श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गुरू गुरु गुरु करहु गुरू हरि पाईऐ ॥ उदधि गुरु गहिर ग्मभीर बेअंतु हरि नाम नग हीर मणि मिलत लिव लाईऐ ॥ फुनि गुरू परमल सरस करत कंचनु परस मैलु दुरमति हिरत सबदि गुरु ध्याईऐ ॥

पद्अर्थ: गुरू हरि पाईऐ = गुरु के द्वारा ही हरि मिलता है। उदधि = समुंदर। गहिर = गहरा। नग हीर मणि = मोती, हीरे, जवाहरात। मिलत = मिलते हैं। परमल परस = रसदायक सुगन्धि। कंचनु = सोना। गुरू परस = गुरु की छूह। हिरत = दूर कर देती है। सबदि गुरु = शब्द से गुरु को।

अर्थ: (हे भाई!) सदा ‘गुरु’ ‘गुरु’ करो, गुरु के द्वारा ही हरि मिलता है। सतिगुरु गहरा गंभीर और बेअंत समुंदर है, (उसमें) डुबकी लगाने से हरि का नाम-रूपी नग, हीरे और मणियां प्राप्त होती हैं। और, सतिगुरु की छोह (जीव के अंदर) स्वादिष्ट सुगन्धि पैदा कर देती है; सोना बना देती है, दुर्मति की मैल दूर कर देती है; (इसलिए) शब्द के माध्यम से गुरु को स्मरण करें।

अम्रित परवाह छुटकंत सद द्वारि जिसु ग्यान गुर बिमल सर संत सिख नाईऐ ॥ नामु निरबाणु निधानु हरि उरि धरहु गुरू गुरु गुरु करहु गुरू हरि पाईऐ ॥३॥१५॥

पद्अर्थ: परवाह = प्रवाह, श्रोत। छुटकंत = चलते हैं, बहते हैं। सद = सदा। द्वारि जिसु = जिस गुरु के दर पर। सर = सरोवर। निरबाणु = वासना रहित, कल्पना रहित। उरि = हृदय में।

अर्थ: जिस गुरु के दर पर सदा अमृत के चश्मे (निरंतर) बह रहे हैं, जिस गुरु के ज्ञान-रूप निर्मल सरोवर में सिख संत स्नान करते हैं, उस गुरु के द्वारा हरि के वासना-रहित नाम-खजाने को हृदय में बसाओ। सदा ‘गुरु’ ‘गुरु’ करो, गुरु के द्वारा ही हरि मिलता है।3।15।

गुरू गुरु गुरू गुरु गुरू जपु मंन रे ॥ जा की सेव सिव सिध साधिक सुर असुर गण तरहि तेतीस गुर बचन सुणि कंन रे ॥ फुनि तरहि ते संत हित भगत गुरु गुरु करहि तरिओ प्रहलादु गुर मिलत मुनि जंन रे ॥

पद्अर्थ: मंन रे = हे मन! जा की सेव = जिस (गुरु) की सेवा से। सुर = देवते। असुर = राक्षस, दैत्य। गण = शिव जी के गण। तेतीस = तैतिस करोड़ देवते। कंन = कानों से। सुणि = सुन के। हित = प्यार से। ते संत = वह संत जन। साधिक = जोग साधना करने वाले। सिध = जोग साधना करने वाले सिद्ध योगी।

अर्थ: हे मेरे मन! गुरु गुरु जप, शिव जी, उसके गण, सिद्ध, साधिक, दैव, दैत्य और तैतिस करोड़ देवता, उस (गुरु) की सेवा करके और गुरु के वचन कानों से सुन के पार उतर जाते हैं। और, वह संत जन और भक्त तैर जाते हैं, जो प्यार से ‘गुरु’ ‘गुरु’ करते हैं। गुरु को मिल के प्रहलाद तैर गया और कई मुनि तैर गए।

तरहि नारदादि सनकादि हरि गुरमुखहि तरहि इक नाम लगि तजहु रस अंन रे ॥ दासु बेनति कहै नामु गुरमुखि लहै गुरू गुरु गुरू गुरु गुरू जपु मंन रे ॥४॥१६॥२९॥

पद्अर्थ: हरि गुरमुखहि = हरि के रूप गुरु के द्वारा। इक नाम लगि = एक नाम में जुड़ के। रस अंन = और स्वाद। दासु = दास नल्य कवि। गुरमुखि = गुरु के द्वारा, गुरु के सन्मुख हो के।

अर्थ: हरि-रूप गुरु के द्वारा एक नाम में जुड़ के नारद और सनक आदि तैर जाते हैं; (इसलिए, हे मन! तू भी) अन्य स्वाद छोड़ दे (और एक नाम जप)। दास नल्य कवि अर्ज करता है कि नाम गुरु के द्वारा मिलता है, (इसलिए) हे मन! ‘गुरु’ ‘गुरु’ जप।4।16।29।

भाट नल्य के तीन किस्मों के सवईऐ------16
पिछले भाट कल्य के सवईऐ-----------------13
कुल जोड़---------------------------------------29

सिरी गुरू साहिबु सभ ऊपरि ॥ करी क्रिपा सतजुगि जिनि ध्रू परि ॥ स्री प्रहलाद भगत उधरीअं ॥ हस्त कमल माथे पर धरीअं ॥

पद्अर्थ: सतजुगि = सतियुग में। जिनि = जिस (गुरु) ने। परि = पर। उधरीअं = बचाया। हसत कमल = कमल फूल जैसे हाथ।

अर्थ: जिस (गुरु) ने सतियुग में ध्रुव पर कृपा की, प्रहलाद भक्त को बचाया, और उसके माथे पर अपने कमल जैसे हाथ रखे, उस गुरु ने सारे जीवों पर मेहर की है।

अलख रूप जीअ लख्या न जाई ॥ साधिक सिध सगल सरणाई ॥ गुर के बचन सति जीअ धारहु ॥ माणस जनमु देह निस्तारहु ॥

पद्अर्थ: जीअ = जीवों से। लख्या न जाई = पहचाना नहीं जा सकता। सगल = सारे। सति = सत करके, दृढ़ कर के। जीअ = चिक्त में। देह = शरीर। निस्तारहु = सफल कर दो। अलख = अ+लख, वह परमात्मा जिसका स्वरूप बयान से परे हैं।

अर्थ: सारे सिद्ध और साधना करने वाले सतिगुरु की शरण आए हैं, किसी भी पक्ष से अलख प्रभु के रूप को और गुरु के स्वरूप को परखा नहीं जा सकता। (हे मन!) गुरु का वचन दृढ़ करके चिक्त में बसाओ, (और इस तरह) अपने मानव-जन्म और शरीर को सफल कर लो।

गुरु जहाजु खेवटु गुरू गुर बिनु तरिआ न कोइ ॥ गुर प्रसादि प्रभु पाईऐ गुर बिनु मुकति न होइ ॥

पद्अर्थ: खेवटु = मल्लाह। गुर प्रसादि = गुरु की कृपा से। मुकति = माया के बंधनो से मुक्ति।

अर्थ: (इस संसार सागर को तैरने के लिए) गुरु जहाज है, गुरु ही मल्लाह है, कोई प्राणी गुरु (की सहायता) के बिना नहीं तैर सका। गुरु की कृपा से ही प्रभु मिलता है, गुरु के बिना मुक्ति प्राप्त नहीं होती।

गुरु नानकु निकटि बसै बनवारी ॥ तिनि लहणा थापि जोति जगि धारी ॥ लहणै पंथु धरम का कीआ ॥ अमरदास भले कउ दीआ ॥ तिनि स्री रामदासु सोढी थिरु थप्यउ ॥ हरि का नामु अखै निधि अप्यउ ॥

पद्अर्थ: निकटि = नजदीक। बनवारी = जगत का मालिक। तिनि = उस (गुरु नानक) ने। थापि = निवाजि के। जगि = जगत में। थिरु थप्यउ = अटल कर दिया। अखै निधि = ना नाश होने वाला खजाना। अप्यउ = अर्पित किया, दिया।

अर्थ: गुरु नानक अकाल-पुरख के नजदीक बसता है। उस (गुरु नानक) ने लहणे को निवाज के जगत में (ईश्वरीय) ज्योति प्रकाश की। लहणे ने धर्म का राह चलाया, और भल्ले (गुरु) अमरदास जी को (नाम की दाति) दी। उस (गुरु अमरदास जी) ने सोढी गुरु रामदास जी को हरि का नाम-रूप ना खत्म होने वाला खजाना बख्शा और (उनको सदा के लिए) अटल कर दिया।

अप्यउ हरि नामु अखै निधि चहु जुगि गुर सेवा करि फलु लहीअं ॥ बंदहि जो चरण सरणि सुखु पावहि परमानंद गुरमुखि कहीअं ॥

पद्अर्थ: चहु जुगि = चहुजुगी (नाम), सदा स्थिर रहने वाला (नाम)। लहीअं = प्राप्त किया है। बंदहि = नमस्कार करते हैं। परमानंद = परम आनंद वाले।

अर्थ: जो (मनुष्य गुरु के) चरणों में गिरते हैं और शरण आते हैं, वे सुख पाते हैं, वे परम-आनंद पाते हैं, और उन्हें गुरमुख कहते हैं। सतिगुरु की सेवा करके उनको (नाम-रूप) फल प्राप्त होता है। सतिगुरु (उनको) कभी ना खत्म होने वाला और सदा-स्थिर रहने वाला नाम-रूप खजाना बख्शता है।

परतखि देह पारब्रहमु सुआमी आदि रूपि पोखण भरणं ॥ सतिगुरु गुरु सेवि अलख गति जा की स्री रामदासु तारण तरणं ॥१॥

पद्अर्थ: देह = शरीर रूप। आदि = सबका मूल। रूपि = रूप वाला, अस्तित्व वाला। पोखण भरणं = पालने वाला। तारण तरणं = (संसार सागर से) तैराने के लिए जहाज। तरण = जहाज। गति = आत्मिक अवस्था। अलख = अकथनीय।

अर्थ: (जो) परमात्मा (सब जीवों का) मालिक है, सबका मूल है, अस्तित्व वाला है, सबको पालने वाला है (वह अब) प्रत्यक्ष तौर पर (गुरु रामदास जी के) शरीर (में प्रकट) है। (हे भाई!) जिस गुरु (रामदास) की आत्मिक अवस्था बयान से बाहर है, जो संसार-सागर से तैराने के लिए जहाज है, उसकी सेवा करो।

जिह अम्रित बचन बाणी साधू जन जपहि करि बिचिति चाओ ॥ आनंदु नित मंगलु गुर दरसनु सफलु संसारि ॥

पद्अर्थ: जिह = जिस (गुरु) के। बिचिति = चिक्त में विशेष कर के। करि चाओ = उत्साह से। संसारि = संसार में। सफलु = फलदायक। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला।

अर्थ: जिस (गुरु) के अमृत वचनों और वाणी को संत-जन हृदय में बड़े उत्साह के साथ जपते हैं और सदा आनंद-मंगल (करते हैं), उस गुरु का दर्शन संसार में (उत्तम) फल देने वाला है।

संसारि सफलु गंगा गुर दरसनु परसन परम पवित्र गते ॥ जीतहि जम लोकु पतित जे प्राणी हरि जन सिव गुर ग्यानि रते ॥

पद्अर्थ: जे = जो। सिव = कल्याण स्वरूप। ग्यानि = ज्ञान में। रते = रंगे जा के। हरि जन = ईश्वर के सेवक।

अर्थ: संसार में सतिगुरु के दर्शन गंगा की तरह सफल हैं। गुरु के (चरण) परसने से परम पवित्र पदवी प्राप्त होती है। जो मनुष्य (पहले) पतित भी (भाव, गिरे हुए आचरण वाले) होते हैं, वे कल्याण-स्वरूप सतिगुरु के ज्ञान में रंगे जा के ईश्वर के सेवक बन के जम-लोक को जीत लेते हैं, (भाव, उनको जमों का डर नहीं रहता)।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh