श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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फरीदा मंडप मालु न लाइ मरग सताणी चिति धरि ॥ साई जाइ सम्हालि जिथै ही तउ वंञणा ॥५८॥

पद्अर्थ: मरग = मौत। सताणी = स+ताणी, ताण वाली, बल वाली। चिति = चिक्त में। साई = वही। जाइ = जगह। जिथै ही = जहाँ आखिर को। वंञणा = जाना। मालु = धन।

नोट: ‘समा्लि’ में ‘म’ के नीचे आधा ‘ह’ है (सम्हालि)।

अर्थ: हे फरीद! (सिर्फ) महल-माड़ियों और धन को चिक्त में ना टिकाए रख, (सबसे) बलवान मौत को चिक्त में रख (याद रख)। वह जगह भी याद रख आखिर तूने जाना है।58।

फरीदा जिन्ही कमी नाहि गुण ते कमड़े विसारि ॥ मतु सरमिंदा थीवही सांई दै दरबारि ॥५९॥

पद्अर्थ: जिन्ही कंमी = जो कामों में। कंमड़े = कड़वे काम। थीवई = तू होएं। दै = (शब्द ‘दे’ की जगह ‘दै’ क्यों हो गया है, ये बात समझने के लिए पढ़ें मेरा ‘गुरबाणी व्याकरण’)। दरबारि = दरबार में। दै दरबारि = के दरबार में।

नोट: ‘जिनी्’ में अक्षर ‘न’ के नीचे आधा ‘ह’ है (जिन्ही)।

अर्थ: हे फरीद! वह बुरे काम छोड़ दे, जिस कामों में (जिंद के लिए कोई) लाभ नहीं है, कहीं ऐसा ना हो पति (परमात्मा) के दरबार में शरमिंदा होना पड़े।59।

फरीदा साहिब दी करि चाकरी दिल दी लाहि भरांदि ॥ दरवेसां नो लोड़ीऐ रुखां दी जीरांदि ॥६०॥

पद्अर्थ: भरांदि = (‘विसु गंदलों’ की खातिर) भ्रम, भ्रांति, संशय, भटकना। लाहि = उतार के, दूर कर के। चाकरी = नौकरी, (भाव,) बँदगी। लोड़ीऐ = चाहिए। जीरांदि = धीरज, सब्र। दरवेस = फकीर। नो = को।

अर्थ: हे फरीद! (इन ‘विसु गंदलों’ की खातिर अपने) दिल की भटकना दूर करके मालिक (-प्रभु) की बँदगी कर। फकीरों को (तो) पेड़ों जैसा जिगरा करना चाहिए।60।

फरीदा काले मैडे कपड़े काला मैडा वेसु ॥ गुनही भरिआ मै फिरा लोकु कहै दरवेसु ॥६१॥

पद्अर्थ: मैडे = मेरा। वेसु = पहरावा, पोशाक। गुनही = गुनाहों से। फिरां = फिरूँ, फिरता हूं। लोकु = जगतु। कहै = कहता है।

अर्थ: हे फरीद! (मेरे अंदर पेड़ों वाला धीरज नहीं है जो फकीरों के अंदर चाहिए थी फकीरों की तरह) मेरे कपड़े (तो) काले हैं, मेरा भेस काला है (पर ‘विसु गंदलों’की खातिर ‘भरांदि’ अथवा भ्रम के कारण) मैं गुनाहों से भरा हुआ फिरता हूँ और जगत फकीर कहता है।61।

तती तोइ न पलवै जे जलि टुबी देइ ॥ फरीदा जो डोहागणि रब दी झूरेदी झूरेइ ॥६२॥

पद्अर्थ: तती = जली हुई। तोइ = पानी में। पलवै = पलरती है, प्रफुल्लित होती है। जलि = जल में। डोहागणि = दोहागनि, दुर्भागनि, बुरे भागयों वाली, त्यागी हुई। झूरेदी झूरेइ = सदा ही झुरती है। जे = चाहे।

अर्थ: पानी में जली हुई (खेती फिर) हरी नहीं होती, भले ही (उस खेती को) पानी में (कोई) डुबोए रखे। हे फरीद! (इस तरह जो जीव-स्त्री अपनी ओर से रब के राह पर चलती हुई भी) रब से विछुड़ी हुई है, वह सदा ही दुखी होती है, (भाव, फकीरी लिबास होते हुए भी अगर मन गुनाहों से भरा रहा, दरवेश बन के भी अगर ‘विसु गंदलों’ की खातिर मन में ‘भरांदि’ अथवा भटकना बनी रही, सत्संग में रह के भी अगर मन शंकाओं में रहा, तो भाग्यों में सदा झुरना ही झुरना (चिन्ता-फिक्र) है)।62।

जां कुआरी ता चाउ वीवाही तां मामले ॥ फरीदा एहो पछोताउ वति कुआरी न थीऐ ॥६३॥

पद्अर्थ: वीवाही = ब्याही, जब ब्याही गई। मामले = जंजाल। पछोताउ = पछतावा। वति = फिर, दोबारा। न थीऐ = नहीं हो सकती। जां = जब। तां = तब।

अर्थ: जब (लड़की) कँवारी होती है तब (उसको विवाह का) चाव होता है (पर जब) ब्याही जाती है तो जंजाल पड़ जाते हैं। हे फरीद! (उस वक्त) यही पछतावा होता है कि वह दोबारा क्वारी नहीं हो सकती (भाव, उसके पहले वाला चाव उसके मन में पैदा नहीं हो सकता)।63।

नोट: शलोक नं: 62 वाले ख्याल को ही यहाँ एक लड़की के जीवन की मिसाल दे के समझाया है।

नोट: अगर सत्संग में रोजाना आ के, अगर फकीरी की राह पर चलते हुए, अगर अपनी ओर से धार्मिक जीवन व्यतीत करते हुए, मन में ‘विसु गंदलों’ की खातिर ‘भरांदि’ (भटकना) बनी रहे, तो सारे धार्मिक उद्यम बाहर–मुखी हो जाते हैं। ऐसा धार्मिक जीवन बल्कि ये नुक्सान करता है कि वह पहला धार्मिक चाव मारा ही जाता है, उसका दोबारा प्रफुल्लित होना कठिन हो जाता है। ये विचार शलोक नं: 60 से लेकर 63 तक चला आ रहा है।

कलर केरी छपड़ी आइ उलथे हंझ ॥ चिंजू बोड़न्हि ना पीवहि उडण संदी डंझ ॥६४॥

पद्अर्थ: केरी = की। आइ उलथे = आ उतरे। हंझ = हँस। चिंजू = चोंच। बोड़न्हि = डुबोते हैं। संदी = की। डंझ = तमन्ना, चाहत।

अर्थ: कल्लर की छपरी में हँस आ उतरते हैं, (वे हँस छपड़ी में अपनी) चोंच डुबोते हैं, (पर, वे मैला पानी) नहीं पीते, उनको वहाँ से उड़ जाने की चाहत बनी रहती है।64।

नोट: उपरोक्त 4 शलोकों में उनका हाल बताया है; जो सत्संग में रहते हुए भी सत्संग के आनंद से वंचित रहे, और आखिर में अंदर से चाव खत्म हो गया। शलोक नं: 64 से लेकर शलोक नं: 65 में असल सत्संगियों का हाल है।

हंसु उडरि कोध्रै पइआ लोकु विडारणि जाइ ॥ गहिला लोकु न जाणदा हंसु न कोध्रा खाइ ॥६५॥

पद्अर्थ: उडि = उड़ के। कोध्रै = कोधरे के खेत में। पइआ = जा पड़ा, जा बैठा। विडारणि = उड़ाने के लिए। गहला = कमला। लोकु = जगत, (भाव) जगत के लोग।

अर्थ: हँस उड़ के कोधरे के खेत में जा बैठा तो दुनिया के लोग उसको उड़ाने जाते हैं कमली दुनिया ये नहीं जानती कि हँस कोधरा नहीं खाता।65।

चलि चलि गईआं पंखीआं जिन्ही वसाए तल ॥ फरीदा सरु भरिआ भी चलसी थके कवल इकल ॥६६॥

पद्अर्थ: चलि चलि गईआं = अपनी अपनी बारी आने पर चली गई। पंखीआं = पक्षियों की डारें। तल = तालाब। वसाए = रौणक दे रहे थे। सरु = सरोवर, तालाब। चलसी = सूख जाएगा। थके = कुम्हला गए। इकल = पीछे अकेले रहे हुए।

अर्थ: हे फरीद! जिस (जीव-) पंछियों की डारों ने इस (संसार-) तालाब को सुहावना बनाया हुआ है, वह अपनी-अपनी बारी (इसको छोड़ के) चलते जा रहे हैं। (यह जगत-) सरोवर भी सूख जाएगा और पीछे रहने वाले अकेले कमल फूल भी कुम्हला जाएंगे (भाव, सृष्टि के ये सुंदर पदार्थ सब नाश हो जाएंगे)।66।

फरीदा इट सिराणे भुइ सवणु कीड़ा लड़िओ मासि ॥ केतड़िआ जुग वापरे इकतु पइआ पासि ॥६७॥

पद्अर्थ: इट सिराणे = सिर के तले ईट होगी। भंइ = धरती में। मासि = मास में, शरीर में। केतड़िआ जुग = कई जुग, बेअंत समय। वापरे = गुजर जाएंगे। इकतु पासि = एक तरफ।

अर्थ: हे फरीद! (जीव-पंछियों की चलती जा रही डारों की तरह जब तेरी बारी आई, तेरे भी) सिर तले ईट होगी, धरती में (भाव, तू कब्र में) सोया पड़ा होगा, (और तेरे) शरीर पर कीड़े चलते होंगे। (इस तरह) एक ही तरफ पड़ा ढेर लंबा समय गुजर जाएगा (तब तुझे किसी ने जगाना नहीं, अब तो गाफिल हो के ना सो)।67।

फरीदा भंनी घड़ी सवंनवी टुटी नागर लजु ॥ अजराईलु फरेसता कै घरि नाठी अजु ॥६८॥

पद्अर्थ: सवंनवी = सुंदर वंन (रंग) वाली। घड़ी = शरीर रूप भांडा। नागर = सुंदर। लजु = रस्सी (श्वासों की लड़ी)।

नोट: शब्द ‘लजु’ संस्कृत के शब्द ‘रजु’ (रज्जु) से बना है जिसका अंत ‘ु’ मात्रा है। सो, ये भी, ‘ु’ अंत ही है चाहे है यह शब्द ‘स्त्रीलिंग’। इसके मुकाबले और शब्द ‘लज’ मुक्ता-अंत है, इसका अर्थ है, इज्जत शर्म, (देखो, ‘गुरबाणी व्याकरण’)। कै घरि = किस के घर में? नाठी = मेहमान।

अर्थ: हे फरीद! (देख, तेरे पड़ोस में किस बंदे का शरीर-रूप) सुंदर रंग वाला बर्तन टूट गया है (और श्वासों की) सुंदर रस्सी टूट गई है? (देख,) आज किस के घर (मौत का) फरिश्ता इज़राइल मेहमान है? (भाव, अगर जीव-पंछियों की डारों में नित्य तेरे सामने किसी ना किसी की यहाँ से चलने की बारी आई रहती है), तो तू क्यों गाफिल हो के सोया पड़ा हुआ है?।68।

फरीदा भंनी घड़ी सवंनवी टूटी नागर लजु ॥ जो सजण भुइ भारु थे से किउ आवहि अजु ॥६९॥

पद्अर्थ: भुइ = धरती पर। भारु थे = (निरे) भार थे (भाव, जो जनम उद्देश्य को बिसारे बैठे थे)। किउ आवहि अजु = आज फिर कैसे आएं? (भाव,) फिर ये मनुष्य जन्म वाला समय नहीं मिलता।

अर्थ: हे फरीद! (देख, किस का शरीर-रूप) सुंदर रंग वाला बर्तन टूट गया है (और श्वास-रूप) सुंदर रस्सी टूट गई है? जो भाई (नमाज़ से गाफिल हो के) धरती पर (निरा) भार ही बने रहे, उनको मानव-जन्म वाला ये समय फिर नहीं मिलेगा।69।

फरीदा बे निवाजा कुतिआ एह न भली रीति ॥ कबही चलि न आइआ पंजे वखत मसीति ॥७०॥

पद्अर्थ: रीति = तरीका, जीने का तरीका। कब ही = कभी भी। चलि न आइआ = चल के नहीं आए, उद्यम करके नहीं आए। बेनिवाजा = जो नमाज नहीं पढ़ते, जो बँदगी नहीं करते।

अर्थ: हे फरीद! जो लोग नमाज़ नहीं पढ़ते (भाव, जो बँदगी नहीं करते) जो कभी भी उद्यम कर के पाँचों वक्त मस्जिद नहीं आते (भाव, जो कभी भी कम से कम पाँच वक्त रब को नहीं याद करते) वे कुक्तों (के समान) हैं, उनका जीने का ये तरीका ठीक नहीं कहा जा सकता।70।

उठु फरीदा उजू साजि सुबह निवाज गुजारि ॥ जो सिरु सांई ना निवै सो सिरु कपि उतारि ॥७१॥

पद्अर्थ: उजू = नमाज़ पढ़ने से पहले हाथ मुँह पैर धोने। उजू साजि = उजू कर, मुँह हाथ धो। सुबह = सवेरे की। निवाज गुजारि = नमाज़ पढ़। कपि = काट के।

अर्थ: हे फरीद! उठ, मुँह-हाथ धो, और सवेरे की नमाज़ पढ़। जो सिर मालिक रब के आगे नहीं झुकता, वह सिर काट के उतार दे (भाव, बँदगी-हीन बंदे का जीना किस अर्थ का?)।71।

जो सिरु साई ना निवै सो सिरु कीजै कांइ ॥ कुंने हेठि जलाईऐ बालण संदै थाइ ॥७२॥

पद्अर्थ: कीजै कांइ = क्या करें? क्या बनाएं? कुंना = हांडी। संदै = के।

अर्थ: जो सिर (बँदगी में) मालिक-रब के आगे नहीं झुकता, उस सिर का कोई लाभ नहीं। उस सिर को हांडी तले ईधन की तरह जला देना चाहिए (भाव, उस अकड़े हुए सिर को सूखी हुई लकड़ी ही समझो)।72।

फरीदा किथै तैडे मापिआ जिन्ही तू जणिओहि ॥ तै पासहु ओइ लदि गए तूं अजै न पतीणोहि ॥७३॥

पद्अर्थ: तैडे = तेरे। तू = तुझे। जणिओहि = जन्म दिया। पतीणोहि = पतीजा, तसल्ली हुई, यकीन आया। ओइ = वह (तेरे माता पिता)।

नोट: ‘जिनी’ में अक्षर ‘न’ के नीचे आधा ‘ह’ है (जिन्ही)।

नोट: ‘ओइ’ शब्द ‘ओह’ का बहुवचन है।

अर्थ: हे फरीद! (जीव-पंछियों की चलती जा रही डारों का अगर तुझे ख्याल नहीं आया, तो यही देख कि) तेरे (अपने) माता-पिता कहाँ हैं, जिन्होंने तुझे पैदा किया था। वह तेरे माता-पिता तेरे पास से कब के चले गए हैं। तुझे अभी भी यकीन नहीं आया (कि तूने तो यहाँ से चले जाना है, इसी लिए रब की बंदगी से गाफिल होया हुआ है)।73।

फरीदा मनु मैदानु करि टोए टिबे लाहि ॥ अगै मूलि न आवसी दोजक संदी भाहि ॥७४॥

पद्अर्थ: मैदानु = पधरी जगह, मैदानी इलाका, समतल। लाहि = दूर कर दे। टोए टिबे = ऊँची नीची जगह। अगै = तेरे आगे, तेरी जिंदगी के सफर में। संदी = की। भाहि = आग। आवसी = आएगी।

अर्थ: हे फरीद! मन को समतल मैदान बना दे (और इसके) ऊँची-नीची जगह दूर कर दे, (अगर तू कर सके, तो) तेरे जीवन-सफर में दोज़क की आग बिल्कुल नहीं आएगी, (भाव, मन में टोए-टिबे बने रहने के कारण जो कष्ट मनुष्य को बने रहते हैं, इनके दूर होने पर वे कष्ट मिट जाएंगे)।74।

नोट: मन में कौन से टोए–टिबे हैं, और इनको दूर करने से क्या अभिप्राय है? ये बात फरीद जी ने स्पष्ट करके नहीं लिखी। फरीद जी के इस ख्याल को स्पष्ट करने के लिए सतिगुरु अरजन देव जी ने अगला शलोक अपनी तरफ से लिखा है, और नाम फरीद जी का ही बरता है। बात साफ करने के लिए शीर्षक ‘महला ५’ दे दिया है।

महला ५ ॥ फरीदा खालकु खलक महि खलक वसै रब माहि ॥ मंदा किस नो आखीऐ जां तिसु बिनु कोई नाहि ॥७५॥

पद्अर्थ: खालकु = खलकत को पैदा करने वाला परमात्मा। माहि = में। तिसु बिनु = उस परमात्मा के बिना।

अर्थ: हे फरीद! (सृष्टि पैदा करने वाला) परमात्मा (सारी) सृष्टि में मौजूद है, और सृष्टि परमात्मा में बस रही है। जब (कहीं भी) उस परमात्मा के बिना और दूसरा नहीं है, तो किस जीव को बुरा कहा जाए? (भाव, किसी मनुष्य को बुरा नहीं कहा जा सकता)।

नोट: कोई मनुष्य किसी दूसरे को बुरा कहने के वक्त अपने आप को अच्छा समझता है, दूसरे शब्दों में, खुद टिबे (ऊँची जगह) पर खड़ा हुआ नीचे टोए (गड्ढे) की ओर ताक रहा होता है। जिनको नीच कहता है, वे इस अहंकारी से नफरत करते हैं। इस तरह वैर और नफरत की आग भड़क उठती है, जिससे कई किस्म के कष्ट पैदा होते हैं। अगले शलोक में फरीद जी कहते हैं कि इन कष्टों से तो मौत अच्छी है।

फरीदा जि दिहि नाला कपिआ जे गलु कपहि चुख ॥ पवनि न इती मामले सहां न इती दुख ॥७६॥

पद्अर्थ: जि दिहि = जिस दिन। नाला = नाड़ी, नाभि। कपहि = (तू) काट देती है (हे दाई!)। चुख = थोड़ा सा। इतीं = इतने। मामले = झमेले।

अर्थ: हे फरीद! (कह:) (हे दाई!) जिस दिन मेरी नाड़ि काटी थी, अगर थोड़ा सा मेरा गला भी काट देती, तो (मन के टोयों-टिबों के कारण) ना इतने झमेले पड़ने थे और ना ही मुझे इतना दुख सहना पड़ना था।76।

नोट: कई सज्जन बड़ी जल्दबाजी में कहने लग पड़े हैं कि फरीद जी के शलोक पढ़ने से ऐसा लगता है कि जैसे बाबा जी दुनिया से बहुत दुखी होए हुए हैं और उनका ये शलोक उदासीनता की तरफ निराशता की ओर ले जाता है। ऐसे लोग ऐसी गलती तब कर रहे हैं क्योंकि वे इन शलोकों को मिला के पढ़ना अभी नहीं सीखे। शलोक नं: 74 और 76 को मिला के पढ़िए, भाव साफ है कि एक-दूसरे से नफरत करके लोगों ने जगत को नर्क बना दिया है। फरीद जी इस अकड़ और नफरत से मना कर रहे हैं।

चबण चलण रतंन से सुणीअर बहि गए ॥ हेड़े मुती धाह से जानी चलि गए ॥७७॥

पद्अर्थ: चबण = दंद, चबाने वाले दाँत। चलण = लातें। रतंन = आँखें। सुणीअर = कान। से = वे (जिनके गुमान में मन में टोए-टिबे बनाए हुए थे, जिनके गुमान से दूसरों को हीन समझते थे)। बहि गए = बैठ गए, बहिकल हो गए हैं, काम करने से रह गए हैं। हेड़े = शरीर ने। धाह मुती = ढाह मारी। सेजानी = वह मित्र (जिस पे माण था)।

अर्थ: (किस गुमान पर दूसरों को बुरा कहना हुआ? किस गुमान पर मन में ये टोए-टिबे बनाए हुए?) वह दाँत, लातें, आँखें और कान (जिस पर गुमान करके ये टोए-टिबे बने थे) काम करने से ही रह गए हैं। (इस) शरीर ने ढाह मारी है (अर्थात, ये अपना ही शरीर अब दुखी हो रहा है, कि मेरे) वे मित्र चले गए हैं (भाव, काम के नहीं रहे, जिस पर मुझे गुमान था)।77।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh