखलापन। मोटी खोरि लागी = उसके अंदर मोटी खोड़ बनती जा रही है, उसको विकार अंदर से खोखला किए जाते हैं और वह धीरे-धीरे आत्मिक मौत मरता जाता है। काइआ = शरीर। न चरै = न चढ़ै, (चूल्हे पर) नहीं चढ़ती। बहोरि = फिर से, दूसरी बार, दोबारा। अर्थ: हे कबीर! जिस-जिस मनुष्य ने परमात्मा का स्मरण नहीं किया, उसको अंदर-अंदर से विकार खोखला किए जाते हैं (और वह धीरे-धीरे आत्मिक मौत मरता जाता है)। जैसे लकड़ी की हांडी (चूल्हे पर एक बार जल के) दोबारा (चूल्हे पर) नहीं चढ़ सकती, वैसे ही (विकारों की आग में जल मरे मनुष्य का) ये शरीर है (जो इस को दूसरी बार नहीं मिलता)।70। कबीर ऐसी होइ परी मन को भावतु कीनु ॥ मरने ते किआ डरपना जब हाथि सिधउरा लीन ॥७१॥ पद्अर्थ: होइ परी = हो पड़ी है। ऐसी होइ परी = ऐसी हो गई है, अजब मौज बन गई है। कीनु = कर दिया है, प्रभु ने कर दिया है। मन को भावतु = वह काम जो मन को पसंद आ गया है। मरने = मौत, स्वै भाव की तरफ से मौत। ते = से। किआ डरपना = क्यों डरना हुआ? डरना नहीं चाहिए। हाथि = हाथ में। सिधउरा = सिधौरा, वह नारियल जिसको सिंदूर लगाया हुआ है। नोट: जो हिन्दू स्त्री अपने पति के मरने पर उसके साथ ही चिता में जल–मरना चाहती थी, वह अपने हाथ में सिंदूरा हुआ नारियल पकड़ लेती थी। सिंदूर लगा नारियल हाथ में पकड़ लेना इस बात की निशानी थी कि स्त्री मौत से नहीं डरती, और अपने मरे पति के साथ जलने को तैयार है। इसी तरह जिस भाग्यशाली मनुष्य को प्रभु–दर से भक्ति की दाति मिले, यह दाति ही इस बात की निशानी है कि इस मनुष्य ने स्वै–भाव की मौत से नहीं डरना, खुशी–खुशी स्वै भाव त्यागेगा, विकारों से मुँह मोड़ेगा। अर्थ: हे कबीर! जब कोई स्त्री (अपने पति के मरने पर) हाथ में संदूर लगा नारियल पकड़ती है तब वह मरने से नहीं डरती। जिस मनुष्य को प्रभु मन- भाती (भक्ति की) दाति बख्शता हे, जिस पर अजीब मेहर होती है, वह मनुष्य खुशी-खुशी स्वै-भाग स्वै-भाव त्यागता है। कबीर रस को गांडो चूसीऐ गुन कउ मरीऐ रोइ ॥ अवगुनीआरे मानसै भलो न कहिहै कोइ ॥७२॥ पद्अर्थ: रस को गांडो = रस का गंना, रस से भरा हुआ गंना। चूसीऐ = चूसा जाता है, पीढ़ा जाता है, पीढ़े जाने की तकलीफ़ सहता है (रस प्राप्त करने के बदले उसको यह मूल्य देना पड़ता है कि बेलने में पीसा जाता है)। गुन कउ = गुणों की खातिर, गुणों के बदले। मरीऐ = मरना पड़ता है, स्वै भाव त्यागना पड़ता है। रोइ = रो के, (अवगुणों को) छोड़ के। मानसै = मनुष्य को। कहि है = कहेगा। अर्थ: हे कबीर! रस से भरा हुआ गंना (बेलने में) पीढ़ा जाता है (भाव, रस की दाति के बदले में उसको ये मूल्य देना पड़ता है कि वह मशीन में पीढ़ा जाए) सो गुणों के बदले अवगुण को छोड़ के स्वैभाव के प्रति मरना ही पड़ता है। (जो मनुष्य स्वै भाव नहीं त्यागता, और विकारों की तरफ ही रुचि रखता है, उस) विकारी मनुष्य को (जगत में) कोई व्यक्ति अच्छा नहीं कहता (भाव, भक्ति की दाति से वंचित रहता है, और, जगत में बदनामी भी कमाता है)।72। कबीर गागरि जल भरी आजु काल्हि जैहै फूटि ॥ गुरु जु न चेतहि आपनो अध माझि लीजहिगे लूटि ॥७३॥ पद्अर्थ: गागरि = (मिट्टी का) घड़ा। आजु काल्हि = आजकल, थोड़े ही दिनों में। फूट जैहै = टूट जाएगी। जु = जो लोग। न चेतहि = याद नहीं रखते। अध माझ = अधबीच में ही। लीजहिगे लूटि = लूट लिए जाएंगे। अर्थ: हे कबीर! मिट्टी का कच्चा घड़ा पानी से भरा हुआ हो, वह जल्दी ही टूट जाता है (इस शरीर की भी यही पायां है, सदा कायम नहीं रह सकता। मनुष्य-जन्म का उद्देश्य प्राप्त करने के लिए इस शरीर का मोह इसके नाश होने से पहले ही त्यागना है, अपनी मर्जी त्याग के गुरु के बताए हुए राह पर चलना है; पर) जो मनुष्य अपने गुरु को याद नहीं रखते (शारीरिक मोह में फंस के गुरु को भुला बैठते हैं, गुरु के बताए हुए रास्ते को बिसार देते हैं) वह मनुष्य जिंदगी के सफर के अधबीच में ही लूट लिए जाते हैं (कामादिक विकार अपने जाल में फसा के उनके सारे गुण नाश कर देते हैं, विकारों में पड़ कर यहाँ की राशि-पूंजी भी खत्म हो जाती है और परलोक भी बिगड़ जाता है)।73। नोट: कई सज्जन यहाँ पाठ ‘अध माझली’ करते हें, शब्द ‘जाहिगे’ को अलग कर देते हैं। ये गलत है। ‘जाहिगे’ कोई शब्द नहीं बनता, ना ही इसका कोई अर्थ निकलता है। ‘माझली’ के ‘झ’ को अर्थ करते वक्त ‘ज’ पढ़ के शब्द ‘मज़ल’ बनाना भी बिल्कुल ही बेनियमा है। शब्द ‘माझ’ वाणी में बेअंत बार आता है। सो, पाठ ‘अध माझ’ है। कबीर कूकरु राम को मुतीआ मेरो नाउ ॥ गले हमारे जेवरी जह खिंचै तह जाउ ॥७४॥ पद्अर्थ: कूकरु = कुक्ता। को = का। मुतीआ = (सुंदर) मोती। जह = जहाँ, जिधर। खिंचै = खींचता है। जाउ = मैं जाता हूँ। अर्थ: हे कबीर! मैं अपने मालिक प्रभु (के दर) का कुक्ता हूँ (प्रभु के दरवाजे पर ही टिका रहता हूँ, और इस कारण) मेरा नाम भी ‘मोती’ पड़ गया है (भाव, दुनिया भी मुझे प्यार से बुलाती है)। मेरे मालिक प्रभु ने मेरे गले में रस्सी डाली हुई है, जिधर वह मुझे खींचता है, मैं उधर ही जाता हूँ।74। नोट: शौकीन लोग घरों में कुत्ते रखते हैं, और ‘मोती’ आदि सुंदर प्यारे उनके नाम रखते हैं, पाले हुए कुक्तों को बुलाते भी प्यार से हैं। वे कुत्ते रोटी की तरफ से बेफिकर रहते हैं, मालिक से रोटी मिलनी यकीनी होती है। पर बाजारी कुत्ते रोटी की खातिर दर-दर भटकते हैं, हर जगह से उनको ‘दुर...दुर’ ही होती है। एक मालिक का हो के रहने में ही आदर और सुख है, दर-दर पर भटकते निरादरी और दुख है। स्वै भाव त्याग के प्रभु के दर पर टिके रहना ही, प्रभु की रजा में चलना ही, सही रास्ता है। कबीर जपनी काठ की किआ दिखलावहि लोइ ॥ हिरदै रामु न चेतही इह जपनी किआ होइ ॥७५॥ पद्अर्थ: जपनी = माला। काठ की = तुलसी रुद्राक्ष आदि लकड़ी की। लोइ = जगत में, लोगों को। न चेतही = तू नहीं स्मरण करता। किआ होइ = कोई लाभ नहीं। अर्थ: हे कबीर! तू तुलसी रुद्राक्ष आदि की माला (हाथ में लेकर) क्यों लोगों को दिखलाता फिरता है? तू अपने दिल में तो परमात्मा को याद नहीं करता, (हाथ में पकड़ी हुई) इस माला का कोई लाभ नहीं हो सकता।75। कबीर बिरहु भुयंगमु मनि बसै मंतु न मानै कोइ ॥ राम बिओगी ना जीऐ जीऐ त बउरा होइ ॥७६॥ पद्अर्थ: बिरहु = विछोड़ा, परमात्मा से विछोड़े का अहसास, ये चुभन कि मैं परमात्मा से विछुड़ा हुआ हूँ। भुयंगमु = साँप। मनि = मन में। न मानै = नहीं मानता, कीला नहीं जा सकता। राम बिओगी = वह मनुष्य जिसको परमात्मा से विछोड़े का अहसास है, जिसको ये चुभन है कि मैं मायावी भोगों के कारण ईश्वर से टूटा हुआ हूँ, जिसे बिरह-साँप का डंक बज चुका है। ना जीऐ = (विकारों के लिए) नहीं जी सकता, (स्वै भाव में) नहीं जी सकता। बउरा = कमला। अर्थ: हे कबीर! (‘काठ की जपनी’ तो कुछ सवार ही नहीं सकती, पर) जिस मनुष्य के मन में गुरु की शरण पड़ कर विरह का साँप आ बसे (जिस मनुष्य को गुरु-दर से ये सूझ मिल जाए कि इन कामादिकों ने मुझे रब से विछोड़ दिया है) (कामादिकों का) कोई मंत्र उस पर नहीं चल सकता। परमात्मा से विछोड़े को महसूस करने वाला मनुष्य जी ही नहीं सकता, (भाव, परमात्मा से विछोड़े का अहसास एक ऐसा डंक है कि इसका डसा हुआ वयक्ति मायावी भोगों के लिए जी ही नहीं सकता) जो जीवन वह जीता है, दुनिया की बाबत तो वह पागलों वाला जीवन है।76। नोट: हमारे देश में कई लोग साँपों का मंत्र जानते हैं; साँपों के डंक मारे लोगों को मंत्रों की सहायता से साँप के जहर से बचाते हैं। पर कई साँप ऐसे भी होते हैं, जिनका डसा हुआ वयक्ति शायद ही बचता हो। कबीर जी इस शलोक में इस बात की तरफ इशारा कर के देखते हैं परमात्मा से विछोड़े का अहसास, मानो, साँप है। जिस मनुष्य को ये डंक लग जाए (जिसके ये समझ आ जाए कि मैं परमात्मा से विछुड़ा हुआ हूँ, मुझे मायावी भोगों ने ईश्वर से विछोड़ दिया है), ये डंक इतना तेज़ होता है कि दुनियावी पदार्थों के मोह का कोई मंत्र इस पर असर नहीं डाल सकता। विरह का डसा हुआ मनुष्य ‘दुनिया’ की तरफ से मर जाता है उसका जीवन और किस्म का हो जाता है, ‘दुनिया’ उसको ‘बउरा’ कहती है, दुनिया की बाबत वह ‘कमला’ होता है। कबीर पारस चंदनै तिन्ह है एक सुगंध ॥ तिह मिलि तेऊ ऊतम भए लोह काठ निरगंध ॥७७॥ पद्अर्थ: चंदनै = चंदन में। पारस चंदनै = पारसै चंदनै, पारस में और चंदन में। तिन है = इन पारस में और चंदन में। सुगंध = महक, खुशबू, गुण। तिह मिलि = इन पारस और चंदन को मिल के। तेऊ = वह भी, वह काठ और लोहा भी। काठ निरगंध = लकड़ी जिसमें कोई सुगंधी नहीं। अर्थ: हे कबीर! पारस और चँदन- इन दोनों में एक-एक गुण है। लोहा और सुगंधि-हीन लकड़ी इनके साथ छूह के उत्तम बन जाते हैं (लोहा पारस को छू के सोना बन जाता है; साधारण वृक्ष चँदन के नजदीक रह के सुगन्धी वाला हो जाता है। वैसे ही पहले कामादिकों से बिका हुआ मनुष्य गुरु को मिल के ‘राम बियोगी’ बन जाता है)।77। नोट: बिरह का अनुभव गुरु के माध्यम से ही होता है। गुरु, मानो, पारस है, गुरु चंदन है। कबीर जम का ठेंगा बुरा है ओहु नही सहिआ जाइ ॥ एकु जु साधू मुोहि मिलिओ तिन्हि लीआ अंचलि लाइ ॥७८॥ पद्अर्थ: ठेंगा = चोट। ओह = वह ठेंगा। साधू = गुरु। मुोहि = (असल शब्द ‘मोहि’ है, यहाँ पढ़ना है ‘मुहि’) मुझे। तिन्हि = उसने। अंचलि = आँचल से, पल्ले। अर्थ: हे कबीर! (कामादिकों के बस में पड़े रहने से जम का डंडा सिर पर बजता है, जनम-मरन के चक्करों में पड़ा जाता है, और) जम की (यह) चोट इतनी बुरी है कि सहनी बड़ी ही मुश्किल है। (परमात्मा की कृपा से) मुझे गुरु मिल गया, उसने अपने आँचल से लगा लिया (और मैं कामादिकों के) बहकावे में नहीं आया।78। कबीर बैदु कहै हउ ही भला दारू मेरै वसि ॥ इह तउ बसतु गुपाल की जब भावै लेइ खसि ॥७९॥ पद्अर्थ: बैद = हकीम, वैद्य। हउ ही = मैं ही। भला = समझदार। मेरै वसि = मेरे वश में। इह = ये प्राण। बसतु = वस्तु, चीज़। खसि लेइ = छीन लेता है।79। अर्थ: हे कबीर! वैद्य (तो) कहता है कि मैं बहुत समझदार हूँ (रोग आने पर प्राणों को शरीर से विछुड़ने से बचाने के लिए) इलाज मेरे इख्तियार में है (मैं रोग का इलाज करना जानता हूँ)। पर ये जिंद उस मालिक प्रभु की (दी हुई अमानती) चीज़ है, जब वह चाहता है (शरीर में से) वापस ले लेता है (यहाँ सदा नहीं टिके रहना, इसलिए जम के ठेंगे का ख्याल रखो ओर, गुरु-दर पर आ के ‘गुन कउ मरीअै रोइ’)।79। कबीर नउबति आपनी दिन दस लेहु बजाइ ॥ नदी नाव संजोग जिउ बहुरि न मिलहै आइ ॥८०॥ पद्अर्थ: नउबति = ढोल। आपनी नउबति बजाइ लेहु = मन मानी मौजें कर लो। नाव = नाँव, बेड़ी। संजोग = मेला, मिलाप। नदी...जिउ = जैसे नदी सें पार लांघने के लिए बेड़ी में बैठे मुसाफिरों का मिलाप है (फिर कभी उन सभी का मिलाप नहीं होता)। बहुरि = दोबारा। न मिलि है = नहीं मिलेगा, (मनुष्य जनम) नहीं मिलेगा।80। अर्थ: हे कबीर! (यदि तू ये नहीं सुनता, तो तेरी मर्जी) मन-मर्जी की मौज कर ले (पर ये मोजें हैं सिर्फ) दस दिनों के लिए ही। जैसे नदी से पार लांघने के लिए बेड़ी में बैठे मुसाफिरों का मिलाप है (फिर वे सारे कभी नहीं मिलते) वैसे ही (मन-मानी मौजों में गवाया हुआ) ये मनुष्य-शरीर दोबारा नहीं मिलेगा।80। कबीर सात समुंदहि मसु करउ कलम करउ बनराइ ॥ बसुधा कागदु जउ करउ हरि जसु लिखनु न जाइ ॥८१॥ पद्अर्थ: मसु = स्याही। करउ = मैं करूँ। बनराइ = सारी बनस्पति, सारे पेड़ पौधे। बसुधा = धरती। कागदु = कागज़। (नोट: अक्षर ‘ज़’ कई बार ‘द’ की तरह उचारा जाता है, जैसे, काज़ी या कादी, हजूर या हदूर, हाज़र या हादर)। जउ = अगर। जसु = यश, बड़ाई।81। अर्थ: हे कबीर! यदि मैं सातों ही समुंद्रों (के पानियों) की स्याही बना हूँ, सारे पेड़-पौधों की कलमें घड़ लूँ, सारी धरती को कागज़ के रूप में इस्तेमाल करूँ, तो भी परमात्मा के गुण (पूरी तौर पर) लिखे नहीं जा सकते (भाव, इन्सान ने परमात्मा के गुण इस वास्ते नहीं गाने कि उसके गुणों का अंत पाया जा सके, और सारे गुण बयान किए जा सकें)।81। नोट: शलोक नं: 72 में लिखते हें ‘अवगुनीआरे मानसै, भलो न कहि है कोइ’ विकारों–अवगुणों में पड़ कर मनुष्य के अंदर अवगुणों के संस्कार इकट्ठे होते जाते हैं। इनसे बचने का तरीका? सिर्फ यही है कि गुरु पारस है मिल के मनुष्य प्रभु के गुण गाए। ‘गुणों’ से मन को बार-बार जोड़ने से मन में भी ‘गुण’ ही पैदा होने शुरू हो जाएंगे, मन नीचता से हट के सूचा और पवित्र हो जाएगा और आखिर ‘गुणी’ के साथ एक–मेक हो सकेगा। इस ख्याल की व्याख्या अगले शलोक नं: 82 में करते हैं। कबीर जाति जुलाहा किआ करै हिरदै बसे गुपाल ॥ कबीर रमईआ कंठि मिलु चूकहि सरब जंजाल ॥८२॥ पद्अर्थ: किआ करै = कुछ बिगाड़ नहीं सकती, मेरे अंदर निताणी, बेआसरा वाली रुचि पैदा नहीं कर सकती। रमईआ कंठ मिलु = प्रभु के गले लग, प्रभु की याद में जुड़। चूकहि = खत्म हो जाएंगे। अर्थ: हे कबीर! (प्रभु के गुण गाने से गुणों का अंत नहीं पड़ सकता, पर महिमा की इनायत से) मेरी (नीच) जुलाहा-जाति मेरे अंदर निताणा-पन पैदा नहीं कर सकती क्योंकि अब मेरे हृदय में सृष्टि का मालिक परमात्मा बस रहा है। हे कबीर! प्रभु की याद में जुड़ (सिर्फ नीच जाति की कमजोरी ही नहीं) माया के सारे ही जंजाल समाप्त हो जाएंगे।82। नोट: नीच जाति में पैदा हुआ व्यक्ति लोगों के ताने–मेहणों से अपने आप को नीच महसूस करने लग जाता है, धीरे-धीरे मनुष्यता की निर्भयता के स्तर से गिर जाता है, मायूसी ढहती कला में रहता है और उच्च जाति वालों व धनाढ लोगों के आगे लिल्ड़ियां लेता है (झुका रहता है)। पर प्रभु की महिमा की इनायत से ये निताणापन दूर हो जाता है। कबीर ऐसा को नही मंदरु देइ जराइ ॥ पांचउ लरिके मारि कै रहै राम लिउ लाइ ॥८३॥ पद्अर्थ: को नही = कोई विरला ही होता है। मंदर = शरीर, शरीर का मोह, देह अध्यास। जराइ देइ = जला दे। पांचउ लरिके = माया के पाँचों पुत्र, कामादिक। लिउ = तवज्जो, लगन। अर्थ: हे कबीर! (भले ही महिमा में बड़ी इनायत है, पर शारीरिक मोह और कामादिक का इतना जोर है कि) कोई विरला ऐसा मनुष्य होता है जो शारीरिक मोह को जलाता है, कोई विरला है जो कामादिक माया के पाँचों पुत्रों को मार के प्रभु के साथ लगन लगाए रखता है।83। कबीर ऐसा को नही इहु तनु देवै फूकि ॥ अंधा लोगु न जानई रहिओ कबीरा कूकि ॥८४॥ पद्अर्थ: तनु = शरीर, शरीर का मोह। फूक देवै = जला दे। अंधा = अंधा होया हुआ, शारीरिक मोह में अंधा, देह अध्यास में इतना मस्त कि जीवन का सही रास्ता आँखों से दिखता ही नहीं, (चाहे) कबीर ऊँचा-ऊँचा (कूक के) बता रहा है।84। अर्थ: हे कबीर! (माया के प्रभाव के कारण) कोई विरला ही ऐसा मिलता है जो (प्रभु की महिमा करे, और) शारीरिक मोह को जला दे। जगत मोह में इतना ग़र्क है कि इसको अपनी भलाई सूझती ही नहीं, (भले ही) कबीर ऊँचा-ऊँचा (कूक के) बता रहा है।84। कबीर सती पुकारै चिह चड़ी सुनु हो बीर मसान ॥ लोगु सबाइआ चलि गइओ हम तुम कामु निदान ॥८५॥ पद्अर्थ: सती = वह स्त्री जो अपने मरे पति के साथ चिखा पर चढ़ती है। चिह = चिखा। हे बीर मसान = हे बीर मसाण! हे मसाणों की प्यारी आग! सबाइआ = सारा। चलि गइओ = चला गया है, साथ छोड़ गया है। निदान = आखिर, ओड़क। कामु = मतलब, वाह, गर्ज। हम तुम कामु = मुझे तेरे साथ गरज पड़ी है। पुकारै = ऊँची आवाज में कहती है, दलेर हो के कहती है। नोट: शब्द ‘सुनु’ एकवचन, सिर्फ किसी एक को संबोधन किया जा रहा है। कई सजजन शब्द ‘मसान’ का अर्थ करते हैं ‘हे मसाणों में आए लोगो’। ये अर्थ गलत है। अर्थ: हे कबीर! जो स्त्री अपने परलोक पहुँचे पति को मिलने की खातिर उसके शरीर के साथ अपने आप को जलाने के लिए तैयार होती है वह चिखा पर चढ़ कर दलेर हो के कहती है: हे वीर मसाण! सुन, सारे संबन्धी मेरा साथ छोड़ गए हैं (मुझे कोई मेरे पति के साथ नहीं मिला सका) आखिर, हे वीर! मुझे तेरे साथ गरज़ आ पड़ी है। नोट: जिस जीव-स्त्री को ये यकीन बन जाता है कि शारीरिक मोह को जलाए बिना प्रभु–पति से मिलाप नहीं हो सकता, और इस मोह को जलाने के लिए सिर्फ महिमा ही समर्थ है, सिर्फ ‘ब्रहम–अग्नि’ ही इसको जला सकती है, वह जीव-स्त्री इस महिमा को प्यार करती है, इस ‘ब्रहमाग्नि’ को ‘वीर’ कह के बुलाती है, और कहती है: हे प्यारी ‘ब्रहमाग्नि’! दुनिया वाले साथी मुझे प्रभु–पति के साथ नहीं जोड़ सके, उनका साथ भी कच्चा ही साबत हुआ। हे ‘ब्रहम–अग्नि’! सिर्फ एक तू ही है जो मेरे शारीरिक मोह को जला के मुझे प्यारे प्रभु–पति के साथ मिला सकती है। आखिर मैंने तेरा आसरा लिया है। नोट: इस शलोक के साथ पिछले दोनों शलोक नं: 83 और 84 मिला के पढ़ो। एक आश्चर्य भरी आत्मिक उड़ान है। कहते हैं कोई विरला ही हैजो अपने आप को जलाता है। हाँ हमने ‘सती’ को देखा है वह हस–हस के अपने शरीर को जलाती है, सारा संसार ‘मसाणों’ से डरता–काँपता है, पर ‘सती’ उस ‘मसाण’ को ‘वीर’ कह के बुलाती है, उस ‘मसाण’ से प्यार करती है। क्यों? ‘सती’ जानती है जब ये मसाण मेरे शरीर को जला देगा, तो मैं अपने परलोक अपने पति को जा मिलूँगी। प्रभु–पति परदेस में बैठा है, जीव-स्त्री पेके (मायके) बैठी अपने ही शरीर से प्यार किए जा रही है। जीव-स्त्री का यह शारीरिक मोह प्रभु–पति को मिलने की राह में रोक डाल रहा है। पर ये मोह बड़ा ही बलवान है, इसको विरली ही छोड़ती है, इसको कोई विरली ही जलाती है। सिर्फ वही जलाती है जिसको समझ आ गई है कि इसके जलने पर ही प्रभु–पति मिलेगा। फिर, वह जीव-स्त्री क्यों उस ‘ब्रहम अग्नि’ को ‘वीर’ ना कहे? क्यों उस ‘मसाण’ को प्यारा ना कहे, जो इसके ‘शरीर’ को ‘शारीरिक मोह’ को देह–अध्यास को, जलाता है? |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |