श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1391 सवईए महले दूजे के २ अर्थ: गुरु अंगद देव जी की स्तुति में उचारे गए सवईऐ। ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सोई पुरखु धंनु करता कारण करतारु करण समरथो ॥ सतिगुरू धंनु नानकु मसतकि तुम धरिओ जिनि हथो ॥ पद्अर्थ: पुरखु = व्यापक हरि। कारण करण = सृष्टि का कारण, सृष्टि का विधाता। समरथो = समर्थता वाला, सारी ताकतों का मालिक। मसतकि तुम = तेरे माथे पर (हे गुरु अंगद!)। जिनि = जिस (गुरु नानक) ने। अर्थ: धन्य है वह कर्तार सर्व-व्यापक हरि, जो इस सृष्टि का मूल कारण है, सृजने वाला है और समर्थता वाला है। धन्य है सतिगुरु नानक, जिस ने (हे गुरु अंगद!) तेरे माथे पर (अपना) हाथ रखा है। त धरिओ मसतकि हथु सहजि अमिउ वुठउ छजि सुरि नर गण मुनि बोहिय अगाजि ॥ मारिओ कंटकु कालु गरजि धावतु लीओ बरजि पंच भूत एक घरि राखि ले समजि ॥ पद्अर्थ: अमिउ = अमृत। वुठउ = बस पड़ा। छजि = छहबर लगा के। बोहिय = भीग गए, तरो तर हो गए, सुगंधित हो गए। अगाजि = प्रत्यक्ष तौर पर। कंटकु = काँटा (भाव, दुखदाई)। गरजि = गरज के, अपना बल दिखा के। धावतु = भटकता। बरजि लीओ = रोक लिया। पंच भूत = कामादिक पाँचों को। समजि = इकट्ठे करके, समेट के (समज = संस्कृत में इकट्ठा करने को कहते हैं, इससे ‘समाज’ ‘नाम’ बना है।) अर्थ: तब सहजे ही (गुरु नानक ने तेरे) माथे पर हाथ रखा। (तेरे हृदय में) नाम-अमृत छहबर लगा के बस गया, जिसकी इनायत से देवतागण, मनुष्य, गण और ऋषि-मुनि प्रत्यक्ष तौर पर भीग गए। (हे गुरु अंगद!) तूने दुखदाई काल को अपना बल दिखा के नाश कर दिया, अपने मन को भटकने से रोक लिया, और कामादिक पाँचों को ही एक जगह पर इकट्ठा करके काबू कर लिया। जगु जीतउ गुर दुआरि खेलहि समत सारि रथु उनमनि लिव राखि निरंकारि ॥ कहु कीरति कल सहार सपत दीप मझार लहणा जगत्र गुरु परसि मुरारि ॥१॥ पद्अर्थ: जीतउ = जीत लिया है। गुरदुआरि = गुरु के दर पर (पड़ कर)। समत = सबको एक दृष्टि से देखना। सारि = नरद। समत सारि = समता की बाज़ी। खेलहि = तू खेलता है। लिव रथु = तवज्जो/ध्यान का रथ, तवज्जो का प्रवाह। उनमनि = उनमन अवस्था में, पूरन खिलाव में। राखि = रख के, रखने के कारण। निरंकारि = अकाल पुरख में। कीरति = शोभा। कल सहार = हे कलसहार! सपत दीप मझार = सातों द्वीपों के बीच (भाव, सारी दुनिया में)। लहणा कीरति = लहणे की शोभा। जगत्र गुरु = जगत के गुरु (नानक देव जी) को। परसि = परस के, छू के। मुरारि = मुरारी रूप गुरु नानक को (मुर+अरि)।1। अर्थ: (हे गुरु अंगद!) गुरु (नानक) के दर पर पड़ कर तूने जगत को जीत लिया है, तू समता की बाजी खोल रहा है; (भाव, तू सबका एक-दृष्टि से देख रहा है)। निरंकार में लगन रखने के कारण तेरी तवज्जो का प्रवाह पूर्ण खिलाव की अवस्था में बना रहता है। हे कल्यसहार! कह: “हरि-रूप जगत के गुरु (नानक देव जी) को परस के (भाव, गुरु नानक के चरणों में लग के) लहणे की शोभा सारे संसार में फैल रही है”।1। जा की द्रिसटि अम्रित धार कालुख खनि उतार तिमर अग्यान जाहि दरस दुआर ॥ ओइ जु सेवहि सबदु सारु गाखड़ी बिखम कार ते नर भव उतारि कीए निरभार ॥ पद्अर्थ: जा की = जिस (गुरु) की। अंम्रितधार दृष्टि = अमृत बरसाने वाली नज़र। कालुख = पाप रूपी कालिख। खनि = खोद के। खनि उतार = उखाड़ के दूर करने के समर्थ। तिमर = अंधेरा। जाहि = दूर हो जाते हैं। दरस दुआर = (जिस के) दर का दर्शन करने से। ओइ = वह मनुष्य (बहुवचन)। सेवहि = जपते हैं। सारु = श्रेष्ठ। गाखड़ी = मुश्किल। बिखम = बिखड़ी। ते नर = वे लोग। भव उतारि = संसार समुंदर से पार लंघा के। निरभार = भार से रहित, हल्के, मुक्त। अर्थ: जिस (गुरु अंगद देव जी) की दृष्टि अमृत बरसाने वाली है, (पापों की) कालिख़ खोद के दूर करने में समर्थ है, उसके दर का दर्शन करने से अज्ञान आदि के अंधेरे दूर हो जाते हैं। जो मनुष्य (उसके) श्रेष्ठ शब्द को जपते हैं, और (ये) मुश्किल और बिखड़ी कार करते हैं, उनको संसार-सागर से पार लंघा के सतिगुरु ने मुक्त कर दिया है। सतसंगति सहज सारि जागीले गुर बीचारि निमरी भूत सदीव परम पिआरि ॥ कहु कीरति कल सहार सपत दीप मझार लहणा जगत्र गुरु परसि मुरारि ॥२॥ पद्अर्थ: सहज सारि = सहज की सार ले के, सहज अवस्था को संभाल के। सहज = आत्मिक अडोलता। जागीले = जाग उठते हैं। गुर बिचारि = सतिगुरु की बताई विचार द्वारा। निंमरी भूत = नीच स्वभाव वाले हो जाते हैं। पिआरि = प्यार में।2। अर्थ: (वह मनुष्य) सत्संगति में सहज अवस्था को प्राप्त करते हैं, सतिगुरु की बताई हुई विचार की इनायत से (उनके मन) जाग उठते हैं; वे सदा विनम्रता और परम-प्यार में (भीगे) रहते हैं। हे कलसहार! कह: “मुरारी के रूप जगत-गुरु (नानक देव जी) को परस के (ऐसे गुरु अंगद) लहणे की शोभा सारे संसार में पसर रही है।”।2। तै तउ द्रिड़िओ नामु अपारु बिमल जासु बिथारु साधिक सिध सुजन जीआ को अधारु ॥ तू ता जनिक राजा अउतारु सबदु संसारि सारु रहहि जगत्र जल पदम बीचार ॥ पद्अर्थ: तै तउ = तू तो। द्रिढ़िओ = दृढ़ किया है, हृदय में टिकाया है। अपारु = बेअंत। बिमल = निर्मल। जासु = यश, शोभा। बिथारु = विस्तार, पसारा। सुजन = नेक लोक। रहहि = तू रहता है। जगत्र = जगत में। जल पदम बीचार = जैसे जल में पदम (कमल) रहता है (भाव, निर्लिप रहता है)। जीआ = जिंदगी। को = का। अर्थ: (हे गुरु अंगद!) तूमने तो (अकाल पुरख के) अपार नाम को अपने हृदय में टिकाया है, तेरी निर्मल शोभा पसरी हुई है। तू साधिक सिद्ध और संत जनों की जिंदगी का सहारा है। (हे गुरु अंगद!) तू तो (निर्लिपता में) राजा जनक का अवतार है (भाव, जैसे राजा जनक निर्लिप रहता था, वैसे ही तू निर्लिप रहता है)। जगत में (तेरा) शब्द श्रेष्ठ है, तू जगत में इस तरह निर्लिप रहता है, जैसे कमल-फूल जल में। कलिप तरु रोग बिदारु संसार ताप निवारु आतमा त्रिबिधि तेरै एक लिव तार ॥ कहु कीरति कल सहार सपत दीप मझार लहणा जगत्र गुरु परसि मुरारि ॥३॥ पद्अर्थ: कलिप तरु = कल्प वृक्ष, मनो कामना पूरी करने वाला पेड़। (संस्कृत के विद्वानों ने माना है कि ये वृक्ष इन्द्र के स्वर्ग में है। देखें, आसा दी वार सटीक, पउड़ी 13, ‘पारिजातु’)। रोग बिदारु = रोगों को दूर करने वाला। संसार ताप निवारु = संसार के तापों का निवारण करने वाला। आतमा त्रिबिधि = तीनों किस्मों वाले (भाव, तीन गुणों में बरतने वाले) जीव, संसारी जीव। तेरै = तेरे में (हे गुरु अंगद!)। एक लिव तार = एक रस तवज्जो/ध्यान लगा के रखते हैं।3। अर्थ: (हे गुरु अंगद देव!) तू कल्प वृक्ष है, रोगों को दूर करने वाला है, संसार के दुखों को निर्वित करने वला है। सारे संसारी जीव तेरे (चरणों) में एक-रस लगन लगाए बैठे हैं। हे कल्यसहार! कह: ‘मुरारी-रूप जगत-गुरु (नानक देव जी) को परस के (ऐसे गुरु अंगद) लहणे की शोभा सातों द्वीपों में फैल रही है’।3। तै ता हदरथि पाइओ मानु सेविआ गुरु परवानु साधि अजगरु जिनि कीआ उनमानु ॥ हरि हरि दरस समान आतमा वंतगिआन जाणीअ अकल गति गुर परवान ॥ जा की द्रिसटि अचल ठाण बिमल बुधि सुथान पहिरि सील सनाहु सकति बिदारि ॥ पद्अर्थ: हदरथि = दरगाह से, हजूर से, गुरु नानक से। परवानु = प्रामाणिक, जाना माना। साधि = सुधार के, काबू कर के। अजगरु = अजगर साँप (जैसे मन को)। जिनि = जिस (गुरु नानक ने)। उनमान = ऊँचा मन। हरि हरि दरस समान = जिस का दर्शन हरि के दर्शनों के समान हैं। आतमा वंत गिआन = तू आत्मज्ञान वाला है। जाणीअ = तू जानने वाला है। अकल = (नास्ति कला अवयवो यस्य) एक रस व्यापक प्रभु। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। गुर परवान = स्वीकार हुए गुरु (नानक) का। जा की = जिस (माने हुए गुरु नानक) की। अचल ठाण = अचल ठिकाने पर। सुथान = श्रेष्ठ जगह पर। पहिरि = पहन के। सनाहु = लोहे की जाली आदिक जो युद्ध में शरीर के बचाव के लिए पहनी जाती है। सकति = माया। बिदारि = नाश कर के। अर्थ: (हे गुरु अंगद!) तूने तो (गुरु-नानक की) हजूरी में सम्मान पाया है; तूने प्रामाणिक गुरु (नानक) की सेवा की है, जिसने असाध्य मन को साधु के उसको ऊँचा किया हुआ है, जिस (गुरु नानक) की निगाह अचल ठिकाने पर (टिकी हुई) है, जिस गुरु की बुद्धि निर्मल है और श्रेष्ठ जगह पर लगी हुई है, और जिस गुरु नानक ने विनम्रता वाले स्वभाव का सनाह (कवच) पहन के माया (के प्रभाव) को नाश किया है। (हे गुरु अंगद!) जिस गुरु का दर्शन हरि के दर्शनों के समान है, जो आत्म ज्ञान वाला है, तूने उस प्रामाणिक और सर्व-व्यापक प्रभु के रूप गुरु (नानक देव जी) की ऊँची आत्मिक अवस्था समझ ली है। कहु कीरति कल सहार सपत दीप मझार लहणा जगत्र गुरु परसि मुरारि ॥४॥ अर्थ: हे कल्यसहार! कह: “मुरारी के रूप जगत-गुरु (नानक देव जी के चरणों) को परस के (ऐसे गुरु अंगद) लहणे की शोभा सारे संसार में पसर रही है”।4। द्रिसटि धरत तम हरन दहन अघ पाप प्रनासन ॥ सबद सूर बलवंत काम अरु क्रोध बिनासन ॥ पद्अर्थ: द्रिसटि धरत = दृष्टि करते ही। तम हरन = अंधेरे को दूर करने वाला। दहन अघ = पापों को जलाने वाला। पाप प्रनासन = पापों को नाश करने वाला। सबद सूर = शब्द का सूरमा। अर्थ: (हे गुरु अंगद!) दृष्टि करते ही तू (अज्ञान-रूप) अंधेरे को दूर कर देता है; तू पाप जलाने वाला है, और पाप नाश करने वाला है। तू शब्द का सूरमा है और बलवान है, काम और क्रोध को तू नाश कर देता है। लोभ मोह वसि करण सरण जाचिक प्रतिपालण ॥ आतम रत संग्रहण कहण अम्रित कल ढालण ॥ पद्अर्थ: आतम रत = आत्मिक प्रेम। कहण = कथन, वचन। कल = सुंदर। ढालण = प्रवाह। वसि = वश में। अर्थ: (हे गुरु अंगद!) तूने लोभ और मोह को काबू किया हुआ है, शरण आए मंगतों को तू पालने वाला है, तूने आत्मिक प्रेम को इकट्ठा किया हुआ है, तेरे वचन अमृत के सुंदर चश्मे हैं। सतिगुरू कल सतिगुर तिलकु सति लागै सो पै तरै ॥ गुरु जगत फिरणसीह अंगरउ राजु जोगु लहणा करै ॥५॥ पद्अर्थ: कल = हे कल्यसहार! सति = निश्चय कर के, श्रद्धा धार के। गुरु जगत = जगत का गुरु। फिरण सीह = बाबा फेरू का सपुत्र। अंगरउ = गुरु अंगद देव। अर्थ: हे कल्यसहार! सतिगुरु (अंगद देव) शिरोमणी गुरु है। जो मनुष्य श्रद्धा धार के उसके चरणों में लगता है उसका उद्धार हो जाता है। जगत का गुरु, बाबा फेरू (जी) का सपुत्र लहिणा जी (गुरु) अंगद राज और जोग माणता है।5। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |