श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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बुढा होआ सेख फरीदु क्मबणि लगी देह ॥ जे सउ वर्हिआ जीवणा भी तनु होसी खेह ॥४१॥

पद्अर्थ: देह = शरीर। खेह = राख, मिट्टी। होसी = हो जाएगा।

अर्थ: (‘विसु गंदलों’ के पीछे दौड़-दौड़ के ही) शेख फरीद (अब) बुढा हो गया है, शरीर काँपने लग गया है। अगर सौ बरस भी जीवन मिल जाए, तो भी (आखिर को) शरीर मिट्टी हो जाएगा (और इन ‘विसु गंदलों’ से साथ टूट जाएगा)।41।

फरीदा बारि पराइऐ बैसणा सांई मुझै न देहि ॥ जे तू एवै रखसी जीउ सरीरहु लेहि ॥४२॥

पद्अर्थ: बार = दरवाजे पर। बारि पराइऐ = पराए दरवाजे पर। बैसणा = बैठना। सांई = हे सांई! एवै = इस तरह, (भाव, दूसरों के दरवाजे पर)। सरीरहु = शरीर में से। जीउ = जिंद।

अर्थ: हे फरीद! (कह:) हे साई! (इन दुनिया के पदार्थों की खातिर) मुझे पराऐ दरवाजे पर ना बैठाना। पर, अगर तूने ऐसे ही रखना है (भाव, अगर तूने मुझे दूसरों का मुथाज बनाना है) तो मेरे शरीर में से प्राण निकाल ले।42।

कंधि कुहाड़ा सिरि घड़ा वणि कै सरु लोहारु ॥ फरीदा हउ लोड़ी सहु आपणा तू लोड़हि अंगिआर ॥४३॥

पद्अर्थ: कंधि = कांधे पर। सिरि = सिर पर। वणि = वन में, जंगल में। कैसरु = बादशाह। हउ = मैं। सहु = पति। लोड़ी = मैं ढूँढता हूँ। अंगिआर = भखते कोयले।

अर्थ: कंधे पर कोहाड़ा और सिर पर घड़ा (रख के) लोहार जंगल में बादशाह (बना होता) है (क्योंकि जिस पेड़ पर चाहे कुहाड़ा चला सकता है) (इसी तरह मनुष्य जगत-रूप जंगल में सरदार है)। हे फरीद! (कह:) मैं तो (इस जगत रूप जंगल में) अपने मालिक-प्रभु को तलाश रहा हूँ, और, तू, (हे जीव! लोहार की तरह) कोयले (लोहार लकड़ी से कोयला बनाता है) ढूँढ रहा है (भाव, ‘विसु गंदल’-रूपी कोयले ढूंढता है)।43।

नोट: अब तक सारे टीकाकार इस शलोक की पहली तुक के आखिरी हिस्से का पद–विच्छेद इस तरह करते चले आ रहे हैं: ‘वणि कै सरु’ और इसका अर्थ करते हैं:‘वन के सिर पर’। पर, यह पद–विच्छेद भी गलत है और इसका अर्थ भी गलत है। शलोक की पहली तुक में आए शब्द ‘कंधि’ और ‘सिरि’ का अर्थ है ‘कांधे पर’ व्याकरण के अनुसार यह शब्द ‘अधिकरण कारक, एक वचन’ है। अब तक पहले आ चुके शलोकों में निम्न-लिखित शब्दों पर भी ध्यान दें;

शलोक नं: १ कै गलि– किसके गले में?

शलोक नं: 7 घरि –घर में।

शलोक नं: 13 चिति– चिक्त में।

शलोक नं: 16 दरि– दर पर।

शलोक नं: 18 तुटै छपरि– टूटे हुए छप्पर पर।

शलोक नं: 19 वणि– वन में।

शलोक नं: 36 जितु तनि– जिस शरीर में।

शलोक नं: 39 दरि– दर पर।

शलोक नं: 42 बारि– बार पर, दरवाजे पर।

पर, वणि कै सरु’ में शब्द ‘सरु’ का जोड़ ऊपर दिए शब्दों की तरह नहीं है। इसके आखिर में ‘ि’ की जगह ‘ु’ मात्रा है, जैसे इसी ही शलोक में शब्द ‘लोहारु’ और ‘सहु’ हैं। शब्द ‘लोहारु’ का अर्थ ‘लोहार में’ अथवा ‘लोहार पर’ नहीं हो सकता; ‘सहु’ का अर्थ ‘सहु में’ अथवा ‘सहु पर’ नहीं हो सकता। इसी ही शलोक ‘सरु’ का अर्थ ‘सिर पर’ नहीं हो सकता। इसी ही शलोक में शब्द ‘सिरि’ और ‘सरु’ हैं। दोनों के जोड़ स्पष्ट तौर पर अलग-अलग दिख रहे हैं, अर्थ दोनों का एक नहीं हो सकता।

जैसे शब्द ‘कंधि’ और ‘सिरि’ को किसी ‘संबंधक’ की जरूरत नहीं, आखिरी मात्रा (ि) के साथ इनका अर्थ है ‘कांधे पर’, ‘सिर पर’; इसी तरह शब्द ‘वणि’ को भी किसी संबंधक की आवश्यक्ता नहीं, इसका अर्थ है ‘वन में’। सो, शब्द ‘कै’ का कोई संबंध शब्द ‘वणि’ के साथ नहीं है। सही पद्–विच्छेद है ‘वणि+कैसरु (भाव,) ‘जगत–रूप वन के बादशाह’।

कई सज्जन ‘घड़े’ और ‘कुहाड़े’ का आपस में संबंध समझने में मुश्किल महसूस कर रहे हैं। पर, साधारण सी बात है। जिस मजदूर ने सारा दिन किसी जंगल में जा के काम करना है, उसने रोटी पानी का प्रबंध भी घर से ही करके चलना है। सिख इतिहास में गुरु हरिगोबिंद साहिब के वक्त भाई साधु और भाई रूपे की साखी प्रसिद्ध है। ये भी जंगल में से लकड़ियाँ काटने का काम करते थे। घर से ही पानी का घड़ा ला के किसी पेड़ के साथ लटका के रखते थे। एक दिन गर्मियों की ऋतु में यह पानी बहुत ही ठंडा देख के भाई साधु और भाई रूपे के दिल में तमन्ना पैदा हुई कि खुद पीने से पहले ये ठंडा पानी गुरु हरि गोबिंद साहिब को भेटा करें। उन दिनों गुरु हरि गोबिंद साहिब जी डरोली गए हुए थे। दिलों का दिलों से मेल होता है। इनकी तीव्र खींच महसूस कर के सतिगुरु जी दोपहर के वक्त घोड़े पर चढ़ कर इनके पास पहुँचे थे। जिस इलाके में फरीद जी रहते थे, उधर गर्मी बहुत है। जंगल भी तब बहुत थे, और पानी का प्रबंध कहीं आस-पास नहीं होता था। फरीद जी ने उन जंगलों में से लकड़ियों काटने वाले लोहारों को कई बार घर से पानी का घड़ा ले जाते हुए देखा होगा।

फरीदा इकना आटा अगला इकना नाही लोणु ॥ अगै गए सिंञापसनि चोटां खासी कउणु ॥४४॥

पद्अर्थ: अगला = बहुत ज्यादा। लोणु = नमक। आगै = परलोक में। सिंञापसन्हि = (सिआंपसनि, सिआणे जाणा = पहचाने जाना) पहचाने जाएंगे। खासी = खाएगा।44।

नोट: अक्षर ‘नि्’ के अंत में आधा अक्षर ‘ह’ है।

अर्थ: हे फरीद! कई लोगों के पास आटा बहुत है (‘विसु गंदलें’ बहुत हैं, दुनिया के पदार्थ बहुत हैं), एक के पास (इतना भी) नहीं जितना (आटे में) नमक (डाला जाता) है। (मनुष्य के जीवन की सफलता का पैमाना यह ‘विसु गंदलें’ नहीं), आगे जा के (कर्मों पर) पहचान होगी कि मार किस को पड़ती है।44।

पासि दमामे छतु सिरि भेरी सडो रड ॥ जाइ सुते जीराण महि थीए अतीमा गड ॥४५॥

पद्अर्थ: पासि = पास (जिन्हों के)। दमामे = धौंसे। छतु = छत्र। सिरि = सिर पर (देखों शलोक नं: 43)। भेरी = तूतीआं। सडो = बुलावा। रड = एक ‘छंत’ का नाम है जो स्तुति के लिए बरता जाता है (देखो सवैये महले चउथे के, भाट नल्ह, छंत नं: 1/5 से 8/12)। जीराण = मसाण। अतीम = यतीम। गड थीए = रल मिल गए।

अर्थ: (इन ‘विसु गंदलों’ का क्या माण?) (जिस लोगों के) पास धौंसे (बजते थे), सिर पर छत्र (झूलते थे), तूतीआं (बजती थीं) स्तुति के छंद (गाए जाते हैं), वह भी आखिर मसाणों में जा के सो गए, और यतीमों के साथ जा मिले (भाव, यतीमों जैसे ही हो गए)।45।

फरीदा कोठे मंडप माड़ीआ उसारेदे भी गए ॥ कूड़ा सउदा करि गए गोरी आइ पए ॥४६॥

पद्अर्थ: मंडप = शामियाने। माढ़ीआ = चुबारों वाले महल। कूड़ा = झूठा, संग ना निभने वाला। गोरी = गोर में, कब्रों में।

अर्थ: हे फरीद! (‘विसु गंदलों’ के व्यापारियों की ओर देखो) घर महल-माड़ियां उसारने वाले भी (इनको छोड़ के) चले गए। वही सौदा किया, जो साथ नहीं निभा और (आखिर में खाली हाथ) कब्रों में जा पड़े।

फरीदा खिंथड़ि मेखा अगलीआ जिंदु न काई मेख ॥ वारी आपो आपणी चले मसाइक सेख ॥४७॥

पद्अर्थ: खिंथड़ि = गोदड़ी। मेखा = मेखां, कीलें, टांके, तरोपे। अगलीआ = बहुत (देखें शलोक नं 44 ‘अगला’)। मसाइक = (शेख का बहुवचन) कई शेख।

नोट: ‘जिंदु’ शब्द का सदा ‘ु’ के साथ अंत होता है, देखो ‘गुरबाणी व्याकरण’।

अर्थ: हे फरीद! ये ‘विसु गंदलें’ तो कहां रहीं, इस अपनी जिंद की भी कोई पायां नहीं (इससे तो नकारी गोदड़ी का ही ज्यादा ऐतबार हो सकता है, क्योंकि) गोदड़ी को कई टांके लगे हुए हैं, पर जिंद को एक भी टाँका नहीं (क्या पता, किस वक्त शरीर से अलग हो जाए?) बड़े-बड़े कहलवाने वाले शेख आदि सब अपनी-अपनी बारी में यहाँ से चले गए।47।

फरीदा दुहु दीवी बलंदिआ मलकु बहिठा आइ ॥ गड़ु लीता घटु लुटिआ दीवड़े गइआ बुझाइ ॥४८॥

पद्अर्थ: दुह दीवी बलंदिआ = अभी ये दोनों दीए जलते ही थे, (भाव,) इन दोनों आँखों के सामने ही। मलकु = (मौत का) फरिश्ता। गड़ु = गढ़, किला (शरीर रूप)। घटु = हृदय, अंतहकरण। लीता = ले लिया, कब्जा कर लिया।

अर्थ: हे फरीद! इन दोनों आँखों के सामने (इन दोनों दीयों के जलते ही) मौत का फरिश्ता (जिस भी व्यक्ति के पास) आ बैठा, उसने उसके शरीर-रूप किले पर कब्जा कर लिया, अतंहकरण लेट लिया (भाव, जिंद काबू कर ली) और (इन आँखों के) दीए बुझा गया।48।

फरीदा वेखु कपाहै जि थीआ जि सिरि थीआ तिलाह ॥ कमादै अरु कागदै कुंने कोइलिआह ॥ मंदे अमल करेदिआ एह सजाइ तिनाह ॥४९॥

पद्अर्थ: जि = जो कुछ। थीआ = हुआ, बीता। सिरि = सिर पर (देखो शलोक नं: 43)। कुंनी = मिट्टी की हांडी। सजाइ = दण्ड। तिनाह = उनको। अमल = काम, करतूतें।

अर्थ: हे फरीद! देख! जो हालत कपास की होती है (भाव, बेलने में बेली जाती है), जो तिलों के सिर पर बीतती है (कोल्हू में पीढ़े जाते हैं), जो कमाद, कागज़, मिट्टी की हांडी और कोयलों के साथ बरतती है, यह सज़ा उन लोगों को मिलती है जो (इन ‘विसु गंदलों’ की खातिर) बुरे काम करते हैं (भाव, ज्यों-ज्यों दुनियावी पदार्थों की खातिर बुरे काम करते हैं, त्यों त्यों बहुत दुखी होते हैं)।49।

फरीदा कंनि मुसला सूफु गलि दिलि काती गुड़ु वाति ॥ बाहरि दिसै चानणा दिलि अंधिआरी राति ॥५०॥

पद्अर्थ: कंनि = कंधे पर। सूफु = काली खफनी। गलि = गले में। दिलि = दिल में।

अर्थ: हे फरीद! (तेरे) कांधे पर मुसला है, (तूने) गले में काली खफनी (डाली हुई है), (तेरे) मुँह में गुड़ है; (पर) दिल में कैंची है (भाव, बाहर लोगों को दिखाने के लिए फकीरी भेस है, मुँह से भी लोगों के साथ मीठा बोलता है, पर दिल से ‘विसु गंदलों’ की खातिर खोटा है सो) बाहर तो रौशनी दिख रही है (पर) दिल में अंधेरी रात (बनी हुई) है।50।

फरीदा रती रतु न निकलै जे तनु चीरै कोइ ॥ जो तन रते रब सिउ तिन तनि रतु न होइ ॥५१॥

पद्अर्थ: रती = रक्ती जितना भी। रतु = लहू। रते = रंगे हुए। सिउ = साथ। तिन तनि = उनके तन में।

नोट: 'रतु' शब्द ‘स्त्रीलिंग’ है, गुरमुखी में इसके अंत में ‘ु’ सदा रहता है; इस जैसे और शब्द जो इन शलोकों में ही आए हैं, ये हैं: जिंदु, खंडु, मैलु, विसु, खाकु।

अर्थ: हे फरीद! जो लोग रब के साथ रंगे होते हैं (भाव, रब के प्यार में रंगे होते हैं), उनके शरीर में (‘विसु गंदलों’ का मोह रूप) लहू नहीं होता, अगर कोई (उनका) शरीर चीरे (तो उसमें से) रक्ती जितना भी लहू नहीं निकलता (पर, हे फरीद! तूने तो मुसले और खफनी आदि से निरा बाहर का ही ख्याल रखा हुआ है)।51।

मः ३ ॥ इहु तनु सभो रतु है रतु बिनु तंनु न होइ ॥ जो सह रते आपणे तितु तनि लोभु रतु न होइ ॥ भै पइऐ तनु खीणु होइ लोभु रतु विचहु जाइ ॥ जिउ बैसंतरि धातु सुधु होइ तिउ हरि का भउ दुरमति मैलु गवाइ ॥ नानक ते जन सोहणे जि रते हरि रंगु लाइ ॥५२॥

पद्अर्थ: सभो = सारा ही। रतु बिनु = लहू के बिना। तंनु = तन, शरीर। सह = पति। सह रते = पति के साथ रंगे हुए। तितु तनि = उस शरीर में। तितु = उस में। भै पइऐ = डर में पड़ने से, डर में रहने से। खीणु = पतला, लिस्सा। जाइ = दूर हो जाती है। बैसंतरि = आग में। सुधु = साफ। जि = जो। रंगु = प्यार।

नोट: ‘रतु बिनु’ को ध्यान दें। जो शब्द अपनी संरचना अनुसार सदा ‘ु’ मात्रा से अंत होता है, उनकी ये ‘ु’ की मात्रा ‘संबंधक’ के साथ भी टिकी रहती है। यहाँ शब्द ‘रतु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘बिनु’ के होने के बावजूद कायम है।

अर्थ: यह सारा शरीर लहू है (भाव, सारे शरीर में खून मौजूद है), लहू के बिना शरीर रह नहीं सकता (फिर, शरीर को चीरने से, भाव, शरीर की पड़ताल करने से, कौन सा लहू नहीं निकलता?) जो लोग अपने पति (प्रभु के प्यार) में रंगे हुए हें (उनके) इस शरीर में लालच-रूप लहू नहीं होता।

अगर (परमात्मा के) डर में जीएं, तो शरीर (इस तरह) कमजोर हो जाता है (कि) इसमें से लोभ रूपी लहू निकल जाता है। जैसे आग में (डालने से सोना आदि) धातु साफ हो जाती है; इसी तरह परमात्मा का डर (मनुष्य की) बुरी मति-रूपी मैल को काट देता है। हे नानक! वे लोग सोहणे हैं जो परमात्मा के साथ नेहु लगा के (उसके नेहु में) रंगे हुए हैं।52।

नोट: फरीद जी ने जिस ‘रतु’ का वर्णन शलोक नं: 51 में किया है, उसको शलोक नं: 50 में शब्द ‘दिलि काती’ में इशारे मात्र ही बताया है। उसको और स्पष्ट करने के लिए गुरु अमरदास जी ने ये शलोक उचारा।

फरीदा सोई सरवरु ढूढि लहु जिथहु लभी वथु ॥ छपड़ि ढूढै किआ होवै चिकड़ि डुबै हथु ॥५३॥

पद्अर्थ: सरवरु = सोहणा तालाब (सर = तालाब। वर = श्रेष्ठ)। वथु = (असल) चीज़। छपड़ि ढूढै = अगर छप्पड़ ढूँढें। चिकड़ि = कीचड़ में।53।

अर्थ: हे फरीद! वही सुंदर तालाब ढूँढ, जिसमें से (असल) चीज़ (नाम-रूप मोती) मिल जाए, छप्पड़ तलाशे कुछ नहीं मिलता, (वहाँ से तो) कीचड़ में (ही) हाथ डूबता है।53।

नोट: शलोक नं: 50 में बताए भेखी को इस शलोक में ‘छप्पर’ जैसा बताया है, और शलोक नं: 51 में बताए सच्चे प्यार वाले बंदे को यहाँ ‘सरवरु’ कहा है।

फरीदा नंढी कंतु न राविओ वडी थी मुईआसु ॥ धन कूकेंदी गोर में तै सह ना मिलीआसु ॥५४॥

पद्अर्थ: नंढी = जवान स्त्री ने। न राविओ = को पाने का सुख नहीं पाया, नहीं भोगा। वडी थी = बुढी हो के। मुईआस = मुईआ सु, वह मर गई। धन = स्त्री। गोर में = कब्र में। तै = तुझे। सह = हे सह! हे पति! नामिलिआसु = वह ना मिली।54।

अर्थ: हे फरीद! जिस जवान (जीव-) स्त्री ने (परमात्मा-) पति को नहीं पाया (भाव, जिस जीव ने जवानी के वक्त रब को ना स्मरण किया), वह (जीव-) स्त्री जब बुढी हो के मर गई तो (फिर) कब्र में तरले लेती है (भाव, मरने के बाद जीव पछताता है) कि हे (प्रभु-) पति! मैं तुझे (समय सिर) ना मिली।54।

फरीदा सिरु पलिआ दाड़ी पली मुछां भी पलीआं ॥ रे मन गहिले बावले माणहि किआ रलीआं ॥५५॥

पद्अर्थ: पलिआ = सफेद हो गया। रे गहिले = हे गाफ़िल! बावला = कमला। रलीआं = मौजें।55।

अर्थ: हे फरीद! सिर सफेद हो गया है, दाढ़ी सफेद हो गई है, मूछें भी सफेद हो गई हैं। हे गाफिल और कमले मन! (अभी तू दुनिया की ही) मौजें क्यों ले रहा है?।55।

फरीदा कोठे धुकणु केतड़ा पिर नीदड़ी निवारि ॥ जो दिह लधे गाणवे गए विलाड़ि विलाड़ि ॥५६॥

पद्अर्थ: धुकणु = दौड़ना। केतड़ा = कहाँ तक? नीदड़ी = अनुचित नींद। निवारि = दूर कर। दिह = दिन। गाणवे दिह = (उम्र के) गिनती के दिन। लधे = मिले। विलाड़ि = दौड़ के, छलांगे लगा के, (भाव,) बड़ी जल्दी जल्दी।56।

अर्थ: हे फरीद! कोठे की दौड़ कहाँ तक (भाव, कोठे पर दौड़ लंबी नहीं हो सकती, इसी तरह रब से गाफिल कब तक रहेगा? उम्र आखिर खत्म हो जाएगी, इसलिए) रब (के प्रति) ये अनुचित (गफ़लत की) नींद दूर कर दे। (उम्र के) जो गिनती के दिन मिले हुए हैं वह छलांगे मार-मार के खत्म होते जा रहे हैं।56।

फरीदा कोठे मंडप माड़ीआ एतु न लाए चितु ॥ मिटी पई अतोलवी कोइ न होसी मितु ॥५७॥

पद्अर्थ: मंडप = महल। एतु = इस में, इन (महल माड़ियों के सिलसिले) में।

अर्थ: हे फरीद! (यह जो तेरे) घर और महल-माढ़ियां (हैं, इनके) इस (सिलसिले) में चिक्त ना जोड़। (मरने पर जब कब्र में तेरे ऊपर) मनों भार मिट्टी पड़ेगी तब (इनमें से) कोई भी तेरा साथी नहीं बनेगा।57।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh