श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 1389

About Bhat Bani-भटों के सवईए (Sawa-e-ay by Bhats).
(Note: it is described before page 1385 text on volume 10 of Darpan)

गुण समूह फल सगल मनोरथ पूरन होई आस हमारी ॥ अउखध मंत्र तंत्र पर दुख हर सरब रोग खंडण गुणकारी ॥ काम क्रोध मद मतसर त्रिसना बिनसि जाहि हरि नामु उचारी ॥ इसनान दान तापन सुचि किरिआ चरण कमल हिरदै प्रभ धारी ॥

पद्अर्थ: गुण समूह = सारे गुण। फल सगल मनोरथ = सारे मनोरथों के फल। अउखध = औषधि, दवाई, जड़ी बूटी। पर दुख हर = पराए दुख दूर करने वाला। खंडण = नाश करने वाला। गुणकारी = गुण पैदा करने वाला। मद = अहंकार। मतसर = ईष्या। बिनसि जाहि = नाश हो जाते हैं। उचारी = स्मरण से, उचारि। तापन = तप साधने। सुचि किरिआ = शारीरिक स्वच्छता रखने वाले साधन। चरण कमल = हरि के कमलों जैसे सुंदर पैर।

अर्थ: (हरि के नाम को स्मरण से) हमारी आशा पूरी हो गई है, सारे गुण और सारे मनोरथों के फल प्राप्त हो गए हैं। पराए दुख दूर करने के लिए (यह नाम) औषधि-रूप है, मंत्र-रूप है, नाम सारे रोगों के नाश करने वाला है और गुण पैदा करने वाला है। हरि-नाम को स्मरण करने से काम, क्रोध, अहंकार, ईष्या और तृष्णा- यह सब नाश हो जाते हैं। (तीर्थों के) स्नान करने, (वहाँ) दान करने, तप साधने और शारीरिक सुच के कर्म- (इन सब की जगह) हमने प्रभु के चरण हृदय में धार लिए हैं।

साजन मीत सखा हरि बंधप जीअ धान प्रभ प्रान अधारी ॥ ओट गही सुआमी समरथह नानक दास सदा बलिहारी ॥९॥

पद्अर्थ: जीअ धान = जिंदगी का आसरा, जिंद का स्रोत। प्रान अधारी = प्राणों का आधार। गही = पकड़ी है। सुआमी समरथह = समर्थ मालिक की।

अर्थ: हरि हमारा सज्जन है, मित्र है, सखा और सम्बन्धी है; हमारी जिंदगी का आसरा है और प्राणों का आधार है। हमने समर्थ मालिक की ओट पकड़ी है, नानक (उसका) दास उससे सदा सदके है।9।

आवध कटिओ न जात प्रेम रस चरन कमल संगि ॥ दावनि बंधिओ न जात बिधे मन दरस मगि ॥

पद्अर्थ: आवध = शस्त्रों से। चरन कमल संगि = चरण कमलों से। दावनि = रस्सी से (दामन् = रस्सी)। बंधिओ न जात = बाँधा नहीं जा सकता। बिधे = भेदा हुआ। दरस मगि = (हरि के) दर्शन के रास्ते में। मगि = रास्ते में।

अर्थ: (जिस मनुष्य ने) हरि के चरण-कमलों के साथ जुड़ के प्रेम का स्वाद (चखा है, वह) शस्त्रों से काटा नहीं जा सकता। (जिसका) मन (हरि के) दर्शन के राह में भेदा गया है, वह रस्सी से (किसी और तरफ) बाँधा नहीं जा सकता।

पावक जरिओ न जात रहिओ जन धूरि लगि ॥ नीरु न साकसि बोरि चलहि हरि पंथि पगि ॥ नानक रोग दोख अघ मोह छिदे हरि नाम खगि ॥१॥१०॥

पद्अर्थ: पावक = आग। जरिओ न जात = जलाया नहीं जा सकता। जन धूरि = संत जनों की चरण धूल में। नीरु = पानी। बोरि = डुबो। पंथ = रस्ता। पग = पैर। अघ = पाप। छिदे = काटे जाते हैं। खगि = तीर से। दोख = विकार। पंथि = रास्ते पर।

अर्थ: (जो मनुष्य) संत जनों की चरण धूल से जुड़ा रहा है, (उसको) आग जला नहीं सकती; (जिसके) पैर ईश्वर के राह की ओर चलते हैं, उसको पानी डुबो नहीं सकता। हे नानक! (उस मनुष्य के) रोग, दोख, पाप और मोह -यह सारे ही हरि के नाम-रूपी तीर से काटे जाते हैं।१।१०।

उदमु करि लागे बहु भाती बिचरहि अनिक सासत्र बहु खटूआ ॥ भसम लगाइ तीरथ बहु भ्रमते सूखम देह बंधहि बहु जटूआ ॥

पद्अर्थ: बिचरहि = बिचारते हैं। अनिक = बहुत सारे लोग। सासत्र खटूआ = छह शास्त्रों को (सांख, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा, वेदांत)। भ्रमते = भटकते फिरते हैं। सूखम = कमजोर। देह = शरीर। बहु = बहुत सारे मनुष्य। बंधहि जटूआ = जटों बालों की जटा सिर पर धारण कर रहे हैं।

अर्थ: अनेक मनुष्य कई तरह के उद्यम कर रहे हैं, छह शास्त्र विचार रहे हैं; (शरीर पर) राख मल के बहुत सारे मनुष्य तीर्थों पर भटकते फिरते हैं, और कई बँदे शरीर को (तपों से) कमजोर कर चुके हैं और (सीस पर) बालों की जटा धार रहे हैं।

बिनु हरि भजन सगल दुख पावत जिउ प्रेम बढाइ सूत के हटूआ ॥ पूजा चक्र करत सोमपाका अनिक भांति थाटहि करि थटूआ ॥२॥११॥२०॥

पद्अर्थ: सगल = सारे (मनुष्य)। प्रेम = प्रेम से, मजे से। बढाइ = बढ़ाता है, तानता है। सूत के हटूआ = सूत्र के घर, तारों के घर, तारों का जाल। सोमपाका = स्वयं पाक, अपने हाथों से रोटी तैयार करनी। थाटहि = बनाते हैं। बहु थटूआ = कई थाट, कई बनावटें, कई भेख।

अर्थ: कई मनुष्य पूजा करते हैं; शरीर पर चक्रों के चिन्ह लगाते हैं, (शुचिता की खातिर) अपने हाथों से रोटी तैयार करते हैं, व और अनेक तरह की रचनाएं बनाते हैं। पर, हरि के नाम लेने के बिना, ये सारे लोग दुख पाते हैं (यह सारे आडंबर उनके लिए फसने के लिए जाल बन जाते हैं) जैसे (कहना) बड़े मजे से तारों का जाल तनता है (और आप ही उसमें फंस के अपने बच्चों के हाथों मारा जाता है)।2।11।20।


सवईए महले पहिले के १

अर्थ: गुरु नानक साहिब की स्तुति में उचारे हुए सवईऐ।

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

इक मनि पुरखु धिआइ बरदाता ॥ संत सहारु सदा बिखिआता ॥ तासु चरन ले रिदै बसावउ ॥ तउ परम गुरू नानक गुन गावउ ॥१॥

पद्अर्थ: इक मनि = एक मन से, एकाग्र हो के। धिआइ = स्मरण करके, याद कर के। बरदाता = बख्शिश करने वाला। संत सहारु = संतों का आसरा। बिखिआता = प्रकट, हाज़र नाज़र। तासु = उसके। ले = ले के। बसावउ = बसाता हूँ, मैं बसा लूँ। तउ = तब। गुरू नानक गुन = गुरु नानक के गुण।1।

अर्थ: उस अकाल-पुरख को एकाग्र मन से स्मरण करके, जो बख्शिशें करने वाला है, जो संतों का आसरा है और जो सदा हाज़र-नाजर है, मैं उसके चरण अपने हृदय में बसाता हूँ, (और इनकी इनायत से) परम सतिगुरु नानक देव जी के गुणों को गाता हूँ।1।

गावउ गुन परम गुरू सुख सागर दुरत निवारण सबद सरे ॥ गावहि ग्मभीर धीर मति सागर जोगी जंगम धिआनु धरे ॥

पद्अर्थ: गुन सुख सागर = सुखों के समुंदर (खजाने) सतिगुरु के गुण। दुरत = पाप। दुरत निवारण = जो गुरु पापों को दूर करता है। सबद सरे = (जो गुरु) शब्द का सर (भाव, वाणी का श्रोत) है। धीर = धैर्य वाले मनुष्य। मति सागर = मति के समुंदर, ऊँची मति वाले। धिआन धरे = ध्यान धर के। परम = सबसे ऊँचा।

अर्थ: मैं उस परम गुरु नानक देव जी के गुण गाता हूँ, जो पापों को दूर करने वाला है और जो वाणी का श्रोत है। (गुरु नानक को) जोगी, जंगम ध्यान धर के गाते हैं, और वह लोग गाते हैं जो गंभीर हैं, जो धैर्यवान हैं और जो ऊँची मति वाले हैं।

गावहि इंद्रादि भगत प्रहिलादिक आतम रसु जिनि जाणिओ ॥ कबि कल सुजसु गावउ गुर नानक राजु जोगु जिनि माणिओ ॥२॥

पद्अर्थ: इंद्रादि = इन्द्र और अन्य। भगत प्रहिलादिक = प्रहलाद आदि भक्त। आतम रसु = आत्मा का आनंद। जिनि = जिस (गुरु नानक) ने। कबि कल = हे कल्य कवि! सुजसु = सुंदर यश। गुर नानक = गुरु नानक का। जिनि = जिस (गुरु नानक) ने।

अर्थ: जिस गुरु नानक ने आत्मिक आनंद जाना है, उसको इन्द्र आदिक और प्रहलाद आदि भक्त गाते हैं। ‘कल्य’ कवि (कहता है), -मैं उस गुरु नानक देव जी के सुंदर गुण गाता हूँ जिसने राज और जोग पाया है (भाव, जो गृहस्थी भी है और साथ ही माया से उपराम हो के हरि के साथ जुड़ा हुआ है)।2।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh