श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गुरू गुरू गुरु करु मन मेरे ॥ तारण तरण सम्रथु कलिजुगि सुनत समाधि सबद जिसु केरे ॥ फुनि दुखनि नासु सुखदायकु सूरउ जो धरत धिआनु बसत तिह नेरे ॥

पद्अर्थ: तारण तरण = तैराने के लिए जहाज। तरण = जहाज। सम्रथु = समर्थ। कलिजुगि = कलियुग में। सुनत = सुनते हुए। सबद जिसु केरे = जिस गुरु के शब्द। केरे = के। समाधि = समाधि (में जुड़ा जाया जाता है)। फुनि = फिर। दुखनि नासु = दुखों का नाश करने वाला। सूरउ = सूरमा। तिह नेरे = उस मनुष्य के पास।

अर्थ: हे मेरे मन! ‘गुरु’ ‘गुरु’ जप। जिस गुरु की वाणी सुन के समाधि (में लीन हो जाया जाता है), वह गुरु कलियुग में (संसार-सागर से) तैरा लेने के लिए समर्थ जहाज है। वह गुरु दुखों का नाश करने वाला है, सुखों के देने वाला शूरवीर है। जो मनुष्य उसका ध्यान धरता है, वह गुरु उसके अंग-संग बसता है।

पूरउ पुरखु रिदै हरि सिमरत मुखु देखत अघ जाहि परेरे ॥ जउ हरि बुधि रिधि सिधि चाहत गुरू गुरू गुरु करु मन मेरे ॥५॥९॥

पद्अर्थ: पूरउ = पूरा। रिदै = दिल में। मुखु = (उस गुरु का) मुँह। अघ = पाप। जाहि परेरे = दूर हो जाते हैं। जउ = यदि। हरि बुधि = ईश्वरीय बुद्धि।

अर्थ: सतिगुरु पूरन पुरख है, गुरु हृदय में हरि को स्मरण करता है, (उसका) मुख देखने से पाप दूर हो जाते हैं। हे मेरे मन! यदि तू ईश्वरीय बुद्धि, रिद्धियां और सिद्धियां चाहता है, तो ‘गुरु’ ‘गुरु’ जप।5।9।

गुरू मुखु देखि गरू सुखु पायउ ॥ हुती जु पिआस पिऊस पिवंन की बंछत सिधि कउ बिधि मिलायउ ॥ पूरन भो मन ठउर बसो रस बासन सिउ जु दहं दिसि धायउ ॥

पद्अर्थ: गुरू मुख = सतिगुरु का मुँह। गुरू सुखु = बड़ा आनंद। गरू = (गरीयस् = Compare of गुरु)। पायउ = मिला है, लिया है। हुती जु पिआस = जो प्यास (लगी हुई) थी। पिऊस = (पीयुष) अमृत। पिवंन की = पीने की। बंछत = मन इच्छत। कउ = के लिए। बिधि = ढंग! मिलायउ = मिला दिया है, बना दिया है। भो = हो गया है। ठउर बसो = जगह बस गया है, टिक गया है। रस बासन सिउ = रसों व वासना से। जु = जो मन। दहं दिसि = दसों तरफ। धायउ = दौड़ता है।

अर्थ: सतिगुरु (अमरदास जी) के दर्शन कर के (गुरु रामदास जी ने) बड़ा आनंद पाया है। (आप को) अमृत पीने की जो तमन्ना लगी हुई थी, उस मन-इच्छित (चाहत की) सफलता का ढंग (हरि ने) बना दिया है। (संसारी जीवों का) जो मन रसों-वासनाओं के पीछे दसों-दिशाओं में दौड़ता है आप का वह मन तृप्त हो गया है और टिक गया है।

गोबिंद वालु गोबिंद पुरी सम जल्यन तीरि बिपास बनायउ ॥ गयउ दुखु दूरि बरखन को सु गुरू मुखु देखि गरू सुखु पायउ ॥६॥१०॥

पद्अर्थ: गोबिंद पुरी सम = हरि के नगर समान, बैकुंठ समान। सम = बराबर, जैसा। जल्न तीरि बिपास = ब्यास के जल के किनारे पर। बरखन को दुखु = वर्षों का दुख। तीरि = किनारे पर।

अर्थ: (जिस सतिगुरु अमरदास जी ने) बैकुंठ जैसा गोइंदवाल ब्यास के पानी के किनारे पर बना दिया है, उस गुरु का मुँह देख के (गुरु रामदास जी ने) बड़ा आनंद पाया है, (आप का, जैसे) वर्षों का दुख दूर हो गया है।6।10।

समरथ गुरू सिरि हथु धर्यउ ॥ गुरि कीनी क्रिपा हरि नामु दीअउ जिसु देखि चरंन अघंन हर्यउ ॥ निसि बासुर एक समान धिआन सु नाम सुने सुतु भान डर्यउ ॥

पद्अर्थ: सिरि = सिर पर। गुरि = सतिगुरु ने। जिसु देखि चरंन = जिस (गुरु) के चरणों को देख के। अघंन = पाप। हर्यउ = दूर हो गए। निसि बासुर = रात दिन। बासुर = दिन। एक समान = एक रस। सुतु भान = सूरज का पुत्र, जम। भान = सूरज। सुने = सन के।

अर्थ: समर्थ गुरु (अमरदास जी) ने (गुरु रामदास जी के) सिर पर हाथ रखा है। जिस (गुरु अमरदास जी) के दर्शन करने से पाप दूर हो जाते हैं, उस गुरु ने मेहर की है, (गुरु रामदास जी को) हरि का नाम बख्शा है; (उस नाम में गुरु रामदास जी का) दिन-रात एक-रस ध्यान रहता है, उस नाम को सुनने से जम-राज (भी) डरता है (भाव, नजदीक नहीं आता)।

भनि दास सु आस जगत्र गुरू की पारसु भेटि परसु कर्यउ ॥ रामदासु गुरू हरि सति कीयउ समरथ गुरू सिरि हथु धर्यउ ॥७॥११॥

पद्अर्थ: भनि = कह। दास = हे दास (नल्य) कवि! जगत्र गुरू = जगत के गुरु। पारसु भेटि = पारस (गुरु अमरदास जी) को मिल के। परसु = परसन योग (पारसु)। कर्यउ = किया गया है। सति = अटल।

अर्थ: हे दास नल्य! कवि! कह: ‘गुरु रामदास जी को केवल जगत के गुरु की ही आस है, पारस (गुरु अमरदास जी) को मिल के आप भी परसन-योग (पारस ही) हो गए हैं। हरि ने गुरु रामदास जी को अटल कर रखा है, (क्योंकि) समर्थ गुरु (अमरदास जी) ने (उनके) सिर पर हाथ रखा हुआ है’।7।11।

अब राखहु दास भाट की लाज ॥ जैसी राखी लाज भगत प्रहिलाद की हरनाखस फारे कर आज ॥ फुनि द्रोपती लाज रखी हरि प्रभ जी छीनत बसत्र दीन बहु साज ॥

पद्अर्थ: फारे = फाड़ दिया। कर = हाथ। कर आज = हाथों के नाखूनों से। छीनत = छीनते हुए। दीन = दिया। साज = समान।

अर्थ: (हे सतिगुरु जी!) अब इस दास (नल्य) भाट की इज्जत रख लो, जैसे (आप ने) प्रहलाद भक्त की इज्जत रखी थी और हर्णाक्षस को हाथों के नाखूनों से मार दिया था। और, हे हरि-प्रभु जी! द्रोपदी की (भी) आपने इज्जत बचाई, जब उसके वस्त्र छीने जा रहे थे, (आपने) उसको बहुत सम्मान बख्शा था।

सोदामा अपदा ते राखिआ गनिका पड़्हत पूरे तिह काज ॥ स्री सतिगुर सुप्रसंन कलजुग होइ राखहु दास भाट की लाज ॥८॥१२॥

पद्अर्थ: अपदा = बिपता, कष्ट। राखिआ = बचाया। गनिका = कंजरी। पूरे = पूरे किए, सफल किए। तिह काज = उस (गनिका) के काम। सतिगुर = हे सतिगुरु! सुप्रसंन होइ = प्रसन्न हो के। लाज = इज्जत।

अर्थ: हे सतिगुरु जी! सुदामे को (आपने) बिपता से बचाया, (राम नाम) पढ़ती गनिका का काम सफल किया। अब कलियुग के समय इस सेवक (नल्य) भाट पर (भी) प्रसन्न हो के इसकी इज्जत रखो।8।12।

झोलना ॥ गुरू गुरु गुरू गुरु गुरू जपु प्रानीअहु ॥ सबदु हरि हरि जपै नामु नव निधि अपै रसनि अहिनिसि रसै सति करि जानीअहु ॥ फुनि प्रेम रंग पाईऐ गुरमुखहि धिआईऐ अंन मारग तजहु भजहु हरि ग्यानीअहु ॥

पद्अर्थ: झोलना = छंद। अपै = अरपे, अर्पित करता है। रसनि = जीभ से। अहिनिसि = दिन रात (भाव, हर वक्त)। रसै = आनंद लेता है, स्मरण करता है। सति करि = ठीक, सच कर के। जानीअहु = जानो, समझो। प्रेम रंग = प्रेम की रंगण। गुरमुखहि = गुरु के सन्मुख हो के। अंन मारग = और रास्ते, और पंथ। तजहु = छोड़ो। ग्यानीअहु = हे ज्ञानियो! हे ज्ञान वाले सज्जनो!

अर्थ: हे प्राणियो! नित्य ‘गुरु’ ‘गुरु’ जपो। (ये बात) सच जानो, कि (सतिगुरु स्वयं) हरि-शब्द जपता है, (और लोगों को) नाम-रूपी नौ-निद्धियां बख्शता है, और हर वक्त जीभ से (नाम का) आनंद ले रहा है। (अगर) गुरु की शिक्षा ले के (हरि को) स्मरण करें, तो हरि के प्रेम का रंग प्राप्त होता है, (इसलिए) हे ज्ञानवानों! और रास्ते छोड़ दो, और हरि को स्मरण करो।

बचन गुर रिदि धरहु पंच भू बसि करहु जनमु कुल उधरहु द्वारि हरि मानीअहु ॥ जउ त सभ सुख इत उत तुम बंछवहु गुरू गुरु गुरू गुरु गुरू जपु प्रानीअहु ॥१॥१३॥

पद्अर्थ: रिदि = हृदय में। वचन गुर = सतिगुरु के वचन। पंच भू = मन। बसि करहु = वश में करो, काबू करो। उधरहु = तैरा लो, सफल कर लो। द्वारि हरि = हरि के दर पर, हरि की दरगाह में। मानीअहु = मान पाओगे। जउत = यदि। इत उत = यहाँ वहाँ के, इस संसार के और परलोक के। सब सुख बंछवहु = तुम सारे सुख चाहते हो।

अर्थ: (हे प्राणियो!) सतिगुरु के वचनों को हृदय में टिकाओ (और इस तरह) अपने मन को काबू करो, अपने जनम और कुल को सफल करो, हरि के दर पर आदर पाओगे। अगर तुम परलोक के सारे सुख चाहते हो, तो हे प्राणियो! सदा गुरु गुरु जपो।1।13।

गुरू गुरु गुरू गुरु गुरू जपि सति करि ॥ अगम गुन जानु निधानु हरि मनि धरहु ध्यानु अहिनिसि करहु बचन गुर रिदै धरि ॥ फुनि गुरू जल बिमल अथाह मजनु करहु संत गुरसिख तरहु नाम सच रंग सरि ॥

पद्अर्थ: सति करि = श्रद्धा से, दृढ़ करके। अगम गुन निधानु = बेअंत गुणों का खजाना। जानु = जाननेवाला। मनि = मन में। धरि = धर के। बिमल = निर्मल, शुद्ध। अथाह = गंभीर। मजनु = स्नान। गुरसिख = हे गुरसिखो! रंगि सरि = प्रेम के सरोवर। तरहु = तैरो।

अर्थ: हे संतजनो! हे गुरसिखो! श्रद्धा से गुरु गुरु जपो। सतिगुरु के वचन हृदय में बसा के (घट-घट की) जाननेवाले और बेअंत गुणों के खजाने हरि को मन में बसाओ, और दिन-रात उसी का ध्यान धरो। फिर सतिगुरु-रूपी निर्मल और गंभीर जल में डुबकी लगाओ, और सच्चे नाम के प्रेम में तैराकी करो।

सदा निरवैरु निरंकारु निरभउ जपै प्रेम गुर सबद रसि करत द्रिड़ु भगति हरि ॥ मुगध मन भ्रमु तजहु नामु गुरमुखि भजहु गुरू गुरु गुरू गुरु गुरू जपु सति करि ॥२॥१४॥

पद्अर्थ: जपै = (जो गुरु) जपता है। रसि = आनंद में। भगति हरि = हरि की भक्ति। मुगध मन = हे मूर्ख मन! गुरमुखि = गुरु से।

अर्थ: (जो गुरु रामदास) सदा निर्वैर और निर्भय निरंकार को जपता है, और सतिगुरु के शब्द के प्रेम के आनंद में हरि की भक्ति दृढ़ करता है, उस गुरु के सन्मुख हो के हे मूर्ख मन! (हरि का) नाम जप, और भ्रम छोड़ दे, श्रद्धा से ‘गुरु’ ‘गुरु’ कर।2।14।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh