श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1399 फुनि मन बच क्रम जानु अनत दूजा न मानु नामु सो अपारु सारु दीनो गुरि रिद धर ॥ नल्य कवि पारस परस कच कंचना हुइ चंदना सुबासु जासु सिमरत अन तर ॥ पद्अर्थ: फुनि = और। जानु = पहचान। अनत = अन्य, कोई दूसरा। मानु = मंन, पूज, जप। सारु = श्रेष्ठ। गुरि = गुरु (रामदास जी) ने। रिद = हृदय का। धर = आसरा। परस = छूह। कंचना = सोना। हुइ = हो जाता है। चंदना सुबासु = चँदन की सुगंधि। अन तर = और वृक्षों में। जासु = जिस का (नाम)। अर्थ: हे नल्य कवि! और अन्य (ये काम कर कि) अपने मन वचनों और कर्मों के द्वारा (उसी नाम को) दृढ़ कर, किसी और को ना जप, वह बेअंत और श्रेष्ठ नाम उस गुरु (रामदास जी) ने तेरे हृदय का आसरा बना दिया है, जिसको स्मरण करने से (ऐसे हो जाते हैं जैसे) पारस को छू के काँच सोना हो जाता है और (चँदन की छूह से) और वृक्षों में भी चँदन की खुशबू आ जाती है। जा के देखत दुआरे काम क्रोध ही निवारे जी हउ बलि बलि जाउ सतिगुर साचे नाम पर ॥३॥ पद्अर्थ: दुआरे = दर, दरवाजा। निवारे = दूर हो जाते हैं। अर्थ: जिस गुरु (रामदास जी) के दर के दर्शन करने से काम-क्रोध (आदि यह सारे) दूर हो जाते हैं, मैं सदके हूँ उस सच्चे गुरु के नाम पर से।3। राजु जोगु तखतु दीअनु गुर रामदास ॥ पद्अर्थ: दीअनु = दीया उनि, उस (हरि) ने दिया। गुर रामदास = गुरु रामदास जी को। अर्थ: उस (अकाल-पुरख) ने गुरु रामदास (जी) को राज और जोग (वाला) तख़्त दिया है। प्रथमे नानक चंदु जगत भयो आनंदु तारनि मनुख्य जन कीअउ प्रगास ॥ गुर अंगद दीअउ निधानु अकथ कथा गिआनु पंच भूत बसि कीने जमत न त्रास ॥ पद्अर्थ: प्रथमे = पहले। चंदु = चँद्रमा। आनंदु = खुशी। तारनि = तैराने के लिए, उद्धार के लिए। प्रगास = प्रकाश, रौशनी। दीअउ = दिया। निधान = खजाना। अकथ = अकह। पंच भूत = (कामादिक) पाँचों वैरी। जमत न = पैदा नहीं होता। त्रास = डर। कीने = कर लिए। अर्थ: पहले गुरु नानक देव जी चँद्रमा (-रूप प्रकट हुए), मनुष्यों के उद्धार के लिए (आपने) प्रकाश किया और (सारे) संसार को खुशी हुई। (फिर गुरु नानक देव ने) गुरु अंगद देव जी को हरि के अकथ-कथा का ज्ञान-रूप खजाना बख्शा, (जिसके कारण गुरु अंगद देव ने) कामादिक पाँचों वैरी वश में कर लिए, और (उसको उनका) डर ना रहा। गुर अमरु गुरू स्री सति कलिजुगि राखी पति अघन देखत गतु चरन कवल जास ॥ सभ बिधि मान्यिउ मनु तब ही भयउ प्रसंनु राजु जोगु तखतु दीअनु गुर रामदास ॥४॥ पद्अर्थ: पति = इज्जत। अघन = पाप। गतु = दूर हो गए। जास = जिस (गुरु अमरदास जी) के। सभ बिधि = सब तरह से, पूरी तौर से। मान्हिउ = पतीज गया। अर्थ: (फिर गुरु अंगद देव जी की छूह से) श्री सतिगुरु गुरु अमरदास (प्रकट हुआ), (उसने) कलियुग की पति रखी, आप के चरण-कमलों का दर्शन करके (कलिजुग के) पाप भाग गए। (जब गुरु अमरदास जी का) मन पूरी तरह से पतीज गया, तब (वह गुरु रामदास जी पर) प्रसन्न हुए और (उन्होंने) गुरु रामदास को राज-जोग वाला तख़्त बख्शा।4। रड ॥ जिसहि धारि्यउ धरति अरु विउमु अरु पवणु ते नीर सर अवर अनल अनादि कीअउ ॥ ससि रिखि निसि सूर दिनि सैल तरूअ फल फुल दीअउ ॥ पद्अर्थ: रड = छंद। जिसहि = जिस हरि नाम ने। धार्उ = टिका के रखा है। विउमु = व्योम, आकाश। ते = वे (बहु वचन)। नीर सर = सरोवर का पानी। अवर = अरु, अन्य। अनल = आग। अनादि = अन्न आदि। कीअउ = पैदा किया है। तरूअ = तरु, वृक्ष। सैल = शैल, पहाड़। ससि = चँद्रमा। रिखि = तारे। निसि = रात के समय। सूर = सूरज। दिनि = दिन के वक्त। अर्थ: जिस हरि-नाम ने धरती और आकाश को टिका के रखा है, और जिसने पवन, सरोवरों के वह जल, आग और अन्न आदि पैदा किए हैं, (जिसकी इनायत से) रात को चँद्रमा और तारे और दिन के वक्त सूरज (चढ़ता है), जिसने पहाड़ रचे हैं और जिसने वृक्षों को फल-फूल लगाए हैं। सुरि नर सपत समुद्र किअ धारिओ त्रिभवण जासु ॥ सोई एकु नामु हरि नामु सति पाइओ गुर अमर प्रगासु ॥१॥५॥ पद्अर्थ: सुरि = देवते। नर = मनुष्य। सपत = सात। किअ = किए, बनाए। धारिओ = टिकाए हैं। जासु = जिस ने। प्रगासु = प्रकाश, रौशनी। सति = अटल, सदा स्थिर। अर्थ: जिसने देवते मनुष्य और सात समुंदर पैदा किए हैं और तीनों भवन टिका के रखे हैं, वही एक हरि का नाम सदा अटल है, (गुरु रामदास जी ने वही नाम-रूप) प्रकाश गुरु अमरदास जी से पाया है।1।5। कचहु कंचनु भइअउ सबदु गुर स्रवणहि सुणिओ ॥ बिखु ते अम्रितु हुयउ नामु सतिगुर मुखि भणिअउ ॥ पद्अर्थ: कचहु = काँच से। सबदु गुर = गुरु का शब्द। स्रवणहि = श्रवण: , कानों से। बिखु = विष, जहर। मुखि = मुँह से। भणिअउ = उचारा। अर्थ: (जिस मनुष्य ने) गुरु का शब्द कानों से सुना है, वह (मानो) काँच से सोना हो गया है। जिसने सतिगुरु का नाम मुँह से उचारा है, वह विष से अमृत बन गया है। लोहउ होयउ लालु नदरि सतिगुरु जदि धारै ॥ पाहण माणक करै गिआनु गुर कहिअउ बीचारै ॥ पद्अर्थ: लोहउ = लोहे से। जदि = यदि। नदरि धारै = देखे, दृष्टि करे। पाहण = पत्थर। बीचारै = विचार के। माणक = मोती। अर्थ: अगर सतिगुरु (मेहर की) नजर करे, तो (जीव) लोहे से लाल बन जाता है। जिस मनुष्यों ने गुरु के बताए हुए ज्ञान को विचार के जपा है उनको गुरु (मानो) पत्थरों से माणक कर देता है। काठहु स्रीखंड सतिगुरि कीअउ दुख दरिद्र तिन के गइअ ॥ सतिगुरू चरन जिन्ह परसिआ से पसु परेत सुरि नर भइअ ॥२॥६॥ पद्अर्थ: काठहु = काठ से, लकड़ी से। श्रीखंड = चँदन। सतिगुरि = सतिगुरु ने। तिन के = उन मनुष्यों के। गइअ = गए, दूर हो जाते हैं। जिन्ह = जिस मनुष्यों ने। तिन के = उन मनुष्यों ने। से = वे मनुष्य (बहुवचन)। अर्थ: जिस मनुष्यों ने सतिगुरु के चरण परसे हैं, वह पशू व प्रेतों से देवते और मनुष्य बन गए हैं, उनके दुख-दारिद्र दूर हो गए हैं और सतिगुरु ने उनको (मानो) काठ से चँदन बना दिया है।2।6। जामि गुरू होइ वलि धनहि किआ गारवु दिजइ ॥ जामि गुरू होइ वलि लख बाहे किआ किजइ ॥ पद्अर्थ: जामि = जब। वलि होइ = सहायता करे, की तरफ हो। धनहि = धन में, धन के कारण। गारवु = अहंकार। दिजइ = देता, करता। किआ गारवु = क्या गर्व? , क्या अहंकार? (भाव, कोई अहंकार नहीं)। लख बाहे = लाखों बाहें, लाखों फौजें। किआ किजइ = क्या बिगाड़ सकती हैं? अर्थ: जब सतिगुरु (किसी मनुष्य की) सहायता करे तो वह धन के कारण अहंकार नहीं करता। जब गुरु (अपने) पक्ष में हो, तो लाखों फौजें क्या बिगाड़ सकती हैं? जामि गुरू होइ वलि गिआन अरु धिआन अनन परि ॥ जामि गुरू होइ वलि सबदु साखी सु सचह घरि ॥ पद्अर्थ: अनन परि = किसी अन्य की तरफ नहीं। अनन = ना अन्य, नहीं कोई और। परि = की ओर, परायण। साखी = साक्षात हो जाता है, हृदय में प्रकट हो जाता है। सु = वह मनुष्य। सचह घरि = सदा स्थिर प्रभु के घर में (टिक के), सच के घर में। अर्थ: जब गुरु पक्ष करे, तो मनुष्य ज्ञान और ध्यान की दाति होने के कारण (हरि के बिना) किसी और के साथ प्यार नहीं डालता। जब गुरु सहायता करे, तो जीवों के हृदय में शब्द साक्षात हो जाता है और वह सच्चे हरि के घर में (टिक जाता) है। जो गुरू गुरू अहिनिसि जपै दासु भटु बेनति कहै ॥ जो गुरू नामु रिद महि धरै सो जनम मरण दुह थे रहै ॥३॥७॥ पद्अर्थ: अहि निसि = दिन रात। अहि = दिन। निसि = रात। दासु भटु = दास (नल्य) भाट। रिद महि = हृदय में। धरै = टिकाता है। दुहथे = दोनों से। रहै = बच जाता है। अर्थ: दास (नल्य) भाट विनती करता है कि जो मनुष्य दिन-रात ‘गुरु गुरु’ जपता है, जो सतिगुरु का नाम हृदय में टिकाता है, वह मनुष्य जनम-मरण से बच जाता है।3।7। गुर बिनु घोरु अंधारु गुरू बिनु समझ न आवै ॥ गुर बिनु सुरति न सिधि गुरू बिनु मुकति न पावै ॥ पद्अर्थ: घोरु अंधारु = घोर अंधकार, डरावना अंधेरा। अर्थ: सतिगुरु (की शरण पड़े) बिना (मनुष्य के जीवन की राह में) अंधकार ही अंधकार है, गुरु के बिना (सही जीवन की) समझ प्राप्त नहीं हो सकती। गुरु के बिना सोच (ऊँची) नहीं होती और (जीवन संग्राम में) सफलता प्राप्त नहीं होती, गुरु के बिना (विकारों से) खलासी नहीं मिलती। गुरु करु सचु बीचारु गुरू करु रे मन मेरे ॥ गुरु करु सबद सपुंन अघन कटहि सभ तेरे ॥ पद्अर्थ: करु = धारण कर। सबद सपुंन = शब्द सम्पन्न, शब्द का सूरा। अघन = पाप। अर्थ: हे मेरे मन! सतिगुरु की शरण पड़, यही उत्तम विचार है। शब्द के शूरवीर गुरु की शरण पड़, तेरे सारे पाप कट जाएंगे। गुरु नयणि बयणि गुरु गुरु करहु गुरू सति कवि नल्य कहि ॥ जिनि गुरू न देखिअउ नहु कीअउ ते अकयथ संसार महि ॥४॥८॥ पद्अर्थ: नयणि = नेत्र में। बयणि = वचन में। करहु = बसाओ। सति = सदा स्थिर। कीअउ = किया, धारण किया। अकयथ = निष्फल। ते = वह लोग। जिनि = जिस (जिस मनुष्य) ने। नहु = नहीं। कीअउ = किया, धारण किया। अर्थ: कवि नल्य कहता है: (हे मेरे मन!) अपनी आँखों में, अपने बोलों में केवल गुरु को ही बसाओ, गुरु सदा-स्थिर रहने वाला है। जिस-जिस मनुष्य ने सतिगुरु के दर्शन नहीं किए, और जो जो मनुष्य सतिगुरु की शरण नहीं पड़ा, वह सारे संसार में निष्फल (ही आए)।4।8। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |