श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सागर मेर उदिआन बन नव खंड बसुधा भरम ॥ मूसन प्रेम पिरम कै गनउ एक करि करम ॥३॥

पद्अर्थ: सागर = समुंदर। मेर = सुमेर आदि पहाड़। उदिआन = जंगल। बन = जंगल। बसुधा = धरती। नव खंड = नौ टुकड़े, नौ हिस्से। नव खंड बसुधा = नौ हिस्सों वाली धरती, सारी धरती। भरम = भ्रमण, भटकना। मूसन = (मुष् = to steal, to rob = लूट लेना) हे लुटे जा रहे मनुष्य! पिरंम कै = प्यारे के (रास्ते) में। प्रेम पिरंम कै = प्यारे के प्रेम के रास्ते में। गनउ = मैं गिनता हूँ। करम = कदम। करि = कर के। एक करि करम = एक कदम करके, एक कदम के बराबर।3।

अर्थ: समुंदर, पर्वत, जंगल, सारी धरती- (इनकी यात्रा आदि की खातिर) भ्रमण करने में ही आत्मिक जीवन की ओर से लुटे जा रहे हे मनुष्य! प्रीतम-प्रभु के प्रेम के रासते में मैं तो (इस सारे रटन को) सिर्फ एक कदम के बराबर ही समझता हूँ।3।

मूसन मसकर प्रेम की रही जु अ्मबरु छाइ ॥ बीधे बांधे कमल महि भवर रहे लपटाइ ॥४॥

पद्अर्थ: मसकर = चाँदनी (मस्करी = चँद्रमा), चाँद की चाँदनी। अंबरु = आकाश। छाइ रही = छा रही है, ढक रही है, बिखर रही है। बीधे = भेदे हुए। रहे लपटाइ = लिपट रहे हैं।4।

अर्थ: हे आत्मिक जीवन लुटा रहे मनुष्य! (चँद्रमा की) चाँदनी सारे आकाश में बिखरी हुई होती है (उस वक्त) भौरे कमल-फूल में भेदे हुए बँधे हुए (कमल-फूल में ही) लिपट रहे होते हैं (इसी तरह जिस मनुष्यों के हृदय-) आकाश को प्रभु-प्रेम की चाँदनी रौशन कर रही होती है (वे मनुष्य प्रभु-प्रेम में) भेदे हुए (प्रभु के) सुंदर चरणों में जुड़े रहते हैं।4।

जप तप संजम हरख सुख मान महत अरु गरब ॥ मूसन निमखक प्रेम परि वारि वारि देंउ सरब ॥५॥

पद्अर्थ: जप = मंत्रों का जाप। तप = धूणियां तपानी। संजम = संयम, इन्द्रियों को विकारों से हटाने के जतन। हरख = खुशी। मान = इज्जत। महत = बड़ाई। अरु = और। गरब = अहंकार। मूसन = (इन जप तप आदि के जाल में फस के) आत्मिक संपत्ति लुटा रहे हे मनुष्य! निमखक = आँख झपकने जितने समय के लिए। परि = से। वारि देंउ = मैं कुर्बान करता हूँ।5।

अर्थ: (देवताओं को प्रसन्न करने की खातिर मंत्रों के) जाप, धूणियां तपानी, इन्द्रियों को वश में करने के लिए (उल्टे लटकने आदि अनेक) प्रयत्न- इन साधनों से मिली खुशी, इज्जत, महानता, इनसे मिला हुआ सुख और अहंकार- इनमें ही आत्मिक जीवन को लुटा रहे हे मनुष्य! मैं तो आँख झपकने जितने समय के लिए मिले प्रभू-प्यार से इनके सारे साधनों को कुर्बान करता हूँ।5।

मूसन मरमु न जानई मरत हिरत संसार ॥ प्रेम पिरम न बेधिओ उरझिओ मिथ बिउहार ॥६॥

पद्अर्थ: मरमु = भेद। जानई = जाने, जानता है। मरत = आत्मिक मौत मर रहा। हिरत = लुटा जा रहा। प्रेम पिरंम = प्यारे के प्यार में। बेधिआ = भेदा हुआ। मिथ = नाशवान।6।

अर्थ: हे आत्मिक जीवन लुटा रहे मनुष्य! (देख, तेरी तरह ही यह) जगत (प्रेम का) भेद नहीं जानता, (और) आत्मिक मौत मर रहा है, आत्मिक जीवन की राशि-पूंजी लुटा रहा है, प्रभु-प्रीतम के प्यारे में नहीं भेदता, नाशवान पदार्थों के कार्य-व्यवहार में ही फसा रहता है।6।

घबु दबु जब जारीऐ बिछुरत प्रेम बिहाल ॥ मूसन तब ही मूसीऐ बिसरत पुरख दइआल ॥७॥

पद्अर्थ: घबु = घर। दबु = (द्रव्य) धन पदार्थ। जारीऐ = जल जाता है। बिहाल = दुखी। तब ही = तब ही। मूसीऐ = लूटे जाते हैं।7।

अर्थ: (जब किसी मनुष्य का) घर जल जाता है, धन-पदार्थ जल जाता है (उस जयदाद से) विछुड़ा हुआ वह मनुष्य उसके मोह के कारण बहुत दुखी होता है (और पुकारता है ‘मैं लूटा गया, मैं लुट गया’)। पर आत्मिक जीवन लुटा रहे हे मनुष्य! (असल में) तब ही लुटे जाते हैं जब दया का श्रोत अकाल-पुरख मन से भूलता है।7।

जा को प्रेम सुआउ है चरन चितव मन माहि ॥ नानक बिरही ब्रहम के आन न कतहू जाहि ॥८॥

पद्अर्थ: को = का। सुआउ = स्वार्थ, जीवन उद्देश्य। जा को सुआउ = जिस का जीवन निशाना। चितव = याद। माहि = में। नानक = हे नानक! बिरही = प्रेमी। ब्रहम = परमात्मा। आन कतहू = किसी भी और जगह। जाहि = जाते।8।

अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्यों का जीवन-निशाना (प्रभु-चरणों का) प्यार है, (जिस मनुष्यों के) मन में (प्रभु के) चरणों की याद (टिकी रहती) है, वे मनुष्य परमात्मा के आशिक हैं, वे मनुष्य (‘नवखंड बसुधा भ्रम’ और ‘जप तप संजम’ आदि) और किसी भी तरफ नहीं जाते।8।

लख घाटीं ऊंचौ घनो चंचल चीत बिहाल ॥ नीच कीच निम्रित घनी करनी कमल जमाल ॥९॥

पद्अर्थ: लख = (लक्ष्य) निशाना। घनो = बहुत। बिहाल = दुखी। कीच = कीचड़। निम्रित = विनम्रता, गरीबी। घनी = बहुत ज्यादा। करनी = जीवन कर्तव्य। जमाल = कोमल सुंदरता।9।

अर्थ: हे भाई! (मनुष्य का) चंचल मन (दुनियावी बड़प्पन की) अनेक ऊँची चोटियों (पर पहुँचने) को (अपना) निशाना बनाए रखता है, और, दुखी होता है। पर कीचड़ निचली जगह है (निचली जगह बना रहता है। नीची जगह पर बने रहने वाली उसमें) बड़ी निम्रता है। इस जीवन कर्तव्य की इनायत से (उसमें) कोमल सुंदरता वाला कमल-फूल उगता है।9।

कमल नैन अंजन सिआम चंद्र बदन चित चार ॥ मूसन मगन मरम सिउ खंड खंड करि हार ॥१०॥

पद्अर्थ: नैन = आँखें। अंजन = सुरमा। सिआम = काला। बदन = मुँह। चंद्र बदन = चाँद (जैसा सुंदर) मुँह। चार = सोहाना, सुंदर। चित चार = सोहाने चिक्त वाला। मरंम = मर्म, भेद। सिउ = साथ, में। खंड खंड = टुकड़े टुकड़े। करि = कर दे। हार = हारों को, शारीरिक श्रृंगारों को, बाहरी धार्मिक दिखावों को।10।

अर्थ: हे आत्मिक जीवन को लुटा रहे मनुष्य! अगर तू (उस परमात्मा के मिलाप के) भेद में मस्त होना चाहता है जो चाँद से सुंदर मुखड़े वाला है, और सुंदर चिक्त वाला है जिसके कमल-फूल जैसे सुंदर नेत्र हैं जिस में काला सुरमा पड़ा हुआ है (भाव, जो परमात्मा अति ही सुंदर है), तो अपने इन हारों को (‘नवखंड बसुधा भ्रम’ और ‘जप तप संजम’ आदि की दिखावों के) टुकड़े-टुकड़े कर दे।10।

मगनु भइओ प्रिअ प्रेम सिउ सूध न सिमरत अंग ॥ प्रगटि भइओ सभ लोअ महि नानक अधम पतंग ॥११॥

पद्अर्थ: मगनु = मस्त। प्रिअ प्रेम सिउ = प्यारे (दीए) के प्रेम में। सूध = सुधि बुधि। सिमरत = (अपने प्यारे को) याद करते हुए। सूध न अंग = (अपने) शरीर की सुध बुध नहीं (रहती)। सभ लोअ महि = सारे जगत में। नानक = हे नानक! अधम = नीच। पतंग = पतंगा।11।

अर्थ: हे नानक! (बेचारा) नीच (सा) पतंगा (अपने) प्यारे (जलते हुए दीए) के प्यार में (इतना) मस्त हो जाता है (कि प्यारे को) याद करते हुए उसे अपने शरीर की सुध-बुध नहीं रहती (वह पतंगा जलते हुए दीए की लाट पर जल मरता है। पर अपने इस इश्क के सदका) नीच सा पतंगा सारे जगत में मशहूर हो गया है।11।


सलोक भगत कबीर जीउ के    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

कबीर मेरी सिमरनी रसना ऊपरि रामु ॥ आदि जुगादी सगल भगत ता को सुखु बिस्रामु ॥१॥

पद्अर्थ: सिमरनी = माला। रसना = जीभ। आदि = जगत के शुरू से। जुगादी = जुगादि, जगत के आरम्भ से। ता को = उस (राम) का, उस प्रभु का (नाम)। बिस्रामु = विश्राम, ठहराव, शांति, अडोलता।

अर्थ: हे कबीर! मेरी जीभ पर राम (का नाम) बस रहा है; यही मेरी माला है। जब से सृष्टि बनी है सारे भक्त (यही नाम स्मरण करते आए हैं)। उसका नाम (ही भगतों के लिए) सुख और शांति (का कारण) है।1।

कबीर मेरी जाति कउ सभु को हसनेहारु ॥ बलिहारी इस जाति कउ जिह जपिओ सिरजनहारु ॥२॥

पद्अर्थ: कउ = को। सभु को = हरेक बंदा। हसनेहारु = हँसने का आदी। बलिहारी = सदके। जिह = जिससे, जिस जाति में पैदा हो के।

अर्थ: हे कबीर! मेरी जाति पर हरेक व्यक्ति हँसता होता था (भाव, जुलाहों की जाति का हरेक व्यक्ति मजाक उड़ाता है)। पर, अब मैं इस जाति पर से सदके हूँ क्योंकि इसमें पैदा हो के मैंने ईश्वर की बँदगी की है (और आत्मिक सुख पा रहा हूँ)।2।

भाव: नीच से नीच जाति भी सराहनीय हो जाती है जब उसमें पैदा हो के कोई मनुष्य परमात्मा की भक्ति करता है। नीच जाति वाले को भी कोई नाम स्मरण से रोक नहीं सकता।

कबीर डगमग किआ करहि कहा डुलावहि जीउ ॥ सरब सूख को नाइको राम नाम रसु पीउ ॥३॥

पद्अर्थ: किआ डगमग करहि = तू क्यों डोलता है? प्रभु की भक्ति से तू क्यों जी चुराता है? कहा = और कहाँ? प्रभु के बिना और किस जगह? जीउ = प्राण, मन। नाइको = मालिक।

अर्थ: हे कबीर! (सुख की खातिर परमात्मा को बिसार के) और किस तरफ़ मन को भटका रहा है? (परमातमा की याद से) क्यों तेरा मन डाँवाडोल हो रहा है? परमात्मा के नाम का अमृत पी, यह नाम ही सारे सुखों का प्रेरक है (सारे सुख परमात्मा स्वयं ही देने योग्य है)।3।

कबीर कंचन के कुंडल बने ऊपरि लाल जड़ाउ ॥ दीसहि दाधे कान जिउ जिन्ह मनि नाही नाउ ॥४॥

पद्अर्थ: कंचन = सोना। कुंडल = कानों में पड़ने वाले ‘वाले’ अथवा कुण्डल। ऊपरि = उन कुण्डलों पर। दीसहि = दिखते हैं। दाधे = जले हुए। कान = काने, सरकड़ा। मनि = मन में।

अर्थ: हे कबीर! अगर सोने के कुण्डल बने हुए हों, उन कुण्डलों पर लाल जड़े हुए हों, (और ये ‘कुण्डल’ लोगों के कानों में पड़े हुए हों); पर जिनके मन में परमात्मा का नाम नहीं बसता, उनके यह कुण्डल जले हुए तिनकों की तरह दिखते हैं (जो बाहर से तो चमकते हैं, पर अंदर से राख होते हैं)।4।

भाव: नाम के बिना मनुष्य के अंदर सड़न बनी रहती है।

कबीर ऐसा एकु आधु जो जीवत मिरतकु होइ ॥ निरभै होइ कै गुन रवै जत पेखउ तत सोइ ॥५॥

पद्अर्थ: एकु आध = कोई विरला मनुष्य। मिरतकु = मुर्दा, दुनिया के रसों से मुर्दा, दुनियावी सुखों से बेपरवाह। निरभै = निडर, सुख मिले चाहे दुख की परवाह ना हो। रवै = स्मरण करे, याद करे। गुन रवै = प्रभु के गुण चेते करे, गुण गाए। जत = जिधर। पेखउ = मैं देखता हूं। तत = तत्र, उधर।

अर्थ: हे कबीर! ऐसा कोई विरला ही मनुष्य होता है, जो दुनियावी सुखों के प्रति बेपरवाह रहे, सुख मिले चाहे दुख आए- इस बात की परवाह ना करते हुए वह परमात्मा के गुण गाए जिसको मैं जिधर देखता हूँ उधर ही मौजूद है।5।

भाव: जब तक सांसारिक सुखों की लालसा है, स्मरण नहीं हो सकता।

कबीर जा दिन हउ मूआ पाछै भइआ अनंदु ॥ मोहि मिलिओ प्रभु आपना संगी भजहि गुोबिंदु ॥६॥

पद्अर्थ: जा दिन = (प्रभु के गुण गा के) जिस दिन, जब। हउ मूआ = ‘मैं मैं करने वाला खत्म हो गया, मैं सुखी होऊँ मैं धनी हो जाऊँ ये विचार समाप्त हो गया। पाछै = अहंकार खत्म होने पर। मोहि = मुझे। आपना = मेरा प्यारा। संगी = साथी, मेरी ज्ञान-इंद्रिय। भजहि = स्मरण करने लग जाते हैं।

नोट: ‘गुोबिंदु’ अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘गोबिंद’, यहां ‘गुबिंद’ पढ़ना है।

अर्थ: हे कबीर! (प्रभु के गुण याद करके) जब मेरा ‘मैं-मैं’ करने वाला स्वभाव खत्म हो गया, तब मेरे अंदर सुख बन गया। (निरा सुख ही ना बना) मुझे मेरा प्यारा ईश्वर मिल गया, और अब मेरी साथी ज्ञान-इंद्रिय भी परमात्मा को याद करती हैं (ज्ञान-इंद्रिय की रुचि ईश्वर की ओर हो गई है)।6।

भाव: सुख ‘हउ’ (मैं-मैं) के तयाग में है, स्मरण भी ‘हउ’ को छोड़ने से हो सकता है।

कबीर सभ ते हम बुरे हम तजि भलो सभु कोइ ॥ जिनि ऐसा करि बूझिआ मीतु हमारा सोइ ॥७॥

पद्अर्थ: हम तजि = मेरे बिना। सभु कोइ = हरेक जीव। जिनि = जिस मनुष्य ने। ऐसा करि = इस तरह। बूझिआ = समझ लिया, सूझ आ गई है।

अर्थ: हे कबीर! (हरि-नाम स्मरण करके अब मेरा ‘मैं-मैं’ करने वाला स्वभाव हट गया है, मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि) मैं सबसे बुरा हूँ, हरेक जीव मुझसे अच्छा है; (सिर्फ यही नहीं) जिस-जिस भी मनुष्य ने इस तरह की समझ प्राप्त कर ली है, वह भी मुझे अपना मित्र मालूम होता है।

नोट: इस शलोक में पिछले शलोक की कुछ व्याख्या सी है। ‘हउ मूआ’ के ख्याल को समझाया है। ‘हउ’ के भुलेखे में मनुष्य अपने ही अंदर गुण देखता है; पर जब ‘हउ मूआ’ वाली हालत बनती है, तो यह पहले वाला स्वभाव बिल्कुल ही उलट जाता है, फिर दूसरों में भी गुण दिखाई देने लग जाते हैं।

कबीर आई मुझहि पहि अनिक करे करि भेस ॥ हम राखे गुर आपने उनि कीनो आदेसु ॥८॥

पद्अर्थ: आई = (यह अहंकार मुझे कुमार्ग पर डालने) आया (‘हउ’ आई)। मुझहि पहि = मेरे पास भी (जैसे यह औरों के पास आती है)। भेस = वेश। करे = कर कर, बार बार करके। अनिक...भेस = कई भेस धार के, कई ढंग बना के, कई तरीकों से, कई शक्लों में। हम = मुझे। उनि = उस (अहंकार) ने। आदेसु = नमस्कार। उनि...आदेसु = उस अहंकार ने नमस्कार की, वह अहंम् झुक गया, वह अहंकार बदल के निम्रता बन गई।

अर्थ: हे कबीर! (ये अहंकार जैसे और लोगों को भरमाने आता है वैसे ही) मेरे पास भी कई शक्लों में आया। पर, मुझे प्यारे सतिगुरु ने (इससे) बचा लिया, और वह ‘अहम्’ बदल के विनम्रता बन गई।8।

नोट: धन, जवानी, विद्या, राज, धरम–करम आदि मनुष्य में ‘अहंकार’ पैदा कर देते हैं। जिस उद्यमों को मनुष्य बहुत अच्छे समझ के करता है वह भी कई बार अहंकार में ले आते हैं। अमृत बेला में उठ के प्रभु को याद करना, जरूरतमंदों की सेवा करनी आदि भले काम हैं, पर अगर मनुष्य रक्ती भर भी अचेत हो जाए, तो यही गुण अहंकार का अवगुण पैदा कर देते हैं कि ‘मैं’ धर्मी हूँ, ‘मैं’ दानी हूँ।

कबीर सोई मारीऐ जिह मूऐ सुखु होइ ॥ भलो भलो सभु को कहै बुरो न मानै कोइ ॥९॥

पद्अर्थ: सोई = इस अहंकार को ही। जिह मूऐ = जिस अहंकार के मरने से। सभु को = हरेक जीव। भलो भलो कहै = (अहंकार के त्याग को हरेक जीव) सराहता है। कोइ बुरो न मानै = (अहंकार के मारने को) कोई मनुष्य बुरा काम नहीं कहता।

अर्थ: हे कबीर! इस अहम् को ही मारना चाहिए, क्योंकि इसको मारने से सुख मिलता है। अहंकार के त्याग को हरेक मनुष्य सराहता है, कोई मनुष्य इस काम को बुरा नहीं कहता।9।

कबीर राती होवहि कारीआ कारे ऊभे जंत ॥ लै फाहे उठि धावते सि जानि मारे भगवंत ॥१०॥

पद्अर्थ: कारीआ = कालियां, अंधेरी। ऊभे = उठ खड़े होते हैं, चल पड़ते हैं। कारे जंत = काले जीव, काले दिलों वाले लोग, चोर आदि विकारी मनुष्य। लै = ले के। उठि धावते = उठ दौड़ते हैं। सि = ऐसे लोग। जानि = जान ले, समझ ले, यकीन रख। मारे भगवंत = ईश्वर के मारे हुए, ईश्वर से बहुत दूर।

अर्थ: हे कबीर! जब रातें अंधेरी होती हैं, तो चोर आदि काले दिल वाले लोग (अपने घरों से) उठ खड़े होते हैं, फंदे ले के (दूसरों का घर लूटने के लिए) चल पड़ते हैं, पर यकीन जानो ऐसे लोग रब की ओर से मारे हुए हैं।10।

नोट: शलोक नं: 9 में लिखते हैं कि जो मनुष्य अपने अंदर से अहंकार को मारता है वही सुखी है। जगत भी इस काम को सराहता है। इसके मुकाबले ऐसे लोग भी हैं जो और लोगों को मारने को चल पड़ते हैं, जान तो अपनी भी वे तली पर रख के चलते हैं, पर ये दलेरी धिक्कारयोग्य है। जगत भी धिक्कारें डालता है, और उनके दिल भी काले ही रहते हैं। ऐसे रब से विछुड़े हुए लोगों को भला सुख कहाँ?

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh