श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1403 अकथ कथा कथी न जाइ तीनि लोक रहिआ समाइ सुतह सिध रूपु धरिओ साहन कै साहि जीउ ॥ सति साचु स्री निवासु आदि पुरखु सदा तुही वाहिगुरू वाहिगुरू वाहिगुरू वाहि जीउ ॥३॥८॥ पद्अर्थ: तीन लोक = तीन लोगों में। रहिआ समाइ = व्यापक है। सुतह सिध = अपनी इच्छा से, स्वाभाविक रूप से। रुपू धारिओ = प्रकट हुआ हैं। अर्थ: (हे गुरु!) आपकी महिमा बयान से परे है जो कही नहीं जा सकती, आप तीन लोगों के बीच व्यापक हैं। हे शाह के राजा! आपने अपनी इच्छा के साथ (मानव रूप) लिया है। हे गुरु! आप चमत्कारिक, सत्-रूप और अन्नत हैं; आप लक्ष्मी का आसरा हैं; आप प्रारंभ से हैं और सदा के लिये। वाह-गुरु वाह-गुरु जी! सतिगुरू सतिगुरू सतिगुरु गुबिंद जीउ ॥ बलिहि छलन सबल मलन भग्ति फलन कान्ह कुअर निहकलंक बजी डंक चड़्हू दल रविंद जीउ ॥ राम रवण दुरत दवण सकल भवण कुसल करण सरब भूत आपि ही देवाधि देव सहस मुख फनिंद जीउ ॥ पद्अर्थ: सबल मलन = बल वालों को (भाव, अहंकारियों को) दलने वाला। कान्ह कुअर = कान्ह कुमार। चढ़ दल रविंद जीउ = रवि और इन्द्र (सूय्र और चँद्रमा) का दल तेरे साथ (तेरी शोभा बढ़ाने के लिए) चढ़ता है। रवणु = स्मरण करने वाला। दुरत दवण = पापों का नाश करने वाला। सकल भवण = व्यापक सब जगह। कुसल = आनंद, सुख। भूत = जीव। देवाधि देव = देवों का अधिदेव, देवताओं का देवता। फनिंद = शेशनाग, फनियर। सहस मुख = हजारों फनों वाला। अर्थ: सतिगुरु गोबिंद-रूप है। (मेरे वास्ते तो) सतिगुरु ही है (वह) जिसने राजा बली को छला था, आप अहंकारियों का घमण्ड तोड़ने वाले हैं, भक्ति का फल देने वाले हैं। (मेरे लिए तो) गुरु ही कान्ह-कुमार है। (आप में) कोई कलंक नहीं है, आप का डंका बज रहा है, सूरज और चँद्रमा का दल आप ही की शोभा बढ़ाने के लिए चढ़ता है। आप अकाल-पुरख का स्मरण करते हैं, पापों को दूर करने वाले हैं, सब जगह सुख पैदा करने वाले हैं, सारे जीवों में आप ही हैं, आप ही देवताओं के देवता हैं। और (मेरे लिए तो) हजारों मुँहों वाले शेशनाग भी आप ही हैं। जरम करम मछ कछ हुअ बराह जमुना कै कूलि खेलु खेलिओ जिनि गिंद जीउ ॥ नामु सारु हीए धारु तजु बिकारु मन गयंद सतिगुरू सतिगुरू सतिगुर गुबिंद जीउ ॥४॥९॥ पद्अर्थ: हुअ = हो के। करम = कर्म। जरम हुअ = जनम ले के। कूलि = किनारे पर। खेलु गिंद = गेंद की खेल। जिनि = जिस ने। सारु = श्रेष्ठ। हीए = हृदय में। धार = टिका के रख। मन गयंद = हे गयंद के मन! गयंद = भाट का नाम है। अर्थ: (मेरे लिए तो गोबिंद-रूप सतिगुरु ही है वह) जिसने मछ-कछ और वराह के जनम ले के काम किए, जिसने यमुना के किनारे गेंद की खेल खेली थी। हे गयंद के मन! (इस सतिगुरु का) श्रेष्ठ नाम हृदय में धारण कर और विकार छोड़ दे; यह गुरु वही गोबिंद है।4।9। सिरी गुरू सिरी गुरू सिरी गुरू सति जीउ ॥ गुर कहिआ मानु निज निधानु सचु जानु मंत्रु इहै निसि बासुर होइ कल्यानु लहहि परम गति जीउ ॥ कामु क्रोधु लोभु मोहु जण जण सिउ छाडु धोहु हउमै का फंधु काटु साधसंगि रति जीउ ॥ पद्अर्थ: सति = सदा अटल। निज = अपना (भाव, साथ निभने वाला)। निधानु = खजाना। सचु जाणु = निष्चय जान, सही समझ। निसि = रात। बासुर = दिन। कल्यानु = कल्याण, सुख। लहहि = प्राप्त करेगा। परम गति = सबसे उच्च आत्मिक अवस्था। धोहु = ठगी। जण जण सिउ = जन जन से, हर जने खने से। फंधु = फंदा। रति = प्यार। अर्थ: सतिगुरु ही सदा-स्थिर है। (हे मन!) सतिगुरु का वचन मान, यही साथ निभने वाला खजाना है; निष्चय करके मान कि यही मंत्र है (जिससे तुझे) दिन-रात सुख हुआ और तू ऊँची पदवी पा लेगा। काम, क्रोध, लोभ, मोह और हर जने-खणे से ठगी करनी छोड़ दे; अहंकार का फंदा (भी) दूर कर के साधु-संगत में प्यार डाल। देह गेहु त्रिअ सनेहु चित बिलासु जगत एहु चरन कमल सदा सेउ द्रिड़ता करु मति जीउ ॥ नामु सारु हीए धारु तजु बिकारु मन गयंद सिरी गुरू सिरी गुरू सिरी गुरू सति जीउ ॥५॥१०॥ पद्अर्थ: देह = शरीर। गेहु = घर। त्रिअ सनेहु = स्त्री का प्यार। चित बिलासु = मन की खेल। सेउ = स्मरण कर। द्रिढ़ता = सिदक, दृढ़ता, पक्कापन। अर्थ: ये शरीर, घर, स्त्री का प्यार, ये (सारा) संसार मन की (ही) खेल है। (सतिगुरु के) चरण-कमलों का स्मरण कर, (अपनी) मति में यही भाव दृढ़ कर। हे गयंद के मन! (सतिगुरु का) श्रेष्ठ नाम हृदय में धारण कर और विकार छोड़ दे; सतिगुरु (ही) सदा-स्थिर है।5। सेवक कै भरपूर जुगु जुगु वाहगुरू तेरा सभु सदका ॥ निरंकारु प्रभु सदा सलामति कहि न सकै कोऊ तू कद का ॥ ब्रहमा बिसनु सिरे तै अगनत तिन कउ मोहु भया मन मद का ॥ पद्अर्थ: सेवक कै = सेवकों के (हृदय = रूप घर में)। भरपूर = नाको नाक, व्यापक। जुगु जुगु = सदा। वाह = धंन है तू। गुरू = हे गुरु! सदका = इनायत। सलामति = स्थिर, अटल। सिरे = पैदा किए। तै = तू ही। अगनत = (अ+गनत) बेअंत। मोहु मन मद का = मन के अहंकार का मोह। अर्थ: हे गुरु! तू धन्य है! तू अपने सेवकों के हृदय में सदा हाजर-नाजर है, तेरी ही सारी इनायत है; तू निरंकार (-रूप) है, प्रभु (-रूप) है, सदा स्थिर है। कोई नहीं कह सकता, तू कब का है। (हे गुरु!) तूने ही अगनित ब्रहमा और विष्णु पैदा किए हैं, और उनको अपने मन के अहंकार का मोह हो गया। चवरासीह लख जोनि उपाई रिजकु दीआ सभ हू कउ तद का ॥ सेवक कै भरपूर जुगु जुगु वाहगुरू तेरा सभु सदका ॥१॥११॥ पद्अर्थ: तद का = तब का, जब पैदा की। अर्थ: (हे गुरु! तू ही) चौरासी लाख जून पैदा की है, और सभी को तब से ही रिजक दे रहा है। हे गुरु! तू धन्य है! तू अपने सेवकों के हृदय में सदा हाजिर-नाजर है, तेरी ही सारी इनायत है।1।11। वाहु वाहु का बडा तमासा ॥ आपे हसै आपि ही चितवै आपे चंदु सूरु परगासा ॥ आपे जलु आपे थलु थम्हनु आपे कीआ घटि घटि बासा ॥ पद्अर्थ: वाहु वाहु = धन्यता योग्य गुरु, इनायत वाला गुरु। तमासा = संसार रूप खेल। चितवै = विचारता है। थंम्नु = स्तंभ, आसरा। बासा = वासा, ठिकाना। घटि घटि = हरेक हृदय में। अर्थ: इनायत वाले गुरु (रामदास) का (संसार-रूप यह) बड़ा खेल हो रहा है, (सरब-व्यापक प्रभु का रूप गुरु) आप ही हस रहा है, आप ही विचार रहा है, आप ही चाँद और सूरज को रौशनी दे रहा है। (वह गुरु) आप ही जल है, आप ही धरती है, आप ही आसरा है और उसने आप ही हरेक शरीर में निवास किया हुआ है। आपे नरु आपे फुनि नारी आपे सारि आप ही पासा ॥ गुरमुखि संगति सभै बिचारहु वाहु वाहु का बडा तमासा ॥२॥१२॥ पद्अर्थ: नर = मनुष्य। फुनि = और। सारि = नर्द। पासा = चौपड़। गुरमुखि = हे गुरमुखो! संगति = संगति में। सभै = सारे। अर्थ: (सर्व-व्यापक प्रभु का रूप गुरु रामदास) आप ही नर और आप ही नारी है; स्वयं ही नर्द है और स्वयं ही चौपड़ है। हे गुरमुखो! संगति में मिल के सारे विचार करो, इनायत वाले गुरु (रामदास जी) का (संसार-रूप) यह खेल हो रहा है।2।12। कीआ खेलु बड मेलु तमासा वाहिगुरू तेरी सभ रचना ॥ तू जलि थलि गगनि पयालि पूरि रह्या अम्रित ते मीठे जा के बचना ॥ पद्अर्थ: खेलु = खेल। मेलु = मेला, तत्वों का मिलाप। तमासा = करिश्मा। वाहि = धन्य। गुरू = हे गुरु! रचना = सृष्टि। जलि = जल में। थलि = थल में। गगनि = आकाश पर। पयालि = पाताल में। पूरि रह्या = व्यापक है। जा के = जिस के। अर्थ: हे गुरु! तू धन्य है, ये सृष्टि सभ तेरी (की हुई) है; तूने (तत्वों का) मेल (करके) एक खेल और तमाशा रचा दिया है। तू जल में, पृथ्वी पर, आकाश पर, पाताल में (सब जगह) व्यापक है; तेरे वचन अमृत से भी मीठे हैं। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |