श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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कबीर मनु पंखी भइओ उडि उडि दह दिस जाइ ॥ जो जैसी संगति मिलै सो तैसो फलु खाइ ॥८६॥

पद्अर्थ: दह दिस = दसों दिशाओं में, हर तरफ, अनेक मायावी पदार्थों की तरफ। उडि उडि = बार बार उड़ के, बार बार भटक के।

अर्थ: (हे कबीर! ये जानते हुए भी कि प्रभु के महिमा विकारों को जला के प्रभु-चरणों में जोड़ती है) मनुष्य का मन पंछी बन जाता है (एक प्रभु का आसरा छोड़ के) भटक-भटक के (मायावी पदार्थों के पीछे) दसों दिशाओं में जोड़ता है (और यह कुदरति का नीयम ही है कि) जो मनुष्य जैसी संगति में बैठता है वैसा ही उसको फल मिलता है।86।

कबीर जा कउ खोजते पाइओ सोई ठउरु ॥ सोई फिरि कै तू भइआ जा कउ कहता अउरु ॥८७॥

पद्अर्थ: ठउरु = जगह। फिरि कै = पलट के, तब्दील हो के। जा कउ = जिस (जगह) को।

अर्थ: हे कबीर! (प्रभु की महिमा करने से, प्रभु के गुण गाने से, गुणों का अंत नहीं पड़ सकता; पर महिमा की सहायता से) मैं (प्रभु के चरण रूप) जो जगह तलाश कर रहा था, वही जगह मुझे मिल गई है। हे कबीर! जिस (प्रभु) को तू पहले ‘कोई और’ कहता था (जिसको तू पहले अपने आप से अलग समझता था) तू (महिमा की इनायत से) बदल के उसी का ही रूप बन गया है, (उसी में ही लीन हो गया है, उसी के साथ एक-मेक हो गया है)।87।

कबीर मारी मरउ कुसंग की केले निकटि जु बेरि ॥ उह झूलै उह चीरीऐ साकत संगु न हेरि ॥८८॥

पद्अर्थ: मरउ = मैं मर जाऊँगी, मेरी जिंद आत्मिक मौत मर जाएगी। कुसंग की मारी = बुरी संगति की मार से, बुरी सोहबत में बैठने से, विकारों के असर तले आ के। निकटि = नजदीक। जु = जैसे, ज्यों। बेरि = बेरी। उह झूलै = बेरी हवा से हुलारे लेती है, झूमती है। उह चीरीऐ = वह केला चीरा जाता है। न हेरि = ना देख, ना ताक। साकत = ईश्वर से टूटा हुआ व्यक्ति, वह मनुष्य जो परमात्मा की याद भुला बैठा है।

अर्थ: हे कबीर! (यदि तूने परमात्मा की महिमा छोड़ दी, तो सहज ही तू उनका साथ करेगा जो प्रभु से टूटे हुए हैं; पर देख) ईश्वर से टूटे हुए लोगों का साथ कभी भी ना करना।

केले के नजदीक बेर का पेड़ उगा हुआ हो, बेरी हवा से झूलती है, केला (बेरी के काँटों से) चीरा जाता है; वैसे ही (हे कबीर!) बुरी सोहबत में बैठने से विकारों के असर तले तेरी जीवात्मा आत्मिक मौत मर जाएगी।88।

नोट: प्रभु के गुण गाने से गुणों का अंत नहीं पड़ता, पर इसकी इनायत से कुसंग से बचे रहा जाता है और जीवात्मा आत्मिक मौत मरने से बच जाती है।

कबीर भार पराई सिरि चरै चलिओ चाहै बाट ॥ अपने भारहि ना डरै आगै अउघट घाट ॥८९॥

पद्अर्थ: भार पराई = पराई (निंदा) का भार। सिर चरै = मनुष्य के सिर के ऊपर चढ़ता जाता है, ‘कुसंग’ में फसे मनुष्य के सिर के ऊपर चढ़ता जाता है। बाट = रस्ता। चलिओ चाहै बाट = (भार चढ़ता जाता है, फिर भी मनुष्य निंदा के इस) राह पर ही चलना पसंद करता है। अपने भारहि = अपने (किए हुए विकारों के) भार से। आगै = मनुष्य के सामने। अउघट घाटि = मुश्किल रास्ता।

अर्थ: हे कबीर! मनुष्य के सामने एक बहुत ही मुश्किल रास्ता है, पर (कुसंग के कारण) इसके सिर पर पराई (निंदा) का भार चढ़ता जाता है (भार भी चढ़ता जाता है, फिर भी मनुष्य इस निंदा के) राह पर ही चलना पसंद करता है; और अपने (किए और बुरे कर्मों के) भार का तो इसको चेता ही नहीं आता।89।

नोट: जिंदगी का सफर, मानो एक मुश्किल घाटी है, चढ़ाई का राह है, क्योंकि अनेक विकार मनुष्य के रास्ते में रुकावटें डालते हैं। जब मनुष्य परमातमा की याद भुलाता है और अचेतपन में कुसंग में जा फसता है तो इसकी कोमल जीवात्मा विकारों के काँटों से चीरी जाती है, कई विकार–कुकर्म सहेड़ लेता है, कुकर्म करने से बिल्कुल गुरेज नहीं करता। एक तरफ अपनी ये दुर्दशा दूसरी तरफ औरों की निंदा करने की भी आदत पड़ जाती है, ये आदत बल्कि इसको डुबोती है। बस! एक महिमा से टूटने पर ऐसी बुरी हालत बनती है।

नोट: निंदा बड़ी खतरे वाली बात यह होती है कि मनुष्य औरों के ऐब फोलता–फोलता अपने बुरे जीवन के प्रति अचेत हो जाता है। प्रभु की महिमा ही इस खतरनाक रास्ते से बचाती है।

कबीर बन की दाधी लाकरी ठाढी करै पुकार ॥ मति बसि परउ लुहार के जारै दूजी बार ॥९०॥

पद्अर्थ: वणि = बन, जंगल। दाधी लाकरी = जली हुई लकड़ी, कोयला बन चुकी लकड़ी। ठाढी = खड़ी हुई (भाव, साफ तौर पर प्रत्यक्ष)। मत = कहीं। बसि = वश में, सोहबत में। लुहार = वह मनुष्य जो सारी उम्र कोयले-विकार विहाजने में ही गुजार रहा है, साकत, विकारी मनुष्य।

अर्थ: हे कबीर! (अगर तू ध्यान से सुन के समझे तो) जंगल की कोयला बनी हुई लकड़ी भी साफ तौर पर पुकार करती (सुनी जा सकती है) कि मैं कहीं लोहार के वश ना पड़ जाऊँ, वह तो मुझे दूसरी बार जलाएगा।90।

नोट: जो कोयला लोहार आदि लोग अपनी भट्ठियों में बरतते हैं इसको तैयार करने के लिए एक खास तरीका अपनाना पड़ता है। किक्कर आदि लकड़ी के मोछे खास तरह की बनी हुई भट्ठी में मिट्टी के नीचे दबाए जाते हैं, इन मोछों को इस तरह आग लगाई जाती है कि बाहर से हवा ना लगे और मिट्टी के अंदर–अंदर ही लकड़ियां कोयला बन जाएं, पर इनकी गैस कोयले में बनी रहे। चुँकि ये कोयला बरतने की आवश्यक्ता आम तौर पर लोहारों को ही पड़ती थी, सो इस कोयले को तैयार भी लोहार ही किया करते थे। एक बार तो लकड़ी कोयला बनने के वक्त मिट्टी के अंदर–अंदर रह के जलती है और दूसरी बार लोहार आदि की भट्ठी में पड़ कर जलती है।

ये शब्द ‘लुहार’ बाबा फरीद जी ने भी बरता है, उन्होंने भी कोयले के ही संबंध में प्रयोग किया है। लिखते हैं;

कंधि कुहाड़ा, सिरि घड़ा, वणि केसरु लोहारु॥ फरीदा हउ लोड़ी सहु आपणा, तू लोड़हि अंगिआर॥४३॥

इस शलोक का अर्थ इस प्रकार है;

कंधे पर कुहाड़ा और सिर पर घड़ा (रख के) लोहार जंगल में बादशाह (बना होता) है (क्योंकि जिस पेड़ पर चाहे कुहाड़ा चला सकता है); इसी तरह मनुष्य, जगत–जंगल का सरदार है। हे फरीद! मैं तो (इस जगत–जंगल में) अपने मालिक–प्रभु को ढूँढ रहा हूँ, ओर, तू (हे जीव! लोहार की तरह) कोयले तलाश रहा है, (भाव, ‘विसु गंदलां’–रूप कोयले ढूँढता है)।

कबीर जी ओर फरीद जी के इन दोनों शलोकों में शब्द ‘लुहार’ की सांझ बहुत मजेदार है, दोनों का भाव भी एक ही है: वह मनुष्य जो कि था इस धरती का सरदार, पर सारी उम्र कोयले विहाजते ही गुजार रहा है, सारी उम्र विकारों में ही गवा रहा है, साकत।

कबीर एक मरंते दुइ मूए दोइ मरंतह चारि ॥ चारि मरंतह छह मूए चारि पुरख दुइ नारि ॥९१॥

अर्थ: हे कबीर! (प्रभु के गुण गाने से उसके गुणों का अंत नहीं पड़ सकता, पर इस महिमा की इनायत से ‘मन’ मर जाता है ‘मन’ विकारों से हट जाता है) इस एक मन के मरने से एक और भी मरा जाति अभिमान, और कुल दो मर गए- मन और जाति अभिमान। फिर दो और मरे-देह अध्यास और तृष्णा; कुल चार हो गए। दो और मरे- कुसंग और निंदा; और ये सारे मिल के छह हो गए, चार पुलिंग (‘पुरख’) और दो स्त्री-लिंग (‘नारि’)।91।

नोट: इस शलोक में किसी छहों के मरने का वर्णन है। कुछ टीकाकार सज्जनों ने एक हिरनी उसके बच्चों, शिकारी और उसकी पत्नी के मरने की कहानी घड़ ली है; पर ये प्रयास तो पूरी तरह से हास्यास्पद है। जिनको कहानियां घड़ने की आदत पड़ी हुई है, वे यहाँ पहुँच के बिल्कुल मुँह भार गिर चुके प्रतीत होते हैं। आखिर इन हिरनी आदि के मरने से इन्सानी जीवन का क्या संबंध? हमें अपनी मौजूदा जीवन-यात्रा में क्या हिदायत मिली?

ये शलोक काफी मुश्किल है क्योंकि इन ‘छियों’ का वेरवा तसल्ली–बख्श नहीं मिल रहा। हंगता, राग, द्वैष, अहंकार, आशा, तृष्णा आदि बड़े मशहूर शब्द हैं, टीकाकार ने अपनी–अपनी समझ के अनुसार ये गिनती पूरी कर दी है। पर, ये कैसे पता लगे कि कबीर जी किन ‘छहों’ की तरफ इशारा कर रहे हैं?

जैसे फरीद जी के शलोकों को मैं एक कड़ी में बँधा हुआ विषय समझता हूं, इसी धुरे से मैंने उनका टीका लिखा था, इसी तरह मैं इन शलोकों को भी लड़ी–वार विषय (कड़ी में बँधा हुआ) ही समझता हूँ। यदि इस धुरे से विचारने की कोशिश की जाए, तो आशा तृष्णा हंगता आदि विकारों के नाम दे के गिनती पूरी करने की जरूरत नहीं रहेगी।

शलोक नं: 81 में परमात्मा के गुणगान का जिकर है। इससे अगले 9 शलोकों में कबीर जी लिखते हैं कि महिमा की इनायत से ये–ये नतीजे निकलते हैं।

धार्मिक रास्ते पर चलने का प्रयत्न करने वाले हरेक मनुष्य के सामने सबसे पहला मोटा सवाल ये आता है कि मन को कैसे मारा जाए। कोई तप करता है, कोई दान–पुण्य करता है, कोई तीर्थों पर जाता है, कोई जंगलों में जा के बसता है, पर कबीर जी कहते हैं;

मन मारन कारनि बन जाईऐ॥ सो जलु बिनु भगवंत न पाईऐ॥

इन शलोकों में भी और–ओर वेरवे दे के शलोक नं: 101 में साफ तौर पर कहते हैं कि साधनों का क्या लाभ अगर ‘मनु मूंडिआ नही’ मनुष्य–जीवन की रण–भूमि में सबसे पहला मुकाबला मन से ही माना गया है, अगर ये जीत लिया जाए तो इसके साथ कई विकार जीत लिए जाते हैं जिनमें से शलोक नंबर 91 में कबीर जी ने सिर्फ पाँच की ओर ही इशारा किया है (और, छेवां मन)।

ये ठीक है कि इस शलोक में कबीर जी ने छह कह के सिर्फ इशारा ही किया है, पर असल में शलोक नं: 81 से 90 तक इन पाँचों का वेरवा वे स्वयं दे चुके हैं। कहते हैं: प्रभु के गुण गाने से गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता पर इस महिमा की इनायत से ‘मन मूंडिआ’ जाता है, मन मर जाता है, इस मन के मरने से निम्न-लिखित पाँच बड़े–बड़े और दैत्य भी मर जाते हैं;

शलोक नं: 82 –जाति अभिमान।

शलोक नं: 83,84,85 – शारीरिीक मोह, देह अध्यास

शलोक नं: 86 – भटकना, तृष्णा

शलोक नं: 88 – कुसंग

शलोक नं: 89 निंदा

इनमें से– मन, जाति अभिमान, शारीरिक मोह, कुसंग– ये चारे ‘पुरष’ हें, पुलिंग हैं। तृष्णा और निंदा स्त्रीलिंग हैं ‘नारि’ हैं।

कबीर देखि देखि जगु ढूंढिआ कहूं न पाइआ ठउरु ॥ जिनि हरि का नामु न चेतिओ कहा भुलाने अउर ॥९२॥

पद्अर्थ: देखि देखि ढूँढिआ = बार बारी देख के तलाश की है। कहूँ न = कहीं भी नहीं। ठउरु = जगह, मन के टिकने की जगह, वह जगह जहाँ मन को शांति मिले, जहाँ मन भटकने से हट जाए। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। कहा अउर = कहीं और जगह? क्यों कहीं और जगह? भुलाने = भूले फिरते हो।

अर्थ: हे कबीर! मैंने बड़ी मेहनत से सारा जगत ढूँढ के देखा है, कहीं भी ऐसी जगह नहीं मिली जहाँ मन भटकने से हट जाएं जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम नहीं स्मरण किया (उसको कहीं भी मन की शांति की जगह नहीं मिल सकी; प्रभु का नाम ही, जो सत्संग में मिलता है, भटकने से बचाता है)। (महिमा छोड़ के) क्यों और-और जगहों पर भटकते फिरते हो?।92।

कबीर संगति करीऐ साध की अंति करै निरबाहु ॥ साकत संगु न कीजीऐ जा ते होइ बिनाहु ॥९३॥

पद्अर्थ: अंति = आखिर तक, सदा। करै निरबाहु = साथ देता है, संगी बनाए रहता है। साकत संगु = ईश्वर से टूटे हुए की सोहबत। जा ते = जिस (संग) से। बिनाहु = नाश, विनाश, आत्मिक मौत।

अर्थ: हे कबीर! (मन की शांति के लिए एक ही ‘ठौर’ है, वह है साधु-संगत, सो) साधु-संगत में जुड़ना चाहिए, साधु-संगत वाला साथ आखिर तक निभता है; ईश्वर से टूटे हुए लोगों की संगति नहीं करनी चाहिए, इससे आत्मिक मौत (होने का डर) है।93।

कबीर जग महि चेतिओ जानि कै जग महि रहिओ समाइ ॥ जिन हरि का नामु न चेतिओ बादहि जनमें आइ ॥९४॥

पद्अर्थ: जग महि = जग महि (आय), जगत में आ के, जगत में जनम ले के। जानि कै = पहचान के। बादहि = व्यर्थ। आइ जनमें = आ के जन्में।

अर्थ: हे कबीर! (मन के लिए शांति की ‘ठौर’ प्रभु का नाम ही है, सो) जिन्होंने जगत में जनम ले के उस प्रभु को, ऐसे पहचान के कि वह सारे जगत में व्यापक है, स्मरण किया है (उनको ही जगत में जन्मा हुआ समझो, उनका ही पैदा होना सफल है, वही हैं साधु, और उनकी संगति ही साधु-संगत है)। जिन्होंने परमात्मा का नाम नहीं स्मरण किया, वे व्यर्थ ही पैदा हुए।94।

पहली तुक का आनवै यूँ है;

कबीर! जिनह जग महि (आइ) सो प्रभु जानि कै चेतिओ (जो) जग तहि रहिओ समाइ (से जग पहि जनमें आइ) ...।

कबीर आसा करीऐ राम की अवरै आस निरास ॥ नरकि परहि ते मानई जो हरि नाम उदास ॥९५॥

पद्अर्थ: आसा...की = परमात्मा के ऊपर आशा रखें, परमात्मा का आसरा देखें। निरास = निर+आस। नरकि परहि = नर्क में पड़ते हैं, सदा दुखी रहते हैं। मानई = मनुष्य।

अर्थ: हे कबीर! (अगर मन के लिए शांति की ‘ठौर’ चाहिए तो ‘साधु-संगत’ में जुड़ के) एक परमात्मा पर डोरी रखनी चाहिए, और आशाएं छोड़ देनी चाहिए। जो मनुष्य परमात्मा की याद से मुँह मोड़ लेते हैं वे नर्क में पड़े रहते हैं (सदा दुखी रहते हैं)।95।

कबीर सिख साखा बहुते कीए केसो कीओ न मीतु ॥ चाले थे हरि मिलन कउ बीचै अटकिओ चीतु ॥९६॥

पद्अर्थ: सिख = चेले चाटड़े, चेले। केसो = (संस्कृत: केशव, केशा: प्रशास्ता: संन्ति अस्य इति, जिसके लंबे लंबे केश हैं वह हरि) परमात्मा। चाले थे = चले थे? उद्यम किया था। अटकिओ = फस गया।

अर्थ: हे कबीर! जिन्होंने परमात्मा को मित्र नहीं बनाया (परमात्मा के साथ सांझ नहीं बनाई, और) कई चेले-चाटड़े बना लिए, (उन्होंने पहले तो भले ही) उद्यम किया था, पर उनका मन राह में ही अटक गया (चेले-चाटड़ों से सेवा-पूजा कराने में वे व्यस्त हो गए, प्रभु का स्मरण भुला बैठे ओर मन की शांति की ‘ठौर’ नसीब नहीं हुई)।96।

नोट: जिनकी ‘संगति’ करने का वर्णन शलोक नं: 93 में है, उनके बारे में किसी भुलेखे से बचाने के लिए कबीर जी कहते हैं कि ‘साध’ सिर्फ वही हैं जो सर्व-व्यापक राम को स्मरण करते हैं। जिन्होंने चेले–चाटड़ों का आडम्बर रच लिया है और जो बँदगी से टूट के अपनी सेवा–पूजा में ही मस्त हो गए वे ‘साध’ नहीं हैं, भले ही वे और लोगों को उपदेश भी करते हैं।

कबीर कारनु बपुरा किआ करै जउ रामु न करै सहाइ ॥ जिह जिह डाली पगु धरउ सोई मुरि मुरि जाइ ॥९७॥

पद्अर्थ: कारनु = साधन, सबब, हरि मिलन का साधन, कारण। बपुरा = बेचारा, कमजोर। सहाइ = सहायता। जिह जिह = जिस जिस। धरउ = मैं धरता हूँ। पगु = पैर। पगु धरउ = मैं पैर धरता हूँ, मैं सहारा लेता हूँ। मुरि मुरि जाइ = मुड़ मुड़ जाए, लिफती जा रही है, टूटती जा रही है, किसी ना किसी विकार तले खुद दबता जा रहा है।

अर्थ: हे कबीर! (ये तो ठीक है कि मन की शांति का ‘ठौर’ साधु-संगत ही है, प्रभु के चरणों में टिके रहने के लिए ‘संगति करीअै साधु की’ साधु-संगत ही एक-मात्र साधन है; पर) यदि परमात्मा स्वयं सहायता ना करे (अगर ‘साधु’ के अंदर परमात्मा स्वयं ना आ बसे, अगर ‘साधु’ खुद प्रभु-चरणों में ना जुड़ा हुआ हो) तो ये साधन कमजोर हो जाने के कारण कोई लाभ नहीं पहुँचाता। (इन्सानी उच्च जीवन-रूप वृक्ष की चोटी पर पहुँचाने के लिए ‘साधु’ मानो, डालियां हैं, पर भेखी और चेले-चाटड़े ही बनाने वाले ‘साधु’ कमजोर टहनियां हैं) मैं तो (ऐसी) जिस-जिस डाली पर पैर रखता हूँ वह (वह स्वार्थ में कमजोर होने के कारण) टूटती जा रही है।97।

नोट: किसी ऊँचे–लंबे पेड़ की चोटी पर चढ़ना हो, तो पेड़ की डालियों का आसरा लिया जाता है; किसी डाली पर हाथ डालना, किसी डाली पर पैर रखने से। बस, धीरे–धीरे ढंग से चोटी पर पहुँचा जाता है। पर, अगर पेड़ की डालियां कमजोर हों, तो चोटी तक पहुँचने की जगह किसी डाली के टूट जाने से चोटें ही खानी पड़ती हैं और जान जाने का भी कई बार खतरा बन जाता है।

इन्सानी जिंदगी, मानो, एक ऊँचा–लंबा पेड़ है जिसकी चोटी प्रभु के चरण हैं। मनुष्य ने अपने जीवन–सफर में इस चोटी पर पहुँचना है। गुरमुखि, साधु इस वृक्ष की डालियां हैं, ये लोग साधारण मनुष्य के लिए प्रभु-चरणों तक पहुँचाने का साधन हैं। पर जगत में भेख भी बहुत है। जो खुद ही हरि-नाम से कोरे हैं, और निरे चेले ही बनाए फिरते हैं, वे इस वृक्ष की मानो, कच्चियां डालियां हैं, इनका आसरा लेने से चोटी पर नहीं पहुँचा जा सकता, बल्कि मुँह–भार गिर के जान गवाने का डर है, आत्मिक मौत मरने का खतरा बन जाता है। ‘साध’ साधन तो अवश्य है, पर ‘साध’ वे हों जिनके अपने अंदर भी नाम-जपने की सत्ता हो।

कबीर अवरह कउ उपदेसते मुख मै परि है रेतु ॥ रासि बिरानी राखते खाया घर का खेतु ॥९८॥

पद्अर्थ: अवरह कउ = और लोगों को। मै = महि, में। परि है = पड़ती है।

रेत: शब्द ‘रेतु’ स्त्रीलिंग है, पर फिर भी इसके अंत में ‘ु’ मात्रा लगी रहती है।

पद्अर्थ: बिगानी = बेगानी, औरों की। रासि = राशि, पूंजी। राखते = रक्षा करने का प्रयत्न करते हैं। खेतु = फसल, पिछली की कमाई, पिछले सारे गुण।98।

अर्थ: हे कबीर! जो (‘साधु’ सिर्फ) और लोगों को ही शिक्षा उपदेश देते हैं, पर उनके अपने अंदर कोई रस नहीं आता। ऐसे (‘साधु’) औरों की राशि-पूंजी की तो रखवाली करने का प्रयत्न करते हें, पर अपने पिछले सारे गुण समाप्त कर लेते हैं (ऐसे ‘साधु’ भी कमजोर डालियां हैं, मानवता की चोटी पर ये भी पहुँचवा नहीं सकते)।98।

नोट: परमात्मा के नाम की बातें, जैसे, खंड हैं, जो जो जीव सुनता है, उसको मीठी लगती हैं। पर जो लोग निरी और लोगों को शिक्षा देने वाले ही हैं, उनके लिए तो ये शब्द, निरी रेत ही हैं, उन्हें स्वयं कोई रस नहीं आता।

कबीर साधू की संगति रहउ जउ की भूसी खाउ ॥ होनहारु सो होइहै साकत संगि न जाउ ॥९९॥

पद्अर्थ: भूसी = छिल्ल्ड़, छिलका। जउ = जौ (अनाज)।99।

अर्थ: हे कबीर! (कह: मेरी तो ये तमन्ना है कि) मैं गुरमुखों की संगति में टिका रहूँ (चाहे मेरा कामकाज बहुत ही कम हो जाए) और मैं जौ के छिलके खा के गुजारा करूँ। (साधु-संगत में समय देने के कारण गरीबी आदि) अगर कष्ट भी आए तो आए। पर, मैं रब से टूटे हुए लोगों की संगति में ना जाऊँ।99।

कबीर संगति साध की दिन दिन दूना हेतु ॥ साकत कारी कांबरी धोए होइ न सेतु ॥१००॥

पद्अर्थ: दिन दिन = दिनो दिन, ज्यों ज्यों दिन गुजरते हैं। हेतु = (प्रभु से) प्यार। कारी = काली। कांबरी = कंबली। धोए = धोने से। सेतु = श्वेत, सफेद।100।

अर्थ: हे कबीर! गुरमुखों की संगति में रहने से दिन-ब-दिन परमात्मा के साथ प्यार बढ़ता ही बढ़ता है। पर रब से टूटा हुआ मनुष्य, जैसे, काली कंबली है जो धोने पर भी कभी सफेद नहीं होती। उसकी सोहबति में टिकने से मन की पवित्रता नहीं मिल सकती।100।

कबीर मनु मूंडिआ नही केस मुंडाए कांइ ॥ जो किछु कीआ सो मन कीआ मूंडा मूंडु अजांइ ॥१०१॥

पद्अर्थ: मूंडिआ = मुनाया। कांइ = किसलिए? व्यर्थ ही। मूंडु = सिर। अजांइ = बेकार ही, बेफायदा।

अर्थ: हे कबीर! (ये जो सिर मुना के अपने आप को ‘साधु’ समझता फिरता है, इसने) अपना मन नहीं मुनाया (मन में से विकारों की मैल दूर नहीं की) सिर के केस मुनाने से तो यह ‘साधु’ नहीं बन गया। जिस भी बुरे कर्म की प्रेरना करता है मन ही करता है (यदि ‘साधु’ बनने की खातिर ही सिर मुंडाया है तो) सिर मुनवाना बेकार है।101।

नोट: शलोक नं: 97 वाली कमजोर डालियों की तरफ इशारा है, ऐसे ‘साध’ कमजोर साधन हैं।

कबीर रामु न छोडीऐ तनु धनु जाइ त जाउ ॥ चरन कमल चितु बेधिआ रामहि नामि समाउ ॥१०२॥

पद्अर्थ: जाइ = (अगर) जाता है, (अगर) नाश होता है। त = तो। जाउ = बेशक जाए, बेशक नाश हो जाए, कोई परवाह नहीं नाश हो जाए। बेधिआ = भेदा (रहे)। रामहि नामि = राम के नाम में (रामहि = रामस्य)। समाउ = समाया रहे।

नोट: ‘जाउ’ व्याकरण अनुसार है हुकमी भविष्यत, एकवचन, अन्य-पुरुष Imperative mood, Third person Singular number.

नोट: ‘समाउ’ है हुकमी भविष्यत, एकवचन, अन्य-पुरुष।

अर्थ: हे कबीर! परमात्मा का नाम कभी ना भुलाएं, (अगर नाम स्मरण करने से हमारा) शरीर और धन नाश होने लगे तो बेशक नाश हो जाए। पर हमारा चिक्त प्रभु के सुंदर चरणों में अवश्य भेदा रहे, परमात्मा के नाम में जरूर समाया रहे।102।

कबीर जो हम जंतु बजावते टूटि गईं सभ तार ॥ जंतु बिचारा किआ करै चले बजावनहार ॥१०३॥

पद्अर्थ: जंतु = यंत्र, बाजा, शरीर का मोह, देह अध्यास। टूटि गई = टूट गई हैं। तार = (मोह की) तारें, शारीरिक मोह की तारें। किआ करै = क्या कर सकता है, कोई जोर नहीं डाल सकता। बजावनहार = बजाने वाला, जंत्र (ढोल, बाजे) को बजाने वाला, देह अध्यास के ढोल को बजाने वाला, जो मन-शरीर का मोह रूपी बाजा बजा रहा था।

अर्थ: (‘तनु धन’ जाने पर भी यदि मेरा मन ‘रामहि नामि’ में समाया रहे, तो यह सौदा बड़ा सस्ता है, क्योंकि) हे कबीर! (परमात्मा के नाम से टूट के) शारीरिक मोह का जो बाजा मैं सदा बजाता रहता था (अब नाम-जपने की इनायत से) उसकी (मोह की) सारी तारें टूट गई हैं। (देह अध्यास का ये) बेचारा बाजा (अब) क्या कर सकता है? भाव, नाम की इनायत से शारीरिक मोह मात खा गया है। (शारीरिक मोह तो कहीं रहा) वह मन ही नहीं रहा जो शारीरिक मोह का बाजा बजा रहा था।103।

नोट: यही ख्याल कबीर जी आसा राग शब्द नं: 18 में इस तरह जाहर करते हैं;

बजावनहारो कहा गइओ, जिनि इहु मंदरु कीना॥ साखी सबदु सुरति नही उपजै, खिंचि तेजु सभु लीना॥2॥

इसी ही राग के शब्द नं: 28 में भी यही विचार यूँ लिखते हैं;

जउ मै रूप कीए बहुतेरे, अब फुनि रूपु न होई॥ तागा तंतु साजु सभु थाका, राम नाम बसि होई॥१॥ अब मोहि नाचनो न आवै॥ मेरा मनु मंदरीआ न बजावै॥१॥ रहाउ॥

कबीर माइ मूंडउ तिह गुरू की जा ते भरमु न जाइ ॥ आप डुबे चहु बेद महि चेले दीए बहाइ ॥१०४॥

पद्अर्थ: माइ मूंडउ = माँ (का सिर) मुन दूँ। तिह = उस। जा ते = जिसके पास रह के, जिसके बताए हुए राह पर चल के। भरमु = मन की भटकना, शारीरिक मोह रूप भटकना, देह अध्यास। ना जाइ = ना जाए, दूर ना हो। दीए बहाइ = बहा दिए।104।

अर्थ: (ये पंडित मुझे परमात्मा के नाम में जुड़ने से रोकता है और अपने वेद आदिक कर्म पुस्तकों के कर्मकांड का ढोल बजा के मेरा गुरु-परोहित बनना चाहता है; पर) हे कबीर! मैं ऐसे गुरु की माँ का सिर मुंन दूँ, इस राह पर चलने से (शारीरिक मोह की) भटकना दूर नहीं हो सकती। ये लोग खुद भी चारों वेदों (के कर्मकांड) में पड़ कर (देह-अध्यास के गहरे पानियों में) डूबे हुए हैं, जो-जो लोग इनके पीछे लगते हैं उनको भी इन्होंने उसी मोह में बहा डाला है।104।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh