श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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देह न गेह न नेह न नीता माइआ मत कहा लउ गारहु ॥ छत्र न पत्र न चउर न चावर बहती जात रिदै न बिचारहु ॥

पद्अर्थ: देह = शरीर। गेह = घर। नेह = मोह प्यार। न नीता = अनित, सदा ना रहने वाला। मत = मस्त हुआ, अहंकारी। कहा लउ = कब तक? गारहु = (तू) अहंकार करेगा। छत्र = राज का छत्र। पत्र = हुकमनामा। चावर = चवर करने वाले। बहती जात = बहती जा रही है, (भाव, नाश हो जाएंगे)। रिदै = हृदय में।

अर्थ: हे माया में मते हुए (जीव!) यह शरीर, यह घर, (माया के) यह मोह-प्यार, कोई सदा रहने वाले नहीं हैं; कब तक (तू इनका) अहंकार करेगा? यह (राजसी) छत्र, यह हुकमनामे, यह चवर और यह चवर बरदार, सब नाश हो जाएंगे। पर हृदय में तू विचारता ही नहीं है।

रथ न अस्व न गज सिंघासन छिन महि तिआगत नांग सिधारहु ॥ सूर न बीर न मीर न खानम संगि न कोऊ द्रिसटि निहारहु ॥

पद्अर्थ: अस्व = अश्व, घोड़े। गज = हाथी। सिंघासन = सिंहासन, तख्त। छिन महि = पल में, बहुत जल्द। तिआगत = छोड़ के। नांग = नंगे। सिधारहु = चला जाएगा। सूर = सूरमे। बीर = योद्धे। मीर = पातशाह। खानम = खान, सिरदार। संगि = संगी, साथी। द्रिसटि = आँखों से। निहारहु = देखो।

अर्थ: रथ, घोड़े, हाथी, तख्त, (इनमें से कोई भी साथ) नहीं (निभना), इनको एक छिन में छोड़ के नंगा (ही यहाँ से) चला जाऐगा। आँखों से देख, ना सूरमे, ना योद्धे, ना मीर, ना सिरदार, कोई भी साथी नहीं (बनने वाला)।

कोट न ओट न कोस न छोटा करत बिकार दोऊ कर झारहु ॥ मित्र न पुत्र कलत्र साजन सख उलटत जात बिरख की छांरहु ॥

पद्अर्थ: कोट = किले। ओट = आसरे। कोस = कोश, खजाने। छोटा = छुटकारा। बिकार = पाप। दोऊ = दोनों। कर = हाथ (बहुवचन)। झारहु = (तू) झाड़ता है। कलत्र = स्त्री। सख = सखे, साथी। उलटत जात = उलट जाते हैं, मुड़ जाते हैं, मुँह मोड़ लेते हैं, छोड़ जाते हैं। छारहु = छाया की तरह।

अर्थ: इन किलों, (माया के) आसरों और खजानों से (आखिरी वक्त पर) छुटकारा नहीं (हो सकेगा)। (तू) पाप कर-कर के दोनों हाथ झाड़ता है (भाव, बेपरवाह हो के पाप करता है)। यह मित्र, पुत्र, स्त्री, सज्जन और साथी (आखिरी वक्त पर) साथ छोड़ देंगे, जैसे (अंधेरे में) वृक्ष की छाया (उसका साथ छोड़ देती है)।

दीन दयाल पुरख प्रभ पूरन छिन छिन सिमरहु अगम अपारहु ॥ स्रीपति नाथ सरणि नानक जन हे भगवंत क्रिपा करि तारहु ॥५॥

पद्अर्थ: दीन दयाल = दीनों पर दया करने वाला। पूरन पुरख = सब जगह व्यापक हरि। छिन छिन = सदा, हर वक्त। अगम = अंबे, जिस तक पहुँच होनी बहुत कठिन है। स्रीपति = माया का मालिक। स्री = माया।

अर्थ: (हे मन!) दीनों पर दया करने वाले, सब जगह व्यापक, बेअंत और अपार हरि को हर वक्त याद कर, (और कह) - हे माया के पति! हे नाथ! हे भगवंत! नानक दास को कृपा करके पार लगा लो, जो तेरी शरण आया है।5।

प्रान मान दान मग जोहन हीतु चीतु दे ले ले पारी ॥ साजन सैन मीत सुत भाई ताहू ते ले रखी निरारी ॥

पद्अर्थ: मान = इज्जत। दान = दान (ले ले के)। मग जोहन = राह देख देख के, डाके मार के। हीतु = प्यार। हीतु दे = मोह डाल के। चीतु दे = ध्यान दे दे के। पारी = इकट्ठी की। ताहू ते = उनसे। निरारी = अलग, छुपा के।

अर्थ: (लोग) जान लगा के, इज्जत भी दे के, दान ले-ले के, डाके मार-मार के, (माया में) प्रेम जोड़ के, (पूर्ण) ध्यान दे-दे (माया को) ले-ले के इकट्ठा करते हैं; सज्जन, साथी, मित्र, पुत्र, भाई- इन सबसे छुपा-छुपा के रखते हैं।

धावन पावन कूर कमावन इह बिधि करत अउध तन जारी ॥ करम धरम संजम सुच नेमा चंचल संगि सगल बिधि हारी ॥

पद्अर्थ: धावन पावन = दौड़ने भागने। कूर कमावन = झूठे कर्म करने। इह बिधि = इस तरह। अउध तन = शरीर की उम्र। जारी = जला दी, गवा दी। चंचल = साथ छोड़ने वाली माया। सगल बिधि = सब कर्म धर्म आदि। हारी = गवा ली।

अर्थ: (लोग माया के पीछे) दौड़ना-भागना, ठगी के काम करने -सारी उम्र यह कुछ करते हुए ही गवा देते हैं; पुण्य कर्म, जुगती में रहना, आत्मिक सुचि और नियम -ये सारे ही काम चंचल माया की संगति में छोड़ बैठते हैं।

पसु पंखी बिरख असथावर बहु बिधि जोनि भ्रमिओ अति भारी ॥ खिनु पलु चसा नामु नही सिमरिओ दीना नाथ प्रानपति सारी ॥

पद्अर्थ: पंखी = पंछी। असथावर = (स्थावर) पर्वत आदिक जो अपनी जगह से नहीं हिलने वाले हैं। बहु बिधि = कई तरह की। भ्रमिओ अति भारी = बहुत भटकता फिरा। सारी = सृष्टि।

अर्थ: (जीव) पशू, पंछी, वृक्ष, पर्वत आदिक- इन रंग-बिरंगी जूनियों में बहुत भटकते फिरते हैं; छिन मात्र, पल मात्र या रक्ती भर भी दीनों के नाथ, प्राणों के मालिक, सृष्टि के विधाता का नाम नहीं जपते।

खान पान मीठ रस भोजन अंत की बार होत कत खारी ॥ नानक संत चरन संगि उधरे होरि माइआ मगन चले सभि डारी ॥६॥

पद्अर्थ: खान पान = खाना पीना। अंत की बार = आखिरी वक्त। कत = कक्तई, बिल्कुल। खारी = कड़वे। उधरे = उद्धार हो गया, चले गए। होरि = और लोग। मगन = डूबे हुए, मस्त। डारी = डारि, छोड़ के।

अर्थ: खाने-पीने, मीठे रसों वाले पदार्थ- (ये सब) आखिरी वक्त सदा कड़वे (लगते हैं)। हे नानक! जो संत-जनों के चरणों में आ लगते हैं वह तैर जाते हैं, बाकी लोग, जो माया में मस्त हैं, सब कुछ छोड़ के (खाली हाथ ही) जाते हैं।6।

ब्रहमादिक सिव छंद मुनीसुर रसकि रसकि ठाकुर गुन गावत ॥ इंद्र मुनिंद्र खोजते गोरख धरणि गगन आवत फुनि धावत ॥

पद्अर्थ: छंद = (छंदस = The Vedas) वेद। मुनीसुर = बड़े बड़े मुनी। रसकि = रस ले ले के, प्रेम से। ठाकुर गुन = ठाकुर के गुण। मुनिंद्र = बड़े बड़े मुनि। धरणि = धरती। गगन = आकाश। फुनि = फिर। धावत = दौड़ते हैं।

अर्थ: ब्रहमा जैसे, शिव जी और बड़े-बड़े मुनि वेदों द्वारा परमात्मा के गुण प्रेम से गाते हैं। इन्द्र, बड़े-बड़े मुनिजन और गोरख (आदिक) कभी धरती पर आते हैं और कभी आकाश की तरफ दौड़ते फिरते हैं, (और परमात्मा को हर जगह) खोज रहे हैं।

सिध मनुख्य देव अरु दानव इकु तिलु ता को मरमु न पावत ॥ प्रिअ प्रभ प्रीति प्रेम रस भगती हरि जन ता कै दरसि समावत ॥

पद्अर्थ: सिध = जोगसाधना में माहिर जोगी। देव = देवते। अरु = और। दानव = राक्षस। इकु तिलु = तिल मात्र भी, रक्ती भर भी। मरमु = भेद। प्रिअ प्रभ = प्यारे प्रभु की। ता कै दरसि = उस (प्रभु) के दर्शन में। समावत = लीन हो जाते हैं। जन = दास।

अर्थ: सिद्ध, मनुष्य, देवते और दैत्य, किसी ने भी उस (प्रभु) का तिल-मात्र भी भेद नहीं पाया। पर, हरि के दास प्यारे प्रभु की प्रीति द्वारा और प्रेम-रस वाली भक्ति के द्वारा उसके दर्शन में लीन हो जाते हैं।

तिसहि तिआगि आन कउ जाचहि मुख दंत रसन सगल घसि जावत ॥ रे मन मूड़ सिमरि सुखदाता नानक दास तुझहि समझावत ॥७॥

पद्अर्थ: तिसहि = उस (प्रभु) को। तिआगि = छोड़ के। आन कउ = और लोगों को। जाचहि = (जो मनुष्य) माँगते हैं। दंत = दाँत। रसन = जीभ। मूढ़ = हे मूर्ख! सुखदाता = सुखों के देने वाला।

अर्थ: (जो मनुष्य) उस प्रभु को छोड़ के औरों से माँगते हैं (माँगते-माँगते उनके) मुँह, दाँत और जीभ -ये सारे ही घिस जाते हैं। हे मूर्ख मन! सुखों को देने वाले (प्रभु) को याद कर, तुझे (प्रभु का) दास नानक समझा रहा है।7।

माइआ रंग बिरंग करत भ्रम मोह कै कूपि गुबारि परिओ है ॥ एता गबु अकासि न मावत बिसटा अस्त क्रिमि उदरु भरिओ है ॥

पद्अर्थ: भ्रम मोह कै = भुलेखे और मोह के कारण। कूपि = कूएँ में। गुबारि कूपि = अंधे कूँए में। परिओ है = तू पड़ा हुआ है। गबु = गरब, अहंकार। आकासि = आसमान तक। न मावत = नहीं समाता। अस्त = अस्थि, हड्डियां। क्रिमि = कीड़े। उदरु = पेट।

अर्थ: (हे भाई!) भुलेखे और मोह के कारण (जिस माया के) अंधेरे कूँए में तू पड़ा हुआ है, (वह) माया कई रंगों के करिश्मे करती है। (तुझे) इतना अहंकार है कि आसमान तक नहीं (तू) समाता। (पर तेरी हस्ती तो यही कुछ है ना कि तेरा) पेट विष्टा, हड्डियां और कीड़ों से भरा हुआ है।

दह दिस धाइ महा बिखिआ कउ पर धन छीनि अगिआन हरिओ है ॥ जोबन बीति जरा रोगि ग्रसिओ जमदूतन डंनु मिरतु मरिओ है ॥

पद्अर्थ: दहदिस = दसों तरफ। धाइ = दौड़ दौड़ के। महा बिखिआ कउ = बड़ी विषौली माया की खातिर। छीनि = छीन के। अगिआन = मूर्खता। हरिओ = ठगा हुआ। जरा = बढ़ापा। रोगि = रोग ने। मिरतु = मौत।

अर्थ: तू माया की खातिर दसों दिशाओं में दौड़ता है, पराया धन छीनता है, तुझे अज्ञान ने ठग लिया है। (तेरी) जवानी बीत गई है; बुढ़ापा-रूपी रोग ने (तुझे) आ घेरा है; (तू ऐसी) मौत मरा है (जहाँ) तुझे जमदूतों का दण्ड भरना पड़ेगा।

अनिक जोनि संकट नरक भुंचत सासन दूख गरति गरिओ है ॥ प्रेम भगति उधरहि से नानक करि किरपा संतु आपि करिओ है ॥८॥

पद्अर्थ: संकट = कष्ट, दुख। भुंचत = तू भोगता है। सासन = (जमों की) ताड़ना। दूख गरति = दुखों के टोए में। गरिओ है = तू गल रहा है। उधरहि = पार उतर जाते हैं, तैर जाते हैं। से = वह बंदे।

अर्थ: तू अनेक जूनों के कष्ट और नर्क भोगता है, जमों की ताड़ना के दुखों के टोए में गल रहा है। हे नानक! वह मनुष्य प्रेम-भक्ति की इनायत से पार लंघ गए हैं, जिस को (हरि ने) मेहर कर के खुद संत बना लिया है।8।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh