श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1382 फरीदा बुरे दा भला करि गुसा मनि न हढाइ ॥ देही रोगु न लगई पलै सभु किछु पाइ ॥७८॥ पद्अर्थ: मनि = मन में। न हढाइ = ना आने दे। देही = शरीर को। न लगई = नहीं लगता। सभु किछु = हरेक चीज। पलै पाइ = पल्ले पड़ी रहती है, संभाली रहती है। अर्थ: हे फरीद! बुराई करने वाले के साथ भी भलाई कर। गुस्सा मन में ना आने दे। (इस तरह) शरीर को कोई रोग नहीं लगता और हरेक पदार्थ (भाव, अच्छे गुण) संभाले रहते हैं। फरीदा पंख पराहुणी दुनी सुहावा बागु ॥ नउबति वजी सुबह सिउ चलण का करि साजु ॥७९॥ पद्अर्थ: पंख = पंछियों की डार। दुनी = दुनिया। सुहावा = सुंदर। नउबत = धौंसा, डंका। सुबह सिउ = सवेरे का। साजु = सामान, आहर, तैयारी। अर्थ: हे फरीद! ये दुनिया (एक) सुंदर बाग़ है (यहाँ कयों मन में ‘टोए-टिबे बनाए हुए हैं? यहाँ तो सारे जीव-रूपी) पंछियों की डार मेहमान है। जब सुबह का धौंसा (डंका) बजा (सबने जिंदगी की रात काट के चले जाना है)। (हे फरीद! ये ‘टोए-टिबे दूर कर, और तू भी) चलने की तैयारी कर।79। फरीदा राति कथूरी वंडीऐ सुतिआ मिलै न भाउ ॥ जिंन्हा नैण नींद्रावले तिंन्हा मिलणु कुआउ ॥८०॥ पद्अर्थ: कथूरी = कसतूरी। भाउ = हिस्सा। नींद्रावले = नींद अवस्था में। मिलणु = मेल, प्राप्ती। कुआउ = कहाँ से? कैसे? नोट: ‘जिंना्, तिंना्’ में अक्षर ‘न’ के नीचे आधा ‘ह’ है (जिंन्हा, तिंन्हा)। अर्थ: हे फरीद! (वह तैयारी रात को ही हो सकती है) रात (की एकांत) में कस्तूरी बाँटी जाती है (भाव, रात के एकांत के समय भजन की सुगंधि पैदा होती है), जो सोए रहें उनको (इसमें से) हिस्सा नहीं मिलता। जिनकी आँखें (सारी रात) नींद में बनी रहें, उनको (नाम की कस्तूरी की) प्राप्ति कैसे हो?।80। ज़रूरी नोट: शलोक नं: 74 में मन के जो ‘टोए–टिबे’ बताए गए हैं, अगले शलोक नं: 81 में उन टोए–टिबों का असर बयान करते हैं, कि इनके कारण सारे जगत में दुख ही दुख घटित हो रहा है, पर इस बात की समझ उसी को पड़ती है जो खुद मन के ‘टोए–टिबों’ से ऊपर होता है। फरीदा मै जानिआ दुखु मुझ कू दुखु सबाइऐ जगि ॥ ऊचे चड़ि कै देखिआ तां घरि घरि एहा अगि ॥८१॥ पद्अर्थ: मुझ कू = मुझे। सबाइऐ जगि = सारे जगत में। ऊचे चढ़ि कै = दुख से ऊँचा हो के। घरि = घर में। घरि घरि = हरेक घर में। नोट: ‘अगि’ शब्द को योग ध्यान से देखें, सदा अंत में ‘ि’ मात्रा है, असल शब्द संस्कृत का अग्नि’ है इसका प्राक्रित रूप ‘अगि’ है। अर्थ: हे फरीद! मैंने (पहले मन के ‘टोए-टिबों’ से पैदा हुए दुख में घबरा के यह) समझा कि दुख (सिर्फ) मुझे (ही) है (सिर्फ मैं ही दुखी हूँ), (पर असल में यह) दुख तो सारे (ही) जगत में (घटित हो रहा, फैला हुआ) है। जब मैंने (अपने दुख से) ऊँचा हो के (ध्यान मारा) तब मैंने देखा कि हरेक घर में यही आग (जल) रही है (भाव, हरेक जीव दुखी है)।81। नोट: इस शलोक से आगे के शलोक गुरु अरजन साहिब जी के हैं। आप लिखते हैं कि वही विरले बंदे दुखों की मार से बचे हुए हैं, जो सतिगुरु की शरण पड़ कर परमात्मा को याद करते हैं। महला ५ ॥ फरीदा भूमि रंगावली मंझि विसूला बाग ॥ जो जन पीरि निवाजिआ तिंन्हा अंच न लाग ॥८२॥ पद्अर्थ: भूमि = धरती। रंगावली = रंग+आवली। आवली = कतार, सिलसिला। रंग = सुहज, खुशी, आनंद। रंगावली = सोहावनी। मंझि = (इस) में। विसूला = विष भरा, विषौला। नोट: जिस शब्दों के असल रूप में ‘ु’ मात्रा सदा साथ लगी रहती है, उनके ‘कारकी’ आदि रूपों में ‘ु’ की जगह ‘ू’ हो जाती है, जैसे: ‘जिंदु’ से ‘जिंदू’; ‘खाकु’ से ‘खाकू’; ‘मसु’ से ‘मसू’ और ‘विसु’ से ‘विसू’। निवाजिआ = वडिआइआ हुआ, आदर मिला हुआ। अंच = सेक, आँच। पीर = मुरशिद, गुरु। नोट: ‘तिना्’ में अक्षर ‘न’ के साथ आधा ‘ह’ है (तिंन्हा)। अर्थ: हे फरीद! (ये) धरती (तो) सुहावनी है, (पर, मनुष्य के मन के ‘टोए-टिबों’ के कारण इस) में विषौला बाग (लगा हुआ) है (जिसमें दुखों की आग जल रही है)। जिस मनुष्यों को सतिगुरु ने ऊँचा किया है, उनको (दुख-अग्नि का) सेक नहीं लगता।82। महला ५ ॥ फरीदा उमर सुहावड़ी संगि सुवंनड़ी देह ॥ विरले केई पाईअनि जिंन्हा पिआरे नेह ॥८३॥ पद्अर्थ: सुहावड़ी = सुहावनी, सुखद, सुख भरी। संगि = (उम्र के) साथ। सुवंन = सोहणा रंग। सुवंनड़ी = सुंदर रंग वाली। देह = शरीर। पाईअन्हि = पाए जाते हैं, मिलते हें। नेह = प्यार। अर्थ: हे फरीद! (उन लोगों की) जिंदगी आसान है और शरीर भी सुंदर रंग वाला (भाव, रोग-रहित) है, जिनका प्यार प्यारे परमात्मा के साथ है, (‘विषौला बाग़’ और ‘दुख-अग्नि’ उनको नहीं छूते, पर ऐसे लोग) कोई विरले ही मिलते हैं।83। कंधी वहण न ढाहि तउ भी लेखा देवणा ॥ जिधरि रब रजाइ वहणु तिदाऊ गंउ करे ॥८४॥ पद्अर्थ: वहण = हे वहण! कंधी = नदी का किनारा। तउ = तू। जिधरि = जिस तरफ। रब रजाइ = रब की मर्जी। तिदाऊ = उसी तरफ। गंउ करे = रास्ता बनाता है, चलता है, चाल चलता है।84। अर्थ: दुखों के तले दबा हुआ जीव ‘दुख’ के आगे तरले ले के कहता है: हे (दुखों के) प्रवाह! (मुझे) नदी के किनारे (के लगे हुए पेड़) को मत गिरा (भाव, मुझे दुखी ना कर), तुझे भी (अपने किए का) हिसाब देना पड़ेगा। (दुखी मनुष्य को यह समझ नहीं रहती कि) दुखों की बाढ़ उसी तरफ को ढाह लगाती है, जिस तरफ रब की मर्जी होती है (भाव, रब की रजा के अनुसार रब से विछुड़े हुए बँदों के अपने द्वारा किए हुए बुरे-कर्मों के तहत दुखों की बाढ़ उनको आ बहाती है)।84। नोट: शलोक नं: 82 में फरीद जी ने ‘दुख’ को ‘आग’ का नाम दिया है। शलोक नं: 82 में गुरु अरजन देव जी इसको ‘विसूला बाग़’ कहते हैं। यहीं फरीद जी सांसारिक दुखों को ‘एक लंबी नदी, प्रवाह, वहण, बहाव’ कहते हैं। मनुष्य–जीवन नदी का किनारा है जो दुखों–रूपी प्रवाह के वेग से ढलकता जा रहा है (नदी के पानी के किनारे पर पड़ते उछाल व वेग से गिरता जा रहा है)। फरीदा डुखा सेती दिहु गइआ सूलां सेती राति ॥ खड़ा पुकारे पातणी बेड़ा कपर वाति ॥८५॥ पद्अर्थ: डुखा सेती = दुखों से, दुखों में। दिहु = दिन। सूलां = चुभन, चिन्ता फिक्र। पातणी = मल्लाह, मुहाणा। कपर = लहरें, ठाठां। वाति = मुँह में। (देखें शलोक नं: 50) नोट: ‘राति’ के आखिर में सदा ‘ि’ होती है, ये संस्कृत के शब्द ‘रात्रि’ से है। अर्थ: हे फरीद! (मन में बने ‘टोए-टिबे’ के कारण दुखों की नदी में बहते जाते जीवों का) दिन दुखों में गुजरता है, रात भी (चिन्ता की) चुभन में बीतती है। (किनारे पे) खड़ा हुआ (गुरु-) मल्लाह इनको ऊँचा-ऊँचा कह रहा है (कि तुम्हारा जिंदगी का) बेड़ा (दुखों की) लहरों के मुँह में (आ गिरने लगा) है।85। लमी लमी नदी वहै कंधी केरै हेति ॥ बेड़े नो कपरु किआ करे जे पातण रहै सुचेति ॥८६॥ पद्अर्थ: लंमी लंमी = बहुत लंबी। नदी = दुखों की नदी। वहै = बह रही है। केरै हेति = गिराने के लिए। नो = को। किआ करे = क्या बिगाड़ सकता है? पातण = मल्लाह के। पातण चेति = मल्लाह की याद में। सु = वह बेड़ा। चेति = याद में। अर्थ: (संसारी लोगों-रूप) किनारे के (कमजोर पेड़ों) को गिराने के लिए (भाव, दुखी करने के लिए) (ये पेड़ों की) बेअंत लंबी नदी बह रही है, (पर इस नदी का) बवंडर घुमंण-घेर (उस जिंदगी-रूप) बेड़े का कोई नुक्सान नहीं कर सकता, जो (सतिगुरु) मललाह के चेते में रहे (भाव, जिस मनुष्य पर गुरु मेहर की नजर रखे, उसको दुख-अग्नि नहीं छूती)।86। फरीदा गलीं सु सजण वीह इकु ढूंढेदी न लहां ॥ धुखां जिउ मांलीह कारणि तिंन्हा मा पिरी ॥८७॥ पद्अर्थ: गलीं = बातों से, (भाव,) बातों से पतियाने वाले। इकु = असल सज्जन। न लहां = मुझे नहीं मिलता। धुखां = अंदर अंदर से दुखी हो रहा है। मांलीह = मिली, सूखे हुए गोबर का चूरा। मा = मेरा। पिरी कारणि = प्यारे सज्जनों की खातिर। तिंना = उनके। अर्थ: हे फरीद! बातों से पतियाने वाले तो बीसों मित्र (मिल जाते) हैं; पर खोज करने के वक्त असल सच्चा मित्र नहीं मिलता (जो मेरी जिंदगी के बेड़े को दुखों की नदी में से पार लंघाए)। मैं तो ऐसे (सत्संगी) सज्जनों के (ना मिलने) के कारण धुखते सूखे गोबर की तरह अंदर दुखी हो रहा हूँ।87। फरीदा इहु तनु भउकणा नित नित दुखीऐ कउणु ॥ कंनी बुजे दे रहां किती वगै पउणु ॥८८॥ पद्अर्थ: भउकणा = जिसको भौंकने की आदत पड़ जाती है, भौंकने वाला। दुखीऐ कउणु = कौन परेशान होता रहे? दे रहां = दिए रहूँ, दिए रखूँगा। किती = कितनी ही, जितनी जी चाहे। पउणु = हवा। अर्थ: हे फरीद! यह (मेरा) शरीर तो भौंकने वाला हो गया है (भाव, हर वक्त नित्य नए पदार्थ माँगता रहता है, इसकी नित्य की माँगें पूरी करने की खातिर) कौन रोज परेशान होता रहे? (भाव, मुझे ये नहीं अच्छा लगता कि रोज कठिनाईयां उठाता रहूँ)। मैं तो कानों में बुजे (रूई आदि के) दिए रखूँगा जितनी जी चाहे हवा झूलती रहे, (भाव, जितना जी चाहे ये शरीर माँगें माँगने का शोर मचाए रखे, मैं इसकी एक नहीं सुनूँगा)।88। नोट: एक तो लोगों के मन में ‘टोए–टिबे’ बनाए हुए हैं, दूसरे, दुनिया के मन–मोहने पदार्थ हरेक जीव को आकर्षित कर रहे हैं। नतीजा ये निकल रहा है कि जगत दुखों की खान बन गया है। फरीदा रब खजूरी पकीआं माखिअ नई वहंन्हि ॥ जो जो वंञैं डीहड़ा सो उमर हथ पवंनि ॥८९॥ पद्अर्थ: रब खजूरी = रब की खजूरें। माखिअ = शहद की। माखिअ नई = शहद की नदियां। (नोट: शब्द ‘माखिअ’ की तरफ ध्यान देने की जरूरत है, जैसे ‘जिउ’ से ‘जीअ’, ‘प्रिउ’ से ‘प्रिअ’ और ‘हीउ’ से ‘हीअ’, वैसे ही ‘माखिउ’ से ‘माखिअ’ है)। वहंनि–बहती हें, बह रही हैं। डीहड़ा–दिहाड़ा, दिवस। हथ पवंनि्–हाथ पड़ रहे हैं। नोट: शब्द ‘पवंनि्’ के अक्षर ‘न’ के नीचे आधा ‘ह’ है, देखें शलोक नं: 44 में ‘सिंञापसनि्’। अर्थ: (पर, ये शरीर बेचारा भी क्या करे? इसको लोभाने के लिए चार-चुफेरे जगत में) हे फरीद! परमात्मा की पकी हुई खजूरें (दिख रही हैं), और शहद की नदियां बह रही हैं (भाव, हर तरफ सुंदर-सुंदर, स्वादिष्ट और मन-मोहक पदार्थ और विषौ-विकार मौजूद हैं)। (वैसे यह भी ठीक है कि इन पदार्थों को भोगने में मनुष्य का) जो-जो दिन बीतता है, वह इसकी उम्र को ही हाथ डाल रहे हैं (भाव, व्यर्थ में गवा रहे हें)।89। नोट: बाबा फरीद जी दुनिया के सुंदर और स्वादिष्ट पदार्थों को पक्की खजूरों और शहद की नदियों से उपमा देते हैं। वंञै–जाता है, गुजरता है। फरीदा तनु सुका पिंजरु थीआ तलीआं खूंडहि काग ॥ अजै सु रबु न बाहुड़िओ देखु बंदे के भाग ॥९०॥ पद्अर्थ: थीआ = हो गया है। पिंजरु = पिंजर, कंकाल बन गया है। खूंडहि = चोंच से ठूँगे मार रहे हें। काग = कौए, विकार, दुनियावी पदार्थों के चस्के। अजै = अभी भी (जबकि सारी दुनिया के भोग भोग के अपनी ताकत भी गवा बैठा है)। न बाहुड़िओ = नही आया, प्रसन्न नहीं हुआ, (उसे) तरस नहीं आया। अर्थ: हे फरीद! यह (भौंका) शरीर (विषौ-विकारों में पड़ कर) बहुत जर्जर हो गया है, पिंजर बन के रह गया है। (फिर भी, ये) कौए इसकी तलियों पर ठूँगे मारे जा रहे हैं (भाव, दुनियावी पदार्थों के चस्के और विषौ-विकार इसके मन को चुभोएं लगाए जा रहे हैं)। देखो, (विकारों में पड़े) मनुष्य की किस्मत भी अजीब है कि अभी भी (जबकि इसका शरीर दुनिया के विषौ भोग भोग के अपनी सत्ता भी गवा बैठा है) रब इस पर प्रसन्न नहीं हुआ (भाव, इसकी झाक खत्म नहीं हुई)।90। कागा करंग ढंढोलिआ सगला खाइआ मासु ॥ ए दुइ नैना मति छुहउ पिर देखन की आस ॥९१॥ पद्अर्थ: कागा = कौओं ने, विकारों ने, दुनियावी पदार्थों के चस्कों ने। करंग = पिंजर, बहुत कमजोर होया हुआ शरीर। सगला = सारा। मति छुहउ = रब करके कोई ना छेड़े (देखें, शलोक नं: 25 में शब्द ‘भिजउ’, ‘वरसउ’ और ‘तुटउ’)। आस = आशा, तमन्ना। अर्थ: कौओं ने पिंजर भी फरोल मारा है, और सारा मास खा लिया है (भाव, दुनियावी पदार्थों के चस्के और विषौ-विकार इस अति-कमजोर हुए शरीर को भी चुभन लगाए जा रहे हैं, इस भौंके शरीर की सारी ताकत इन्होंने खींच ली है)। रब कर के कोई विकार (मेरी) इन दोनों आँखों को ना छेड़े, इनमें तो प्यारे प्रभु को देखने की चाहत टिकी रहे।91। कागा चूंडि न पिंजरा बसै त उडरि जाहि ॥ जितु पिंजरै मेरा सहु वसै मासु न तिदू खाहि ॥९२॥ पद्अर्थ: कागा = हे कौए! हे दुनियावी पदार्थों के चस्के! चूंडि न = ना ठूँग। पिंजरा = सूखा हुआ शरीर। बसै = (अगर) वश में (है), अगर तेरे वश में है, अगर तू कर सके। त = तो। जितु = जिस में। जितु पिंजरै = जिस शरीर में। तिदू = उस शरीर में से। अर्थ: हे कौए! मेरा पिंजर में ठूँगे ना मार, अगर तेरे वश में (ये बात) है तो (यहाँ से) उड़ जा, जिस शरीर में मेरा पति-प्रभु बस रहा है, इसमें से मास ना खा (भाव, हे विषयों के चस्के! मेरे इस शरीर को चोंच मारनी छोड़ दे, तरस कर, और जा, खलासी कर। इस शरीर में तो पति-प्रभु का प्यार बस रहा है, तू इसको विषौ-भोगों की तरफ प्रेरने का प्रयत्न ना कर)।92। फरीदा गोर निमाणी सडु करे निघरिआ घरि आउ ॥ सरपर मैथै आवणा मरणहु ना डरिआहु ॥९३॥ पद्अर्थ: निमाणी = बेचारी। सडु = निमंत्रण, बुलावा, आवाज मारनी। सडु करे = आवाज मार रही है। निघरिआ = हे बेघरे जीव! घरि = घर में। सरपर = आखिर को। मैथै = मेरे पास। अर्थ: हे फरीद! कब्र बेचारी (बँदे को) आवाजें मार रही है (और कहती है:) हे बे-घरे जीव! (अपने) घर में आ, (भाव,) आखिर को (तूने) मेरे पास ही आना है (और फिर) मौत से (इतना) ना डर।93। एनी लोइणी देखदिआ केती चलि गई ॥ फरीदा लोकां आपो आपणी मै आपणी पई ॥९४॥ पद्अर्थ: लोइण = आँखें। एनी लोइणी = इन आँखों से। केती = कितनी ही (खलकति), बेअंत जीव। नोट: ‘इनी्’ में अक्षर ‘न’ के नीचे आधा ‘ह’ है। अर्थ: इन आँखों से देखते हुए (भाव, मेरी आँखों के सामने) कितनी ही ख़लकति चली गई है (मौत का शिकार हो गई है)। हे फरीद! (ख़लकति चलती जाती देख के भी) हरेक को अपने-अपने स्वार्थों का ही ख्याल है (भाव, हरेक जीव दुनिया वाली धुन में ही है), मुझे भी अपना ही फिक्र पड़ा हुआ है।94। आपु सवारहि मै मिलहि मै मिलिआ सुखु होइ ॥ फरीदा जे तू मेरा होइ रहहि सभु जगु तेरा होइ ॥९५॥ पद्अर्थ: आपु = अपने आप को। मै = मुझे। अर्थ: हे फरीद! यदि तू अपने आप को सँवार ले, तो तू मुझे मिल जाएगा, और मेरे में जुड़ने से ही तुझे सुख होगा (दुनिया के पदार्थों में नहीं)। अगर तू मेरा बन जाए, (भाव, दुनिया वाला प्यार छोड़ के मेरे साथ प्यार करने लग जाए, तो) सारा जगत तेरा बन जाएगा (भाव, माया तेरे पीछे-पीछे दौड़ेगी)।95। नोट: मौत की ढाह लगी देख के जब फरीद जी ने आत्मिक जीवन की तरफ ध्यान मारा तो रब की तरफ से ये धीरज मिला। कंधी उतै रुखड़ा किचरकु बंनै धीरु ॥ फरीदा कचै भांडै रखीऐ किचरु ताई नीरु ॥९६॥ पद्अर्थ: कंधी = किनारा। रुखड़ा = छोटा सा पेड़, बेचारा वृक्ष। धीर = धीरज, धरवास। नीरु = पानी। अर्थ: (दरिया के) किनारे पर (उगा हुआ) बेचारा वृक्ष कब तक धीरज रखेगा? हे फरीद! कच्चे बर्तन में कब तक पानी रखा जा सकता है? (इसी तरह मनुष्य मौत की नदी के किनारे पर खड़ा हुआ है, इस शरीर में से साँसे खत्म होती जा रही हैं)।96। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |